सोलंकी (चालुक्य) वंश

चालुक्य (सोलंकी) राजवंश की उत्पत्ति 

चालुक्य (सोलंकी) राजवंश की उत्पत्ति 

 

कश्मीरी पंडित बिल्हण ने अपने रचे हुए विक्रमादित्य चरित (11वीं शती) में लिखा है कि “एक समय जब कि ब्रह्मा संध्यावंदन कर रहे थे, इन्द्र ने आकर पृथ्वीपर धर्मद्रोह बढ़ने और देवताओं को यज्ञविभाग न मिलने की शिकायत कर उसके निवारण के लिए एक वीरपुरुष उत्पन्न करने की प्रार्थना की, जिस पर ब्रह्मा ने संध्याजल से भरे हुए अपने चुलुक (अंजली वा चुल्लू) की ओर ध्यानमय दृष्टि दी, जिससे उस चुलुक से त्रैलोक्य की रक्षा करने की सामर्थ्यवाला एक वीर पुरुष उत्पन्न हुआ, जिसके वंश में क्रमशः हारीत और मानव्य हुए । इन क्षत्रियों ने पहिले अयोध्या में राज्य किया, जहां से विजय करते हुए वे दक्षिण में गए। (विल्हण कृत विक्रमांकदेव चरित सर्ग प्रथम श्लोक 46.47 व 55) 

 

बैगी (आध्र) के चालुक्य शासक राजा नरेन्द्र (1120 वि) के दरबारी कवि नन्नमभट्ट ने आंध्र महाभारत की रचना की। इस महाभारत के प्रारम्भ में उत्पत्ति के प्रसंग में लिखा है, 'हिमकरुतोट्टिकपुरु भरतेशकुरू प्रभुपादभूपतुल, क्रममुनें- यशकर्तनगा महिनोप्पिनयस्मदीयवंशसु।" (आन्ध्र का सामाजिक इतिहास- सुखरम् पूनम-अनुवाद आर. वेंकटराव पृ. 26). इस उल्लेख से प्रकट होता है कि पुरु, भरत,  कुरु आदि चालुक्यों के पूर्वज थे।

 

हैहय (कलचुरी) वंशी युवराजदेव (वि. 1032-1057) के बिहारी (जबलपुर) के लेख में चालुक्य वंश को द्रोण की चुलू से उत्पन्न होना लिखा है (राष्ट्रकूटों का इतिहास विश्वेश्वरनाथ रेउ पृ. 26) इस लेख में द्रोण की चुल से उत्पन्न होने का अर्थ यही है कि चालुक्य, द्रोण के शिष्य अर्जुन के वंशज है।

 

दक्षिण के राजराज के वि. सं. 1110 के पूर दानपत्र में लिखा है कि  “भगवान् पुरुषोत्तम के नाभिकमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए, उनसे क्रमश: अत्रि, सोम, बुध, पुरूरवा, आयु, नहुष, ययाति, पुरू, जनमेजय, प्राचीश, सैन्ययाति, हयपति, सार्वभौम, जयसेन, महाभौम, देशानक, क्रोधानन, देवकि, ऋभुक, ऋज्ञक, मतिवर, कात्यायन, नील, दुष्यन्त, भरत, भूमन्यु, सुहोत्र, हंस्ति, विरोचन, अजमील, संवरण, सुधन्वा, परिक्षित्, भीमसेन, प्रदीपन, शांतनु, विचित्रवीर्य, पाण्डु, अर्जुन, अभिमन्यु, परिज्ञित्, जनमेजय, क्षेभुक, नरवाहन, शतानीक, और उदयन हुए। राजा उदयन के बाद उसके वंश के 59 राजाओं ने अयोध्या में राज्य किया। अन्तिम राजा विजयादित्य ने दक्षिण में राज्य कायम किया। (राष्ट्रकूटों का इतिहास - रेउ पृ. 9).  राजा उदयन पाण्डव अर्जुन के पौत्र परीक्षत की वंश परम्परा का था, जो अयोध्या के पास वत्स पर शासन करता था। कल्याणी (दक्षिण) के चालुक्य नरेश विक्रमदेव के वि सं. 1133 व 1183 के शिलालेखों में लिखा है कि चालुक्य वंश की उत्पत्ति चन्द्रवंश से हुई। (भारत का इतिहास (राजपूत काल) डॉ. सत्यप्रकाश पृ. 255)

 

नरेश कुलोतुंग चूड़देव द्वितीय के वि. सं. 1200 के ताम्रपत्र में इनको (चालुक्यों को) चन्द्रवंशी, मान्वय गौत्री व हरित का वंशज लिखा है। (भारत का इतिहास (राजपूत काल) डॉ. सत्यप्रकाश पृ. 256) वीरनारायण मंदिर (कर्नाटक) के शिलालेख से भी सिद्ध होता है कि चालुक्य चन्द्रवंशी थे। चालुक्य विक्रमादित्य चतुर्थ के विक्रमी 11 वीं शताब्दी पूर्वाद्ध के अभिलेख से मालूम होता है कि चालुक्य चन्द्रवंशी थे। ("ओं स्वस्ति समस्त जगत्प्रसतेभंगवतो ब्राह्मण पुत्रस्यात्रेने त्रसमुत्पत्रस्य यामिनि कामिनो ललामभूवस्य -श्रीमानस्ति चालुक्यवंशः")। हेमचन्द्र लिखित द्वयाश्रयकाव्य में लिखा है कि “सोलंकी राजा भीमदेव व चेदि नरेश कर्णदेव के दूतों में मिलन हुआ। राजा भीमदेव के दूत ने पूछा कि हमारे सम्राट की यह जानने कि इच्छा है कि चेदि नरेश कर्ण हमारे मित्र हैं या शत्रु ? कर्णदेव के दूत ने उत्तर दिया, राजा भीमदेव अविजय सोमवंश के हैं।" (द्ववाश्रय काव्य सर्ग 9 श्लोक 40-49)  इन सब साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि चालुक्य चन्द्रवंशी थे।

 

भविष्य पुराण, पृथ्वीराज रासो आदि में चालुक्यों को चौहान, परमार व प्रतिहारों के साथ अग्निवंशी भी माना गया हैं। सीधा सा अर्थ हैं ये चारों क्षत्रिय सूर्यवंशी व चन्द्रवंशी ही थे। आबू यज्ञ में शामिल होने के कारण उन चार क्षत्रियों के वंशज चौहान, परमार, प्रतिहार व चालुक्य अग्निवंशी मी कहलाये ।

 

चालुक्यों को सोलंकी भी कहते हैं। चालुक्यों के लेखो और दानपात्रों में चालुक्य, चालुकिक व चालिक नाम मिलते हैं। उत्तर के चालुक्यों ने 'च' के स्थान पर ‘स’ का प्रयोग किया तब चालुक्य का सोलुक्य- सालक्क- सोलकी हो गया। आजकल सोलंकी अधिक प्रचलित है। 

 

घनश्यामसिंह राजवी चंगोई 
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प्राचीन इतिहास 

प्राचीन इतिहास 

 

चालुक्यों के शिलालेखों, दानपत्रों व साहित्य के आधार पर यह जाना जा सकता है कि चालुक्य पाण्डव अर्जुन के वंशज थे। पाण्डव अर्जुन के बाद उदयन तक वंशक्रम पुराणों में (पाण्डु-अर्जुन- अभिमन्यु- परीक्षित- जनमेजय- शतानीक- सहस्रनोक- अश्वमेघदत--अधिसीम- कृष्ण- निपक्ष- मूरि -चित्ररथ- शुचिद्रथ-परिपल्व-सुनय मेकाणी मृपञजय -दुर्ग-विङमात्म वृहद्रथ-  वसुमान- शतानीक-वत्सराज उदयन) परीक्षत के पुत्र जनमेजय के पांचवे वंशज निचक्षु के काल में हस्तिनापुर गंगा की बाढ़ में बह गया। अतः इस राजा ने कौशम्बी को अपनी राजधानी बनाया। कौशाम्बी वत्स जनपद में थी। कौशल जनपद भी वत्स का पडौसी था, जिसकी राजधानी अयोध्या थी। 

 

पाण्डव अर्जुन के वंशज इस निचक्षु का वंशज ही उदयन था, जिसका राज्य वत्स जनपद था। इसी उदयन के वंशजो ने सूर्यवंशी सुमित्र से अयोध्या का राज्य छुटने के बाद सम्भवतः अयोध्या पर नंदों और मोर्यो के काल में सामंत के रूप में शासन किया होगा। जैसा येवूर दानपत्र शक 975 विक्रमी 1110 में लिखा है कि उदयन के बाद इस वंश के 56 राजाओं ने अयोध्या में राज्य किया (राष्ट्रकूटों का इतिहास- रेऊ पृ. 9) I आगे चलकर उदयन के वंश में चालुक्य हुआ। मालूम होता है कि अशोक के पुत्रों के समय जब कन्नौज के ब्राह्मणों ने आबू पर्वत (राजस्थान) पर ब्रह्म होम किया तब वह भी वत्स या कौशल जनपद से चलकर आबू पहुंचा होगा और आबू के ब्रह्म होम में भाग लिया होगा। ब्रह्म होम की इस घटना के बाद चार अग्निवंशी क्षत्रियों में एक चालुक्य भी माने जाने लगे।

 

वि. सं. 1107 शक 972 के एक ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि चालुक्यों के मुल पुरूष चालुक्य का विवाह कन्नौज के राष्ट्रकूट नरेश की कन्या से हुआ। (सोलंकी राजा चिलोचनपाल के समय का ताम्रपत्र (इण्डियन एण्टिकेरी भाग 2 पृ. 204 राष्ट्रकूटो का इतिहास पृ 8) मालूम होता है। सुमित्र से अयोध्या का राज्य छीना जाने के बाद उसके वंशजों की एक शाखा कनौज की ओर से आ गई थी। कनौज का नजदीकी ही वत्स जनपद था। अतः वहां के निवासी चालुक्य के बाद मानव्य, हारित आदि हुए। इन्हीं के वंशज जयसिंह ने महाराष्ट्र में अपना राज्य कायम किया। 

 

श्रीकूर्मम् के पूर्वी सोलंकी

 

पूर्वी सोलंकी राजा विमलादित्य के पुत्र राजराज (प्रथम) के वंशजों के ४ शिलालेख श्रीकूर्मम्" के कूर्मेश्वर नामक विष्णुमंदिर में लगे हुए हैं, जिनसे उनका वृत्तान्त नीचे लिखे अनुसार मिलता है:--

 

