सिसोदिया (गुहिलोत) वंश

गुहिलोत (सिसोदिया) वंश : उत्पत्ति

गुहिलोत वंश (सिसोदिया) वंश : उत्पत्ति

(By- घनश्यामसिंह राजवी चंगोई) 

 

भगवान *राम* के पुत्र कुश के वंशज अयोध्या के अंतिम सूर्यवंशी राजा सुमित्र के एक पुत्र कूर्म के वंशज *कछवाह* कहलाये। सुमित्र के दूसरे पुत्र विश्वराज के वंशज *राठौड़* हुए। सुमित्र के तीसरे पुत्र वज्रनाभ के वंशज आगे चलकर *गुहिलोत* कहलाये। राजा सुमित्र के पुत्र वज्रनाभ के वंशक्रम मे महारथी, अचलसेन, कनकसेन, महासेन, विजयसेन, अजयसेन, अमंगसेन, मदसेन, सिहरथ व विजयभूप हुए। विजयभूप अयोध्या से दक्षिण की तरफ अर्थात मगध गए। यहां से इनके वंशज गुजरात गए। विजयभूप के वंश क्रम में पदमादित्य, हरदत्त, सुजासादित्य, सुमुखादित्य, सोमदत्त व शिलादित्य हुए। 

 

शिलादित्य प्रथम (वि सं  663 से 669) वल्लभी गुजरात में राज करते थे शिलादित्य हूणों के आक्रमण से वीरगति को प्राप्त हुए और वल्लभी नष्ट हो गई। उस समय शिलादित्य की रानी पुष्पावती जो गर्भवती थी, वह अम्बा भवानी की यात्रा पर गई हुई थी। रानी को जब वल्लभी पतन की सूचना मिली तो वह अरावली पर्वत की एक गुफा में जाकर रहने लगी। वहाँ गुफा में पुत्र उत्पन्न होने के कारण उसका नाम गुहा या गुहादित्य रखा गया। जिनके वंशज आगे चलकर *गुहिलोत* कहलाए। 

 

 गुहिलोत वंश संसार के प्राचीनतम राज वंशों में माना जाता है। स्वाधिनता एवं भारतीय संस्कृति की अभिरक्षा के लिए इस वंश ने जो अनुपम त्याग और अपूर्व बलिदान दिये सदा स्मरण किये जाते रहेंगे। मेवाड की वीर प्रसूता धरती में रावल बप्पा, महाराणा सांगा, महाराण प्रताप जैसे सूरवीर, यशस्वी, कर्मठ, राष्ट्रभक्त व स्वतंत्रता प्रेमी विभूतियों ने जन्म लेकर न केवल मेवाड वरन संपूर्ण भारत को गौरान्वित किया है। स्वतन्त्रता की अखल जगाने वाले प्रताप आज भी जन-जन के हृदय में बसे हुये, सभी स्वाभिमानियों के प्रेरक बने हुए है। 

 

 सिसोदिया 

 

गहलौत राजपूतों की शाखा सिसोदिया हैं। राहप जी के वंशज 'सिसोदा ग्राम' में रहने से यह नाम प्रसिद्ध हुआ। यह ग्राम उदयपुर से 24 किलोमीटर उत्तर में सीधे मार्गं से है। इस वंश का राज्य मेवाड़ प्रसिद्ध रियासतों में है। इस वंश की 24 शाखाएँ हैं। किवदन्ति यह भी है कि सिसोदिया जो ''शीश +दिया'' अर्थात ''शीश/सिर/मस्तक'' का दान दिया या त्याग कर दिया। इसीलिए ऐसा करने वाले स्वाभिमानी क्षत्रिय वंशजों को सिसोदिया कहा जाता है।

 

घनश्यामसिंह राजवी चंगोई 
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गुहिलोत वंश के गोत्र प्रवरादि

गुहिलोत (सिसोदिया) वंश के गोत्र प्रवरादि

वंश – सूर्यवंशी
गोत्र – वैजवापायन
प्रवर – कच्छ, भुज, मेंष
वेद – यजुर्वेद
शाखा – वाजसनेयी
गुरु – द्लोचन(वशिष्ठ)
ऋषि – हरित
कुलदेवी – बाण माता
कुल देवता – श्री सूर्य नारायण
इष्ट देव – श्री एकलिंगजी
वॄक्ष – खेजड़ी
नदी – सरयू
झंडा – सूर्य युक्त
पुरोहित – पालीवाल
भाट – बागड़ेचा
चारण – सोदा बारहठ
ढोल – मेगजीत
तलवार – अश्वपाल
बंदूक – सिंघल
कटार – दल भंजन
नगारा – बेरीसाल
पक्षी – नील कंठ
निशान – पंच रंगा
घोड़ा – श्याम कर्ण
तालाब – भोडाला
घाट – सोरम
चिन्ह – सूर्य
शाखाए – 24

मेवाड़ राज्य

मेवाड़ राज्य  

(संकलन- घनश्यामसिंह चंगोई)

गुहादित्य ने ईस्वी सन् 566 के लगभग ईडर में अपना राज्य स्थापित किया। इनके वंशज भोज, महेंद्र 1, नाग, शील, अपराजित तथा महेंद्र 2 हुए। अपराजित भीलों के विद्रोह में मारे गए तथा उनके तीन वर्षीय पुत्र बप्पा रावल (काल भोज) की नागर वंशीय ब्राह्मणों ने रक्षा की। बप्पा रावल बचपन में हरित ऋषि की सेवा में रहकर श्री एकलिंग जी की पूजा किया करते थे। तभी से गुहिलोतों के इष्टदेव *श्री एकलिंग जी* माने जाने लगे। बड़े होकर बाप्पा रावल ने हरित ऋषि के आदेश से 734 ईस्वी में मान मोरी (चित्तौड़ के संस्थापक चित्ररांगद मोरी के वंशज) से  *चित्तौड़गढ़* जीत लिया व रावल की उपाधि धारण की। 

 

 बप्पा ने सन 734 ई० में मोर्य वंशीय राजा चित्रांगद (मान मोरी) परमार से चित्तौड की सत्ता छीन कर मेवाड में गहलौत वंश के शासक का सूत्रधार बनने का गौरव प्राप्त किया। इनका काल सन 734 ई० से 753 ई० तक था। इसके बाद के शासकों के नाम और समय काल निम्न था –

