राठौड़ वंश

राठौड़ वंश :उत्पत्ति

राठौड़ वंश : उत्पत्ति 

(By- घनश्यामसिंह चंगोई)

 

ब्रज देशां , चंदन वनां , मेरु पहाड़ां मोड़ !
गरुड़ खगां, लंका गढां, राजकुलां राठौड़ !

(जिस तरह सभी प्रदेशों में ब्रज प्रदेश, वनों में चंदन वन, पहाड़ों में सुमेरु पर्वत, पक्षियों मे गरुड़ व गढ़ों में लंका गढ़, मोड़ (मुकुट) की तरह है, या सर्वोच्च है ! उसी प्रकार राठौड़ कुल सभी राजकुलों का मुकुट है)

भगवान राम के पुत्र कुश के वंशज अयोध्या के अंतिम सूर्यवंशी राजा सुमित्र के एक पुत्र विश्वराज के वंशज *राठौड़* हुए। सुमित्र के दूसरे पुत्र कूर्म के वंशज *कछवाह* कहलाये। सुमित्र के तीसरे पुत्र वज्रनाभ के वंशज आगे चलकर *गुहिलोत* कहलाये। (कुछ इतिहासकार कच्छवाहों की उत्पत्ती कुश के नाम से भी मानते हैं) !

 

राठौड़ नाम की उत्पत्ति 

इसमे इतिहासकारो के अलग-अलग मत हैं। कुछ का कहना है कि ‘राजा सुमित्र के वंशज मल्लराय ने राठेश्वरी देवी की आराधना की व उनके आशीर्वाद से प्राप्त पुत्र का नाम राष्ट्रवीर रखा, जिससे राठौड़ वंश नाम हुआ।'
रविवंश में अवतंश एक भूप राष्ट्रवीर भयो,
तस नाम सों संसार मं राठवर कुल उत्पन्न हुयो !
चंद्रहांस शत्रु नाश कर चहुं दिश में शासन कियो,
अयोध्या रोहिताश तारातम्बोल मुलतान को राजकियो !
 
जबकि दूसरा मत है कि महाभारत काल में राजा विश्वतमान के पुत्र बृहदबल को कुरुक्षेत्र युद्ध मे जाते समय रास्ते मे गौतम ऋषि मिले। सन्तानहीन राजा को गौतम ऋषि ने आशीर्वाद स्वरूप सन्तान हेतु मन्त्र सिद्ध जल रानी को पिलाने हेतू दिया। राजा ने शराब के नशे में प्यास लगने पर गलती से वह जल स्वंय पी लिया। ऋषि के मंत्र बल से राजा के शरीर मे पनपे बालक को राजा की राठ (रीढ़) फाड़ कर निकाल गया। जिससे उस बालक का नाम राठौड पड़ा।
 
एक अन्य मत यह भी है कि देवताओं के धार्मिक मापदण्डों पर खरा न उतरने पर ढूंढी राज गणेश को कन्नौज जाना पड़ा। ‘कन्नौज‘ उस समय राष्ट्रीय देश था, वे वहां के राजा हुए और उनके वंशज राष्ट्रोर कहलाये। इसी वंश में आगे राजा जयचंद गहरवार (राठौर) प्रसिद्ध हुऐ हैं।
 

क्षत्रियों के 36 कुलों में राठौड़ की गणना की जाती है। सबसे पहले विक्रम संवत 1205 की कल्हण की ”राजतरंगिणी” में क्षत्रियों के 36 कुलों का उल्लेख मिलता है| यहाँ ”पृथ्वीराज रासो” की उन पंक्तियों का उल्लेख किया जा रहा है जिनमें उन 36 कुलों के नाम गिनाये गए हैं –

"रवि ससि जादव वंस ककटस्थ परमार सदावर!
चाहुवान   चालुक्य   छन्द    सिलार अभीयर !!

दोयमत मकवान गुरुअ गोहिल गोहिलपुत !
चापोत्कट  परिहार  राव   राठौर    रोसजुत !!

देवरा टांक सैंधव अणिग योतिक प्रतिहार दघिषत !
कारटपाल कोटपाल हूल हरित गोरकला[मा] षमट!!

धन [धान्य] पालक निकुंभवार, राजपाल कविनीस!
कालच्छुरकै आदि दे बरने बंस छतीस !!”

 

ये 36 कुल सूर्यवंश, चन्द्रवंश एवं अन्य वंशों में विभक्त हैं।

क्षत्रिय वर्ण के अन्तर्गत अनेक जातियों का जन्म हुआ। इन जातियों में ”राठौर” जाति प्रमुख है क्योकि इसका बहुत प्राचीन एवं विशाल इतिहास है। इस जाति में अनेक राजा और महाराजा हुए जो बडे शक्तिशाली एवं प्रतापी थे। ये गहरवार, राष्ट्रवर, राष्ट्रकूट एवं राष्ट्रिक नामों से भी जाने गये।

बलहट बंका देवड़ा, करतब बंका गौड़ !
हाड़ा बंका गाढ मं, रण बंका राठौड़ !!

 

घनश्यामसिंह राजवी चंगोई 
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ऐतिहासिक तथ्य

ऐतिहासिक तथ्य

(संकलन - घनश्यामसिंह चंगोई)

दक्षिण भारत के राठौड़ 

‘‘राठौर या राठौड़,” के इतिहास के शोध से स्पष्ट हुआ है कि बौद्ध काल के पूर्व राष्ट्रकूट का दक्षिण भारत में राज था।महाराष्ट्र के कालाडिगी जिले में येवूर गांव के प्राचीन सोमेश्वर महादेव मंदिर में मिले एक शिलालेख के अनुसार विक्रम संवत 550 में दक्षिण में राष्ट्रकूट राजा कृष्ण के पुत्र का प्रबल राज्य था, जिसकी सेना में 800 हाथी थे। चालुक्य राजा जयसिंह प्रथम ने उसे हराया था।

एलोरा के दशावतार शिलालेख के अनुसार मयूरखंडी (वर्तमान में कर्नाटक के बीदर जिले में) के राठौड़ राजा दंतिवर्मा के वंशज गोविन्दराज तृतीय ने पुलकेशी (द्बितीय) पर चढ़ाई की। उसके पोत्र दंतिदुर्ग ने सम्वत 810 में चालुक्य राजा वल्लभ को हराया व कांची, लाट, कलिंग, कौशल, श्रीशैल, मालव, टंक आदि देशों के राजाओं को हराकर 'श्रीबल्लभ' नाम धारण किया। तथा उज्जैन में स्वर्ण व रत्न का दान किया। इसके उत्तराधिकारी कृष्णराज ने एलोरा का केलाशमन्दिर बनवाया। कृष्णराज के 11 वे वंशज अमोघवर्ष (सम्वत 874 से 934) ने राजधानी मान्यखेट (वर्तमान में कर्नाटक के गुलबर्गा जिले में) को बसाया। इसीके पुत्र कृष्णराज (द्वितीय) ने भोज प्रतिहार (प्रथम) को हराया (बेगुमरा का ताम्रपत्र सम्वत 945) ! हिजरी सन 332 (वि सं 1001) में आये अरब यात्री 'अलमसुदी' द्वारा लिखित पुस्तक 'मुरुजुल जहब' में लिखा है, 'इस समय मान्यखेट का राजा बलहारा (राठोड़) कृष्णराज (तृतीय) सर्वाधिक शक्तिशाली है।' सम्वत 1038 में कृष्णराज के पौत्र कर्कराज द्वि. से चालुक्य राजा तैलप ने राज्य छीनकर इस राठौड़ राज्य का अंत कर दिया।

 

मध्य भारत के राठौड़

दक्षिण में जब चालुक्यों का वर्चस्व बढ़ा, तब राष्ट्रकूट के अंतिम राजा कर्कराज के वंशज ने दक्षिण छोड़कर उत्तर में बदायूं में राठौर राज स्थापित किया। तब से राठौर नाम को मान्यता प्राप्त है। बदायूं से मिले एक शिलालेख के अनुसार 'इस नगर का पहला राजा राठौड़ चन्द्र हुआ ! उसका पुत्र विग्रहपाल बड़ा प्रतापी हुआ। उसके बाद भुवनपाल, गोपाल, मदनपाल (वि सं 1176), देवपाल, भीमपाल, शूरपाल व लखनपाल हुए।' यह शिलालेख लखनपाल का है। श्रावस्ती से में संवत 1176 के लेख के अनुसार वास्तव्य वंशी विद्याधर मदनपाल का मंत्री था। उसका पिता जनक, राजा गोपाल का मंत्री था।

बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में बदायूं के राष्ट्रकूट राजा गोपाल ने प्रतिहारों से कन्नौज छीन लिया। उपरोक्त मदनपाल के वंशज सम्भवतः गोविंदचंद्र, विजयचंद्र, जयचन्द्र हुए। कन्नौज नरेश जयचन्द के वंशज क्रमशः वरदाई सेन, सेतराम व सीहाजी हुए।

 

 राठौड़ व गहड़वाल शब्द
 क्षत्रिय दर्शन विशेषांक [क्षत्रिय राजवंश] पृष्ठ 86 में इतिहासकार श्री ओझा जी का मत उल्लेखित है। उन्होंने लिखा है कि कन्नौज का राजा जयचंद्र गहड़वाल था, किन्तु राजस्थान के राठौड़ों ने अपने को गहड़वाल नहीं माना है और न ही उनके लेखों में गहड़वाल लिखा मिलता है। गहड़वाल, राष्ट्रवरों [राठौड़ों] कि खाँप प्रतीत होती है। संभवतः अपने क्षेत्र कन्नौज से दूर राजस्थान में आने के कारण उपखाँप गहड़वाल नाम से न जानी जाकर प्रसिद्द खाँप राष्ट्रवर ,राठौड़, कमधज अदि नाम से पुकारे जाने लगे हों। ऐसे कई शिलालेख राजस्थान में मिले हैं जिसमें प्रधान खाँप न लिखकर उपखाँप को ही अंकित किया गया है। कन्नौज के राठोड़ों ने अपनी उपखाँप गहड़वाल अंकित करवा दी किन्तु उनकी मूल खाँप राठौड़ ही थी। अतः सीहाजी कन्नौज से बाहर दूर राजस्थान में आकर राज्य जमाया तो अपने को स्थानीय शब्द गहड़वाल से सम्बोधन न कर मूल खाँप राठौड़ शब्द का ही प्रचलन किया। जयचंद प्रबंध में जयचंद को राष्ट्रकूटिया भी लिखा गया है। इससे माना जा सकता है कि वह राष्ट्रकूटिया (राठौड़) था। शताब्दियो तक इस वंश ने  भारत पर राज्य किया है। क्षत्रिय दर्शन विशेषांक [क्षत्रिय राजवंश ] के अनुसार, श्री गोविंदचंद्र के उत्तराधिकारी श्रीविजयचन्द्र ने वि.1211 से 1226 तक शासन किया। श्री विजयचन्द्र के पश्चात् उनके पुत्र श्री जयचंद्र गद्दी पर बैठे। उन्होंने वि. 1227 से 1251 तक शासन किया। वि.1249 ई. पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद, वि.1251, ई .1194 में मोहम्मद गौरी का कन्नौज पर आक्रमण होगया। जयचंद एक विशाल सेना लेकर सुल्तान की सेना से मुकाबले के लिए चला। चंदवार नामक स्थान पर दोनों के बीच युद्ध हुआ, जयचंद हाथी पर सवार था। कुतुबद्दीन का एक तीर उसके सीने पर लगा वहीं जयचंद की मृत्यु हो गयी। इस प्रकार गहड़वाल साम्राज्य समाप्त हुआ। 
 

(संकलन - घनश्यामसिंह चंगोई)

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राजपुताना में राठोड़ों का आगमन

राजपुताना में राठोड़ों का आगमन

 (By - घनश्यामसिंह चंगोई)

 

राठौड़ अयोध्या के राजा श्रीराम के पुत्र कुश के वंशज हैं। अयोध्या के बाद कौशाम्बी, फिर पालगढ़ व फिर कन्नौज राठोड़ों की मुख्य राजधानी रही। 

 

राव सींहाजी :- 

मारवाड़ के राठौड़ राजवंश के मूल पुरूष राव सींहा थे। मध्य भारत के कन्नौज व बदायूं के राठौड़ राज्यों के मोहम्मद गोरी के हाथों पराभव होने के लगभग आधी सदी बाद 1292 (विक्रम सम्वत) में राजा जयचंद के प्रपोत्र कन्नोज के सेतराम जी के आठ पुत्रों में सबसे बड़े पुत्र राव सिंहा मध्य भारत से अपने सैनिकों के साथ द्वारिका की तीर्थ यात्रा करने के लिए आये। द्वारिका से पुष्कर की ओर जाते समय पाली के धनाढ्य पालीवाल ब्राह्मणों की मुस्लिम लुटेरों के लुटपाट और अत्याचारों से सुरक्षा करके सहायता की। इसी प्रकार भीनमाल में भी प्रजा को वहां के मुस्लिम शासक के अत्याचारों से मुक्त करवाया। पाली व भीनमाल पर अपना शासन स्थापित करने के बाद इन्होने निकटस्थ बालेचा, मोहिल तथा गोहिल राजपूतों को अपने अधीन किया। पाली के समीप बिठू नामक ग्राम की अरणियाली नाडी के तट पर वि. सं. १३३० (1273 ई.) कार्तिक कृष्णा द्वादशी को राव सीहाजी मुसलमानों से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुये। राव सिंहा ने अपना सम्पूर्ण जीवन गौ, ब्राम्ह्यण और मातृभूमि हितार्थ में व्यतीत किया। इन्होंने अपने जीवनकाल में 52 युद्ध किये तथा सभी युद्धों में विजयश्री का वरण किया। इस प्रकार राव सिंहाजी राजस्थान में राठौड़ वंश के स्वतंत्र साम्राज्य के संस्थापक थे

सेतराम सम्राट के, पुत्र अस्ट महावीर ।

जिसमे ‘सींहों’ जेस्ठ सूत, महारथी रणधीर।।

बारह सो के बानवे पाली कियो प्रवेश।

‘सीहा’ कनवज छोड़ न आया मुरधर देश।।

 

वंशक्रम : राजा जयचंद -> बरदाईसेन -> सेतराम -> सींहाजी (सिंहसेन)

राव सींहाजी - पाली के राव 1226/1273 (रानी सोलंकीजी) मृत्यु १२७३. पुत्र 3 ...