पहिले चन्द्र (सोलंकी) वंश में विमलादित्य नामक राजा हुआ, जिसके पुत्र राजराज (प्रथम) ने विद्वानों की सहायता से महाभारत का आंध्र (तेलुगु) भाषा में अनुवाद " कराया । वह राजमहेन्द्रपट्टन (राजमहेन्द्री) में रहता था, जहां पर अनेक राजा उसकी सेवा में उपस्थित रहते थे । उस (राजराज) के वंश में विजयादित्य (विजयार्क) हुआ, " जिसका पुत्र राजराज वीरनरसिंह" का मंत्री था। उसके दो पुत्र विजयादित्य और पुरुषोत्तम थे । कूर्मेश्वर के मंदिर के दीपक खर्च के निमित्त विजयादित्य ने श. सं. १९९५ (वि. सं. |१३३० = = ई. सं. १२७३) में २५ गौ और पुरुषोत्तम ने श. सं. ११९९ (वि. सं. १३३४ • ई. सं. १२७७) में ५० गौ भेट की, तथा ८ निष्क (सोने का सिक्का) की कंठी उक्त मंदिर के अर्पण की पुरुषोत्तम के पुत्र विश्वनाथ ने वीरभानुदेव के" राज्य समय शृंगार तथा भोग (नैवेद्य) के निमित्त ५० निष्क भेट किये। 1

 

उपर्युक्त वृत्तान्त से अनुमान होता है, कि ये सोलंकी कलिंग के गंगावंशी राजाओं के सामंत हो, और इनके आधीन श्रीकुर्मम् के आसपास का प्रदेश होना चाहिये।

 

विशाखपट्टन जिले के पूर्वी सोलंकी 

 

पूर्वी सोलंकी राजा कुलोत्तुंगचोड (प्रथम) के पुत्र विमलादित्य को विशाखपट्टन जिले में जागीर मिली हो ऐसा पाया जाता है, और अबतक उसके वंशज उक्त जिले में गुणपुर नामक स्थान के स्वामी हैं।

 

विन्नकोटपेद्दन नामक कवि ने 'काव्यालंकारचूडामणि*५ नामक तामिल भाषा का पुस्तक विशाखपट्टन जिले में राज्य करनेवाले सोलंकी विश्वेश्वर के समय रचा, जिसमें वह विश्वेश्वर के पूर्व पुरुषों की वंशावली इस प्रकार देता है:

 

सोलंकी विमलादित्य का पुत्र राजराज (राजनरेन्द्र), उसका कुलोत्तुंगचोड (प्रथम) और उसका पुत्र विमलादित्य हुआ, जिसके पीछे क्रमश: मल्लप, उपेन्द्र, कोप्प, मनमोपेन्द्र और विश्वेश्वर हुए। उक्त कवि ने अपना पुस्तक विश्वेश्वर को अर्पण किया था । पंचधारा" के धर्मलिंगेश्वर स्वामी के मंदिर में लगे हुए उक्त विश्वेश्वर के समय के शिलालेख में भी वंशावली ठीक उसी प्रकार मिलती है, जैसी कि उक्त पुस्तक में दी हुई है। पंचधारा तथा सिंहाचल" के शिलालेखों में विश्वेश्वर के पुत्र उपेन्द्र (दूसरे) और पौत्र नरसिंह के नाम मिलते हैं। नरसिंह के समय के शिलालेख श. सं. १३४४, १३५० और १३५९ (वि. सं. १४७९, १४८५ और १४९४ = ई. सं. १४२२, १४२८ और १४३७) के मिले हैं।

 

नरसिंह के वंश" में मुकुन्दराज या मुकुन्दबाहुबलेन्द्र हुआ, जिसके पूर्व इन सोलंकियों ने गोलकोंडा के कुतुबशाही खानदान के बादशाहों की अधीनता स्वीकार करली थी, परन्तु मुकुन्दबाहुबलेन्द्र ने फिर स्वतंत्र होने का उद्योग किया, जिस पर गोलकौंड के बादशाह मुहम्मद कुली कुतुबशाह ने उस पर फौजकशी की और कई लड़ाइयां होने बाद उसका कासिम कोट" का राज्य अलग अलग जागीरों में बंट गया । " इन लड़ाइयों का सविस्तर वृत्तान्त तारीख फरिश्ता में मिलता है। राजमहेन्द्री के पास वह (मुकुंदबाहुबलेन्द्र) मुहम्मद कुली कुतुबशाह के सेनापति अमीर जुमला अमीनुल्मुल्क से लड़ा उस वक्त उसकी सेना में ३०००० पैदल और ३००० सवार होना फरिश्ता लिखता है। सिंहाचल में मुकुंदबाहुबलेन्द्र के समय का एक शिलालेख श. सं. १५२६ (वि. सं. १६६१ = ई. सं. १६०४) का है। 1

 

मुकुंदबाहुबलेन्द्र की चौथी पीढ़ी में मेदिनीराय हुआ, जिस के पीछे क्रमश: गजपतिराज, धर्मराज, जगन्नाथराज, मुकुंदराज, प्रतापराजाधिराज, अनंतराज और गुरव राज हुए। गुरवराज के तीन पुत्र पहनाभ, कूर्मनाथ और अच्युत हुए। पहनाभ के पुत्र न होने के कारण उसका उत्तराधिकारी उसका छोटा भाई कूर्मनाथ हुआ, जिसका पुत्र गणपतिराज और उस का व्यंकटकृष्णराजदेव हुआ। उसके एक पुत्र संन्यासराज और दो पुत्रियां कृष्णदेवी और अम्मिदेवी थी, जिनमें से कृष्ण देवी का विवाह जयपुर के सूर्यवंशी राजा रामचंद्रदेव'" से, हुआ था। संन्यासराज के पीछे उसका पुत्र कृष्णराज और उसके बाद उसका बेटा व्यंकटपतिराज गुणपुर का राजा हुआ। व्यंकटपतिराज के पुत्र व्यंकटकृष्णराज गुणपुर के विद्यमान राजा है ।

 

गुणपुर " का ठिकाना जयपुर राज्य (जमींदारी) के अंतर्गत है। वहां के राजाओं का खिताब 'सर्वलोकाश्रय विष्णुवर्द्धन महाराज' अबतक चला आता है और उनका गोत्र मानव्य है। 

 

दक्षिण के सोलंकियों का फुटकर वृत्तान्त 

 

ताम्रपत्र और शिलालेखों में अधिकतर मुख्य वंश के राजाओं का ही वृत्तान्त मिलता है, और उनके छोटे भाइयों के नाम तक बहुधा छोड़ दिये जाते हैं। छोटे भाइयों को जो जागीरें मिलती रही, उनमें से वे कभी कभी भूमिदान करते थे, जिससे उनके भी ताम्रपत्र और कहीं कहीं शिलालेख मिल आते हैं, केवल उन्हों से उनका पता चलता है। ऐसे ताम्रपत्रादि से जिन जिन का सम्बन्ध मुख्य वंश के साथ मालूम हो सका, उनका वृत्तान्त तो ऊपर लिखा जा चुका है, परन्तु कितने ही ताम्रपत्रादि ऐसे भी मिले हैं, जिनमें लिखे हुए नामों का ठीक सम्बन्ध उपर्युक्त सोलंकी राजाओं के साथ बतलाया नहीं जा सकता। ऐसे असंबद्ध नाम भी कभी कभी प्राचीन इतिहास के प्रेमियों के लिए बड़े उपयोगी हो जाते हैं, अतएव उनका उल्लेख नीचे किया जाता है

 

कोटूर " गांव के परमानन्द नामक मंदिर के पास से एक अद्भुत घटना की यादगार का शिलालेख है, जिसका आशय यह है कि 'सोलंकी राजा परहितराज के समय शैवमत का शंभु नामक साधु अग्नि को प्रज्वलित कर उसमें बैठ गया और तनिक भी पीडा प्रकट किये बिना शिव का ध्यान करता हुआ प्रसन्नचित्त से जल गया। उक्त लेख में संवत् नहीं है, परन्तु उसकी लिपि " ई. सं. की नवीं शताब्दी के आसपास की होने से अनुमान होता है कि परहिंतराज बादामी के पश्चिमी सोलंकियों के सम्बन्ध रखता हो।

 

बेंगलोर (माइसोर राज्य में) के म्युजियम में रक्खे हुए राठोड़ राजा प्रभृतवर्ष (गोविंदराज तीसरे) के श. स. ७३५ (वि. सं. ८७० = ई. सं. ७१३) के ताम्रपत्र म उक्ते राजा के सामन्त गंगावंशी चाकिराज के भानजे विमलादित्य का वर्णन है, जिसको सोलंकी राजा यशोवर्मा का पुत्र और बलवर्मा का पौत्र, तथा कुनिंगल प्रदेश का शासक लिखा गया है।" अतएव इन सोलंकियों के अधिकार में माइसोर राज्य का कुछ अंश होना चाहिये, और संभव है, कि इनका सम्बन्ध बादामी के पश्चिमी सोलंकियों से भी रहा हो।

 

माइसोर राज्य के माइसोर तअल्लुके से मिले हुए कितने ही लेखों में सोलंकी • महासामन्त नरसिंह और गुग्ग (गोरिंग) के नाम मिलते हैं। मि. राइस का अनुमान नरसिंह का लेख ई. सं. ९६० (वि. सं. १०१७) और गोग्गि का ई. सं. ९९० (वि.

१०४७) के आस पास का हो। ५९

 

तेरवण" गांव से सोलंकी महामंडलेश्वर कामदेव का एक ताम्रपत्र श. सं. ११८२ (वि. सं. १३१७ = ई. सं. १२६०) का मिला है, जिसमें उसका खिताब 'कल्याणपुरवराधीश्वर' मिलता है, जिससे पाया जाता है, कि वह कल्याण के पश्चिमी सोलंकियों का वंशज रहा होगा।

 

कनडी भाषा के प्रसिद्ध कवि पंप के रचे हुए 'विक्रमार्जुनविजय' (पंपभारत) नामक काव्य में जोलदेश के सोलंकियों का वृत्तान्त नीचे अनुसार मिलता है: 

सोलंकी युद्धमल्ल सपादलक्ष`` देश का राजा था। उस के पुत्र अरिकेमरी ने निरुपपमदेव के राज्य पर आक्रमण किया। उसका पुत्र नरसिंह, उसका दुग्धमल्ल और .६३ दुग्धमल्ल का बद्दिग हुआ, जिसने 'सोलदगंड' (अजेयवीर) बिरुद प्राप्त किया और मानो मगर को पकड़ता हो इस तरह पानी में उतर कर उसने अभिमान के साथ भीम को पकड़ा। को राज्य पर स्थापित किया और गुर्जरराज (गुजरात के राजा) महीपाल को हराकर उसका पुत्र युद्धमल्ल (दूसरा) और उससे नरसिंह (दूसरा) उत्पन्न हुआ उसने एप्प उसकी राज्यश्री छीन ली तथा उसका पीछा कर अपने घोड़ों को गंगा के संगम में नहलाया। 

 

घनश्यामसिंह राजवी चंगोई 
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सोलंकी वंश का गोत्र-प्रवरादि

सोलंकी वंश का गोत्र-प्रवरादि

 