  1. रावल बप्पा ( काल भोज ) – 734 ई० मेवाड राज्य के गहलौत शासन के सूत्रधार।
  2. रावल खुमान – 753 ई०
  3. मत्तट – 773 – 793 ई०
  4. भर्तभट्त – 793 – 813 ई०
  5. रावल सिंह – 813 – 828 ई०
  6. खुमाण सिंह – 828 – 853 ई०
  7. महायक – 853 – 878 ई०
  8. खुमाण तृतीय – 878 – 903 ई०
  9. भर्तभट्ट द्वितीय – 903 – 951 ई०
  10. अल्लट – 951 – 971 ई०
  11. नरवाहन – 971 – 973 ई०
  12. शालिवाहन – 973 – 977 ई०
  13. शक्ति कुमार – 977 – 993 ई०
  14. अम्बा प्रसाद – 993 – 1007 ई०
  15. शुची वरमा – 1007- 1021 ई०
  16. नर वर्मा – 1021 – 1035 ई०
  17. कीर्ति वर्मा – 1035 – 1051 ई०
  18. योगराज – 1051 – 1068 ई०
  19. वैरठ – 1068 – 1088 ई०
  20. पाल – 1088 – 1103 ई०
  21. वैरी सिंह – 1103 – 1107 ई०
  22. विजय सिंह – 1107 – 1127 ई०
  23. अरि सिंह – 1127 – 1138 ई०
  24. चौड सिंह – 1138 – 1148 ई०
  25. विक्रम सिंह – 1148 – 1158 ई०
  26. रण सिंह ( कर्ण सिंह ) – 1158–1168 ई०
  27. क्षेमसिंह – 1168 –1172 ई०
  28. सामंत सिंह – 1172 –1179 ई०

(क्षेम सिंह के दो पुत्र सामंत और कुमार सिंह। ज्येष्ठ पुत्र सामंत मेवाड की गद्दी पर सात वर्ष रहे क्योंकि जालौर के सोनगरा शासक कीर्तिपाल चौहान ने मेवाड पर अधिकार कर लिया। सामंत सिंह अहाड की पहाडियों पर चले गये। इन्होने बडौदे पर आक्रमण कर वहां का राज्य हस्तगत कर लिया। लेकिन इसी समय इनके भाई कुमार सिंह पुनः मेवाड पर अधिकार कर लिया। )

  1. कुमार सिंह – 1179 –1191 ई०
  2. मंथन सिंह – 1191 –1211 ई०
  3. पद्म सिंह – 1211 –1213 ई०
  4. जैत्र सिंह – 1213–1261 ई०
  5. तेज सिंह -1261 –1273 ई०
  6. समर सिंह – 1273 –1301 ई०

(समर सिंह का एक पुत्र रतन सिंह मेवाड राज्य का उत्तराधिकारी हुआ और दूसरा पुत्र कुम्भकरण नेपाल चला गया। नेपाल के राज वंश के शासक कुम्भकरण के ही वंशज हैं)