  1. अस्थानजी (खेड़ के शासक हुए)
  2. सोनगजी- सोनग ने ईडर पर अधिकार जमाया। अतः इडर के नाम से सोनग के वंशज ईडरिया राठोड़ कहलाये। अन्य वंशज हस्तीकुण्डी (हटुंडी) में रहे, वे हटूंडीया राठोड़ कहलाये। सोनग के वंशज क्रमशः अभयजी, सोहीजी, मेहपाल जी, भारमल जी, व चूंडारावजी हुए। चूंडाराव अमरकोट के सोढा राणा सोमेश्वर के भांजे थे। इनके समय मुसलमान ने जोर लगाया की अमरकोट के सोढा हमारे से बेटी व्यवहार करें। तब चूंडाराव जो उस समय अमरकोट थे। इनकी सहायता से मुसलमान की बारातें बुलाई गयी एवं स्वयं इडर से सेना लेकर पहुंचे सोढों और राठोड़ों ने मिलकर मुसलमानों की बरातों को मार दिया। उस समय वीर चूंडराव को दू:हठ की उपाधि दी गयी थे अतः चूंडराव के वंशज दोहठ राठौड़ कहे गए। दोहठ राठोड़ अमरकोट, सोराष्ट्र, कच्छ, बनास कांठा, जालोर, बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर जिलों में कहीं-2 निवास करते रहे है।
  3. अजाजी- सीहाजी के छोटे पुत्र अजाजी के दो पुत्र बेरावली और बीजाजी ने द्वारका के चावड़ो को बाढ़ कर (काट कर) द्वारका पर अपना राज्य कायम किया। इसी कारन बेरावलजी के वंशज बाढ़ेल राठोड़ हुए। आजकल ये बाढ़ेर राठोड़ कहलाते है। गुजरात में पोसीतरा, आरमंडा, बेट द्वारका बाढ़ेर राठोड़ों के ठिकाने थे। दूसरे पुत्र बीजाजी के वंशज बाजी राठोड़ कहलाये है। गुजरात में महुआ, वडाना, आदी इनके ठिकाने हे। बाजी राठोड़ आज भी गुजरात में ही बसते है।

राव आस्थानजी- (खेड़ के प्रथम राव 1273/1292) उन्होंने गोहिल राजपूतों से खेड़ को जीतकर वहां अपना राज्य कायम किया ! खेड़ के नाम से इनके वंशज खेड़ेचा राठौड़ कहलाये। 5 पुत्र हुए ...

  1. धुहड़ - खेड़ के मालिक हुए।
  2. चाचक : - चाचक के वंशज चाचक राठोड़ कहलाये।
  3. भूपसी
  4. धांधल - आस्थान के पुत्र धांधल के वंशज धांधल राठोड़ कहलाये। पाबूजी राठोड़ इसी खांप के थे। इन्होने चारणी को दीये गए वचनानुसार पणीग्रहण संस्कार को बीच में छोड़कर चारणी के गायों को बचाने के प्रयास में शत्रु से लड़ते हुए वीर गति प्राप्त की। यही पाबुजी लोक देवता के रूप में पूजे जाते है। 
  5. जोपसी - जोपसी के वंशज जोरावत राठोड़ हुए।  जोपसी के 8 पुत्रो से --
    (i) जोलू राठौड़ :- जोपसी के पुत्र जोलू के वंशज जोलू राठौड़ हुए। 
    (ii) सिंधल राठोड़ :- जोपसी के पुत्र सिंधल के वंशज। ये बड़े पराक्रमी हुए, इनका जेतारण पाली पर अधिकार था। जोधा के पुत्र सूजा ने बड़ी मुश्किल से उन्हें वहां से हटाया।
    (iii) उहड़ राठोड़ :- जोपसी के पुत्र उहड़ के वंशज।
    (iv) मुलु राठोड़ :- जोपसी के पुत्र मुलु के वंशज।
    (v) बरजोर राठोड़ :- जोपसी के पुत्र बरजोड के वंशज
    (vi) रेकवाल राठोड़ :- जोपसी के पुत्र राकाजी के वंशज है। ये मल्लारपुर , बाराबकी , रामनगर , बड़नापुर , बहराईच उत्तरप्रदेश में है।
    (vii) बागड़ीया राठोड़ :- जोपसी के पुत्र रैका से रैकवाल हुए। इन्ही में एक विक्रम के वंशज बागड़ (बांसवाड़ा) में बसने से बागड़िया राठौड़ कहलाये।
    (viii) खोपसा राठोड़ :- जोपसी के पुत्र खीमसी के वंशज।

राव धुहड़ - खेड़ के राव (1292/1309) ! उन्होंने राव सिंधल के साथ मारवाड़ पर नियंत्रण के लिए संघर्ष किया ! इससे पहले धुहड़ ने माता चक्रेश्वरी की प्रतिमा लाकर बाड़मेर के पचपदरा परगने के गांव नागाणा में स्थापित की। इस माताजी को राठौड़ वंश के क्षत्रिय "नागणेची माता"  के नाम से कुलदेवी के रूप में पूजने लगे। राव धुहड़ ने पड़ौसी शासकों से 150 गांवों के क्षेत्रों को विजित कर राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। इनके वंशज धुहड़ीया राठोड़ कहलाये) 5 पुत्र ...

  1. रायपाल- (खेड़ के मालिक हुए)
  2. कीर्तिपाल
  3. बेहड़ (बाघमार) - :- इन के वंशज बेहड़ राठोड़ हुए ।
  4. उनड़ :-  उनड़ के वंशज उनड़ राठोड़
  5. पीथड़ :- पीथड़ के वंशज पीथड़ राठोड़ हुए।

★राव रायपाल जी- खेड़ के राव (1309-1313) राव रायपाल ने प्रतिहारों पर आक्रमण करके मंडोर पर अधिकार किया, परन्तु कुछ दिनों बाद प्रतिहारो ने मंडोर पर पुनः अधिकार कर लिया। इसके बाद रायपाल ने परमारों के मालानी क्षेत्र को विजित किया तथा इसके आस-पास के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। इनके 11 पुत्र  --

  1. कान्हपाल - खेड़ के राव हुए। 
  2. केलण - इन के पुत्र कोटा के वंशज कोटेचा हुए। (बीकानेर जिले में करना, चंडीवाल, हरियाणा में नाथूसरी व भूचामंडी, पंजाब में रामसरा आदी इनके गाँव है।) केलण के पुत्र थांथी के पुत्र फिटक के वंशज फिटक राठोड़ हुए। 
  3. सुंडा :-  वंशज सुंडा राठोड़ हुए ।
  4. महीपाल- वंशज महीपाल राठोड़ हुए।  
  5. शिवराज- वंशज शिवराजोत राठोड़ हुए ।
  6. डांगी :- डांगी के वंशज डांगी हुए।
  7. मोहन :- रायपाल के पुत्र मोहन ने ऐक महाजन की पुत्री से शादी की। इस कारन उसके वंशज मुहणोत ओसवाल कहलाये। मुहणोत नेंणसी (ख्यात लेखक) इसी खांप से थे।
  8. मापा- वंशज मापावत राठोड़ हुए ।
  9. लूका - वंशज लूका राठोड़ हुए। 
  10. रजक:- रजक के वंशज रजक राठोड़ हुए। 
  11. विक्रम - वंशज विक्रमायत राठोड़ हुए। 

★राव कान्हपाल जी- खेड़ के राव (1313-1323) ! इनके समय में भाटियों के राज्य जैसलमेर की सीमा राठौडो़ के क्षेत्र खेड़ व महेवा से लगने के वजह से इनमें परस्पर युद्ध होते रहते थे। कानपाल के पुत्र भीम ने राठौड़ो व भाटियों के मध्य सीमा क्षेत्र नियत की, लेकिन कुछ समय बाद कानपाल व उसका पुत्र भीम भाटियों की सेनाओं से संघर्ष करते हुए काम आये। तीन पुत्र  … 

  1. जालणसी - खेड़ के राव हुए।
  2. विजेपाल 
  3. भीम 

राव जालणसी - खेड़ के राव (1323-1328) ! इसने खेड़ राज्य पर चढ़ाई करने वाले मुस्लिम आक्रांता हाजी मलिक को युद्ध में मार दिया। इसके बाद इसने भीनमाल के सोलंकी राजपूतों पर विजय प्राप्त की। जालणजी 1328 ई. में भाटी व मुस्लिमों की संयुक्त सेना से युद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। राव जालणसी के तीन पुत्र-

  1. राव छाडा खेड़ के राव हुए।
  2. जलखा, 
  3. वनराय - इन के वंशज वानर राठोड़ कहलाये। घड़सीसर (बीकानेर राज्य) में है।

राव छाडा जी- खेड़ के राव (1328-1344) ! इसने उमरकोट के सोढ़ो व जैसलमेर के भाटियों को पराजित किया तथा जालौर व नागौर के मुस्लिम शासकों को दबाए रखा। लेकिन कुछ समय बाद देवड़ा व सोनगरा चौहानों के अचानक घेरकर हमला करने से इनकी मृत्यु हो गयी। राव छडाजी के पुत्र - 

  1. राव तिड़ा- खेड़ के राव हुए
  2. खोखर - वंशज खोखर राठोड़ कहलाये
  3. सिंहमल- वंशज सिंहमलोत राठोड़ कहलाये

★राव तिडा जी - खेड़ के राव (1344-1357) ! तिड़ाजी ने महेवा की गद्दी पर बैठने के पश्चात् राठौड़ो की शक्ति को संगठित किया। इनके समय में मारवाड़ के अधिकांश क्षेत्रों पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। सन् 1357 ई. में राव तिड़ाजी मुस्लिम सेना से सिवाने की रक्षा के लिए युद्ध करते हुए काम आये। राव तीड़ा के तीन पुत्र --

  1. सलखा - महेवा के राव बने !
  2. कान्हड़ - खेड़ की गद्दी पर बैठे !
  3. त्रिभुवनसी -  

★राव सलखा - महेवा के राव (1357 से 1374 ईस्वी) ! बाड़मेर का महेवा क्षेत्र सलखा के पिता टीडा के अधिकार में था | विक्रमी संवत 1414 में मुस्लिम सेना का आक्रमण हुआ | सलखा को केद कर लिया गया | केद से छूटने के बाद विक्रमी संवत 1422 में आपने श्वसुर राणा रूपसी पड़िहार की सहायता से महेवा को वापिस जीत लिया | विक्रमी संवत 1430 में मुसलमानों का फिर आक्रमण हुआ | सलखा ने वीर गति पायी | नेणसी व कुछ अन्य इतिहासकारो के अनुसार टीडा जी के उत्तराधिकारी राव कान्हड़जी हुए। उन्होंने सलखाजी को सिवाना के समीप एक गांव की जागीर दी। बाद में जब महेवा पर मुस्लिमों का अधिकार हो गया, तो सलखाजी ने महेवा के कुछ भाग पर आक्रमण कर भिरड़कोट में अपना राज्य स्थापित किया, लेकिन कुछ समय बाद मुसलमानों ने महेवा पर चढ़ाई करके उसे मार डाला। इनके वंशज सलखावत राठौड़ हुए। पुत्र 4 ....