वंश – अग्निवंश

गोत्र – वशिष्ठ, भारदाज

प्रवर तीन – भारदाज, बार्हस्पत्य, अंगिरस

वेद – यजुर्वेद

शाखा – मध्यन्दिनी

सूत्र – पारस्कर, ग्रहासूत्र 

इष्टदेव- विष्णु 

कुलदेवी- चंडी, काली, खींवज 

नदी- सरस्वती 

गादी- पाटन 

निशान- पीला 

राव- लुतापड़ा 

घोडा- जर्द 

ढोली- बहल 

शिखापद- दाहिना  

दशहरा पूजन – खांडा 

 

घनश्यामसिंह राजवी चंगोई 
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सोलंकी (चालुक्यों) की खापे (शाखाएं) और उनके ठिकाने

सोलंकी (चालुक्यों) की खापे (शाखाएं) और उनके ठिकाने

 

  1. बाणलोत :- अणहिलवाडा (पाटन) गुजरात के शासक कुमारपाल के बड़े भाई कीर्तिपाल के पुत्र बालण के वंशज बालणोत सौलंकी कहलाये। टोडा (राजस्थान) इनका राज्य था। राजस्थान में टोरड़ी भी इनका ठिकाना था। मालवा (म. प्र) में टोडा सौलकियों के वंशधरों के घरगावं, डही, धर्मराज (इन्दौर के पास) आदि ठिकाने थे।
  2.  खोडेरा - बालण सोलकी के बाद क्रमशः बाहड, सांगा, व खोड हुए। खोड के वंशज खोडेरा कहलाये।
  3. मलरा :- उपरोक्त सांगा के पुत्र माल के वंशज टोडा में रहे। 
  4. मेहलगोता :- उपरोक्त बालण (सोलकी) के बाद बाहड, सांगा, कान्हड़ व मेहूल हुए। मेहूल के वंशज मेहलगोता सोलंकी हुए। केकड़ी (अजमेर) इनकी जागीर थी।
  5. भाणगोता:- कान्हड़ के पुत्र भाण के वंशज । 
  6. खराडा : उपरोक्त सांगा के पुत्र गोयन्ददास के पुत्र भीम का शासन मेवाड़ में खेराड (जहाजपुर के पास) क्षेत्र पर था। अतः भीम के वंशज खराडा कहलाये। संभवत माण्डलगढ़ का अधिकारी नन्दराय बालगीत खराड़ा के भीम का ही वंशज था। माण्डलगढ़ पर अकबर का आक्रमण हुआ तब नन्दराय के पिता बलू व दादा भानीदास वहां से पलायन कर गये। मुगल सेना का माण्डलगढ़ पर अधिकार हो गया।
  7. कठवाड :- गोयन्ददास के पुत्र श्याम के वंशज। संभवतः कठवाङ क्षेत्र के नाम से उत्पत्ति हुई। 
  8. तेजावत :- गोयन्ददास के पुत्र तेजसी के वंशज।
  9. बरवासिया :- गोयन्ददास के पौत्र व बच्छराज के पुत्र अमरसिंह के वंशज बरवासी गांव के नाम से बरवासियां सोलंकी कहे जाने लगे।
  10. भरसूंडा :- उपरोक्त बच्छराज के पुत्र सूर के वंशज भूरसुण्ड गांव के नाम से भरसूण्डा सोलंकी कहे जाने लगे।
  11. सलावत : बच्छराज के पुत्र सल्ह के वंशज।
  12. बैडा सोलंकी :- गोयन्ददास के पुत्र धार के वंशज। 
  13. उनियारियां - गायन्ददास के पुत्र जैतसी के वंशज उनियारा गांव के नाम से उनियारिया सोलंकी कह जाने लगे।
  14. हलावत :- गोयन्ददास के पुत्र हल के वंशज । 
  15. छजावत :  गोयन्ददास के पुत्र छजराज के वंशज ।
  16. बहला :- गोयन्ददास के पुत्र दूदा के पुत्र बहल के वंशज। ये कल्याणपुर (मेवाड़) के जागीरदार थे। 
  17. मोडावत :- गोयन्नददास के पुत्र कुम्भराज के पुत्र कीता के वंशज ।
  18. करमावत :- कुम्भराज के पुत्र करमसी के वंशज।
  19. अमावत :- कुम्भराज के पुत्र अमा के वंशज ।
  20. कटारिया :- कुम्भराज के पौत्र किल्हण के पुत्र हमीर के वंशज। ये झांसी, मालवा व बुन्देलखण्ड में है। (1. राजपूत वंशावली पृ. 251 )
  21. टाटावत - किल्हण के पुत्र पिथोरा के किसी वंशज टाटा के वंशज ।
  22. सुरजनपोता :- किल्हण के पौत्र व रूपाल के पुत्र सुरजन के वंशज ।
  23. बणवीरपोता :- उपरोक्त रूपाल के पौत्र व सातल के पुत्र बणबीर के वशंज।
  24. अचलपोता :- सातल के पुत्र अंचल के वंशज। 
  25. रावतका :- सातल के पोते व सेदू के पुत्र खेमराज के पुत्र रायमल के वंशज ।
  26. नाथावत : उपरोक्त खेमराज के पुत्र नाथाजी के नाथावत सोलकी कहलाये। नाथा के वंशज राधोदास सादूलोत जहांगीर की सेवा में चले गये। बाद में उन्हें नैणगांव (बून्दी-राज) की जागिर मिली। नैणसी के समय राघोदास के पौत्र व नाहरखा के पुत्र सूरसिंह वहां के स्वामी थे। नाहरखां को बून्दी के राव रत्न (वि. 1665-1688) ने हूगरी सुहते की जागीर दी।
  27. खीयावत :- खेमराज के भाई खीवराज के वंशज हरराजोत सदू के पुत्र बेरीसाल के वंशज।
  28. वाघावत : उपरोक्त सेदू के पुत्र बैरीसाल के वंशज ।
  29. बाघावत :- सेतू के पुत्र बाघ के वंशज । 
  30. गंगावत :- सेतू के पुत्र डूंगरसी के पौत्र व भारमल के पुत्र गंग के वंशज । 
  31. बलरामोत : डूंगरसी के पुत्र बलराम के वंशज, ये गुजरात में है। 
  32. कामावत :- डूंगरसी के पुत्र पृथ्वीराज के वंशज कनक (कमा) के वंशज ।
  33. नरहरदासोत :- उपरोक्त पृथ्वीराज के पुत्र नरहरदास के वशज। 
  34. रूद्रका :- पृथ्वीराज के पुत्र रूद्र के वंशज ।
  35. विष्णुका :- पृथ्वीराज के पुत्र विष्णु के वंशज। 
  36. जगन्नाथका :- पृथ्वीराज के पुत्र भगवानदास के पुत्र जगन्नाथ के वंशज बसनी में (झलाय के पास) रहते है।
  37. माधोदासका :- भगवानदास के पुत्र माधोदास के वंशज। 
  38. दयालदासका :- भगवानदास के पुत्र दयालदास के वंशज |
  39. जगरूपका :- भगवानदास के पुत्र जगरूप के
  40. कलाचा :- उत्पत्ति का पता नहीं चला। इनका निवास जैसलमेर क्षेत्र में है। 
  41. मालेसुलतान :- बुलन्दशहर (यू. पी.) के सोलंकी माले सुलतान कहलाते है। कहते है उनको यह उपाधि शहबुद्दीन ने दी थी। सही तथ्य क्या है ? कुछ पता नहीं चलता।
  42. स्वर्णमान :-- किसी स्वर्णमान सोलंकी के वंशज स्वर्णमान सोलंकी कहलाए। जोधपुर के आसपास हैं। इनके अतिरिक्त सरकिया (बिहार के पूर्णिमा जिले में रडकइयों (आसी, ललितपुर और बुन्देलखण्ड में) आदि शाखाएं भी है।
  43. वीरपुरा :- गुजरात के देवराज सोलकी के दो पुत्र सुजादेव व वीरधवल थे। वीरधवल ने लुणावाडा में राज्य स्थापित किया। (1 राजपूताने का इतिहास प्रथम जि. प्र भाग ओझा पू. 227 ) बहादुरसिंह बीदासर ने लिखा है कि कुमारपाल के भाई कीर्तिपाल के बाद क्रमश बोलण, सांगा व वीरमानु हुए। वीरमान के वंशज वीरपुरा कहलाये। (2 क्षत्रिय जाति सूची पृ 106-110) बांकीदासजी ने लिखा है कि वीरपुरा गांव के नाम से वीरपुरा कहलाये . (बाकीदास की ख्यात पृ. 134 ) वीरपुरा गांव लुणावडा (गुजरात) के पास है। अतः लगता है देवराज का पुत्र वीरधवल पहले वीरपुरा को अपने अधिकार में किया होगा और बाद में लुणावा राज्य की स्थापना हुई। वीरधवल के वंशज वीरपुरा गांव के नाम से वीरपुरा सोलकी कहलाये। लुणावड़ा रियासत के अलावा पावागढ़, सुतरामपुर, रामपुर आदि पर भी इनका अधिकार था। 
  44. भोजावत :- उपरोक्त देवराज सोलंकी के पुत्र सुजादेव के बाद क्रमश कीर्तिपाल बालपसाद, राजिमदेव व देया हुए। यह अजमेर के पास भिणाय में आ बसे। भिणाय (राणक) से निकास के कारण भोजावत राणकरा सोलकी भी कहलाते हैं। इनके पुत्र भोजराज सिरोही के लास (लाख) सांव चले गये। वहां सिरोही के लाखा द्वारा किये गये युद्धों में भोजराज मारे गये। इसी भोजराज के वंशज भोजराज सोलकी हुए।
  45. बुबाले सोलकी- बालपसाव के छोटे भाई उदयसिंह बुवाले चला गया उनमें बुबाले सोलकी कहलाते है। 

भोज के बाद क्रमशः भवती, पाता व रायमल हुए। यह रायमल मेवाड (वि. 1530-1566) के पास चित्तौड़ चले गये। राणा ने उसे देसूरी का इलाका दिया जहां माद्रेचा शासन कर रहे थे। रायमल के पुत्र सांवतसी ने देसूरी का क्षेत्र माद्रेचों से छीन लिया। (1. नैणसी री ख्यात स. साकरिया पृ 274) रायमल के दूसरे पुत्र शंकर के वंशजों के अधिकार में भीलावाडा (मेवाड़) था। जोधपुर राज्य में गोडवाड में कोट नामक ठिकाना देसूरी के सोलंकियों का था। रायमल की दूसरे पुत्र सावतसी रूप नगर रहे। रायमल के पुत्र सावतसी के पुत्र देवराज के बाद क्रमशः वीरमदे, जसवन्त व दलपत आदि हुए। इनके समय देसूरी 140 गांवों का ठिकाना था। (2 नैणसी री ख्यात भाग 1 स. साकरिया पृ. 275) 