  1. रतन सिंह ( 1301-1303 ई० ) – इनके कार्यकाल में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौडगढ पर अधिकार कर लिया। प्रथम जौहर पदमिनी रानी ने सैकडों महिलाओं के साथ किया। गोरा – बादल का प्रतिरोध और युद्ध भी प्रसिद्ध रहा।
  2. अजय सिंह ( 1303 –1326 ई० ) – हमीर राज्य के उत्तराधिकारी थे किन्तु अवयस्क थे। इसलिए अजय सिंह गद्दी पर बैठे।
  3. महाराणा हमीर सिंह ( 1326 –1364 ई० ) – हमीर ने अपनी शौर्य, पराक्रम एवं कूटनीति से मेवाड राज्य को तुगलक से छीन कर उसकी खोई प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की और अपना नाम अमर किया महाराणा की उपाधि धारण की । इसी समय से ही मेवाड नरेश महाराणा उपाधि धारण करते आ रहे हैं।
  4. महाराणा क्षेत्र सिंह ( 1364 –1382 ई० )
  5. महाराणा लाखासिंह ( 1382 –1421 ई० ) – योग्य शासक तथा राज्य के विस्तार करने में अहम योगदान। इनके पक्ष में ज्येष्ठ पुत्र चुडा ने विवाह न करने की भीष्म प्रतिज्ञा की और पिता से हुई संतान मोकल को राज्य का उत्तराधिकारी मानकर जीवन भर उसकी रक्षा की।
  6. महाराणा मोकल ( 1421 –1433 ई० )
  7. महाराणा कुम्भा ( 1433 –1469 ई० ) – इन्होने न केवल अपने राज्य का विस्तार किया बल्कि योग्य प्रशासक, सहिष्णु, किलों और मन्दिरों के निर्माण के रुप में ही जाने जाते हैं। कुम्भलगढ़ इन्ही की देन है. इनके पुत्र उदा ने इनकी हत्या करके मेवाड के गद्दी पर अधिकार जमा लिया।
  8. महाराणा उदा ( उदय सिंह ) ( 1468 –1473 ई० ) – महाराणा कुम्भा के द्वितीय पुत्र रायमल, जो ईडर में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे थे, आक्रमण करके उदय सिंह को पराजित कर सिंहासन की प्रतिष्ठा बचा ली। अन्यथा उदा पांच वर्षों तक मेवाड का विनाश करता रहा।
  9. महाराणा रायमल ( 1473 –1509 ई० ) – सबसे पहले महाराणा रायमल के मांडू के सुल्तान गयासुद्दीन को पराजित किया और पानगढ, चित्तौड्गढ और कुम्भलगढ किलों पर पुनः अधिकार कर लिया पूरे मेवाड को पुनर्स्थापित कर लिया। इसे इतना शक्तिशाली बना दिया कि कुछ समय के लिये बाह्य आक्रमण के लिये सुरक्षित हो गया। लेकिन इनके पुत्र संग्राम सिंह, पृथ्वीराज और जयमल में उत्तराधिकारी हेतु कलह हुआ और अंततः दो पुत्र मारे गये। अन्त में संग्राम सिंह गद्दी पर गये।
  10. महाराणा सांगा ( संग्राम सिंह ) ( 1509 –1527 ई० ) – महाराणा सांगा उन मेवाडी महाराणाओं में एक था जिसका नाम मेवाड के ही वही, भारत के इतिहास में गौरव के साथ लिया जाता है। महाराणा सांगा एक साम्राज्यवादी व महत्वाकांक्षी शासक थे, जो संपूर्ण भारत पर अपना अधिकार करना चाहते थे। इनके समय में मेवाड की सीमा का दूर – दूर तक विस्तार हुआ। महाराणा हिन्दु रक्षक, भारतीय संस्कृति के रखवाले, अद्वितीय योद्धा, कर्मठ, राजनीतीज्ञ, कुश्ल शासक, शरणागत रक्षक, मातृभूमि के प्रति समर्पित, शूरवीर, दूरदर्शी थे। इनका इतिहास स्वर्णिम है। जिसके कारण आज मेवाड के उच्चतम शिरोमणि शासकों में इन्हे जाना जाता है।
  11. महाराणा रतन सिंह ( 1528 –1531 ई० )
  12. महाराणा विक्रमादित्य ( 1531 –1534ई० ) – यह अयोग्य सिद्ध हुआ और गुजरात के बहादुर शाह ने दो बार आक्रमण कर मेवाड को नुकसान पहुंचाया इस दौरान 1300 महारानियों के साथ कर्मावती सती हो गई। विक्रमादित्य की हत्या दासीपुत्र बनवीर ने करके 1534 – 1537 तक मेवाड पर शासन किया। लेकिन इसे मान्यता नहीं मिली। इसी समय सिसोदिया वंश के उदय सिंह को पन्नाधाय ने अपने पुत्र की जान देकर भी बचा लिया और मेवाड के इतिहास में प्रसिद्ध हो गई।
  13. महाराणा उदय सिंह ( 1537 –1572 ई० ) – मेवाड़ की राजधानी चित्तोड़गढ़ से उदयपुर लेकर आये. गिर्वा की पहाड़ियों के बीच उदयपुर शहर इन्ही की देन है. इन्होने अपने जीते जी गद्दी ज्येष्ठपुत्र  जगमाल को दे दी, किन्तु उसे सरदारों ने नहीं माना, फलस्वरूप छोटे बेटे प्रताप को गद्दी मिली.
  14. महाराणा प्रताप ( 1572 -1597 ई० ) – इनका जन्म 9 मई 1540 ई० मे हुआ था। राज्य की बागडोर संभालते समय उनके पास न राजधानी थी न राजा का वैभव, बस था तो स्वाभिमान, गौरव, साहस और पुरुषार्थ। उन्होने तय किया कि सोने चांदी की थाली में नहीं खाऐंगे, कोमल शैया पर नही सोयेंगे, अर्थात हर तरह विलासिता का त्याग करेंगें। धीरे–धीरे प्रताप ने अपनी स्थिति सुधारना प्रारम्भ किया। इस दौरान मान सिंह अकबर का संधि प्रस्ताव लेकर आये जिसमें उन्हे प्रताप के द्वारा अपमानित होना पडा। परिणाम यह हुआ कि 21 जून 1576 ई० को हल्दीघाटी नामक स्थान पर अकबर और प्रताप का भीषण युद्ध हुआ। जिसमें 14 हजार राजपूत मारे गये। परिणाम यह हुआ कि वर्षों प्रताप जंगल की खाक छानते रहे, जहां घास की रोटी खाई और निरन्तर अकबर सैनिको का आक्रमण झेला, लेकिन हार नहीं मानी। ऐसे समय भीलों ने इनकी बहुत सहायता की। अन्त में भामा शाह ने अपने जीवन में अर्जित पूरी सम्पत्ति प्रताप को देदी। जिसकी सहायता से प्रताप NE चित्तौडगढ को छोडकर अपने सारे किले 1588 ई० में मुगलों से छिन लिया। 19 जनवरी 1597 में चावंड में प्रताप का निधन हो गया।
  15. महाराणा अमर सिंह -(1597 –1620 ई० ) – प्रारम्भ में मुगल सेना के आक्रमण न होने से अमर सिंह ने राज्य में सुव्यवस्था बनाया। जहांगीर के द्वारा करवाये गयें कई आक्रमण विफ़ल हुए। अंत में खुर्रम ने मेवाड पर अधिकार कर लिया। अंत में मुग़लों के लगातार हो रहे आक्रमणों से प्रजा और मेवाड़ राज्य को क्षति होने लगी, तब पुत्र कर्ण सिंह और अन्य सामन्त-सरदारों के कहने पर महाराणा अमर सिंह ने मुग़लों से सन्धि की और साथ ही यह भी साफ किया कि मेवाड़ महाराणा कभी भी मुग़ल दरबार में उपस्थित नही होंगे। केवल राजकुमार ही अपनी उपस्थिती वहाँ देंगे । इस सन्धि के बाद महाराणा अमर सिंह अन्दर से टूट गए, अपने पिता महाराणा प्रताप जी को दिया वचन वे निभाने में असफल हो गए थे। इसी शोक में उन्होने मेवाड़ की गद्दी छोड़ दी थी। वे मेवाड के अंतिम स्वतन्त्र शासक है।
  1. महाराणा कर्णसिंह (1620 –1628 ई० ) – इन्होनें मुगल शासकों से संबंध बनाये रखा और आन्तरिक व्यवस्था सुधारने तथा निर्माण पर ध्यान दिया।
  2. महाराणा जगत सिंह (1628 –1652 ई० ) - शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) को अपना “पगड़ी बदल” भाई बनाया और उन्हें अपने यहाँ पनाह दी। 
  1. महाराणा राजसिंह (1652 -1680 ई० ) – यह मेवाड के उत्थान का काल था। इन्होने औरंगजेब से कई बार लोहा लेकर युद्ध में मात दी। इनका शौर्य पराक्रम और स्वाभिमान महाराणा प्रताप जैसे था। इनकों राजस्थान के राजपूतों का एक गठबंधन, राजनितिक एवं सामाजिक स्तर पर बनाने में सफ़लता अर्जित हुई। जिससे मुगल से संगठित लोहा लिया जा सके। महाराणा के प्रयास से अंबेर, मारवाड और मेवाड में गठबंधन बन गया। वे मानते हैं कि बिना सामाजिक गठबंधन के राजनीतिक गठबंधन अपूर्ण और अधूरा रहेगा। अतः इन्होने मारवाह और आमेर से खानपान एवं वैवाहिक संबंध जोडने का निर्णय ले लिया। राजसमन्द झील एवं राजनगर इन्होने ही बसाया। 
  2. महाराणा जय सिंह (1680–1698) – जयसमंद झील का निर्माण करवाया.
  3. महाराणा अमर सिंह द्वितीय (1698 –1710) – इसके समय मेवाड की प्रतिष्ठा बढी और उन्होनें कृषि पर ध्यान देकर किसानों को सम्पन्न बना दिया।
  4. महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय (1710 –1734) – महाराणा संग्राम सिंह दृढ और अडिग, न्यायप्रिय, निष्पक्ष, सिद्धांतप्रिय, अनुशासित, आदर्शवादी थे। इन्होने 18 बार युद्ध किया तथा मेवाड राज्य की प्रतिष्ठा और सीमाओं को न केवल सुरक्षित रखा वरन उनमें वृध्दि भी की।
  5. महाराणा जगत सिंह द्वितीय ( 1734 –1751 ई० ) – ये एक अदूरदर्शी और विलासी शासक थे। इन्होने जलमहल बनवाया। 
  6. महाराणा प्रताप सिंह द्वितीय ( 1751 –1754 ई० )
  7. महाराणा राजसिंह द्वितीय ( 1754 –1761 ई० )
  8. महाराणा अरिसिंह द्वितीय ( 1761 –1773 ई० )
  9. महाराणा हमीर सिंह द्वितीय ( 1773 –1778 ई० ) – इनके कार्यकाल में सिंधिया और होल्कर ने मेवाड राज्य को लूटपाट करके तहस – नहस कर दिया।
  10. महाराणा भीमसिंह ( 1778 –1828 ई० ) – इनके कार्यकाल में भी मेवाड आपसी गृहकलह से दुर्बल होता चला गया।  13 जनवरी 1818 को ईस्ट इंडिया कम्पनी और मेवाड राज्य में समझौता हो गया। अर्थात मेवाड राज्य ईस्ट इंडिया के साथ चला गया।मेवाड के पूर्वजों की पीढी में बप्पारावल, कुम्भा, महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप जैसे तेजस्वी, वीर पुरुषों का प्रशासन मेवाड राज्य को मिल चुका था। प्रताप के बाद अधिकांश पीढियों में वह क्षमता नहीं थी जिसकी अपेक्षा मेवाड को थी। महाराजा भीमसिंह योग्य व्यक्ति थे, निर्णय भी अच्छा लेते थे परन्तु उनके क्रियान्वयन पर ध्यान नही देते थे। इनमें व्यवहारिकता का आभाव था। ब्रिटिश एजेन्ट के मार्गदर्शन, निर्देशन एवं सघन पर्यवेक्षण से मेवाड राज्य प्रगति पथ पर अग्रसर होता चला गया।
  11. महाराणा जवान सिंह (1828 –1838 ई० ) – निःसन्तान। सरदार सिंह को गोद लिया ।
  12. महाराणा सरदार सिंह (1838 –1842 ई० ) – निःसन्तान। भाई स्वरुप सिंह को गद्दी दी.
  13. महाराणा स्वरुप सिंह (1842 –1861 ई० ) – इनके समय 1857 की क्रान्ति हुई। इन्होने विद्रोह कुचलने में अंग्रेजों की मदद की।
  14. महाराणा शंभू सिंह (1861 –1874 ई० ) –1868 में घोर अकाल पडा। अंग्रेजों का हस्तक्षेप बढा।
  15. महाराणा सज्जन सिंह ( 1874 –1884 ई० ) – बागोर के महाराज शक्ति सिंह के कुंवर सज्जन सिंह को महाराणा का उत्तराधिकार मिला।  इन्होनें राज्य की दशा सुधारनें में उल्लेखनीय योगदान दिया।
  1. महाराणा फ़तह सिंह ( 1883 –1930 ई० ) – सज्जन सिंह के निधन पर शिवरति शाखा के गजसिंह के अनुज एवं दत्तक पुत्र फ़तेहसिंह को महाराणा बनाया गया। फ़तहसिंह कुटनीतिज्ञ, साहसी स्वाभिमानी और दूरदर्शी थे। संत प्रवृति के व्यक्तित्व थे. इनके कार्यकाल में ही किंग जार्ज पंचम ने दिल्ली को देश की राजधानी घोषित करके दिल्ली दरबार लगाया. महाराणा दरबार में नहीं गए . 
  2. महाराणा भूपाल सिंह (1930 –1955 ई० ) – इनके समय  में भारत को स्वतन्त्रता मिली और भारत या पाक मिलने की स्वतंत्रता। भोपाल के नवाब और जोधपुर के महाराज हनुवंत सिंह पाक में मिलना चाहते थे और मेवाड को भी उसमें मिलाना चाहते थे। इस पर उन्होनें कहा कि मेवाड भारत के साथ था और अब भी वहीं रहेगा। यह कह कर वे इतिहास में अमर हो गये। स्वतंत्र भारत के वृहद राजस्थान संघ के भूपाल सिंह प्रमुख बनाये गये।
  3. महाराणा भगवत सिंह ( 1955 –1984 ई० )
  4. श्रीजी अरविन्दसिंह एवं महाराणा महेन्द्र सिंह (1984 ई० से निरंतर..)