  1. मल्लिनाथ 
  2. जैतमाल- (बानोल, केलवा और गुढामलानी सहित जैतमालोत राठौड़ के पूर्वज) 
  3. वीरम देव- खेड़ के राव हुए। 
  4. शोभित-, उन्होंने अपने भाई राव वीरमदेव की हत्या का बदला लिया और आगामी युद्ध में मृत्यु का सामना किया; वह सोहड़ राठौर के पूर्वज व सोहड़ावाटी के संस्थापक थे, जिसमें सोहरा, मेलाना, फोर्ट सिवाना (1426 से 1515) और मदला के ठाकुर शामिल थे। 

 

★रावल मल्लिनाथजी- मालानी के राव ! सलखा के पुत्र मल्लिनाथ बड़े प्रसिद्ध हुए। इन्होने मुसलमानों से सिवाना का किला जीता और अपने छोटे भाई जैतमाल को दे दिया, व् छोटे भाई वीरम को खेड़ की जागीरी दे दी| नगर व् भिरड़ गढ़ के किले भी मल्लिनाथ ने अधिकार में किये | मलिनाथ शक्ति संचय कर राठोड़ राज्य का विस्तार करने और हिन्दू संस्कृति की रक्षा करने पर तुले रहे | उन्होंने मुसलमानों के आक्रमण को विफल किया | मल्लिनाथ और उनकी राणी रुपादें नाथ संप्रदाय में दीक्षित हुए और ये दोनों सिद्ध माने गए। मल्लिनाथ के जीवन काल में हि उनके पुत्र जगमाल को गादी मिली। इनके महेचा राठौड़ हुए) ! इनके उत्तराधिकारी  (क्रमशः)…

  • मालानी के राव जगमाल 
  • मालानी के राव लुनका 
  • बाड़मेर के रावल खेत सिंह 
  • बाड़मेर के रावल विजय सिंह 
  • बाड़मेर के रावल पंचराज सिंह 
  • बाड़मेर के रावल धनराज सिंह 
  • ठाकुर मान सिंह, (उन्हें इंद्रोई का ठिकाना दिया गया था) 

★राव वीरमदेव - खेड़ के राव ! रावल मल्लीनाथ का छोटा भाई वीरमजी (विरमदेव) खेड़ मे रहा करते थे। वीरमजी ने 1383 ई. में जोहियों के राज्य पर अधिकार करने के लिए प्रयास किया, जहां दल्ला जोहिया के साथ युद्ध में इनकी मृत्यु हो गयी। इनके पांच पुत्र हुए … 

  1. चूंडा - (राव चूंडा मंडोर के शासक हुए) 
  2. बीजै राव - बिजावत वंश के पूर्वज
  3. गोगादे- वंशज गोगादे राठौड़ हुए। 
  4. जयसिंह - वंशज जैसिंघदे राठौड़ हुए।
  5. देवराज- वंशज देवराजोत व उसके पुत्र के चाड़देवोत राठोड़ हुए। 

★राव चूंडाजी- मंडोर के प्रथम राठौड़ शासक हुए ! 

 

(इससे आगे का विवरण "मंडोर व जोधपुर राज्य" शीर्षक के अन्तर्गत पेज पर दिया गया है )

 

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घनश्यामसिंह राजवी चंगोई 

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राठोड़ वंश के गोत्राचार

राठोड़ वंश के गोत्राचार
 
वंश - सूर्यवंश
गोत्र- गोतम
प्रवर (तीन) : गोतम, वशिष्ट, वाहस्प्त्य
गुरु- वशिष्ट
निकास - अयोध्या
ईष्ट - सीताराम, लक्ष्मीनारायण
नदी - सरयू
पहाड़ - गांगेय
कुण्ड -सूर्य
वृक्ष- नीम
पितृ - सोम
कुलदेवी - नागणेचा
भेरू- मंडोर, कोडमदेसर
कुलदेवी स्थान - नागाणा (जिला -बाड़मेर)
चिन्ह - चील
क्षेत्र - नारायण
पूजा - नीम
बड- अक्षय
गाय- कपिला
बिडद- रणबंका
उपाधि - कमधज
शाखा - तेरह में से दानेसरा राजस्थान में है
निशान - पचरंगा
घाट -हरिव्दार
शंख -दक्षिणवर्त
सिंहासन -चन्दन का
खांडा- जगजीत
तलवार -रणथली
घोड़ा -श्यामकर्ण
माला -रतन
शिखा -दाहिनी
बंधेज -वामी (बाया)
पाट - दाहिना
पुरोहित -सेवड
चारण -रोहडिया
भाट- सिगेंलिया
ढोली- देहधड़ा
ढोल -भंवर
नगारा- रणजीत

राठौड़ वंश की उपशाखाएं (खांप)

राठौड़ वंश की शाखाएं व उपशाखाएं

(संकलन - घनश्यामसिंह राजवी चंगोई) 

 

राठौड़ों की सम्पूर्ण भारत में कुल 13 मुख्य शाखाएं हैं ...

1.दानेश्वरा, 2.अभेपुरा, 3.कपालिया, 4.कुरहा, 5.जलखेड़ा, 6.बुगलाणा, 7.अहर, 8.पारकरा, 9.चंदेल, 10.वीर, 11.दरियावरा, 12.खरोदिया, 13.जयवंशी (दहिया)

इनमें से राजस्थान में मात्र दानेश्वरा (दानेसरा) शाखा के राठौड़ हैं। जिनकी निम्नांकित उप शाखाएं हैं ...

1.महेचा राठौड़ (4 उप शाखाए) 2.जौधा राठौड़ (45 उप शाखाएँ) 3.बीका राठौड़ (26 उप शाखाएं) 4.मेड़तिया राठौड़ (26 उप शाखाएँ) 5. कांधलोत राठौड़ (4 उप शाखाएं) 6.चांपावत राठौड़ (15 उप शाखाएँ) 7.मण्डलावत राठौड़ (13 उप शाखाएँ) 8.रूपावत राठौड़ (7 उप शाखाएँ है) 9.बीदावत राठौड़ (22 उप शाखाएँ) 10.उदावत राठौड़ 11.बनीरोत राठौड़ (11 उप शाखाए) 12.इडरिया राठोड़ 13.हटुण्डिया राठौड़ 14.बरजोर राठौड़ 15.जोरावर राठौड़ 16.रैकवार राठौड 17.बागडिया राठौड 18.छप्पनिया राठौड 19.साल राठौड 20.खोपसा राठौड 21.सिवी राठौड़ 22.पीथड़ राठौड़ 23.कोटेचा राठौड़ 24.बहड़ राठौड़ 25.ऊनड़ राठौड़ 26.फिटक राठौड़ 27.सुण्डा राठौड़ 28.महिपाल राठौड़ 29.शिवराज राठौड़ 30.डांगी राठौड 31.मुहणोत राठौड़ 32.मापावत राठौड़ 33.लूका राठौड़ 34.राजू राठौड़ 35.विक्रम राठौड़ 36.भोवोत राठौड़ 37.बांदर राठौड़ 38.उडा राठौड़ 39.खोखर राठौड़ 40.मकलोत राठौड़ 41.बिठवासा राठौड़ 42.सलखावत राठौड़ 43.जैतमालोत राठौड़ 44.जुंजाणी राठौड़ 45.राधा राठोड 46.भादावत राठौड़ 47.पोकरणा राठौड़ 48.बाडमेरा राठोड़ 49.कोरिया राठौड़ 50.खाबडिया राठौड़ 51.गोगादेव राठौड़ 52.देवराजोत राठौड़ 53.चाड़दैवत राठौड़ 54.जैसिंधवे राठौड़ 55.सातावत राठौड़ 56.भीमावत राठौड़ 57.अरड़कमलोत राठौड़ 58.रणधीरोत राठौड़ 59.अर्जुन राठौड़ 60.कानावत राठौड़ 61.पुनावत राठौड़ 62.जैतावत राठौड़ (3 उपशाखाएँ है) 63.कालावत राठौड 64.बाजी राठौड 65.खेड़ा राठौर 66.धुडिया राठौड़ 67.धांधल राठौड़ 68.चाचक राठौड 69.हस्ती राठौड़ 70.गोलू राठौड़ 71.सिंघल राठौड़ 22.उहड़ राठौड 73.गोलू राठौड़ 74.बाढेल (बाढेर) राठौड़ !

(उपरोक्त सभी उपशाखाओं का विस्तृत विवरण नीचे देखें)

 

महेचा राठौड़ (राव मल्लीनाथजी से) चार उप शाखाएँ-

  1. पातावत महेचा
  2. कालावत महेचा
  3. दूदावत महेचा
  4. उगा महेचा

जौधा राठौड़ (जोधपुर के राव जोधा से) 45 उप शाखाएँ-

  1. बरसिंगोत जौधा
  2. रामावत जौधा
  3. भारमलोत जौधा
  4. शिवराजोत जौधा
  5. रायपालोत जौधा
  6. करमसोत जौधा
  7. बणीवीरोत जौधा
  8. खंगारोत जौधा
  9. नरावत जौधा
  10. सांगावत जौधा
  11. प्रतापदासोत जौधा
  12. देवीदासोत जौधा
  13. सिखावत जौधा
  14. नापावत जौधा
  15. बाघावत जौधा
  16. प्रताप सिंहोत जौधा
  17. गंगावत जौधा
  18. किशनावत जौधा
  19. रामोत जौधा
  20. के सादोसोत जौधा
  21. चन्द्रसेणोत जौधा
  22. रत्नसिंहोत जौधा
  23. महेश दासोत जौधा
  24. भोजराजोत जौधा
  25. अभैराजोत जौधा
  26. केसरी सिंहोत जौधा
  27. बिहारी दासोत जौधा
  28. कमरसेनोत जौधा
  29. भानोत जौधा
  30. डंूगरोत जौधा
  31. गोयन्द दासोत जौधा
  32. जयत सिंहोत जौधा
  33. माधो दासोत जौधा
  34. सकत सिंहोत जौधा
  35. किशन सिंहोत जौधा
  36. नरहर दासोत जौधा
  37. गोपाल दासोत जौधा
  38. जगनाथोत जौधा
  39. रत्न सिंगोत जौधा
  40. कल्याणदासोत जौधा
  41. फतेहसिंगोत जौधा
  42. जैतसिंहोत जौधा
  43. रतनोत जौधा
  44. अमरसिंहोत जौधा
  45. आन्नदसिगोत जौधा

कांधलोत राठौड़ (राव जोधा के छोटे भाई रावत कांधलजी से) छः पुत्रों से उप शाखाएँ-

  1. पुत्र बाघसिंह के वंशजों से- बणीरोत कांधल, नारायण दासोत कांधल, रायमलोत कांधल !
  2. पुत्र राजसिंह के वंशजों से- रावरोत कांधल, जसवन्तदासोत कांधल, गोपालदासोत कांधल, राधोदासोत कांधल, बिसनदासोत कांधल।
  3. पुत्र अड़कमलजी से - अड़कमलोत कांधल, सांइदासोत कांधल। 
  4. पुत्र पूर्णमलजी से पूर्णमलोत कांधल। 
  5. पुत्र पर्वतजी से परवतोत कांधल। 
  6. पुत्र सूरोजी से सुरावत कांधल। 

मण्डलावत राठौड़ (राव जोधा के छोटे भाई मंडलाजी से) 13 उप शाखाएँ-

  1. भाखरोत बाला राठौड़
  2. पाताजी राठौड़
  3. रूपावत राठौड़
  4. करणोत राठौड़
  5. माण्डणोत राठौड़
  6. नाथोत राठौड़
  7. सांडावत राठौड़
  8. बेरावत राठौड़
  9. अड़वाल राठौड़
  10. खेतसिंहोत राठौड़
  11. लाखावत राठौड़
  12. डूंगरोत राठौड़
  13. भोजराजोत राठौड़

चांपावत राठौड़ (राव जोधाजी के भाई चाम्पाजी से) 15 उप शाखाएँ-

  1. संगतसिंहोत चांपावत
  2. रामसिंहोत चांपावत
  3. जगमलोत चांपावत
  4. गोयन्द दासोत चांपावत
  5. केसोदासोत चांपावत
  6. रायसिंहोत चांपावत
  7. रायमलोत चांपावत
  8. विठलदासोत चांपावत
  9. बलोत चांपावत
  10. हरभाणोत चांपावत
  11. भोपतोत चांपावत
  12. खेत सिंहोत चांपावत
  13. हरिदासोत चांपावत
  14. आईदानोत चांपावत
  15. किणाल दासोत चांपावत