भोजराज सोलंकी के दूसरे पुत्र सुल्तानसिंह के पुत्रों ने जिनमें अखेराज विशेष पुरूषार्थी था. सबने मिलकर रायमल (1530-1566 वि.) के समय वि. सं. 1535 में जीवराज यादव को मारकर पानरवा (मेवाड़) पर अधिकार कर लिया। पानरवा का स्वामी अखैराज हुआ। इसके बाद क्रमशः राजसिंह, महीपाल हरपाल व नरहर हुए। राणा उदयसिंह ने हरपाल को राणा की पदवी व नरहर को ओगना की जागीर दी। (3. राज इति गुहिलोत भाग 1 पृ. 243) इनके अतिरिक्त मेवाड में माच्छा, खडी, सजनपुरा, चन्दरिया. खाचरोद सोलंकियों का खेड़ा, हरिसिंह का खेड़ा आदि गांव भी सोलंकियों की जागीर मे थे। बून्दी राज्य में नैनवाण भोजवतों का ठिकाना था पर बाद में नाथावत सोलंकियों के अधिकार में हुआ। सांवतसी का भाई भैरवपाल चित्तौड पर बहादुरशाह द्वारा किये गये आक्रमण (वि. 1592) के समय काम आया उनके नाम से भैरवपोल (चित्तौड ) हुआ।

 

  1. देला : रायमल के पुत्र सावतसी के पुत्र देला के वंशज देला सोलकी है। इन्होंने जावरे ( मालवा) में जाकर अपना राज्य स्थापित किया। माण्डू के सुल्तान से रावत का  खिताब व 84 गांवों का पट्टा पाया। जाबरे से अपरखेडा, व सेजावता खोजन खेड़ा के ठिकाने अलग हुए। इनके अतिरिक्त आलोट निमोड, उपलाई, लुहारी व खडगूण (मालया) इनके ठिकाने थे। (1. राज इति प्र. जि. प्रथम भाग झा 228) 
  2. बघेल - अणहिलवाडा (पाटन) के अधिपति भीम सोलंकी को एक पुत्र सारंग थे। सारंग के पौत्र धवल के पुत्र अनाक (अर्णोराज) को कुमारपाल ने व्यापली अणहिलवाड़ा से 10 मील) गाव जागीर में दिया। अर्णोराज के वंशज बघेल गांव के नाम से बघल (बाघेला) कहलाये। (2 राज इति प्र. जि. प्रथम भाग ओझा पृ. 221) इसके बाद क्रमश लवणप्रसाद, वीरधवल, व विसल हुए। विसल अणहिलवाडा का स्वामी हुआ। इसके बाद क्रमश अर्जुनदेव, रामदेव, सांरगदेव व कर्णदेव अणहिलवाडा (पाटन) के शासक रहे। अलाउद्दीन खिलजी ने वि. 1556 में इनसे गुजरात का राज्य छीन लिया तब कर्ण देवगिरी के यादवराज रामदेव के पास चला गया। (3. राज इति प्र जि. प्रथम भाग ओझा पृ 224) मालूम होता है सारंग के पुत्र वीरसी के पुत्र व्याघ्रपल्ली में रहते थे। वहीं से म. प्र. गये अतः इनके वंशज भी बधला कहलाये। रीवा सोहावल तथा थराद बघेलों की रियासतें थीं। इनके अलावा मध्यप्रदेश के बघेलखण्ड क्षेत्र में बारां, चोरहट, रामपुर, ताला, चमू लालगांव, इटवान, देवरा, प्रथेरी, सोहागपुर, कोठी, निगवानी, जितपुर, चांदिया, बैकुण्डपुर, घुमान, पनासी, आदि ठिकाने थे। इनके अतिरिक्त विखमपुर, कृपालपुर, सिहाजटा व कल्याणपुर तथा पइच्छ (गुजरात) व नई (खानदेश) एवं मदरथ, पांडु, पंचापुर, भदरवा, रणपुरा, देवगढ़ आदि भी बघेला की शाखा बताया गया है।
  3.  लंघा:-चालुक्यों (सोलंकियों) की प्राचीन खांप। 6 वीं शताब्दी में जैसलमेर क्षेत्र में रहते थे। मंगलराव भाटी ने 800 विक्रमी के करीब इनका क्षेत्र छीना ।
  4. भुट्टा :- यह भी सोलंकियों की प्राचीन खाप है। जैसलमेर क्षेत्र में आठवी शदी में थी। मंगलराव भाटी ने इनका क्षेत्र छीना (1. राज. इति. गहलोत पृ. 653) रामगढ (जैसलमेर) की राणा सोलंकी है। मालूम होता है अयोध्या क्षेत्र से चालुक्यों की एक शाखा दक्षिण में चली गई और एक छठी, सातवीं शदी में राजस्थान की तरफ बढ़ आई। उन्हीं में लंघा, भुट्टा आदि हुए। 
  5. खालत :- सोलंकियों की प्राचीन खांप। जैसलमेर क्षेत्र में सुनी जाती हैं। 
  6. भूरेवा :- जैसलमेर क्षेत्र में 
  7. कालमेर :- गुजरात में।
  8. सोलके :- दक्षिण भारत में बताये जाते हैं। 
  9. तांतिया :- दक्षिण भारत में बताये जाते हैं। तांत्या टोपी इसी खांप में सम्बन्धित था।
  10. पीथापुर :- पीथापुर बाघेलों का ठिकाना था। अतः सम्भवतः गांव के नाम से पीथापुर कहलाये। बघेलों की खांप होनी चाहिए।
  11. सोझतिया :- सोझत स्थान के नाम से सोझतिया सोलंकी हो सकते हैं।
  12. डहर :- सिन्ध की तरफ थे। मुसलमान हो गए। 
  13. भूहण :- सिन्ध की तरफ थे। मुसलमान हो गये । 
  14. तोगरू व बीकू :- मुसलमान हो गये, पंजाब में हैं। जैसलमेर (राज.) क्षेत्र में हैं। यू. पी. के. एटा, सोरा आदि क्षेत्र में भी सोलंकी हैं।
  15. कलाचा :- जैसलमेर (राज.) क्षेत्र। 
  16. वेहिल- गाड़ में कल्याणपुर के जमींदार।
  17. विक्र- पंचनद में रहने वाले हैं।
  18. सिरवरिया- सौराष्ट के गिरवार में निवास करने वाले हैं।
  19. राओका- जयपुर में टोड़ा के इलाके में रहने वाले।
  20. राणकरा- मेवाड़ व देसूरी में रहने वाले।
  21. स्वरूरा-मालवा व जावड़ा के रहने वाले।
  22. तांतिया- चंद्रमड-सकुनवरी व बदनौर में रहने वाले।

 

इनके अतिरिक्त सोलंकियों कि निम्न खांपे लिखी जाती है पर उत्पत्ति स्थान और निवास स्थान का कुछ पता नहीं पड़ता और न यहीं मालूम होता है कि यह खांपे लोप हो गई है या कहीं है - अलमेचा, कटारिया, खासरा, खालसा, खाररा, खाजिया, खुडाणा, खरोड़, गेडा, चीरपुरा, टोगरा, टहर, डालिया, ढाई, तोमरू, तुंगर, देवसुरिका, बारिक, बहल, बडूम, मविला, मडीहत, बेड़ा, भुरट, भल्ला, तंवकरा, भरसूरिया, मोचाला, मल्हार, मुहड़, रहवर, रणधीर, रूभा, राका, लहार, बामगा, वाला, वहेल, सरकी, सखिरया, सिखरिया, सरबिया, चीता, साधेल, ढायल, धगबन्ध, भीमन, टोडसे, गोकुलपाल, हीसावट, कुणीदरा, और लाहा !! 

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घनश्यामसिंह राजवी चंगोई 
(नोट- वेबसाईट का updation जारी है, अपने सुझाव व संशोधन whatsapp no. 9460000581 पर भेज सकते हैं) . 

चालुक्यों (सोलंकियों) के राज्य

चालुक्यों के राज्य

 

(1) वातापी राज्य (महाराष्ट्र)

 

सम्भवतः वत्स या कन्नौज क्षेत्र से चलकर चालुक्य जयसिंह ने अनुमानत विक्रम की छठी शताब्दी के प्रथम चरण मे महाराष्ट्र के राष्ट्रकूटों व कूतल जनपद के कदबों से राज्य छीनकर अपने राज्य की स्थापना की। (1. प्राचीन भारत में हिन्दू राज्य - बाबू वृन्दावनदास पृ. 312) जयसिंह के बाद क्रमश रणराग व पुलकेशी प्रथम हुए। पुलकेशी प्रथम ने वातापी (बादामी) को अपनी राजधानी बनाया। (2 प्राचीन भारत का इतिहास वी. डी. महाजन पृ. 576) यह राजा वैदिक धर्म का अनुयायी था। उसने अश्वमेध, वाजपेय, पुण्डरीक, हिरण्यगर्भ, अग्निष्टोम, अग्निचयन व बाहुसुवर्ण यज्ञ करवाये। इस राजा ने सम्याश्रय, श्री पृथ्वी वल्लभ आदि उपाधिया धारण की। (3. प्राचीन भारत का इतिहास - वी. डी. महाजन पू. 571) इस राजा का शासनकाल वि. 562 से 623 तक रहा। इसके बाद उसका पुत्र कीर्तिवमन प्रथम वातापी का शासक हुआ। इस राजा ने कोंकण के मौर्यो, बनवासी के कंदबों और मैसूर के नलवंश को परास्त कर अपने राज्य का विस्तार किया। उसके बाद उसका छोटा भाई मंगलेश (वि. 655-667) गद्दी पर बैठा उसने अपने भतीजे का राज्य ले लिया लेकिन कीर्तिवर्मन का पुत्र पुलकेश द्वितीय जब योग्य हुआ तो उसने चाचा मंगलेश से वि. 688 में राज्य छीन लिया।

 

पुलकेशी द्वितीय बहुत प्रसिद्ध शासक हुआ। इस राजा ने राष्ट्रकूट गोविन्द, लाट, मालवा व भृगुकच्छ के शासकों को परास्त कर अपने राज्य का विस्तार किया। इस राजा ने सम्राट हर्ष के विरूद्ध बंगाल के शासक शैशाक, उसके सामंत कोंगोंड के सैन्यमित माधव शर्मा।। वल्लभी तथा भडौंच के शासकों का संगठन तैयार किया और वि. सं. 694-95 में नर्मदा किनारे हर्ष का पराजित कर प्रसिद्धि प्राप्त की। यह शासक वैदिक धर्मावल्बी था पर वह धर्म के क्षेत्र में सहिष्णु था। वह अन्य धर्मो का भी आदर करता था। वह जैन आचार्यों का सम्मान करता था। ऐहोल अभिलेख का जैन रविकीर्ति लिखता है कि उसने पुलकेशी द्वितीय से सर्वाच्च पुरस्कार प्राप्त किया था। गंग दुर्विवनीत कोंगणी वृद्ध की पुत्री उसकी एक रानी थी। वि. सं. 699 में यह पल्लवराजा नरसिंह वर्मन से हार गया और युद्ध क्षेत्र में मारा गया। पुलकेश द्वितीयके बाद विक्रमादित्य प्रथम ने सत्ता संभाली। उसने पल्लव राजाओं को परास्त कर अपने पिता का बदला लिया तथा राज्य का विस्तार किया। उसका चोल, पाण्डेय और केरल शासकों से भी संघर्ष हुआ और बहुत से शासकों को हराया। इस राजा का शासनकाल वि. 712-738 तक रहा। इसके बाद क्रमशः विनयादित्य, विजयादित्य विक्रमादित्य द्वितीय व कीर्तिमान  गद्दी पर बैठे। राष्ट्रकूट शासक दंतिदुर्ग ने वि. सं. 804 के करीब वातापी के चालुक्यों का राज्य छीन लिया।

 

पुलकेशी द्वितीय के राज्य समय विक्रम संवत 696 के आसपास चीनी यात्री हुएनत्सांग यात्रा करता हुआ महाराष्ट्र पहुंचा था, उसने अपनी यात्रा पुस्तक में नीचे अनुसार वृत्तांत लिखा है….