 

इस तरह 556 ई० में जिस गुहिल वंश की स्थापना हुई बाद में वही सिसोदिया वंश के नाम से जाना गया । जिसमें कई प्रतापी राजा हुए, जिन्होने इस वंश की मानमर्यादा, इज्जत और सम्मान को न केवल बढाया बल्कि इतिहास के गौरवशाली अध्याय में अपना नाम जोडा । यह वंश कई उतार-चढाव और स्वर्णिम अध्याय रचते हुए आज भी अपने गौरव और श्रेष्ठ परम्परा के लिये जाना पहचाना जाता है। धन्य है वह मेवाड और धन्य सिसोदिया वंश जिसमें ऐसे ऐसे अद्वीतिय देशभक्त दिये। 

 

घनश्यामसिंह राजवी चंगोई 
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डूंगरपुर राज्य

डूंगरपुर राज्य

(संकलन-घनश्यामसिंह चंगोई

 

मेवाड़ (चित्तौड़) के रावल सामंतसिंह से जालोर के कीर्तिपाल चौहान ने राज्य छीन लिया। तब यह आहड़ प्रदेश में आए। मेवाड़ में बहने वाली आहड़ नदी से यह प्रदेश आहड़ प्रदेश कहलाता है। सामंत सिंह जी ने सन 1175 में वागड़ में राज्य स्थापित किया। वागड़ का राज्य गुजरात वालों ने छीन लिया तो सामंतसिंह जी पृथ्वीराज चौहान के पास चले गए और पृथ्वीराज व मोहम्मद गौरी के मध्य हुए युद्ध में काम आए। सामंतसिंह जी के छोटे भाई कुमारसिंह जी ने पुनः मेवाड़ पर अधिकार किया। उनके प्रपौत्र महारावल जैत्रसिंह जी मेवाड़ ने पुनः वागड़ पर अधिकार किया। महारावल जेत्रसिंह के पुत्र सीहड़ वागड़ प्रदेश के उत्तराधिकारी हुए। सीहड़ के वंशज आहड़ प्रदेश से *आहड़िया गुहिलोत* कहलाए।