मेड़तिया राठौड़ (राव जोधाजी के पुत्र दूदा से) की 26 उप शाखाएँ-

  1. जयमलोत मेड़तिया
  2. सुरतानोत मेड़तिया
  3. केशव दासोत मेड़तिया
  4. अखैसिंहोत मेड़तिया
  5. अमरसिंहोत मेड़तिया
  6. गोयन्ददासोत मेड़तिया
  7. रघुनाथ सिंहोत मेड़तिया
  8. श्यामसिंहोत मेड़तिया
  9. माधोसिंहोत मेड़तिया
  10. कल्याण दासोत मेड़तिया
  11. बिशन दासोत मेड़तिया
  12. रामदासोत मेड़तिया
  13. बिठलदासोत मेड़तिया
  14. मुकन्द दासोत मेड़तिया
  15. नारायण दासोत मेड़तिया
  16. द्वारकादासोत मेड़तिया
  17. हरिदासोत मेड़तिया
  18. शार्दूलोत मेड़तिया
  19. अनोतसिंहोत मेड़तिया
  20. ईशर दासोत मेड़तिया
  21. जगमलोत मेड़तिया
  22. चांदावत मेड़तिया
  23. प्रतापसिंहोत मेड़तिया
  24. गोपीनाथोत मेड़तिया
  25. मांडणोत मेड़तिया
  26. रायसालोत मेड़तिया

जैतावत राठौड़ (राव जोधाजी के भाई अखैराजजी के पौत्र जेताजी से) तीन उप शाखाएँ-

  1. पिरथी राजोत जैतावत
  2. आसकरनोत जैतावत
  3. भोपतोत जैतावत

कूँपावत राठौड़ (राव जोधाजी के भाई अखैराजजी के पौत्र कूंपाजी से) 7 उप शाखाएँ-

  1. महेशदासोत कूंपावत
  2. ईश्वरदासोत कूंपावत
  3. माणण्डणोत कूंपावत
  4. जोध सिंगोत कूंपावत
  5. महासिंगोत कूंपावत
  6. उदयसिंगोत कूंपावत
  7. तिलोक सिंगोत कूंपावत

बीदावत राठौड़ (राव जोधा के पुत्र बीदा से) 22 उप शाखाएँ-

  1. केशवदासोत बीदावत
  2. सावलदासोत बीदावत
  3. धनावत बीदावत
  4. सीहावत बीदावत
  5. दयालदासोत बीदावत
  6. घेनावत बीदावत
  7. मदनावत बीदावत
  8. खंगारोत बीदावत
  9. हरावत बीदावत
  10. भीवराजोत बीदावत
  11. बैरसलोत बीदावत
  12. डँूगरसिंगोत बीदावत
  13. भोजराज बीदावत
  14. रासावत बीदावत
  15. उदयकरणोत बीदावत
  16. जालपदासोत बीदावत
  17. किशनावत बीदावत
  18. रामदासोत बीदावत
  19. गोपाल दासोत
  20. पृथ्वीराजोत बीदावत
  21. मनोहरदासोत बीदावत
  22. तेजसिंहोत बीदावत

बीका राठौड़ (बीकानेर के राव बीकाजी के वंशज से) 26 उप शाखाएँ- (विस्तृत विवरण 'राजवी एवं बीका शाखा' नामक पेज पर देखें)

  1. घड़सियोत बीका
  2. राजसिंगोत बीका
  3. केलण बीका
  4. अमरावत बीका
  5. रतनसिंहोत बीका
  6. प्रतापसिंहोत बीका
  7. रामसिंहोत बीका
  8. नारणोत बीका
  9. तेजसिंहोत बीका
  10. नीबावत बीका
  11. भीमराजोत बीका
  12. बाघावत बीका
  13. मानसिंहोत बीका
  14. श्रृगोंत बीका
  15. गोपालदासोत बीका
  16. पृथ्वीराजोत बीका
  17. किशनहोत बीका
  18. अमरसिंहोत बीका
  19. बिसावत बीका
  20. राजवी बीका

बनीरोत राठौड़ (रावत कांधल के पौत्र बणीर से) 11 उप शाखाएँ-

  1. मेघराजोत बनीरोत 
  2. मेकरणोत बनीरोत
  3. मेदसिंहोत 
  4. महेशदासोत
  5. रामचंद्रोत
  6. अचलदासोत बनीरोत
  7. सूरजसिंहोत बनीरोत
  8. जयमलोत बनीरोत
  9. प्रतापसिंहोत बनीरोत
  10. भोजराजोत बणीरोत
  11. चत्रसालोत बनीरोत
  12. नथमलोत बनीरोत
  13. धीरसिंगोत बनीरोत 
  14. हरिसिंगोत बनीरोत

मंडोर से पूर्व सीहाजी के वंशजो से जो अन्य खांपे चली वे निम्न प्रकार है ...

  1. ईडरिया राठोड़ :- सीहाजी के पुत्र सोनग ने ईडर पर अधिकार जमाया। अतः इडर के नाम से सोनग के वंशज ईडरिया राठोड़ कहलाये।
  2. हटूंडिया राठोड़ :- सोनग के वंशज हस्तीकुण्डी (हटुंडी) में रहे, वे हटूंडीया राठोड़ कहलाये | 
  3. दोहठ राठोड़ - सोनग के वंशज क्रमशः अभयजी, सोहीजी, मेहपाल जी, भारमल जी, व चूंडारावजी हुए। चूंडाराव अमरकोट के सोढा राणा सोमेश्वर के भांजे थे | इनके समय मुसलमान ने जोर लगाया की अमरकोट के सोढा हमारे से बेटी व्यवहार करें | तब चूंडाराव जो उस समय अमरकोट थे | इनकी सहायता से मुसलमान की बारातें बुलाई गयी एवं स्वयं इडर से सेना लेकर पहुंचे सोढों और राठोड़ों ने मिलकर मुसलमानों की बरातों को मार दिया | उस समय वीर चूंडराव को दू:हठ की उपाधि दी गयी थे अतः चूंडराव के वंशज दोहठ कहे गए | ये राठोड़ अमरकोट, सोराष्ट्र, कच्छ, बनास कांठा, जालोर, बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर जिलों में कहीं-2 निवास करते रहे है |

बाढ़ेल राठोड़ :- सीहाजी के छोटे पुत्र अजाजी के दो पुत्र बेरावली और बीजाजी ने द्वारका के चावड़ो को बाढ़ कर (काट कर) द्वारका पर अपना राज्य कायम किया | इसी कारन बेरावलजी के वंशज बाढ़ेल राठोड़ हुए | आजकल ये बाढ़ेर राठोड़ कहलाते है | गुजरात में पोसीतरा, आरमंडा, बेट द्वारका बाढ़ेर राठोड़ों के ठिकाने थे |

  1. बाजी राठोड़ :- बेरावल जी के भाई बीजाजी के वंशज बाजी राठोड़ कहलाये है | गुजरात में महुआ, वडाना, आदी इनके ठिकाने हे| बाजी राठोड़ आज भी गुजरात में ही बसते है |
  2. खेड़ेचा राठोड़ :- सीहा के पुत्र आस्थान ने गुहिलों से खेड़ जीता | खेड़ नाम से आस्थान के वंशज खेड़ेचा राठोड़ कहलाते है |
  3. धुहड़ीया राठोड़ :- आस्थान के पुत्र धूहड़ के वंशज धुहड़ीया राठोड़ कहलाये |
  4. धांधल राठोड़ :- आस्थान के पुत्र धांधल के वंशज धांधल राठोड़ कहलाये | पाबूजी राठोड़ इसी खांप के थे | इन्होने चारणी को दीये गए वचनानुसार पणीग्रहण संस्कार को बीच में छोड़कर चारणी के गायों को बचाने के प्रयास में शत्रु से लड़ते हुए वीर गति प्राप्त की| यही पाबुजी लोक देवता के रूप में पूजे जाते है |
  1. चाचक राठोड़ : - आस्थान के पुत्र चाचक के वंशज चाचक राठोड़ कहलाये |
  2. हरखावत राठोड़ :- आस्थान के पुत्र हरखा के वंशज।
  1. जोलू राठोड़ :- आस्थान के पुत्र जोपसा के पुत्र जोलू के वंशज। 
  2. सिंधल राठोड़ :- जोपसा के पुत्र सिंधल के वंशज। ये बड़े पराक्रमी हुए। इनका जेतारण पाली पर अधिकार था। जोधा के पुत्र सूजा ने बड़ी मुश्किल से उन्हें वहां से हटाया।
  1. उहड़ राठोड़ :- जोपसा के पुत्र उहड़ के वंशज।
  2. मुलु राठोड़ :- जोपसा के पुत्र मुलु के वंशज।
  3. बरजोर राठोड़ :- जोपसा के पुत्र बरजोड के वंशज।
  4. जोरावत राठोड़ :- जोपसा के वंशज। 
  1. रेकवाल राठोड़ :- जोपसा के पुत्र राकाजी के वंशज है। ये मल्लारपुर , बाराबकी , रामनगर , बड़नापुर , बहराईच उत्तरप्रदेश में है।
  2. बागड़ीया राठोड़ :- आस्थान जी के पुत्र जोपसा के पुत्र रैका से रैकवाल हुए। इन्ही में एक विक्रम के वंशज बागड़ (बांसवाड़ा) में बसने से बागड़िया राठौड़ कहलाये।
  3. छप्पनिया राठोड़ :- मेवाड़ से सटा हुआ मारवाड़ की सीमा पर छप्पन गाँवो का क्षेत्र छप्पन का क्षेत्र है | यहाँ के राठोड़ छप्पनिया राठोड़ कहलाये | यह खांप बागदीया राठोड़ों से निकली है। उदयपुर रियासत में कणतोड़ गाँव की जागीरी थी।
  4. आसल राठोड़ :- आस्थान के पुत्र आसल के वंशज आसल राठोड़ कहलाये।
  5. खोपसा राठोड़ :- आस्थान के पुत्र जोपसा के पुत्र खीमसी के वंशज।
  6. सिरवी राठोड़ :- आस्थान के पुत्र धुहड़ के पुत्र शिवपाल के वंशज।
  7. पीथड़ राठोड़ :- आस्थान के पुत्र पीथड़ के वंशज।
  8. कोटेचा राठोड़ :- आस्थान के पुत्र धुहड़ के पुत्र रायपाल हुए। रायपाल के पुत्र केलण के पुत्र कोटा के वंशज कोटेचा हुए। बीकानेर जिले में करनाचंडीवाल , हरियाणा में नाथूसरी व भूचामंडी, पंजाब में रामसरा आदी इनके गाँव है।
  9. बहड़ राठोड़ :- धुहड़ के पुत्र बहड़ के वंशज।
  10. उनड़ राठोड़ :- धुहड़ के पुत्र उनड़ के वंशज।
  1. फिटक राठोड़ :- रायपाल के पुत्र केलण के पुत्र थांथी के पुत्र फिटक के वंशज फिटक राठोड़ हुए।
  2. सुंडा राठोड़ :- रायपाल के पुत्र सुंडा के वंशज।