 

"महाराष्ट्र ()- इस देश की परिधि 5000 ली (एक मील = 4 ली) है, जिसकी राजधानी की पश्चिमी तरफ एक बड़ी नदी है। राजधानी की परिधि ३० ली है। यहां की जमीन उत्तम और उपजाऊ है, जिसमें खेती बराबर होती रहती हैं, और पैदावारी खूब होती है। यहां की आब,हवा उष्ण है। लोग सादे, प्रामाणिक, शरीर के ऊंचे, स्वभाव के कठोर बदला लेनेवाले, उपकार करनेवालों का अहसान माननेवाले और शत्रु के लिये निर्दयी हैं। वे अपना अपमान करनेवाले से बदला लेने में अपनी जान तक झोंक देते हैं। परन्तु यदि तकलीफ के समय उनसे कोई मदद मांगे, तो उसको मदद देने की त्वरा में वे अपने शरीर की कुछ पर्वाह नहीं करते। यदि वे बदला लेना चाहें तो शत्रु को पहले से सावधान कर देते हैं, फिर दोनों शस्त्र धारण कर एक दूसरे पर भाले से हमला करते हैं। जब एक भाग जाता है तो दूसरा उसका पीछा करता है, परन्तु शरण में आजाने पर मारते नहीं हैं। यदि कोई सेनापति युद्ध में हार जावे तो उसको दंड नहीं देते, किन्तु उसको स्त्री की पोशाक भेट करते हैं, जिसपर उसको स्वयं मरना पड़ता है। देश (राज्य) की ओर से कई सौ वीर योद्धा नियत हैं, जो युद्ध के लिये सजे होते हैं। उस समय प्रथम वे नशा कर मत्त हो जाते हैं। उन में से एक एक पुरुष हाथ में भाला लेकर ललकारता हुआ १०००० आदमियों का सामना करता है। यदि उनमें से कोई योद्धा मार्ग में चलता हुआ किसी आदमी को मार डाले तो उसको सजा नहीं होती। जब वे बाहिर (लड़ने को) जाते हैं, तब अपने आगे ढोल बजाते जाते हैं। सैंकड़ों हाथियों को नशे से मतवाले कर उनको भी लड़ने के लिये ले जाते हैं। वे लोग पहिले नशा कर लेते हैं, फिर एक साथ आगे बढ़कर हर एक चीज को बर्बाद कर देते हैं, जिससे कोई शत्रु उनके आगे नहीं ठहर सकता ।”

 

“इन योद्धाओं और हाथियों के कारण यहां का राजा अपने पड़ोसियों की ओर तिरस्कार की दृष्टि से देखता है। राजा जाति का क्षत्रिय है, और उसका नाम पुलकेशी (पु-लो-कि-शे) है। उसके विचार और कार्य विस्तृत हैं। उसके उपकार के कामों का लाभ दूर दूर तक पहुंचता है, और उसकी प्रजा पूर्ण विनय के साथ उसकी आज्ञा पालन करती है । इस समय शीलादित्य (कन्नौज का राजा श्रीहर्ष हर्षवर्द्धन) महाराज ने पूर्व से पश्चिम तक के देश विजय कर लिये हैं, और दूर दूर के देशों पर चढ़ाइयाँ की हैं, परन्तु केवल इस देश (महाराष्ट्र) वाले ही उसके आधीन नहीं हुए। यहां वालों को दण्ड देने, और आधीन करने के लिये उसने अपने राज्य के पांचों विभागों का सैन्य एकत्र किया, सब राज्यों के बहादुर सेनापतियों को बुलाया, और वह स्वयं लश्कर की हरावल में रहा, तो भी यहां के सैन्य को जीत न सका।"

 

“यह उनके स्वभाव का हाल है। यहां के लोग विद्यानुरागी हैं, और वेद धर्म तथा बौद्ध धर्म्म दोनों के ग्रन्थ पढ़ते हैं। इस देश में अनुमान १०० संघाराम" है, जिन में ५००० साधु (श्रमण भिक्षुक) रहते हैं, जो महायान और हीनयान दोनों मार्ग (बौद्धों के दो मुख्य भेद) को माननेवाले हैं। यहां पर अनुमान १०० देव मन्दिर हैं, जिनमें बहुत से भिन्न भिन्न मतावलंबी नास्तिक (बौद्ध धर्म्म को न माननेवाले अर्थात् वेदधर्मानुयायी) रहते हैं।"

 

“राजधानी के भीतर और बाहिर के मिला कर (यहां पर पांच स्तूप हैं, जो ४ अतीत (गत) बुद्धों के फिरने और बैठने के स्थानों के सूचक हैं और राजा अशोक" के बनाये हुए हैं। इनके अतिरिक्त ईंट और पत्थर के बने हुए स्तूप इतने अधिक हैं, कि जिनका गिनना कठिन है राजधानी से थोड़ी दूर एक संघाराम है, जिसमें अवलोकितेश्वर बोधिसत्व" की पाषाण की मूर्ति है उस मूर्ति का चमत्कार दूर दूर तक प्रसिद्ध है, क्योंकि उसकी गुप्त प्रार्थना करनेवालों में से बहुतों की कामना पूर्ण हुई है।"

 

“इस देश की पूर्वी सीमा पर ऊंचे ऊंचे शिखरोंवाला एक बड़ा पहाड़ है, जिसकी चट्टान पर चट्टानवाली श्रेणी बराबर चली गई है। इस पर्वत के नीचे के अंधेरे हिस्से में एक संघाराम" बना है, जिसके ऊंचे मण्डप और उनके बाजू के गहरे स्थान चट्टानों को खोद खोद कर उनके भीतर बनाये गये हैं। यह संघाराम अर्हत" अचल २९ (ओ-चे-लो) ने बनवाया था, जो पश्चिमी हिन्दुस्तान का निवासी था ।—यहां से करीब १००० ली पश्चिमी में चलकर नर्मदा नदी उतरने पर भरुकच्छप (भड़ौच) के राज्य में पहुंचते हैं। "

 

ई. सं. ६३९ (वि. सं. ६९६) के करीब चीनी यात्री हुएन्त्संग महाराष्ट्र में पहुंचा उस समय तक तो पुलकेशी के राज्य की दिनोंदिन उन्नति होती रही, परन्तु उस (पुलकेशी) के अन्तिम समय में उसके राज्य पर विपत्ति आन पड़ी हो, ऐसा पाया जाता है, क्योंकि कूरम" गांव से मिले हुए पल्लववंशी राजा परमेश्वरवर्मा के समय के एक ताम्रपत्र में उसके दादा नरसिंहवर्मा के वृत्तान्त में लिखा है, कि “उसने कई बार चोल, केरल, कलध्र, और पाण्डय देशवालों को जीता; परियल, मणिमंगल, शूरमार आदि स्थानों की लड़ाइयों पुलकेशी की पीठ पर विजय शब्द लिखा (अर्थात् उसको हराया) !

वातापी राजवंश

 

  1. पुलकेश। (835-566 ई.)
  2. कीर्तिवमन (566-598) 
  3. मंगलेश (598-611)
  4. पुलकेशी द्वितीय (611-642)
  5. विक्रमादित्य । (655-651)
  6. विनयादित्य ( 681-696)
  7. विजयादित्य (696-733)
  8. विक्रमादित्य द्वितीय (733-745)
  9. कीर्तिवर्मन द्वितीय (745-747)

 

(2) कल्याणी राज्य (महाराष्ट्र)

 

वातापी के शासक विक्रमादित्य I के वंशज तैलप द्वितीय ने वातापी के खोये हुए राज्य के स्थान पर पुनः सं. 1030 के लगभग कल्याणी (महाराष्ट्र) पर शासन करने वि. 'वाले नरेशकर्क (राष्ट्रकूट) को पराजित कर पुनः चालुक्यों का राज्य स्थापित किया। इस राजा ने 1037 वि. में चोल वंश के राजा उत्तम व कोकण के सिलार (शिलाहर) वंश के राज्य को भी अपने अधिकार में किया। तैलप ने परमार राजा मुज्ज को पराजित कर कैद कर लिया। तैलप की बहिन मृणालवती से कैद में रहते रहते मुज्ज का प्रेम हो गया। इस कारण मुज्ज को मृत्युदण्ड दिया गया। वि. सं. 6 में तैलप II की मृत्यु हो गई। इसके बाद पुत्र 1045 सत्याश्रम (सम्भवत II) गद्दी पर बैठा। इसने शिलारवंशीय राजा अपराजित व गुर्जरराज चामुण्ड राज को पराजित किया परन्तु सिधुराज परमार से वह पराजित हुआ। वि. 1063 में सत्यायश्रम ने बेंगी पर आक्रमण किया परन्तु बंगी के चालों से सहायता की। अतः सफलता प्राप्त नही हुई परन्तु बाद में चोल राजा राजराज को सेनाओं को परास्त किया।

 

सत्याश्रम के बाद दर्शवर्मन और फिर विक्रमादित्य V गही पर बढ़ा। जिसने 1065 वि. से 1071 वि. तक शासन किया। इस राजा ने त्रिभुवनमल्ल व वल्लभमल्ल आदि उपाधिया धारण की। इसके बाद जयसिंह II (1071- 1100 वि.) गद्दी पर बैठा। बेंगी राज्य के उत्तराधिकार को लेकर चोलराजा से संघर्ष चला परन्तु इसमें सफलता प्राप्त नहीं हुई। इस राजा ने परमार भोज को पराजित कर अपने छीने लिए प्रदेशों को वापिस लिया। (1. भोज के वि. सं. 1076 के दानपत्र में कोंकण विजयदर्पण एवं भोज के वंश उदादित्य के शिलालेख में भोज को कर्नाटक के राजा को जीतने वाला लिखा है। (रा. इ. प्र. जि. भाग ओझा पृ. 189)

 