सीहड़ के बाद विजयसिंह देपालदेव व वीरसिंहदेव शासक हुए। इनकी राजधानी बड़ौदा (आसपुर) थी। इनके बाद भचुंड व डूंगरसिंह हुए। डूंगरसिंह ने *डूंगरपुर* बसाया व उसे अपनी राजधानी बनाया। डूंगर सिंह जी के वंशज गोपीनाथ पर अहमदशाह गुजरात ने आक्रमण किया किंतु उसे हारना पड़ा। गोपीनाथ के पुत्र सोमदास पर भी मांडू के सुल्तान महमूद शाह ने चड़ाई की थी। सोमदास के पुत्र उदयसिंह प्रथम का ईडर के राव रायमल को गद्दी दिलाने में महत्वपूर्ण योगदान रहा। इन पर गुजरात के मुजफ्फर शाह ने चढ़ाई की किंतु वह पराजित हुआ उदय सिंह जी ने सन 1527 में खानवा के युद्ध में राणा सांगा के पक्ष में लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की।

उदयसिंह जी के दो पुत्रों में राज्य का बँटवारा हुआ। पृथ्वीराज जी को *डूंगरपुर* व जगमाल जी को *बांसवाड़ा* का राज्य मिला। पृथ्वीराज जी के पुत्र आसकरण जी ने हाजीखां व महाराणा उदयसिंह के बीच हुए हरमाड़ा युद्ध में महाराणा का साथ दिया। बाद में आसकरण जी ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। इनके बाद पुंजराम जी भी शाही मनसबदार रहे। सन् 1818 में महारावल जसवंतसिंह जी द्वितीय की अंग्रेजों से संधि हुई।

सन् 1844 में महारावल उदयसिंह जी द्वितीय साबली से डूंगरपुर गोद आए। आजादी के बाद महारावल लक्ष्मण सिंह जी राजस्थान विधानसभा अध्यक्ष व नेता प्रतिपक्ष भी रहे। आपके दूसरे भाई वीरभद्र सिंह जी मध्य प्रदेश में कलेक्टर रहे तथा तीसरे भाई डॉ नागेंद्र सिंह जी अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के जज रहे। महारावल महिपाल सिंह जी के दूसरे भाई जयसिंह जी मुंबई मे फिल्म उद्योग रहे तथा तीसरे भाई राजसिंह जी डूंगरपुर भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष रहे। वर्तमान महाराजकुमार हर्षवर्धन सिंह जी राज्यसभा सदस्य हैं। डूंगरपुर राज्य में इस वंश के साबली ओड़ा नांदली तथा गामडी अहाड़ा मांडवा आदि ठिकाने है।

*डूंगरपुर के शासक*


क्र        नाम     शासन वर्ष (ईस्वी सन् में)
(1) सामंत सिंह 1171 से 1179
(2) जयंतसिंह (जैत्रसिंह) 1213 से 1221
(3) सीहड़ 1221 से 1234
(4) विजयसिंह 1234 से 1250
(5) देपालदेव 1250 से 1287
(6) वीरसिंह देव 1287 से 1302
(7) भूचण्ड 1302 से
(8) डूंगरसिंह
(9) कर्मसिंह
(10) कान्हड़देव
(11) प्रताप सिंह 1399 से 1426
(12) गोपीनाथ 1426 से 1441
(13) सोमदास 1441 से 1480
(14) गंगदास 1480 से 1497
(15) उदय सिंह 1497 से 1527
(16) पृथ्वीराज 1527 से 1549
(17) आसकरण 1549 से 1581
(18) सहसमल 1581 से 1606
(19) कर्मसिंह 1606 से 1609
(20) पुंजराम 1609 से 1657
(21) गिरधर 1657 से 1661
(22) जसवंतसिंह 1661 से 1691
(23) कुमारसिंह 1691 से 1702
(24) रामसिंह 1702 से 1730
(25) शिवसिंह 1730 से 1785
(26) बैरीशाल 1785 से 1790
(27) फतेहसिंह 1790 से 1808
(28) जसवंत सिंह।। 1808 से 1825
(29) दलपतसिंह 1825 से 1844
(30) उदयसिंह।। 1844 से 1898
(31) विजयसिंह।। 1898 से 1918
(32) लक्ष्मणसिंह 1918 से 1989
(33) महिपालसिंह 1989 से वर्तमान 

 

घनश्यामसिंह राजवी चंगोई 
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बाँसवाड़ा राज्य

बाँसवाड़ा राज्य

(संकलन- घनश्यामसिंह चंगोई) 

 

डूंगरपुर महारावल उदयसिंह जी के दो पुत्रों में राज्य का बँटवारा हुआ। बड़े पुत्र पृथ्वीराज जी को *डूंगरपुर* मिला व छोटे पुत्र जगमाल जी ने सन् 1518 में नवीन *बांसवाड़ा* राज्य की स्थापना की। जगमाल जी के बाद जयसिंह व प्रतापसिंह हुए। महारावल प्रतापसिंह जी ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। इस पर महाराणा प्रताप बहुत नाराज हुए व बाँसवाड़ा पर आक्रमण कर दिया। इनके बाद महारावल मानसिंह के समय खांदू के भीलों ने उपद्रव किया। भील सरदार गनेती ने धोखे से महारावल मानसिंह को मार दिया इस पर मानसिंह चौहान ने गनेती भील को मार दिया।

महारावल मानसिंह जी के कोई पुत्र नहीं था अतः मानसिंह चौहान स्वयं ही बाँसवाड़ा का शासक बन गया। वागड़ के चौहानों ने इकट्ठे होकर मानसिंह चौहान को समझाया तब फिर महारावल जगमाल जी के पौत्र व कल्याणमल जी के पुत्र उग्रसेन को गद्दी पर बैठाया। उग्रसेन का पुत्र समर सिंह शाहजहाँ का मनसबदार था। बाद में इसने महाराणा जगतसिंह जी की अधीनता स्वीकार कर ली।

महाराणा राजसिंह से नाराज होकर औरंगजेब ने बाँसवाड़ा का फरमान समरसिंह के पुत्र कुशलसिंह के नाम लिख दिया। महारावल कुशलसिंह जी ने कुशलगढ़ बसाया। महारावल उमेदसिंह जी के समय सन् 1818 में अंग्रेजों से संधि हुई। आज़ादी के बाद बाँसवाड़ा राज्य का भी भारत सरकार मे विलय हुआ। बाँसवाड़ा राज्य मे इस वंश के खान्दू तेजपुर सुरपुर तथा देवदा कुटानिया भीमसोर आमजा आदि ठिकाने है।