28 . महीपाल राठोड़ :- रायपाल के पुत्र महीपाल के पुत्र वंशज।

  1. शिवराजोत राठोड़ :- रायपाल के पुत्र शिवराज के वंशज।
  2. डांगी :- रामपाल के पुत्र डांगी के वंशज ढोलिन से शादी की अथवा इनके वंशज ढोली हुए।
  3. मोहनोत :- रायपाल के पुत्र मोहन ने ऐक महाजन की पुत्री से शादी की। इस कारन उसके वंशज मुहणोत ओसवाल कहलाये मुहणोत नेंणसी (ख्यात लेखक) इसी खांप से थे।
  4. मापावत राठोड़ :- रायपाल के वंशज मापा के वंशज।
  5. लूका राठोड़ :- रायपाल के वंशज लूका के वंशज।
  6. राजक:- रायपाल के वंशज रजक के वंशज।
  7. विक्रमायत राठोड़ :- रायपाल के पुत्र विक्रम के वंशज।
  8. भोंवोत राठोड़ :- रायपाल के पुत्र भोवण के वंशज।
  9. बांदर राठोड़ :- रायपाल के पुत्र कानपाल हुए, कानपाल के जालण और जालण के पुत्र छाडा के पुत्र बांदर के वंशज बांदर राठोड़ कहलाये। घड़सीसर (बीकानेर  राज्य) में बताते है। 
  10. ऊना राठोड़ :- रायपाल के पुत्र ऊडा के वंशज।
  11. खोखर राठोड़ :- छाडा के पुत्र खोखर के वंशज। खोखर ने सांकडा , सनावड़ा आदी गाँवो पर अधिकार किया और खोखर गाँव (बाड़मेर) बसाया। अलाउद्दीन खिलजी ने सातल दे के समय सिवाना पर चढ़ाई की तब खोखर जी सातल दे के पक्ष में वीरता के साथ लड़े और युद्ध मे काम आये। खोखर राठौड़ जिन गाँवो में रहते है :- जैसलमेर जिले में , निम्बली , कोहरा , भाडली , झिनझिनयाली , मूंगा , जेलू , खुडियाला , आस्कंद्र, भादरिया , गोपारयो, भलरीयो , जायीतरा, नदिया बड़ा , अडवाना, सांकडा ,पालवा ,सनावड़ा , खीखासरा , कस्वा चुरू - रालोत जोगलिया। बाड़मेर में - खोखर शिव , खोखर पार। जोधपुर में - जुंडदिकयी, खुडियाला , खोखरी पाला , बिलाड़ा। नागोर में खोखरी पाली - बाली , गंदोग , खोखरी पाला , बिलाड़ा।
  12. सिंहमलोत राठोड़ :- छाडा के पुत्र सिंहमल के वंशज।
  13. बीठवासा उदावत राठोड़ :- रावल टीडा के पुत्र कानड़दे के पुत्र रावल के पुत्र त्रिभवन के पुत्र उदा की बीठवास जागीर में था| अतः उदा के वंशज बीठवासिया उदावत कहलाये | उदाजी के पुत्र बीरम जी बीकानेर रियासत के साहुवे गाँव से आये | जोधाजी ने उनको बीठवसिया गाँव के जागीर दी | इस गाँव के आलावा वेग्डीयो और धुनाड़ीया गाँव भी इनकी जागीरी में थे।
  14. सलखावत राठोड़ :- छाडा के पुत्र टीडा के पुत्र सलखा के वंशज सल्खावत राठोड़ कहलाये।
  15. जैतमालोत राठोड़ :- सलखा के पुत्र जैतमाल के वंशज जैत्मालोत राठोड़ कहलाये। बीकानेर में कहीं कहीं निवास करते है।
  16. जूजाणीया राठोड़ :- जैतमाल के पुत्र खेतसी के वंशज है। गाँव थापाणा इनकी जागीर में था।
  17. राड़धरा राठोड़ :- जैतमाल के पुत्र खिंया ने राड़धरा पर अधिकार किया। अतः इनके वंशज राड़धरा कहलाये।
  18. महेचा राठोड़ :- सलखा राठोड़ के पुत्र मल्लिनाथ बड़े प्रसिद्ध हुए | बाड़मेर का महेवा क्षेत्र सलखा के पिता टीडा के अधिकार में था | विक्रमी संवत 1414 में मुस्लिम सेना का आक्रमण हुआ | सलखा को केद कर लिया गया | केद से छूटने के बाद विक्रमी संवत14२२ में आपने श्वसुर राणा रूपसी पड़िहार की सहायता से महेवा को वापिस जीत लिया | विक्रमी संवत 1430 में मुसलमानों का फिर आक्रमण हुआ | सलखा ने वीर गति पायी | सलखा के स्थान पर ( माला ) मल्लिनाथ राज्य का स्वामी हुआ | इन्होने मुसलमानों से सिवाना का किला जीता और अपने आपने छोटे भाई जैतमाल को दे दिया | व् छोटे भाई वीरम को खेड़ की जागीरी दे दी| नगर व् भिरड़ गढ़ के किले भी मल्लिनाथ ने अधिकार में किये | मलिनाथ शक्ति संचय कर राठोड़ राज्य का विस्तार करने और हिन्दू संस्कृति की रक्षा करने पर तुले रहे | उन्होंने मुसलमानों के आक्रमण को विफल किया | मल्लिनाथ और उनकी राणी रुपादें , नाथ संप्रदाय में दिक्सीत हुए और ये दोनों सिद्ध माने गए | मल्लिनाथ के जीवन काल में हि उनके पुत्र जगमाल को गादी मिल गयी |जगमाल भी बड़े वीर थे | गुजरात का सुल्तान तीज पर इक्कठी हुयी लड़कियों को हर ले गया | तब जगमाल अपने योधाओं के साथ गुजरात गए और सुल्तान की पुत्री गीन्दोली का हरण कर लाया तब राठोड़ों और मुसलमानों में युद्ध हुआ | इस युद्ध में जगमाल ने बड़ी वीरता दिखाई | कहा जाता हे की सुल्तान के बीबी को तो युद्ध में जगह - जगह जगमाल हि दिखयी दिया। पग पग नेजा पाड़ीया , पग -पग पाड़ी ढाल|बीबी पूछे खान ने , जंग किता जगमाल ||इन्ही जगमाल का महेवा पर अधिकार था | इस कारन इनके वंशज महेचा कहलाते है |जोधपुर परगने में थोब , देहुरिया , पादरडी, नोहरो आदी इनके ठिकाने है। उदयपुर रियासत में नीबड़ी व् केलवा इनकी जागीर में थे| उनकी खाँपे निम्न है ..१. पातावत महेचा :- जगमाल के पुत्र रावल मंडलीक के बाद कर्मश भोजराज , बीदा, नीसल , हापा , मेघराज व् पताजी हुए | इन्ही के वंशज पातावत कहलाये जालोर और सिरोही में इनके कई गाँव है। २. कलावत महेचा :- मेघराज के पुत्र कल्ला के वंशज।३. दूदावत महेचा :- मेघराज के पुत्र दूदा के वंशज।४. उगा :- वरसिंह के पुत्र उगा के वंशज।
  19. बाड़मेरा राठोड़ :- मल्लिनाथ के छोटे पुत्र अरड़कमल ने बाड़मेर इलाके नाम से इनके वंशज बाड़मेरा राठोड़ कहलाये। इनके वंशज बाड़मेर में और कई गाँवो में रहते ह।
  20. पोकरणा राठोड़ :- मल्लिनाथ के पुत्र जगमाल के जिन वंशजो का पोकरण इलाके में निवास हुआ। वे पोकरणा राठोड़ कहलाये इनके गाँव सांकडा , सनावड़,लूना , चौक , मोडरड़ी , गुडी आदी जैसलमेर में है।
  21. खाबड़ीया राठोड़ :- मल्लिनाथ के पुत्र जगमाल के पुत्र भारमल हुए| भारमल के पुत्र खीमुं के पुत्र नोधक के वंशज जामनगर के दीवान रहे इनके वंशज कच्छ में है। भारमल के दुसरे पुत्र माँढण के वंशज माडवी कच्छ में रहते है वंशज खाबड़ गुजरात के इलाके के नाम से खाबड़ीया कहलाये | इनके गाँव कुछ राजस्थान के बाड़मेर में रेडाणा और देदड़ीयार है कुछ घर पाकिस्तान में भी हैं।
  22. कोटड़ीया राठोड़ :- जगमाल के पुत्र कुंपा ने कोटड़ा पर अधिकार किया अतः कुंपा के वंशज कोटड़ीया राठोड़ कहलाये। जगमाल के पुत्र खींव्सी के वंशज भी कोटड़ीया कहलाये इनके गाँव बाड़मेर में , कोटड़ा , बलाई , भिंयाड़ इत्यादि है।
  23. गोगादे राठोड़ :- सलखा के पुत्र वीरम के पुत्र गोगा के वंशज गोगादे राठोड़ कहलाये। केतु ( चार गाँव ) सेखला ( 15 गाँव ) खिराज, गड़ा आदी इनके ठिकाने है।
  24. देवराजोत राठोड़ :- बीरम के पुत्र देवराज के वंशज देवराजोत राठोड़ कहलाये। सेतरावो इनका मुख्या ठिकाना है। इसके आलावा सुवालिया आदी ठिकाने थे ।
  25. चाड़देवोत राठोड़ :- वीरम के पुत्र व् देवराज के पुत्र चाड़दे के वंशज चाड़देवोत राठोड़ कहलाये।  जोधपुर परगने का देचू इनका मुख्या ठिकाना था। गीलाकोर में भी इनकी जागीरी थी।
  26. जेसिधंदे राठोड़ :- वीरम के पुत्र जैतसिंह के वंशज।
  27. सतावत राठोड़ :- चुंडा वीरमदेवोत के पुत्र सता के वंशज।
  28. भींवोत राठोड़ :- चुंडा के पुत्र भींव के वंशज। खाराबेरा जोधपुर इनका ठिकाना था।
  29. अरड़कमलोत राठोड़:- चुंडा के पुत्र अरड़कमल वीर थे। राठोड़ों और भाटियों के शत्रुता के कारन शार्दुल भाटी जब कोडमदे मोहिल से शादी कर लोट रहा था। तब अरड़कमल ने रास्ते में युद्ध के लिए ललकारा और युद्ध में दोनों हि वीरता से लड़े शार्दुल भाटी वीरगति प्राप्त हुए और राणी कोडमदे सती हुयी। अरड़कमल भी उन घावों से कुछ दिनों बाद मर गए।  इस अरड़कमल के वंशज अरड़कमल राठोड़ कहलाये।
  30. रणधीरोत राठोड़ :- चुंडा के पुत्र रणधीर के वंशज है फेफाना इनकी जागीर थी।
  31. अर्जुनोत राठोड़ :- राव चुंडा के पुत्र अर्जुन के वंशज।
  32. कानावत राठोड़ :- चुंडा के पुत्र कान्हा के वंशज।
  33. पूनावत राठोड़ :- चुंडा के पुत्र पूनपाल के वंशज है। गाँव खुदीयास इनकी जागीरी में था।

 

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घनश्यामसिंह राजवी चंगोई 

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मारवाड़ (जोधपुर) राज्य 

मारवाड़ (जोधपुर) राज्य 

(घनश्यामसिंह चंगोई)

मण्डोर का प्राचीन नाम ’माण्डवपुर’ था। यह पुराने समय में मारवाड़ राज्य की राजधानी हुआ करती थी। वर्तमान में मंडोर दुर्ग के भग्नावशेष ही बाकी हैं, जो बौद्ध स्थापत्य शैली के आधार पर बना था। इस दुर्ग में बड़े-बड़े प्रस्तरों को बिना किसी मसाले की सहायता से जोड़ा गया था। यह पड़िहार राजाओं का गढ़ था। सैकड़ों सालों तक यहां से पडिहार राजाओं ने सम्पूर्ण मारवाड़ पर अपना राज किया। सन् 1395 में चुंडाजी राठोड की शादी पडिहार राजकुमारी से होने पर मंडोर उन्हे दहेज में मिला, तब से परिहार राजाओं की इस प्राचीन राजधानी पर राठोड शासकों का राज हो गया। मन्डोर रावण की ससुराल होने की किदवन्ति भी है, मगर रावण की पटरानी मन्दोदरी नाम से मिलता नाम के अलावा अन्य कोई साक्ष्य यहाँ उपलब्ध नहीं है। मन्डोर में सदियो से होली के दूसरे दिन राव का मेला लगता है। मेले के स्वरुप व परंपरा आज भी सेकडो साल पुरानी हे। हाल के वर्षो में स्वरुप में जरुर बदलाव हुआ हे, मगर प्रपराओं में बदलाव नहीं हुआ है। मण्डोर का दुर्ग देवल, देवताओं की राल, जनाना, उद्यान, संग्रहालय, महल तथा अजीत पोल दर्शनीय स्थल हैं। मण्डोर साम्प्रदायिक सद्भाव एवं एकता का प्रतीक हैं। तनापीर की दरगाह, मकबरे, जैन मंदिर तथा वैष्णव मंदिर सभी का एक ही क्षेत्र में पाया जाना, इस तथ्य का मजबूत सबूत हैं कि विभिन्नता में एकता यहाँ के जीवन की प्रमुख विशेषता रही हैं।

 

राव चूंडाजी– मंडोर के राठौड़ राज्य के संस्थापक (1406 /1418) रावल मल्लीनाथ के छोटा भाई वीरमजी के जोहियावाड़ में दल्ला जोहिया के हाथों मारे जाने के बाद उनकी रानी अपने 5 वर्ष के पुत्र चुण्डा को आल्हा चारण को सौंप कर सती हो गई थी। आल्हा चारण ने 12 वर्ष का होने पर उसे वीरमदेवजी के भाई मल्लीनाथ को सौंप दिया। रावल मल्लीनाथ जी ने चूंडा राठौड़ को सालोड़ी गांव की जागीर प्रदान की और चूंडा ने उस गांव को अपना केन्द्र बनाकर अपनी राठौड़ वंश के राज्य की सीमा को विस्तार करना शुरू किया।  

 

तुर्कों ने इंदा पडिहारों से मंडोर छीन ली थी और वहाँ के सरदार ने सब गाँवों से घास की दो दो गाड़ियाँ मँगवाने का हुक्म दिया था। ईंदों को भी घास भिजवाने की ताकीद आई, तब उन्होंने चूडा से मंडोर लेने की सलाह की। घास की गाड़ियाँ भरवाई और हरेक गाडा में चार चार हथियारबंद राजपूतों को छिपाया। एक हांकनेवाला और एक पीछे पीछे चलने वाता रखा। पिछले पहर को इनकी गाडियाँ मंडोर के गढ़ के बाहर पहुँचीं। गढ़ के दरवाज़े पर एक मुसलमान द्वारपाल भाला पकड़े खड़ा था। जब ये गाड़ियाँ भीतर घुमने लगों तो द्वारपाल ने एक गाड़ी मे भाला यह देखने को डाला कि घास के नीचे कुछ और कपट तो नहीं है। भाले की नोक एक राजपूत के जा लगो, परंतु उसने तुरंत कपड़े से उसे पोछ डाला, क्योंकि यदि उस पर लोहू का चिह्न रह जावे तो सारा भेद खुल पड़े। दरबान ने पूछा क्यो ठाकुरो, सव में ऐसा हो घास है ? कहा हाँजी, और गाड़ियाँ डगडगाती हुई भीतर चली गई, इतने में सध्या हो गई। अँधेरा पडा जो रजपूत छिपे बैठे थे, बाहर निकले, दरवाजा बंद कर दिया और टूट पड़े। सबको काटकर चुण्डा की दुहाई फेर दी। मंडोर और अन्य इलाके से भी तुर्कों को खदेडकर निकाल दिया ।