जयसिंह का उत्तराधिकारी सोमेश्वर प्रथम (वि. 1100-1125) ने राजा भोज की धारा नगरी को लूटा। इसका पुत्र विक्रमादित्य भी बड़ा वीर था। इसकी शादी राजेन्द्र चोल की पुत्री से हुई। यह राजा विद्या और कला का बहुत प्रेमी था। इसके दरबार में रहकर विल्हण ने विक्रमांकदेव चरित वातज्ञा विज्ञानेश्वर ने याज्ञवल्क्य की मिताक्षरा की टीका लिखी। इसके बाद क्रमशः सामश्वर III जगदेकमल्ल II , तेल III व सोमेश्वर IV ने 1246 वि. तक शासन किया। इनके राज्य को यादव मिल्लम ने नष्ट कर दिया।

 

कल्याणी राजवंश 

  1. तैलप II (973-997 ई.)
  2. सत्याश्रम (सोल्लीग)
  3. दशवर्मन
  4. विक्रमादित्य V
  5. जयसिंह I
  6. जगदेकमल । 
  7. सोमेश्वर I (1042-1076 ई.) 
  8. विक्रमादित्य VI  (1076-1126)
  9. सोमेश्वर II (1126-1135)
  1. जगदेकमील II (1135-1141)
  2. तैलप III (1141-1163)

 

(3) बेंगी राज्य (आंध्र)

 

पुलकेश II के समय बेंगी पर उसका भाई विष्णुवर्धन उसके प्रतिनिधि के रूप में शासन करता था। परन्तु वि 642 के करीब वह स्वतंत्र हो गया। इसके बाद इसका पुत्र जयसिंह I गद्दी पर बैठा। जिसने वि. 690 से 720 तक शासन किया। इसके बाद उसका भाई इन्द्रवर्मन फिर इन्द्रवर्मन का पुत्र विष्णुवर्धन II फिर उसका पुत्र मंगीयुवराज और तत्पश्चात उसका पुत्र जयसिंह II ने शासन संभाला। इस शासक ने वि. 743 से 766 तक शासन किया। इसके बाद इसके छोटे भाई कोकुलि विक्रमादित्य और बाद में उसके भाई विष्णुवर्धन III ने सत्ता पर कब्जा किया। इसने 766 वि. से 803 तक शासन किया। इसने कलिंग को अपने राज्य में मिलाया ओर निषाध राज पृथ्वी व्याघ्र को परास्त किया।

 

विष्णुवर्धन III के बाद विजयादित्य । व विजयादित्य || गद्दी पर बैठे। राष्ट्रकूट राजा गोविन्द III से इसकी मित्रता थी। इसने कई शिवमंदिर बनवाये। इसके बाद विजयादित्य III ने सत्ता पर अधिकार किया। इसने राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण | को हराया। उसने गंग क्षत्रियों को भी परास्त किया। अमोघवर्ष (राष्ट्रकूट) के साथ संघर्ष में यह राजा मारा गया। विजयादित्य III के बाद क्रमश: भीम प्रथम, विष्णुवर्धन VI. शक्ति वर्मा, विष्णुवर्धन VIII व कुलोतंग चोलदेव शासक हुए। वि. सं. 1175 के लगभग चौलुक्यों का यह राज्य चोलों के अधिकार में चला गया।

 

बेंगी राजवंश

  1. विष्णुवर्धन (615633 ई.)
  2. जयसिंह I (633663)
  3. इन्द्रवर्मन (663)
  4. विष्णुवर्धन (663-672)
  5. मगीयुवराज (672-696)
  6. जयसिंह प (696-709)
  7. विष्णुवर्धन कोकुल विक्रमादित्य (706 ई.). 8. विष्णुवर्धन III (706-746)
  8. विजयादित्य 1(746764)
  9. विजयादित्य II (799-843)
  10. विजयादित्य III (843-868
  11. भीम 1 (888-918)
  12. विष्णुवर्धन VI (918-934)
  13. भीम III (934-945)
  14. विजयादित्य VI (948-970)
  15. शक्तिवर्मन (1003-1015))
  16. विष्णुवर्धन VIII (1022-1063) 18. कुलीतुंग चोलदेव (1063-1118 ई.)

 

(4) अणहिलवाड़ पाटन (गुजरात) राज्य

 

अणहिलवाडा (पाटन) पर विक्रम की 11वीं सदी के प्रारम्भ में सामन्तसिंह चावड़ा शासन करता था। चावड़ा सामन्तसिंह की बहिन लीलावती का विवाह राजि नामक चालुक्य से हुआ था। राजि का पुत्र मूलराज हुआ। इसी मूलराज ने अपने मामा सामन्तसिंह से वि. 1017 के करीब था? और उसके पिता राजि का चालुक्य वंश से क्या सम्बन्ध था? और उसके पिता राजि का चालुक्य वंश से क्या सम्बन्ध था? 13वीं शताब्दी का कवि कृष्ण लिखता है आक्रमणकारी भुवड की वंश परम्परा में कर्णादित्य, चन्द्रादित्य, सोमदित्य तथा भुवनादित्य हुए। भुवनादित्य के पुत्र राजि का पुत्र मुलराजा था। (1. रत्नमाल (फास) जे. बी. आर. ए. एस. 9.32-5 (भा. इ. स. का. पृ. 246) कुमारपाल चरित्र में लिखा है कि कन्नौज कटक के शासक भुवनादित्य के तीन पुत्र राजि, बीजा और दण्डक सोमनाथ की यात्रा को निकले। लौटते समय सामन्तसिंह चावड़ा के रथ प्रदर्शन समारोह में सम्मिलित हुए। यही सामन्तसिंह की बहिन लीलावती का विवाह राजि से हुआ। इस राजि का पुत्र मुलराज था। (2 मा इ. राजपूत काल पृ. 246) कुमारपाल चरित में यह भी लिखा है कि कन्नौज का राज वीरराय गुजरात पर आक्रमण करके वहां के राजा का वध कर दिया और लौटकर कन्नौज न जाकर मलाबार तट पर कल्याण चला गया। सी. वी. वैद्य ने लिखा है कि किसी भुयड नामक व्यक्ति ने बनराज चावड़ा के पिता जयशिखरी का वध कर दिया। (4. हि. भा. उ. पृ. 182) 13वी शताब्दी का कवि कृष्ण मुलराज के पूर्व-पुरूष भुवड को आक्रमण कारी लिखता है। इन सबका सार यहीं निकलता प्रतीत होता है कि कृष्ण कवि का भुवड़, सी. पी. वैद्य का भूयड और कुमारपाल चरित्र का वीरराय एक ही व्यक्ति था, जिसने चावड़ा जयशिखरी (गुजरात) को मार डाला था और फिर वह कल्याण चला गया था। इससे यह भी जाहिर होता है कि मूलराज के पूर्व पुरुष कन्नौज के आसपास रहते थे। भुवड का समय 800 वि के लगभग का है यही कुमारपाल का है। कुमारपाल चरित में मुलराज के पूर्वपुरुष वीरराय (भूवड) को कन्नौज का राजा लिखा गया है पर चालुक्यों ने कन्नौज पर राज्य छीन किया हो इसका कोई साक्ष्य नहीं मिलता है।

 

 800 वि. के लगभग कन्नौज पर प्रसिद्ध यशोवर्मन के पुत्रों का राज्य था और इनके बाद इन्द्रायुद्ध और चक्रायुद्ध का कन्नौज पर शासन करना लिखा है। (1. राज. इति. प्र. जि. - ओझा पृ. 160-61) नागभट्ट प्रतिहार। से ने चक्रायुद्ध से कन्नौज का राज्य छीन था। अतः चालुक्यों के संदर्भ में इतना ही कहा जा सकता है कि भुवड़ के समय में दक्षिण में वातापी (महाराष्ट्र) पर चालुक्यों का शासन था। कीर्तिवर्मन II से (दंतिदुर्ग) (राष्ट्रकूट) ने वि. सं. 804 के करीब चालुक्यों का राज्य नष्ट कर दिया, तब वहां के चालुक्य इट पर उधर बिखरें हों और वातापी के चालुक्यों का ही कोई वंशज भुवड़ होगा जो कन्नौज की तरफ आया होगा और यही से वह गुजरात गया होगा। वातापी के चालुक्यों ने ही बाद कल्याणी (दक्षिण भारत) पर अधिकार किया था। सम्भव यह लगता है कि वातापी का राज्य समाप्त हो वही वहा के कुछ चालुक्य कल्याणी की तरफ चले गये होगे तभी भुवड़ बावडा जयशिखरी को मारकर कल्याण (कल्याणी) गया होगा।

 

इन सब विवरणों से यह निष्कर्ष निकला है कि वातापी से चालुक्यों का राज्य नष्ट होने पर वहां के चालुक्यों में से ही भुवड कन्नौज की तरफ गया और उसी के वंशज राजि का विवाह सामन्तसिंह चावडा की बहिन लीलावती से हुआ। इस राजि का पुत्र मूलराज हुआ जिसने चावड़ा सामन्तसिंह से अणलिवाड़ा (पाटन) का राज्य छीन कर गुजरात में चालुक्य वंश के शासन की स्थापना की।

 

मूलराज बड़ा वीर और महत्त्वाकांक्षी शासक था। उसने सूर क्षेत्र के शासक यादव ग्रहरिपु को मौत के घाट उतार दिया । ग्रहरि के साथ कच्छ का राजा लक्ष (लाखा फूललाणी) भी था, वह युद्ध में मारा गया। (2 द्ववाश्रय काव्य- 2:56, 106.174-75 (भा. इ. राज. काल पृ. 246 ) आबू के राजा धरणीवराह पर आक्रमण किया तो धरणीवराह ने राष्ट्रकूट धवल (हस्तीकुण्डी) की शरण ली। (3. ए.इ.जि. 10 पृ. 21 (राज. इति, प्रा. भाग ओझा पृ. 172) राष्ट्रकूट धवल का शिलालेख वि. 1046) मूलराज ने सांचोर पर भी अधिकार किया तब अजमेर के चौहान शासक विग्रहराज II ने मूलराज पर चढाई की। मूलराज कंथकोट (कच्छ) के किले में चला गया। मूलराज ने सोरठ के वारपा जो दक्षिण के राजा तैलप का सामन्त था ने मूलराज पर चढ़ाई की। वारपा युद्ध में मारा गया। इस राजा ने सिद्धपुर (गुजरात) में रुद्रमहाआलय नामक विशाल शिव मंदिर बनवाया तथा उसकी प्रतिष्ठा के लिये थानेश्वर, कन्नौज और उत्तरी ब्राह्मणों को बुलाया। उत्तर से आने के कारण ये ब्राह्मण औदिच्य कहलाये। मूलराज ने वि. 1017 से 1042 तक शासन किया। 

 