*बाँसवाड़ा के शासक*
क्र     नाम   शासन वर्ष (इस्वी सन् मे)
(1) जगमाल 1518 से 1545
(2) जय सिंह 1545 से 1549
(3) प्रताप सिंह 1549 से 1580
(4) मान सिंह 1580 से 1586
(5) उग्रसेन 1586 से 1613
(6) उदयभाण 1613 से 1614
(7) समर सिंह 1614 से 1660
(8) कुशल सिंह 1660 से 1687
(9) अजब सिंह 1687 से 1705
(10) भीम सिंह 1705 से 1713
(11) विष्णु सिंह 1713 से 1737
(12) उदय सिंह ।। 1737 से 1747
(13) पृथ्वी सिंह 1747 से 1786
(14) विजय सिंह 1786 से 1816
(15) उम्मेद सिंह 1816 से 1819
(16) भवानी सिंह 1819 से 1839
(17) बहादुर सिंह 1839 से 1844
(18) लक्ष्मण सिंह 1844 से 1905
(19) शम्भू सिंह 1905 से 1913
(20) पृथ्वी सिंह ।। 1913 से 1944
(21) चंद्रवीर सिंह 1944 से
(22) सूर्यवीर सिंह
(23) जगमाल सिंह

 

घनश्यामसिंह राजवी चंगोई 
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गुहिलोत वंश की शाखाएँ

गुहिलोत वंश की शाखाएँ 

(संकलन- घनश्यामसिंह चंगोई)

 

(1) गुहिलोत :-- मेवाड़ राजवंश के आदि पुरुष गुहादित्य के वंशज।
(2) आसिल :- कालभोज (बाप्पा रावल) के पुत्र आसिल के वंशज।
(3) मांगलिया :-- राजा खुमाण द्वितीय के पुत्र मंगल के वंशज।
(4) योगदान :-- मण्डोर विजय मे राव चुण्डा को श्रेष्ठ योगदान देने से ये मांगलिया योगदान कहलाये।
(5) भटेवरा:-- राजा भर्तभट के वंशज भटेवरा कहलाये।
(6) अहाड़िया :-- रावल जयंतसिंह के पुत्र सीहड़ के वंशज आहड़ प्रदेश मे रहने से आहड़िया कहलाये। डूंगरपुर बाँसवाड़ा राजवंश।
(7) शिशोदिया :-- मेवाड़ के राजा रणसिंह के पुत्र राणा राहप को शिशोदा गाँव की जागीर मिली। शिशोदा गाँव से राहप के वंशज सिसोदिया कहलाये।
(8) चन्द्रावत :-- शिशोदा के राणा राहप के वंशज भीमसिंह के पुत्र चन्द्र के वंशज चन्द्रावत कहलाये। रामपुरा (मालवा) का राजवंश।
(9) लूणावत :-- राणा हमीर के पुत्र लूणा के वंशज।
(10) लाखावत :-- राणा क्षैत्रसिंह के पुत्र राणा लाखा के वंशज।
(11) भाखरोत :-- राणा क्षैत्रसिंह के पुत्र भाखर के वंशज।
(12) भँवरोत :-- राणा क्षैत्रसिंह के पुत्र भँवर के वंशज।
(13) सलखावत :-- राणा क्षैत्रसिंह के पुत्र सलखा के वंशज।
(14) सिखरावत :-- राणा क्षैत्रसिंह के पुत्र सिखरा के वंशज।
(15) *चुण्डावत* :-- राणा लाखा के ज्येष्ठ पुत्र चुण्डा ने अपना शासन अधिकार त्यागा। इन्ही मेवाड़ के भीष्म चुण्डा जी के वंशज चुण्डावत कहलाये।
चुण्डावत की उप शाखाएं -
(१) कृष्णावत :-- चुण्डा जी के पुत्र कृष्णा जी के वंशज सलुम्बर मे।
(२) जगावत :-- चुण्डा जी के पुत्र सिंह जी के पुत्र जगा के वंशज आमेठ मे।
(३) सांगावत :-- सिंह जी के दूसरे पुत्र सांगा के वंशज देवगढ़ मे।
(४) खंगारोत :-- चुण्डा जी के पुत्र खंगार के वंशज बेगु मे।
(16) सारंगदेवोत :-- राणा लाखा के पुत्र अज्जा के पुत्र सारंगदेव के वंशज कानोड़ मे।
(17) उदावत :-- राणा लाखा के पुत्र उदा के वंशज।
(18) रुदावत :-- राणा लाखा के पुत्र रुदा के वंशज।
(19) गजसिंहोत :-- राणा लाखा के पुत्र गजसिंह के वंशज।
(20) दूल्हावत :-- राणा लाखा के पुत्र दुल्हा के वंशज।
(21) डूंगरसिंहोत :-- राणा लाखा के पुत्र डूंगरसिंह के वंशज।
(22) भांडावत :-- डूंगरसिंह के किसी वंशज भांडा के वंशज।
(23) भीवावत :-- राणा लाखा के पुत्र भीवा के वंशज।
(24) *खीवावत* :-- राणा लाखा के पुत्र राणा मोकल के पुत्र खीवा (खेमकर्ण) के वंशज। प्रतापगढ़ का राजवंश।
(1) सहसमलोत :-- खेमकर्ण के पुत्र सूर्यमल के पुत्र सहसमल के वंशज धमोतर मे।
(2) रणमलोत :-- सूर्यमल के पुत्र रणमल के पुत्र कल्याणपुरा मे।
(3) रामावत :-- सूर्यमल के बाद क्रमशः बाघसिंह रायसिंह बीका सुरजन दास व रामदास हुए। इन्ही रामदास के वंशज रामावत रायपुर मे।
(4) खानावत :-- बाघसिंह के पुत्र खानसिंह के वंशज साखतली मे।
(25) सुवावत :-- राणा मोकल के पुत्र सुआ के वंशज।
(26) कीतावत :-- राणा मोकल के पुत्र खींवा के किसी वंशज कीता के वंशज।
(27) अढ़ूओत :-- राणा मोकल के पुत्र अढ़ू के वंशज।
(28) गढ़ूओत :-- राणा मोकल के पुत्र गढ़ू के वंशज।
(29) नाथावत :-- राणा मोकल के पुत्र नाथा के वंशज।
(30) वीरमदेवोत :-- राणा मोकल के पुत्र वीरमदेव के वंशज।
(31) कुम्भावत :-- राणा मोकल के पुत्र कुम्भा के वंशज सम्भवतः कुम्भावत कहलाये।
(32) नगावत :-- राणा कुम्भा के पुत्र नगा के वंशज।
(33) किशनावत :-- राणा कुम्भा के पुत्र राणा रायमल के पुत्र किशना के वंशज।
(34) जगमालोत :-- राणा सांगा के पुत्र राणा उदयसिंह के पुत्र जगमाल के वंशज।
(35) कान्हावत :-- राणा उदयसिंह के पुत्र कान्हा के वंशज।
(36) जेतसिंहोत :-- राणा उदयसिंह के पुत्र जेतसिंह के वंशज।
(37) विरमदेवोत :-- राणा उदयसिंह के पुत्र वीरम के वंशज। सनवाड़ मे।
(38) सगरावत :-- राणा उदयसिंह के पुत्र सगर के वंशज।
(39) अगरावत :-- राणा उदयसिंह के पुत्र अगर के वंशज।
(40) सींहावत :-- राणा उदयसिंह के पुत्र सींहा के वंशज।
(41) पंचाणोत :-- राणा उदयसिंह के पुत्र पंचाण के वंशज।
(42) सुरताणोत :- राणा उदयसिंह के पुत्र सुरताण के वंशज।
(43) लूणकरणोत :-- राणा उदयसिंह के पुत्र लूणकर्ण के वंशज।
(44) माछलोत :-- राणा उदयसिंह के पुत्र माछल के वंशज।
(45) महेशदासोत :-- राणा उदयसिंह के पुत्र महेशदास के वंशज।
(46) रुद्रोत :-- राणा उदयसिंह के पुत्र रुद्रसिंह के वंशज।
(47) नगराजोत :-- राणा उदयसिंह के पुत्र नगराज के वंशज। रोल(मालवा) मे।
(48) *शक्तावत*:-- राणा उदयसिंह के पुत्र शक्तिसिंह के वंशज शक्तावत कहलाते है। शक्तिसिंह जी के पुत्रों के मुख्य ठिकाने :--
(१) भाणजी :-- भीण्डर बोहेड़ा चण्डावल सावर सांचेरा पानसल आदि।
(२) अचलदास जी :-- बान्सी विजयपुर सेमारी जगत मोरवण छोटा महुआ आदि।
(३) बल्लुजी :-- घटियावली चल्दू रोलाहेड़ा ओछड़ी खोर पुठोली आदि।
(४) भगवानदास :-- बूट(मेवाड़)
(५) जोध :-- कनगेटी मुन्देड़ी
(६) दलपत :-- बावल
(७) भोपत :-- धनवाड़ा नवानगर
(८) मालदेव :-- कलवल
(९ ) चतुर्भुज :-- हींता
(१०) वाघा :-- चीताखैड़ा
(११) मांडण :-- खैड़ा सोनाहेड़ा
(१२ राजसिंह :-- पिपल्या जामुनिया बिनोता मलकाबाजणा
(१३) सुजा :-- पढ़ल।
(49) सोजावत :-- ठि सीमरड़ा भदार आदि।
(50) मांझावत :-- ठि कटार मेवाड़)
(51) *राणावत* :-- महाराणा प्रताप के वंशज राणावत कहलाये । प्रताप के पुत्रों के मुख्य ठिकाने :--
(1) नाथाजी :-- जोलावास
(2) सहसमल :- धरियावद
(3) रामाजी व प्रचुरजी :-- उदल्लास
(4) हारितसिंह :-- दांतड़ा
(5) श्यामदासजी :-- जामूराया
(6) जसवन्त सिंह :-- जलोदा
(7) शेखाजी :-- नाणा
(8) कल्याण दास :-- फलसाद।
(51) पूरावत :-- राणा प्रताप के पुत्र पूर्णमल (पुरा) के वंशज पुरावत कहलाये। मंगरोप सिंगोली सुरास कुलथाना बिलेसरी जाजली नागदेड़ा आदि।
(51) गरीबदासोत :-- राणा अमरसिंह जी के पुत्र राणा कर्णसिह के पुत्र गरीबदास के वंशज।
(51) जयसिंहोत :-- राणा राजसिंह के पुत्र जयसिंह के वंशज।
(51) संग्रामसिंहोत :-- राणा अमरसिंह द्वितीय के पुत्र संग्रामसिंह के वंशज।