 

एक दूसरा मत भी है कि मण्डोर, ईन्दा (पडियार) शाखा के राजपूतों की राजधानी थी। चुण्डा मंडोर की सेना में भर्ती हो गया। जल्दी ही उसके रणकौशल से वहां के राजा रायधवल इंदा बहुत प्रभावित हुआ व उसे सेनानायक बना दिया। ईन्दा शाखा के राजपूतों ने मण्डोर को यवनों से विजित कर लिया, परन्तु उसकी सुरक्षा करने में असमर्थ थे। अतः मण्डोर के किले को राव चूण्डा को सौंपना उचित समझा। मण्डोर के राजा रायधवल ईन्दा ने अपनी पुत्री लीलादे का विवाह चूंडा से किया और मंडोर का गढ़ दहेज में दिया। उक्त घटना के सम्बन्ध में एक सोरठा आज भी लोक प्रचलित है– 

ईन्दों रो उपकार, कमधज कदे न वीसरे। 

चूंडो चंवरी चाढ़, मंडोर दीनी दायजै ।। 

 

राव चूंडा ने मण्डोर को अपनी राजधानी बनाया। अतः चूंडा से राठौड़ साम्राज्य का विधिवत् अभ्युदय माना जाता है। मण्डोर प्राप्त हो जाने पर राव चूंडा ने इसमें रहने वाले सिंधल, कोटेचा, मांगलिया, आसायच आदि राजपूतों को अपनी सेवा में रख लिया। राव चूंडाजी ने अपने राज्य का विस्तार करते हुए डीडवाना, खाटू, सांभर, पाली, अजमेर, सोजत, नाडोल और फलौदी को अपने साम्राज्य में मिला लिया। सन् १३९९ ई. में नागौर के खोखर शासक को मारकर नागौर पर अधिकार किया। राव चूंडा मंडोर राज्य को अपने पुत्र सता को सौंपकर स्वयं नागौर में रहने लगा। इसने नागौर के समीप ही चूंडासर नामक गांव बसाया। राव चूंडा का ज्येष्ठ पुत्र रणमल  था, परन्तु राव चूंडा अपनी मोहिल रानी के प्रभाव में आकर उसके पुत्र कान्हा को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त  किया और अपने ज्येष्ठ पुत्र रणमल से कहा कि वह किसी अन्य राज्य में जाकर रहे। रणमल राठौड़ अपने पिता की आज्ञा मानकर मेवाड़ के महाराणा लाखा की सेवा में चला गया।

 

सन् 1423  ई. में मुहम्मद फिरोज ने नागौर पर अधिकार करने के लिए चढ़ाई की। नागौर में राव चूंडा और मुहम्मद फिरोज के मध्य युद्ध हुआ, जिसमें राव चूंडा युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। उनके 14 बेटे थे व एक पुत्री हंसादेवी जिसका विवाह मेवाड़ के महाराणा लाखा से किया। पुत्र ...

  1. रिणमल - मंडोर के राव हुए। 
  2. सता - इसके वंशज सत्तावत राठौड़ हुए।  
  3. कान्हा - इसके वंशज कानावत राठौड़ हुए
  4. भींव - इसके वंशज भींवत राठौड़ हुए। (इनके पुत्र अभाजी 1445 में गुजरात गए (गुजरात मे वनोड़ के तालुकदार इनके वंशज हैं) 
  5. अरडकमल - इसके वंशज अरडकमल राठौड़ हुए। 
  6. रणधीर - इसके वंशज रणधीरोत राठौड़ हुए।
  7. सहसमल
  8. अर्जुन - इसके वंशज अर्जुनोत राठौड़ हुए।
  9. पूँना- इसके वंशज पूनावत राठौड़ हुए।
  10. राम
  11. लूम्भा
  12. बाघा
  13. बींजा
  14. शिवराज (सुरताण)

 

राव कान्हा - (मंडोर के राव 1424/1427) राव चूंडा के पश्चात राव कान्हा मंडोर की गद्दी पर बैठे। राव कान्हा ने सांखलों के राज्य जांगलू पर अधिकार करने के लिए चढ़ाई की और सांखलो को युद्ध में परास्त कर जांगलू पर अधिकार किया। इस युद्ध के कुछ दिनों बाद इनको उदररोग हो जाने पर इनकी मृत्यु हो गयी। 

 

राव रणमल – (मंडोर के राव 1427/1438) रणमल ने अपने पिता के समय मंडोर राज्य का त्याग कर नाडोल के निकट धणला गांव के सोनगरा चौहानों को परास्त किया। कुछ दिनों तक यहां रहने के बाद वह अपने बहनोई मेवाड़ नरेश महाराणा लाखा के पास रहने आया तो लाखा ने उसे चालीस गांव के साथ धणला गांव की भी जागीर प्रदान की। कुछ समय में ही वह राणा लाखा का विश्वासपात्र बन गया तथा मेवाड़ की सेनाओं का नेतृत्व करने लगा। उसने अजमेर पर विजय प्राप्त करके मेवाड़ राज्य में सम्मिलित कर दिया, इससे लाखा रणमल से अत्यधिक प्रसन्न हो गया।

 

सन् 1421 ई. में राणा लाखा की मृत्यु होने पर उसका 12 वर्षीय पुत्र मोकल मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। मोकल की अल्पायु के कारण मेवाड़ राज्य में रणमल की स्थिति सर्वोपरि हो गई। उसने महाराणा मोकल की निष्ठापूर्वक सेवा की और महाराणा के विरुद्ध उठने वाले विद्रोहों का दमन किया। रणमल के बढ़ते हुए प्रभाव से सिसोदिया सामन्त घबरा उठे और उन्हें लगने लगा कि एक दिन मेवाड़ पर राठौडो़ की सत्ता स्थापित हो जायेगी। अतः उन्होंने रणमल का विरोध करना आरम्भ कर दिया।

 

सन् 1423 ई. में रणमल के पिता चूंडा की नागौर के युद्ध में मृत्यु हो गई। यह सूचना मिलने पर रणमल मेवाड़ से मंडोर आया तथा पिता को दिये हुए वचन के अनुसार उसने अपने छोटे भाई कान्हा का राजतिलक किया। इसके बाद रणमल मेवाड़ न जाकर मारवाड़ राज्य के सोजत गांव में रहने लगे। रणधीर ने रणमल को मंडोर पर अधिकार करने के लिए अनुरोध किया। इस पर रणमल ने मेवाड़ की सेना लेकर मंडोर पर आक्रमण किया। सता के पुत्र नरबद ने उसका सामना किया, परन्तु नरबद परास्त हो गया। रणमल ने सन् १४२६ ई. में मंडोर को अपने अधिकार में ले लिया। रणमल ने मंडोर को अपने राज्य की राजधानी बनाई। इसके बाद रणमल ने पाली, सोजत, जैतारण, नाडोल और जालोर आदि को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया।

 

सन् 1433 ई. में गुजरात के अहमद खां के साथ हो रहे झीलवाड़ा युद्ध में चारभुजा के मैदान में 'चाचा व मेरा' नामक दो व्यक्तियों ने महाराणा मोकल की हत्या कर दी। अपने भांजे मोकल की हत्या का समाचार सुनते ही रणमल 500 सैनिकों को अपने साथ लेकर चित्तौड़ के लिए रवाना हुए। चाचा, मेरा और इनके सहयोगी विद्रोहियों पर आक्रमण कर इनका दमन किया तथा राणा मोकल के पुत्र कुंभकर्ण (महाराणा कुंभा) को मेवाड़ की गद्दी पर बैठाया। कुम्भा के शासन निष्कंटक बनाने के लिए रणमल ने मेवाड़ के विद्रोही सरदारों को मेवाड़ से निकाल कर अपने विश्वास के बहुत से राठौड़ो को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त कर दिया।

 

रणमल द्वारा राठौड़ सरदारों को मेवाड़ राज्य में महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त कर देने की वजह से सिसोदिया सरदारों में रणमल के विरुद्ध असंतोष पनपने लगा। कुछ दिनों बाद राव रणमल के विरोधियों द्वारा सोते हुए रणमल पर हमला कर हत्या कर दी। रणमल की हत्या हो जाने के पश्चात् उसके पुत्र जान बचाकर भग निकले। लेकिन महाराणा कुंभा ने चूण्डा सिसोदिया के नेतृत्व में उनका पीछा कर मंडोर राज्य पर अधिकार कर लिया। राव रिणमल के 24 पुत्र थे ... 

  1. राव जोधाजी - जोधपुर के संस्थापक। 
  2. अखैराज- इनके पौत्र कूम्पा से कुंपावत राठौड़ हुए !
  3. कांधल - इनके वंशज कांधलोत राठौड़ हुए ! वह अपने भतीजे राव बीकाजी के साथ मिलकर जांगलदेश पर विजय प्राप्त की और बीकानेर की स्थापना की; इनके वंशज के बीकानेर राज्य में रावतसर, चूरू, भादरा सहित कई ठिकाने हैं। हिसार में सुल्तान सारंग खान के साथ युद्ध में लगे घावों के साहवा में उनकी मृत्यु हो गई।
  4. चाम्पा - इनके वंशज चांपावत राठौड़ हुए ! पिलवा , कापरड़ा, रणसीगांव, बालोतरा, दासपां, पोखरण, आउवा, पालड़ी, रोहट , सिंगारी, ढांडियां, बाजेंका -ढिंगसारा , धामली , हुर्सोला, सुतलाना, जौला और कटोह के ठाकुर आदि चम्पावत राठौड़ इनके वंशज हैं।
  5. भाकरसी- इनके वंशज भाखरोत राठौड़ हुए !
  6. अड़ावल - इनके वंशज आड़ावल राठौड़ हुए !
  7. मंडला - इनके वंशज मंडलावत राठौड़ हुए ! 
  8. मांडण - इनके वंशज मांडणोत राठौड़ हुए !
  9. वेरा    - इनके वंशज बेरावत राठौड़ हुए !
  10. लाखा  - इनके वंशज लखावत राठौड़ हुए !
  11. भोजराज-इनके वंशज भोजराजोत राठौड़ हुए !  
  12. पाता   - इनके वंशज पातावत राठौड़ हुए !
  13. रूपा   - इनके वंशज रूपवत राठौड़ हुए !
  14. डूंगर   - इनके वंशज डुंगरोत राठौड़ हुए !
  15. उदा   - इनके वंशज उदावत राठौड़ हुए !
  16. गोयंद 
  17. कर्मचंद 
  18. सांडा  - इनके वंशज सांडावत राठौड़ हुए !
  19. हापो
  20. करण  - इनके वंशज करणोत राठौड़ हुए !
  21. नाथूजी - इनके वंशज नाथुओत राठौड़ हुए !
  22. जेतमाल- इनके वंशज जैतावत राठौड़ हुए !
  23. सावर  
  24. सगता  

 

★राव जोधा– पहले मंडोर व फिर जोधपुर के राजा (1453 - 1489), जोधपुर के संस्थापक !