मूलराज के बाद उसका पुत्र चामुण्डराय शासक हुआ। इस नरेश ने सिन्धुराज परमार (मालवा) को युद्ध में मारा। | इसके तीन पुत्र वल्लभराज, दुर्लभराज और नागराज थे। इसका शासनकाल वि. 1042 से 1066 तक था। कामी शासक होने के कारण इनकी बहिन ने इसके पुत्र बल्लभराज को गद्दी पर बैठाया। वह 6 माह ही जीवित रहा। उसके बाद छोटा भाई दुर्लभराज गद्दी पर बैठा। इसका विवाह नाडौल के शासक महेन्द्र की बहिन दुर्लभदेवी से हुआ। इसने वि. सं. 1066 से 1078 तक शासन किया। 

 

दुर्लभराज पुत्रहीन होने के कारण उसके बाद उसके भाई नागराज का पुत्र भीम प्रथम गद्दी पर बैठा। इसके समय में महमूद गजनवी का सोमनाथ पर हमला हुआ। महमूद जलोद्रवा (जैसलमेर) मालानी होता हुआ अणहिलवाड़ा (पाटन) पहुंचा। भीम ने कन्यकोट (कच्छ) के किले में शरण ली। महमूद गजनवी 6 जनवरी, 1026 को सोमनाथ पहुंच गया तथा मंदिर को लूटा। भीम ने तैयारी कर महमूद गजनवी का रास्ता रोका पर महमूद रास्ता बदलकर दूसरे मार्ग से गजनी चला गया। भीम ने सिन्ध के राजा हम्मुक को पराजित किया। (1. द्रयाश्रय काव्य 8 17-108) आबू के परमान राजा धन्धुक से विरोध हो जाने के कारण अपने सेनापति पोरवाड़ महाजन विमलशाह को सेना देकर धन्धुक पर भेजा। धन्धुक मालवे के राजा भोज परमार के पास चित्तौड़ चला गया। विमलशाह ने धन्धुक को बुलाकर भीम से मेल करवा दिया फिर उसने वि. सं. 1088 में आबू पर देलवाडा गांव में विमलसही नामक आदिनाथ का अपूर्व मंदिर बनवाया। भीम ने आबू के राजा कृष्णराज परमार को कैद कर लिया पर बालाप्रसाद चौहान (नाडौल) ने उसे छुड़ाया। भीम ने 1078 से 1120 वि तक शासन किया। इसके तीन पुत्र मूलराज, क्षेमराज और कर्ण थे। वृद्धावस्था में वह तप करने चला गया और अपने पुत्र कर्ण को राज्य दे गया।

 

मालवे के राजा उदादित्य ने चौहान राजा विग्रहराज तृतीय (अजमेर) से सहायता पाकर कर्ण को पराजित किया। उसकी राणी मणियलदेवी गोआ के कदम्बवंशी राजा जयकेशी की पुत्री थी। (1. राज. प्रथम जिल्द भाग ओझा पृ. 217 ) नाडोल के चोहानों से भी संघर्ष हुआ थोडे समय के लिए पृथ्वीराज चौहान (नाडौल) ने अलहिलावाडा (पाटन) पर अधिकार कर लिया था। परन्तु फिर चौहानों को यह प्रदेश छोड़ना पड़ा। इस राजा ने वि. 1120 से 1150 तक शासक किया।

 

कर्ण की मृत्यु होने पर उसका तीन वर्षीय पुत्र जयसिंह गद्दी पर बैठा। उसका माता मणियलदेवी ने संरक्षिका के रूप में कार्य किया। उसे योग्य मंत्री शान्तु ने शत्रुओं से राज्य की रक्षा की बड़ा होने पर जयसिंह सिद्धराज के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गिरनार के प्रजाप्रिय तथा बहादुर शासक राव खगार को युद्ध में मारकर उसके राज्य पर अधिकार किया। यह विजय वि.सं. 1176 से पूर्व हो चुकी थी क्योंकि 1176 वि. का गिरनार लेख सिद्ध करता है कि उस समय सिद्धराज ने नाडोल के शासक अश्वराज को अपने अधीन किया। (2 भारत इतिहास राजपूत काल पृ. 272) सिद्धराज जयसिंह परमार शक्ति को निर्बल करना चाहता था। चौहान राजा को अपना मित्र बनाने के लिए अपनी पुत्री कांचमदेवी का विवाह अर्णोराज (अजमेर) से कर (3. (अ) कुमारपाल चरित 1:41 (ब) कार्तिकौमुदी 5, 27-28 ) परमार राजा यशोवर्मन को जीतना आवश्यक था। अतः उस पर फिर आक्रमण किया गया और यशोवर्मन को बन्दी बना लिया।

 

मालवा पर सिद्धराज जयसिंह का अधिकार होने पर चन्देल शासक मदनवर्मन बहुत नाराज हुआ। सिद्धराज जयसिंह व मदनवर्मन में युद्ध हुआ। इस युद्ध में दोनों पक्षों ने अपनी 2 विजय बताई। कालनर अभिलेख व मऊ अभिलेख चन्देल शासक की विजय का समर्थन करता है। (4. कुमारपाल चरित 257 (भारत का इतिहास काल पृ. 275) गहड़वालों (कन्नौज) से सिद्धराज के मधुर रहे। उसने पश्चिम के विक्रमादित्य सोलंकी को पराजित किया। इस नरेश ने सिन्धु के मलेच्छों से भी संघर्ष किया और उन्हें भयभित कर दिया। (1. प्रबन्ध चिन्तामणि 72-73 (भारत इतिहास राजपूत काल पृ. 276)।

 

सिद्धराज के बाद कर्ण के भाई क्षेमपाल का प्रपीत्र कुमारपाल वि. सं. 1199 में राजा बना। (2. सिद्धराज जयसिंह के पिता कर्ण के भाई क्षेमपाल के बाद क्रमशः देवीप्रसाद, त्रिभुवनपाल व कुमारपाल हुए।) सिद्धराज जयसिंह के सन्तान नहीं थी। इसके समय में शाकम्भरी के चौहानो के साथ कुमारपाल को संघर्ष करना पड़ा। काफी समय तक दोनों में संघर्ष चलता रहा। इसके बाद विग्रहराज ने चित्तोड़ स्थित उसे सामन्त सज्जन को पराजित किया। कुमारपाल का आबू के परमारो से संघर्ष हुआ और विक्रमसिंह परमार को हराकर यशोधवल को शासक बनाया। मालवा नरेश बल्लाल को भी परास्त किया। कोकण नरेश शिलारवशा मल्लिकार्जुन के साथ संघर्ष हुआ। कुमारपाल ने उसे भी पराजित किया। कुमारपाल का आबू के परमारों से संघर्ष हुआ। इसी राजा का राज्य जैसलमेर तक व पूर्व में भीलसा तक फैला हुआ था (3 राजपूत काल पृ. 284) . कुमारपाल के बाद उसका उत्तराधिकारी अजयपाल वि सं. 1230 ई. 1233 में राजा बना। इस राजा ने चित्तौड़ के सामन्तसिंह गुहिलोत को पराजित करना चाहा परन्तु सम्भवत इसे सफलता नही मिली।

 

वि. सं. 1233 में मूलराज द्वितीय ने राजसिहास संभाला। यह राजा केवल 3 वर्ष शासन कर सका। इस अवधि में इस राजा ने एक मलेच्छ राजा को पराजित किया था। (4. (अ) कौर्तिकौमुदी 2:47-48 सोमेश्वर (ब) बसन्त विला 3:34- बालचन्द (स) प्रबन्ध चितामणि 97 ( राजपूत काल पृ 286) परन्तु यह मलेच्छ शासक कौन था ? इसकी पहिचान नहीं है। कुछ विद्वान इसे मुहम्मद गौरी मानते हैं। कुछ लाहोर के शासक खुखरी मलिक को और कुछ सुमरा को । परन्तु ओझाजी इसे मुहम्मद गौरी मानते हैं। (1. राज इतिहास, प्रथम जिल्द प्रथम भाग ओझा पृ. 220) इस राजा ने मालवा के विन्ध्यवर्मन को पराजित किया और मालवा को अपने साम्राज्य का अंग बनाया। उसके बाद भीम II वि 1235 उत्तराधिकारी हुआ। इस राजा का शाकम्भरी के चौहानों से संघर्ष चला परन्तु बाद में मैत्री सम्बन्ध हो गये। इसके समय में कुतुबुद्दीन का गुजरात पर आक्रमण हुआ। भीम ने मुकाबला किया। दिल्ली से कुतबुद्दीन की सहायतार्थ सेना पहुंच गई। फरिश्ता के अनुसार इस युद्ध में पन्द्रह हजार सैनिक मारे गये और बीस हजार बन्दी बनाये गये। कुतबुद्दीन ने अणहिल पट्टन को अपने प्रतिनिधि को संभला दिया। पर शीघ्र ही सोलकिया ने उसे पुनः छीन लिया। भीम ने वि. सं. 1205 तक शासन किया। इसे बाद अर्जुनवर्मन व फिर त्रिभुवन गद्दी पर बैठे। त्रिभुवनपाल से 1300 वि में बघेल (सोलकी) बिसलदेव ने राज्य छीन लिया। (2 अणहिल पाटन के शासन भीम प्रथम सोलंकी का एक पुत्र सारंग था। सारंग के पौत्र का नाम धवल था। धवल के पुत्र अनाक (अर्णेराज) को कुमारपाल ने ब्याघ्रपल्ली गांव जागीर में दिया था। व्याघ्रपल्ली का अपभ्रंस बघेल हुआ। इसी गांव से अणराज के वंशज बाघेल कहलाये। इसका पुत्र लवणप्रसाद भीम प्रथम का मंत्री था। लवणप्रसाद का पुत्र धवल और इसका पुत्र बिसलदेव था।) बिसल के बाद क्रमश अर्जुनदेव, रामेदव, सारंगदेव व कर्णदेव हुए इससे अलाउद्दीन खिलजी ने वि. सं. 1346 में राज्य छीन लिया।

 

गुजरात में अणहिलवाड़ा (पाटन) के अतिरिक्त लुणावला, बांसदा, बराद, दिमोदर, येथापुर, भादरवा, छालियों आदि सोलंकियों (चालुक्यों) के राज्य और ठिकाने थे।

 

 मूलराज ने वि. 1017 से 1042 

चामुण्डराय वि. 1042 से 1066

दुर्लभराज वि. सं. 1066 से 1078

भीम ने 1078 से 1120 वि



(5) रीवां राज्य (मप्र)

 