*शाहपुरा*(राणावत) :--
राणा अमरसिंह जी के पुत्र सूरजमल जी के पुत्र सुजान सिंह जी द्वारा स्थापित राज्य।

*बनेड़ा* (राणावत) :--
राणा राजसिंह के पुत्र भीम सिंह जी द्वारा स्थापित। 

 

घनश्यामसिंह राजवी चंगोई 
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चंद्रावत सिसोदिया

चंद्रावत सिसोदिया

(घनश्यामसिंह राजवी चंगोई

 

सिसोदे के राणा वंश में भीमसिंह हुए, जिनके एक पुत्र चन्द्रसिंह (चंद्रा) के वंशज चंद्रावत कहलाये। चन्द्रा को आन्तरि परगना जागीर में मिला था। उसके पीछे सज्जनसिंह, कांकनसिंह ओर भाखरसिंह हुए। भाखरसिंह की उसके काका छाजूसिंह से तकरार हुई, जिससे वह आंतरी छोड़कर मिलसिया खेडी के पास जा रहा। उसका बेटा शिवसिंह बड़ा वीर और हट्टा कट्टा था। मांडू के सुलतान हुशंग गोरी ने दिल्ली की एक शहजादी से विवाह किया था। हुशंग के आदमी उस बेगम को लेकर मांडू जा रहे थे। ऐसे में आन्तरि के पास नदी पार करते हुए बेगम की नाव टूट गई। उस समय शिवा ने, जो वहा शिकार खेल रहा था, अपनी जान झोंककर बेगम के प्राण बचाए। इसके उपलक्ष्य में बेगम ने होशंग से शिवा को 'राव' का खिताब और १४०० गाँव सहित आमद का परगना जागीर में दिलाया। उसके पीछे रायमल वहा का स्वामी हुआ। महाराणा कुंभा ने उसे अपने अधीन किया।

उसका पुत्र अचलदास हुआ और उसका उत्तराधिकारी उसके पुत्र प्रतापसिंह का पुत्र दुर्गभान हुआ। उसने रामपुरा शहर (जिला- मंदसौर) बसाया और उसको संपन्न बनाया। अकबर ने चित्तोड़ घेरा तब उसकी मंशा रही की राणाजी का बल तोड़ने के लिए उनके अधीन बड़े बड़े सरदारों को अपने अधीन कर लेना चाहिए। इसी उद्देश्य से उसने आसफ़खान को फ़ौज देकर रामपुरे पर भेजा। उसने शहर को बर्बाद किया, जिसपर दुर्गभान को मेवाड़ की सेवा छोड़कर मुग़ल अधीन होना पड़ा।