          मारवाड़ के इतिहास में राव रणमल के पुत्र राव जोधा का महत्वपूर्ण स्थान है। राव जोधा एक वीर, साहसी एवं महत्वाकांक्षी पुरूष था। सन् 1838  ई. में राव रणमल की हत्या हो जाने के पश्चात् मेवाड़ नरेश महाराणा कुंभा ने चूण्डा लाखावत के नेतृत्व में मंडोर व मारवाड़ राज्य के अन्य क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। राव जोधाजी ने अपने पैतृक राज्य को प्राप्त करने के लिए अनेक प्रयास किये, किन्तु असफल रहे। राव जोधा ने कावनी ग्राम (वर्तमान बीकानेर के पास) को निवास स्थल बनाकर अपनी सैनिक शक्ति को संगठित किया। उसने मण्डोर पर अधिकार करने के लिए घोड़ो का प्रबन्ध किया तथा उसके पश्चात् सेना को तीन भागों में विभक्त करके आक्रमण करने की योजना बनाई। सेना के प्रथम भाग वरजांग को देकर मण्डोर की तरफ भेजा, द्वितीय भाग चांपाजी की अगुवाई में कोसाना एवं तृतीय भाग का सेनापतित्व स्वयं जोधाजी ने कर चौकड़ी पर आक्रमण किया। अकस्मात् रात्रि में हमला होने से मेवाड़ी सेना में खलबली मच गई। मेवाड़ी थानेदारों के युद्ध में मारे जाने से सेना भाग खड़ी हुई। दोनों की संयुक्त सेना विजित प्रदेशों का प्रबन्ध कर वरजांग से आ मिले और प्रातः काल होने से पूर्व ही मण्डोर पर आधिपत्य कर लिया। 

 

सन् 1453 ई. में अग्रज राव अखैराज ने राव जोधाजी का मण्डोर में राज्यभिषेक किया। इसके बाद राव जोधा व उनके भाईयों ने कापरड़ा, रोहिट, नाडोल, नारलाई, सोजत, बगड़ी आदि प्रदेशों को अधीनस्थ किया। इनके वीर पुत्रों में दूदाजी ने मेड़ता, राव बीकाजी ने बीकानेर, बिदाजी ने छापर को विजित कर राठौड़ वंश के स्वतंत्र राज्य स्थापित किये। राव जोधा ने अपने भाईयों व पुत्रों के सहयोग से अपने राज्य को मंडोर, मेड़ता, फलौदी, पोकरण, भाद्राजून, सोजत, पाली, सिवाना, सांभर, अजमेर, नागौर, डीडवाना तक विस्तार कर राठौड़ वंश का विशाल साम्राज्य स्थापित किया। राव जोधाजी ने अपने राज्य का शासन सुव्यवस्थित करने हेतु साम्राज्य के अलग-अलग भाग अपने पुत्रों व भाईयों को सौप दिये। 

 

राव जोधा ने वि.स. 1516 ज्येष्ठ सुदी एकादशी, 12 मई, 1459 को चिड़िया टूंक पहाड़ी पर नये गढ़ की नींव रखी और अपने नाम पर जोधपुर नामक नया नगर बसाकर मंडोर के स्थान पर उसे अपनी राजधानी बनाया। राव जोधाजी के सत्रह पुत्र थे ...

  1. नींबा - अल्पायु में मृत्यु 
  2. बीका - बीकानेर का स्वतन्त्र राज्य कायम किया। इनके वंशज बीका राठौड़ हुए। 
  3. सातल - जोधाजी के उत्तराधिकरी, जोधपुर के राजा हुए। 
  4. सूजा - सातल के उत्तराधिकरी जोधपुर के राजा हुए। 
  5. कर्मसी - इसके वंशज करमसोत जोधा हुए (ठिकाना खींवसर)।  
  6. रायपाल - इसके वंशज रायपालोत हुए।
  7. वणवीर - इनके वंशज बणवीरोत जोधा हुए।  
  8. जसवन्त - इनके वंशज जसूत जोधा हुए।
  9. कूंपा 
  10. चांदराव,
  11. बीदा - इसके वंशज बीदावत हुए, इनके बीकानेर राज्य में बीदासर, गोपालपुरा सहित कई प्रमुख ठिकाने थे। 
  12. जोगा - इसके पुत्र खंगार के खंगारोत जोधा हुए। खारियो, पुनास, जालसू, डाहोली, खारी, छापली अदि इनके गांव हैं। 
  13. भारमल - इसके वंशज भारमलोत जोधा हुए।
  14. दूदा - इसके वंशज मेड़ता में रहने से मेड़तिया कहलाए, प्रसिद्द भक्त मीराबाई दूदाजी के पुत्र रतनसिंह की पुत्री थी व मेवाड़ के महाराणा सांगा की पुत्रवधू थी। दूसरे पुत्र विक्रमदेव के वंशजों के घाणेराव, मसूदा, बालुन्दा व मेवाड़ में बदनौर ठिकाने थे। 
  15. वरसिंह - इसके वंशज वरसिंहोत जोधा हुए। इनके पुत्र सिंहाजी के वंशजो ने मध्यप्रदेश में झाबुआ व आसकरण के वंशजों ने राजस्थान में कुशलगढ़ स्वतंत्र राज्य  की स्थापना की 
  16. सामन्तसिंह,
  17. शिवराज - इनके वंशज शिवराजोत जोधा हुए ! 

 

★राव सातलजी– राव जोधाजी के पश्चात् इनके पुत्र राव सातल मारवाड़ की गद्दी पर बैठे सन् (1489- 1492 ई.)। इन्होंने पोकरण और फलौदी के पास के प्रदेश पर अधिकार कर सातलमेर नामक नगर बसाया। सन् 1492 ई. में राव सातल तथा सिरिया खां के मध्य कोसाणा में युद्ध हुआ। इस युद्ध में राव सातलजी मुस्लिम सेना से संघर्ष करते समय घायल हो गये, जिससे इनकी मृत्यु हो गई। 

 

★राव सूजाजी– राव सातलजी की मृत्यु के पश्चात् इनके भाई राव सूजाजी मारवाड़ की गद्दी पर बैठे (1492 से 1495)। इनके नौ पुत्र ...

  1. बाघा - इनके पुत्र गांगा जी सन् 1515 ई. में मारवाड़ के शासक बने। 
  2. नरा - नराजी राठौड़ फलौदी के शासक थे। तंवरों ने अपनी लड़की नराजी के पुत्र वीरमजी को विवाह कर पोखरण का कुछ भाग दहेज में देकर चुकाया। वहीं से वीरमजी के वंशज पोखरिया राठौड़ कहलाये। पोखरिया राठौड़ों के मुख्य ठिकाने काणेचा, राजियावास, नरवर, सवाईपुरा आदि है। पोखरिया के वंश परम्परा में खींवाजी राठौड़ के वंश में भरल राठौड़ और मामणियात राठौड़ हुए। भरल राठौड़ो के मुख्य ठिकाने राजोसी, रामखेड़ा, धनार, राया, बूंटीवास, फतहपुरिया, लूलवा, बोरवा, धोलिया, सूरजपुरा आदि है।  
  3. शेखा,
  4. देवीदास,
  5. राव ऊदा,
  6. प्राग,
  7. सांगा - सांगावत जोधा। 
  8. पृथुराव और
  9. नापा - 

 

राव गांगा - जोधपुर के राव (1515 से 1532) ! वंशज गांगावत जोधा, कलिजाड, हेजावास, साली अदि ठिकाने।  पुत्र 6  .... 

  1. मालदेव - जोधपुर के राव हुए। 
  2. भैरसाल
  3. मानसिंह
  4. किशन दास - वंशज किशनावत जोधा, नानादवान के ठाकुर। 
  5. सादुल [शार्दुल]
  6. कान्हा 

 

★राव मालदेव - जोधपुर के राव (1532 से 1562) !

अपने पिता गांगा की हत्या करके मालदेव राजा बना।  राज तिलक के समय मालदेव के पास केवल 2 परगने थे, 1. जोधपुर 2. सोजत। कालांतर में मालदेव ने 52 युद्ध तथा 58 परगने जीते थे। राव गांगा ने मेवाड़ के शासक राणा सांगा को खानवा के युद्ध में चार हजार सैनिक भेजकर सहयोग किया। मालदेव ने हीराबाडी का युद्ध 1533 ईस्वी में नागौर के दौलत खां को हराया। पाहेबा (साहेबा) का युद्ध 1541ई. में मालदेव और जैतसी (बीकानेर) के बीच लड़ा गया। मालदेव जीत गया तथा उसने बीकानेर पर अधिकार कर लिया और राव जैतसी युद्ध में लड़ता हुआ मारा गया। उसका बेटा कल्याणमल सहायता मांगने शेरशाह सूरी के पास चला गया। मालदेव ने मेड़ता पर अधिकार कर लिया था। मेड़ता का राजा वीरमदेव शेरशाह सूरी के पास चला गया तथा सहायता की मांग की।

मालदेव-हुमायूं संबंध: शेरशाह सूरी से हारने के बाद हुमायूं राजस्थान से होकर जा रहा था। उसने जोगीतीर्थ नामक स्थान से मालदेव के पास सहायता के लिए 3 दूत भेजे थे। 1. मीर समंद 2. अतका खां 3. रायमल सोनी। मालदेव ने सकारात्मक उत्तर दिया उसने बीकानेर तथा सैनिक सहायता देने का वादा किया लेकिन हुमायूं ने अपने पुस्तकालय अध्यक्ष मुल्ला सुर्ख के कहने पर मालदेव पर विश्वास नहीं किया और सिंध (पाक) की तरफ चला गया। उसने अमरकोट के राजा वीर साल के पास शरण ली। 

मालदेव और शेरशाह सूरी के बीच 1544 ई. गिरी सुमेल का युद्ध हुआ। मालदेव के सेनापति जैता, कूंपा तथा शेरशाह सूरी के सेनापति कल्याणमल (बीकानेर), वीरमदेव (मेड़ता) थे। शेरशाह सूरी की चालाकी के कारण मालदेव वापस चला गया। जैता तथा कूंपा ने शेरशाह के खिलाफ युद्ध किया। जलाल खान जलवानी की सहायता से शेरशाह सूरी युद्ध जीत गया। जीतने के बाद शेरशाह ने कहा कि "मैं मुट्ठी भर बाजरे के लिए हिंदुस्तान की बादशाहत खो देता"। शेरशाह ने जोधपुर पर अधिकार कर लिया तथा खवास खां को जोधपुर सौंप दिया। मालदेव सिवाणा चला गया (सिवाणा को मारवाड़ के राठौड़ों की शरणस्थली कहा जाता था)। थोड़े दिन बाद मालदेव ने जोधपुर पर पुनः अधिकार कर लिया। जैसलमेर के लूणकरण भाटी की राजकुमारी उमादे मालदेव की रानी थी। भारमली नामक दासी की कारण मालदेव से नाराज हो गई थी, इसलिए इसे रूठी रानी कहा जाता है।

मालदेव ने जोधपुर का परकोटा बनवाया था। उसने कई स्थानों पर किले बनवाए 1. मेड़ता 2. रिया का किला 3. सोजत 4. पोकरण किला। 

मालदेव के दरबारी विद्वान: 1. आशानंद जी : पुस्तक उमा दे भटियाणी रा कवित्त, बाघा भारमली रा दुहा, गोगाजी री पेड़ी। इन्होंने पाहेबा युद्ध में भी भाग लिया था। 2. ईसरदासजी: पुस्तक हाला झाला री कुंडलियां (सुर सतसई), देवीयाण, हरिरस। मालदेव के पुत्र 11 ...

  1. रामराय - सबसे  बड़ा पुत्र, लेकिन मालदेव ने उसे उत्तराधिकारी नहीं बनाया। इसका पौत्र जगन्नाथ अमझेरा का शासक हुआ। इसके वंशज रामोत जोधा का मारवाड़ में भी पावा ठिकाना था। इसके पुत्र केशोदास के वंशज केशोदासोत जोधा हुए। 
  2. उदयसिंह - इसे मालदेव ने फलोदी की जागीर दी। चन्द्रसेन की मृत्यु के बाद बादशाह ने जोधपुर का राज्य इसे दे दिया।  
  3. चंद्रसेन - अपने पिता मालदेव का उत्तराधिकारी हुआ। 
  4. रायमल - इसके वंशजों से अभेराजोत जोधा (ठिकाना निंबी), केसरीसिंहोत जोधा के ठिकाना लाडनूं, सिंगरावट, लेहड़ी, गौराऊ, व कई छोटे ठिकाने थे। इन्ही क वंशज बिहारीदासोत जोधा के रोहिसी तथा मुडियासरी गांव थे। 
  5. आसकरण - (जूनिया ठिकाना के पूर्वज) 
  6. गोपालदास
  7. पृथ्वीराज - जालोर परिवार के पूर्वज पृथ्वीराज 
  8. रतनसिंह - रतनसिंहोत जोधा, ठिकाना भाद्रजुन 
  9. भोजराज - भगासणी गांव भोजराजोत जोधा का था
  10. बिक्रमजीत
  11. भानसिंह - इनके वंशज भानोत जोधा हुए। 

 

★राव चंद्रसेन - जोधपुर के राव ( 1562 से 1581) !  