मध्यप्रदेश में रीवां बघेला सोलंकियों का राज्य था। यहां बघेलों के राज्य का संस्थापक व्याघ्रदेव माना जाता है। परन्तु व्याघ्रदेव का गुजरात के सोलंकियों से क्या संबंध था। जसवन्तसिंह राणावत ने किसी ख्यात या बडुवों के वंशक्रम के आधार पर लिखा है कि भीम के पुत्र कर्णदेव सोलंकी (गुजरात) (वि. 1120-1150) के छोटे भाई सारंग के पुत्र वीरसी के पुत्र व्याघ्रदेव थे। (3 क्षत्रिय दर्शन अगस्त 90 में जसवन्तसिंह राणावत का रीवा राज्य के बघेला लेख पू. 1) जसवन्तसिंह राणावत का लेख सही लगता है, जिसमें लिखा है कि “भीम के पुत्र कर्ण गुजरात के छोटे भाई सारंग के दो पुत्र एक का नाम अज्ञात दूसरे का वीरसी था। वीरसी के बड़े भाई का पुत्र धवल था और वीरसी के पुत्र का नाम व्याघ्रदेव था। धवल के पुत्र अनाक (अर्णोराज) के साथ ही वीरसी का पुत्र व्याघ्रपल्ली गांव में निवास के कारण बघेला (व्याघ्रपल्ली का विकृत रूप) कहलाये।” व्याघ्रदेव नये राज्य की तलाश में था। मालूम होता है इसी कारण पुरुषार्थी व्याघ्रदेव ने गुजरात से चलकर मध्यप्रदेश मे कालिंजर के पास भरें जाति के क्षेत्र गैहोर पर अधिकार कर विक्रमी की 13वीं शदी के द्वितीय चरण में बघेल राज्य की नींव डाली। मध्यप्रदेश का यह क्षेत्र बघेलखण्ड कहलाता है।

 

व्याघ्रदेव के बड़े पुत्र कर्णदेव का विवाह मण्डला के कलचुरी क्षत्रिय की पुत्री पदम से हुआ। कर्णदेव को दहेज में बांधवगढ का क्षेत्र प्राप्त हुआ। व्याघ्रदेव के अन्य पुत्रों में कन्धरदेव को कसोटा, कीर्तिदेव को पीथापुर मिला। उनके चौथे पुत्र सूरतदेव गुजरात चले गये जहां नहराव, मोर, वाडा, देवदा आदि इनके गांव है। पाचवें पुत्र श्यामदेव के वंशज बनानस, भदोई, फर्खवावाद की तरफ है। (1. वीर विनोद वा. 3 पृ. 555) कर्णदेव के पुत्र सारंगदेव ने सारंगपुर तथा पात्र विलासदेव ने विलासपुर बसाया। विलासदेव के पन्द्रहवें वंशज नरहरिदेव के पुत्र भैदचन्द व जनकदेव थे। भैदचनद बांधवगढ का शासक था तथा जनकदेव को घूमन की जागीर मिली। मैदचन्द के पुत्र शक्तिवाहन के समय बांधवगढ़ पर वि. सं. 1556 ई. 1499 में सिकन्दर लोदी का आक्रमण हुआ परन्तु वह अधिकार न सका। शालिवाहन के पुत्र वीरसिंह के तीन पुत्र वीरभानु, जमुनीभानु तथा नन्दभानु थे। जमुनीभानु को मैहर, सोहागपुर तथा नन्द भाग को होरिलद मिला।

 

वीरभानु के पुत्र रामचन्द के अधिकार में कालिंजर का सुदृढ दुर्ग था। वि. 1619 ई 7162 में अकबर की सेना ने कॉलिजर पर आक्रमण किया। रामचन्द्र ने आत्मसमर्पण कर दिया। अकबर ने रामचन्द्र को इलाहाबाद के पास जागीर दी। (3. अकबर दी ग्रेट मुगल- हिन्दी अनुवाद पृ. 100) रामचन्द्र के पुत्र विक्रमादित्य (वि. सं. 1974-91) ने विधियां और बेहड़ नदी के संगम स्थल पर नये राज्य की स्थापना कर रीवा को अपनी राजधानी बनाया। (1. बी 1 विनोद वा. 3 पृ. 560-62) यहीं से रीवा राज्य की स्थापना हुई। (2. गुजरात के भीम के पुत्र कर्ण के भाई सारंग से विक्रमादित्य तक का वंशक्रम इस प्रकार है सारंग, वीरसी, व्याघ्रदेव, कर्णदेव, सोहागदेव, सारंभदेव, विलासदेव, भीमलदेव, आनकदेव, बलनदेव, दलगीरदेव, मलगीरदेव, बरयादेव, सिंहदेव, वीरमदे (भैरवदेव) नरहरिदेव, भेवदेव, शालिवान, वीरसिंह, वीर भानुदेव, रामचन्द्र (रामदेव), वीरभद्र, विक्रमादित्य (जसवन्तसिंह राणावत का लेख रीवा राज्य के बघेल क्षत्रिय दर्पण अगस्त 1990 पृ. 1 व 3. व वीर विनोद वा. 3 पृ. 505-462 के अनुसार) विक्रमादित्य के चार पुत्र थे। बड़े पुत्र अमरसिंह रीवा की गद्दी बैठे। छोटे पुत्रों में इन्द्रसिंह को माधवगढ़, स्वरूपसिंह का पनासी (पनालसी) और अंदराय को चन्दिया की जागीर मिली। अमरसिंह के बाद उनके पुत्र अनूपसिंह शासक हुए। अन्य पुत्रों में दूसरे पुत्र फतहसिंह को सोहावल मिला जो बाद में रियासत बना अनूपसिंह के तीन पुत्र थे। बड़े पुत्र भावसिंह शासक हुए। अन्य पुत्रों में यशवन्तसिंह को गुढ़ा व जुझार को रामनगर की जागीर मिली। भावसिंह के बाद यशवसिंह के पुत्र अनिरूद्ध सिंह (गोद) गद्दी पर बैठे अनिरूद्धसिंह के भाई मुकुन्दसिंह को सेमरिया की जागीर मिली। 

 

अनिरूद्ध सिंह के वंशज जयसिंह ने पिण्डारियों से तंग आकर सन् 1812 वि 1888 में अंग्रेजों से साधक राज्य में शान्ति स्थापित की। इनके तीन पुत्र विश्वनाथसिंह बलभद्रसिंह और लक्ष्मणसिंह थे। विश्वनाथसिंह गद्दी पर बैठ बलभद्र को अमर पाटन व लक्ष्मणसिंह को पथरहर की जागीर मिली। विश्वनाथसिंह के बाद क्रमश रघुराजसिंह वेंकटरमन, गुलाबसिंह व मार्तण्डसिंह रीवा के राजा हुए। मार्तण्डसिंह ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सराहनीय योगदान दिया विन्धयप्रदेश के गठन के बाद इन्हें राजप्रमुख बनाया गया। मध्यप्रदेश की राजनीति में इनका काफी वर्चस्व है। 

 

रीवां राजवंश

 

  1. विक्रमादित्य (1618-1630 ई.)
  2. अमरसिंह (1630-1643)
  3. अनूपसिंह (1643-1660)
  4. भावसिंह (1660-1704)
  5. अनिरूद्ध सिंह (1704-1709)
  6. अवधूतसिंह (1758-1808)
  7. अजीतसिंह (1758–1808)
  8. जयसिंह (1808-1835)
  9. विश्वनाथसिंह (1835-1854)
  10. रूद्धराजसिंह (1846-1880)
  11. वेंकटरमनसिंह (1880-1918)

12 गुलाबसिंह (1918--1946)

  1. मार्तण्डसिंह (1946)

 

(6.) टोडा (राजस्थान) राज्य 

 

अणहिलपुर (पाटन का राजा सिद्धराज जयसिंह निरसतान मृत्यु को प्राप्त हुआ। उसके कोई पुत्र न होने से उसके बाद कुमारपाल गद्दी पर बैठा। यह कुमारपाल सिद्धराज के भाई करण के बड़े भाई क्षेमराज के पोते एवं देवप्रसाद के पुत्र त्रिभवनपाल का पुत्र था। इसी कुमारपाल के बड़े भाई कीर्तिपाल का पुत्र बालण (बालप) हुआ। इसी बालण वंशज बालणोत सोलकी है। नैणसी ने लिखा है कि टोड़ा राधवी राव कहावता । अ सोलंकी बाल्हणोत  (1. नैणसी री ख्यात भाग 1 पृ. 280) इससे मालूम होता है कि गुजरात के सोलंकी बालण के वंशजों ने टोड़ा (जि. जयपुर राज.) राज्य कायम किया। बालण के पुत्र बोहड़ (बाहड़) के सांगा और सांगा के गोयंददास हुए। गोयन्ददास के पुत्र कानड़ के पुत्र महिलू हुआ। (2. नैणसी री ख्यात भाग 1 पृ. 280) इसके वंशज महिलणोत सोंलकी कहलाते है। इसका मुख्य स्थान टोरड़ी (मालपुरा के पास) था। इसका राज्य वि. सं. 1412 में था (रणबांकुरा फरवरी 1987 में पृथ्वीराज शेखावत का लेख पृ. 11) 

 

महलू के पुत्र दुर्जनशाल के पुत्र हरराज हुआ। हरराज का पुत्र सुरताण टोडा का राव कहाता था। इसके समय टोडा पर मांडू सुल्तान के अधिकारी लाला पठान ने आक्रमण किया और टोडा छीन लिया। विपत्ति के दिनों में राव सुरताण मेवाड़ के राणा रायमल (वि. 1530-1566) के पास चला गया। रायमल ने राव सुरताण को बदनौर की जागीर दे दी। उसके तारा नाम की सुन्दर लडकी थी। राणा रायमल के पुत्र जयमल ने तारा से दुर्व्यहार करने का प्रयत्न किया। जो राजपूत चरित्र के बिलकुल विपरीत थी। अतः राव सुरताण के साले रतना सांखला ने अवसर पाकर बरछी से जयमल ने मार डाला। (4. नैणसी री ख्यात भाग 1 पृ. 281 (ब) राज का इतिहास गहलोत पृ. 215 (स) Annals and Anliqueties of Raj का हिन्दी अनुवाद - केशवकुमार पृ. 172) जयमल का भाई पृथ्वीराज ने तारा से शादी करने की इच्छा जाहिर थी। तारा ने कहलाया कि "मैं उसी राजपूत से शादी करूंगी जो मेरी जन्मभूमि टोड़ा को मुसलमानों से छुड़ाने का वचन देगा।" पृथ्वीराज ने वचन दिया और तारा का विवाह पृथ्वीराज से हुआ।

 

पृथ्वीराज बड़ा वीर था। उसने टोडा के मुसलमानों पर आक्रमण किया और टोडा को मुसलमानों से छीना । इस अभियान में तारा भी उनके साथ थी। (1. राज. इतिहास गहलोत पृ. 215) मालूम होता है कि इसके बाद राव सुरतान टोडा पर शासन करने लगे। राव सुरतान के वि. सं. 1551 से 1557 तक के शिलालेख मिले है। अकबर बादशाह के समय टोडा आमेर के जगन्नाथ कछवाह को मिल गया। सुरतान के सातवें वंशज श्यामसिंह का टोरड़ी (मालपुरा के पास) ठिकाना था। शाहजहां ने टोडा जयसिंह शीशोदिया को जागीर में दे दिया था। इस कारण यह टोडा रायसिंह कहलाया । 

 

घनश्यामसिंह राजवी चंगोई 
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