राव दुर्गभान का बेटा चंद्रसिंह द्वितीय उसका उत्तराधिकारी हुआ। उसको प्रारम्भ में ७०० का मनसब मिला, जो बाद में बढ़ता गया। जहांगीर की उसने बहुत कुछ सेवा की। उसके तीन पुत्र- दुदा, हरिसिंह और रणछोड़दास हुए। उसका ज्येष्ठ पुत्र दुदा उसका उत्तराधिकारी हुआ। वह शाजहान के समय आजमखान के साथ खानजहा लोदी पर भेजा गया और उसका मनसब २००० जात और १५०० सवार का हुआ। शाहजहान ने उसके बड़े बेटे हठीसिंह को खिलअत , १५०० जात और १००० सवार का मनसब एवं राव का खिताब प्रदान किया। हठीसिंह के निस्संतान होने के कारण राव चन्द्रभान के बेटे रणछोड़दास का बेटा रूपसिंह उसका क्रमानूयाई हुआ। उसके संतान न होने के कारण राव चंदा के बेटे हरीसिंह का पुत्र अमरसिंह उसका उत्तराधिकारी हुआ, जिसको शाहजहान ने १००० जात और ९०० सवार का मनसब, राव का ख़िताब तथा चांदी के सामन के साथ एक घोडा दिया। वह राजपूताने में बड़ा प्रसिद्द और उदार राजा गिना गया।

उसके पीछे उसका पुत्र गोपालसिंह उसका उत्तराधिकारी हुआ। बाद में वृद्धावस्था के कारण उससे वहा का प्रबंध ठीक होता न देखकर महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय ने अपने प्रधान कायस्थ बिहारीदास को फरुक्खसियार के पास भेजकर रामपुरा अपने नाम लिखा लिया और उदयपुर से सेना भेजकर उसे अपने अधिकार में कर लिया तथा राव गोपालसिंह को एक परगना देकर अपना सरदार बनाया। गोपालसिंह के पीछे उसका बड़ा पोता बदनसिंह जागीर का स्वामी हुआ और महाराणा की सेवा में रहा। उसके पुत्र न होने के कारण उसके भाई संग्रामसिंह को वह कागिर मिली। फिर महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय ने यह परगना अपने भानेज जयपुर के माधवसिंह को अन्य सरदारो के समान सेवा करने की शर्त पर दे दिया। महाराजा जयसिंह की मृत्यु के पीछे होलकर से लड़ने में अपने को असमर्थ देखकर ईश्वरसिंह ने आत्महत्या कर ली। होलकर ने जयपुर पर अपना अधिकार कर लिया। ओर माधवसिंह वहां का राजा हुआ। रामपुरे का परगना, जो महाराणा ने माधवसिंह को सेवा की शर्त पर दिया था उसने फौज खर्च में होलकर को दे दिया। तब से रामपुरे के चंद्रावत होलकर के अधिन हुए।


संग्रामसिंह के बाद लक्ष्मणसिंह ,भवानीसिंह, मोकमसिंह द्वितीय, नाहरसिंह, तेजसिंह, किशोरसिंह और खुमाणसिंह हुए। जब से ये परगणा होलकर के अधीन हुआ तब सइ चंद्रावत अपने भूमी (रामपुरे) को प्राप्त करने का प्रयत्न करते रहे। अंत में तुकोजी होलकर ने रामपुरा १०००० रुपये वार्षिक आय के गाँवों सहीत उन्हें दे दिया, जो अब तक उनके अधीन है। 

 

घनश्यामसिंह राजवी चंगोई 
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हुल राजवंश

हुल राजवंश 

(घनश्यामसिंह राजवी चंगोई

 

पृथ्वीराज रासो के अनुसार हुल छत्तीस राजपूत कुलों मे एक कुल था। चित्तौड़ के शासक कालभोज (बाप्पा रावल) के पुत्र *हुलसार* के वंशज हुल कहलाए।

तंबसेन परमार तंबावती पर शासन करता था। उसकी सोजत नामक देव स्वरूपा पुत्री थी। वह रात्रि में पहाड़ी पर योगनियों का नाच देखने जाती थी। उसका पता लगाने के लिए राजा के कहने पर कामदार बांधर हुल ने एक रात्रि में सोजत का पीछा किया। यह बात सोजत को मालूम हुई तो उसने अपने पिता पर नाराज होकर कहा कि मेरे पिता का राज्य नष्ट होगा और यहां का राज्य तुम्हें मिलेगा। यह कह कर सोजत जोगनियों के साथ चली गई।

सोजत के शाप से उसके पिता की मृत्यु हुई व बांधर हुल वहां का शासक हुआ। तब उसने विक्रम संवत 1111 में सोजल माता के नाम से *सोजत* बसाया। इस प्रकार त्रंबावती (सोजत) पर हुल वंश का अधिकार हो गया। हुलों ने सोजत पर कई पीढ़ियों तक शासन किया। इसके बाद विक्रम संवत 1262 के लगभग चौहानों ने हुलों से सोजत का राज छीन लिया होगा। परंतु इसके बाद भी संभवतः सामंतों के रूप में हुलों ने सोजत पर शासन किया और इसके बाद हुलों के भांजे अखेराज रिड़मलोत ने विक्रम संवत 1483 में राजसिंह हुल से सोजत छीन लिया। इस प्रकार सोजत से हुलों का राज्य समाप्त हुआ।

हल्दीघाटी के युद्ध में भी हुल महाराणा प्रताप के पक्ष में लड़े थे। पादुकलां के जुझारसिंह तथा बड़गांव के गणपतसिंह जुझारों की श्रेणी में हैं। इसके बाद हुलों में हरिसिंह हुल बहुत प्रसिद्ध हुए। जिनके संबंध में बांकीदास ने हुलों की कुछ पीढ़ियां इस प्रकार लिखी है :--
हुलसार, सीमाल, बाधु,ल जैतो, हरो, गनो, मैलो, सिखरों, कीतो, करण, भायो, पतो व केसोदास।

सोजत का राज्य खत्म होने पर हुलों की कई जागीरें थी। पाचनाड़ा हुलारो और पाटमोगढ़ सोजत के पास हुलों की जागीर थी। इनके अतिरिक्त नागौर जिले में बड़गांव श्यामपुरा पादुकलां इन्दावड़ा कालू आनंदपुर धधवाड़ा सुरपुरा मेढास (ढाणी हुलारी) बिखरणिया लुणेरो आदि गांव तथा अजमेर जिले में रवारवा रातकोट गोविन्दगढ़ हरियामाल आदि गांवों में हुलों का निवास है। 

 

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