1562 ई. में राव मालदेव की मृत्यु के बाद इनके ज्येष्ठ पुत्र को राज्य से निष्कासित कर दिया तथा उदयसिहं (मोटा राजा) को पाटौदी का जागीरदार बना दिया, व छोटे बेटे चंद्रसेन को राजा बनाया था। राम ने अकबर से सहायता मांगी तो अकबर के सेनापति हुसैन कुली बैग ने जोधपुर पर आक्रमण कर दिया। चंद्रसेन भाद्राजूण (जालौर) चला गया।। अकबर ने भाद्राजूण पर आक्रमण कर दिया। चंद्रसेन सिवाणा फिर पीपलोद कनूजा चला गया। 1570 ईस्वी में चंद्रसेन अकबर के नागौर दरबार में गया। लेकिन अकबर का झुकाव अपने भाई उदयसिंह की तरफ देखकर अकबर से बिना मिले ही वापस चला गया। अकबर ने 1572 ई. में बीकानेर के रायसिंह को जोधपुर का प्रशासक निुयुक्त कर दिया। चन्द्रसेन अकबर के खिलाफ 20 साल तक लड़े। मारवाड़ के इतिहास में इस शासक को भूला-बिसरा राजा या मारवाड़ का प्रताप कहा जाता है। राव चन्द्रसेन को मेवाड़ के राणा प्रताप का अग्रगामी भी कहते हैं। चंद्रसेन आजीवन संघर्ष करता रहा लेकिन अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। 1581 ई. सारण की पहाड़ियों (पाली) में चंद्रसेन की मृत्यु सिचियाई नामक स्थान पर हो गई। चंद्रसेन और प्रताप में समानताएं :

  • दोनों ने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की।
  • दोनों ने छापामार युद्ध प्रणाली का अनुसरण किया। भाई दोनों को अपने भाइयों के विरोध का सामना करना पड़ा। जैसे जगमाल ने प्रताप का विरोध किया वैसे ही राम व उदयसिंह ने चंद्रसेन का विरोध किया।
  • दोनों के अधिकतर राज्य पर अकबर ने अधिकार कर लिया तथा केवल थोड़ी सी भूमि के बल पर अकबर का सामना किया।
  • दोनों को अपने राज्य के बाहर शरण लेनी पड़ी। जैसे प्रताप ने छप्पन के मैदान (बांसवाड़ा) में शरण ली और चंद्रसेन ने डूंगरपुर के राजा आसकरण के पास शरण ली। इनके पुत्र हुए ...
  1. रायसिंह
  2. उग्रसेन - उग्रसेन के पुत्र करमसेन के कर्मसेनोत जोधा हुए, ठिकाना भिनाय, बांदनवाड़ा, टांटोटी के आलावा अजमेर में ही देवगांव बघेरा, करोट, जेतपुरा, जड़ना, काचरिया हैं।   
  3. आसकरण 

★मोटा राजा उदयसिंह - जोधपुर के राजा (1538–1595) !

मोटा राजा उदयसिंह जोधपुर का पहला राजा, जिस ने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली। और उनसे वैवाहिक सम्बन्ध् स्थापित किए। इसने अपनी बेटी ‘ मानी बाई’ की शादी जहांगीर के साथ कर दी गयी। इसे ‘जगत गोसाई’ भी कहते हैं। मानी बाई का बेटा ‘खुर्रम’ शाहजहां था। कल्ला रायमलोत- यह मोटा राजा उदयसिंह के छोटे भाई रायमल का बेटा व सिवाणा का सामंत था। मुगलों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने से यह नाराज था। इसने राजा उदयसिंह व अकबर को मरने की धमकी दी। अकबर ने सिवाणा पर आक्रमण किया तो इन्होनें अकबर के खिलाफ युद्ध व सिवाणा का दूसरा साका किया। कल्ला रायमलोत ने अपनी मृत्यु से पहले ही ‘ पृथ्वीराज राठौड़’ बीकानेर (पीथळ)से अपने ‘मरसिये’ लिखवा लिए। मोटा राजा उदयसिंह के 12 पुत्र हुए ....

  1. कुंवर नरहरदास - नरहरदासोत, ठिकाना- नादणी, नरवर, भदूण। पुत्र जगन्नाथ के जगन्नाथोत जोधा, ठिकाना- मोरेरा। 
  2. राजकुमार भगवान दास - इनके पुत्र गोयन्ददास के गोयन्ददासोत जोधा हुए, ठिकाने खेरवा, बाबरा, बलाड़ा। दूसरे पुत्र गोपालदास के गोपालदासोत हुए, ठिकाने- तोलासर, मालावासणी, खेतोलाई। 
  3. राजकुमार भूपत सिंह - उन्होंने अपने भाई, किशन सिंह के साथ जोधपुर छोड़ दिया, और उन्हें पांच गांवों की एक जागीर दी गई। किशनगढ़ में नरैना , पंडरवारा, भादून और खेरियन भूपतौत के ठिकाने थे।
  4. राजकुमार अखैराज सिंह 
  5. राजकुमार दलपतसिंह - दलपत का बेटा महेशदास मुगल बादशाह शाहजहाँ का मनसबदार था। शाहजहाँ द्वारा महेशदास को सन् 1642 ई0 में जालौर का परगना जागीर के रूप में दिया गया था। महेशदास का उत्तराधिकारी रतनसिंह हुआ। जालौर परगने की आय कम होने के कारण शाहजहाँ ने रतनसिंह को सन् 1656 ई0 में जालौर के स्थान पर मालवा में परगना जागीर के रूप में दिया। रतनसिंह ने रतलाम (मध्यप्रदेश) बसाकर मालवा में एक नए राठोड राज्य की स्थापना की। ०रंगजेब द्वारा रतलाम वापस ले लेने पर रतनसिंह के पौत्र केशोदास ने सीतामऊ राज्य कीस्थापना की।
  6. राजकुमार सकत सिंह - सकतसिंहोत जोधा, ठिकाने- रघुनाथपुरा और नालू (किशनगढ़ में) और जोधपुर में खरवा । 
  7. सवाई राजा सूरसिंह जी {जोधपुर के राजा हुए) 
  8. राजकुमार जेतसिंह - जेतसिंहोत जोधा, ठिकाने- जैतगढ़ मेवड़िया (अजमेर), खेरवा, नोखा, कनमोर, मोरण। पौत्र रतनसिंह से रतनोत, ठिकाना दुगोली, लोहोती अदि। । 
  9. कुंवर पुरण मल
  10. कुंवर माधो दास - माधोदासोत जोधा, ठिकाने- पीसांगन, महरू, जून्या, पारा, गोविंदगढ़।
  11. कुंवर मोहन दास - गांव रामपुरिया (मेड़ता में ) हैं। 
  12. कुंवर कीरत सिंह 
  13. कुंवर किशनसिंह 
  14. कुंवर केशोदास [केसरी सिंह] - ठिकाना पीसांगन ।
  15. कुंवर जसवंत सिंह मानपुरा परिवार के पूर्वज 
  16. कुंवर राम दास 

 

सवाई राजा सूरसिंह (1595-1619 ई.)

मोटाराजा उदयसिंह की लाहौर में मृत्यु के पश्चात मुगल सम्राट अकबर ने वहीं पर सूरसिंह को उत्तराधिकारी घोषित किया। इन्हें टीका देने की रस्म लाहौर में सम्पन्न की गई। 1604 ई. में अकबर ने इन्हें मलिक अंबर की विरूद्ध वीरता पूर्वक लड़ने पर 'सवाई राजा' की उपाधि प्रदान की। मेवाड़ अभियान में खुरर्म की सहायता करने पर सूरसिंह को 5000 जात व 3000 सवार का मनसब दिया गया।अकबर ने इन्हें दक्षिण में नियुक्त किया तब जोधपुर का शासन-प्रबंध इनके पुत्र गजसिंह तथा भाटी गोविंददास ने संभाला था। सूरसिंह ने जहाँगीर को रणरावत तथा फौज शृंगार नामक हाथी भेंट किए थे। 1613 ई. में खुर्रम के मेवाड़ अभियान में भी सूरसिंह शामिल थे। जहाँगीर ने इनका मनसब 5000 जात व 3000 सवार कर दिया था। 1619 ई. में दक्षिण में रहते हुए सूरसिंह का देहांत हो गया। सूरसिंह ने चांदपोल से बाहर सूरसागर तालाब, रामेश्वर महादेव मंदिर, सूरजकुण्ड बावड़ी तथा जोधपुर शहर में तलहटी के महल बनवाये। उनके छह बेटे और सात बेटियां थीं --

  • महाराजा गज सिंहजी प्रथम 
  • राजकुमार सबल सिंह
  • राजकुमार वीरम देव
  • राजकुमार बिजय सिंह
  • राजकुमार प्रताप सिंह
  • राजकुमार जसवंत सिंह

 

महाराजा गजसिंह प्रथम (1619-1638) 

राजा सूरसिंह की मृत्यु के बाद गजांसह जोधपुर के शासक बने तथा बुरहानपुर में इनका राज्याभिषेक किया गया। गजसिंह की सेवाओं से प्रसन्न होकर मुगल सम्राट जहाँगीर ने इन्हें 'दलथंभन' की उपाधि प्रदान की। 1630 ई. में जहाँगीर ने गजसिंह को 'महाराजा' की उपाधि भी प्रदान की। गजसिंह ने मुगल शासक जहाँगीर तथा शाहजहाँ को अपनी सेवाएं प्रदान की। गजसिंह के समय हेम कवि ने 'गुणभाषा चित्र' व केशवदास गाडण ने 'राजगुणरूपक' नामक ग्रंथों की रचना की।  गजसिंह ने जोधपुर दुर्ग में तोरणपोल, उसके आगे का सभामण्डप, दीवानखाना, बीच की पोल, कोठार रसोईघर, आनंदघनजी का मंदिर, तलहटी के महलों में अनेक नये महल, सूरसागर में कुंआ, बगीचा और महल बनवाये। 

गजसिंह के तीन पुत्र हुए। ज्येष्ठ पुत्र अमरसिंह था लेकिन उन्होंने अपनी प्रेमिका अनारां के कहने पर अपना उत्तराधिकारी छोटे पुत्र जसवंत सिंह को घोषित किया, (एक पुत्र अचलसिंह की युवावस्था में मृत्यु हो गयी)।

 

राव अमरसिंह - अमरसिंह गजसिंह का ज्येष्ठ पुत्र था, लेकिन इनकी विद्रोही तथा स्वतंत्र प्रवृत्ति के कारण गजसिंह ने इन्हें राज्य से निकाल दिया। इसके बाद अमरसिंह मुगल बादशाह शाहजहाँ के पास चले गए। शाहजहाँ ने इन्हें नागौर परगने का स्वतंत्र शासक बना दिया। 1644 ई. में बीकानेर के सीलवा तथा नागौर के जाखणियां के गाँव में मतीरे की बैल को लेकर मतभेद हुआ।  इस मतभेद कारण नागौर के अमरसिंह तथा बीकानेर के कर्णसिंह के मध्य युद्ध हुआ जिसमें अमरसिंह पराजित हुआ। दिल्ली में बादशाह के साले सलावत खां ने अमरसिंह को अपशब्द बोले, जिससे नाराज अमरसिंह ने उसकी हत्या करदी, तब अन्य सिपाहियों से लड़ते हुए अमरसिंह वीरगति को प्राप्त हुए। नागौर में अमरसिंह राठौड़ की 16 खंभों की छतरी है। आगरा किले के बुखारा दरवाजे को अमरसिंह दरवाजा कहा जाता है, शाहजहां ने इस दरवाजे को बंद करवा दिया था। कालांतर में अंग्रेज अफसर जॉर्ज स्टील ने इस दरवाजे को खुलवाया।

 

महाराजा जसवंतसिंह (प्रथम) (1638-78 ई.) 

महाराजा जसवंत सिंह प्रथम का जन्म 26 दिसम्बर, 1626 ई. में बुहरानपुर में हुआ था। जसवन्तसिंह की गिनती मारवाड़ के सर्वाधिक प्रतापी राजाओं में होती है। शाहजहाँ ने उसे 'महाराजा' की उपाधि प्रदान की थी। वह जोधपुर का प्रथम महाराजा उपाधि प्राप्त शासक था। शाहजहाँ की बीमारी के बाद हुए उत्तराधिकारी युद्ध में वह शहजादा दाराशिकोह की ओर से धरमत (उज्जैन) के युद्ध (1657 ई.) में औरंगजेब व मुराद के विरुद्ध लड़कर हारा था। खजुआ के युद्ध में औरंगजेब के खिलाफ शुजा की सहायता की। जयसिंह के कहने पर औरंगजेब ने जसवन्त सिंह को माफ कर दिया तथा 7000 की मनसब एवं गुजरात का सुबेदार बनाया।औरंगजेब ने जसवंतसिंह को काबुल का गवर्नर बनाया। इसने महाराष्ट्र में औरंगाबाद के पास जसवंतपुरा नामक कस्बा बसाया। जसवंतसिंह ने जोधपुर में काबुल की मिट्टी और अनार के बीज एवं पौधे मंगवाकर जोधपुर में अनार का बगीचा लगवाया। जसवंतसिंह की हाड़ी रानी जसवंत दे बूंदी नरेश शत्रुशाल की पुत्री थी, उसने जोधपुर नगर से बाहर राईका बाग नामक बाग बनवाया। इसी रानी ने कल्याणसागर नामक तालाब भी बनवाया जो बाद में रातानाडा के नाम से विख्यात हुआ। जसवंतसिंह की शेखावत रानी खण्डेला की थी. उसने जोधपुर में शेखावतजी का तालाब बनवाया।

जसवंतसिंह की पुस्तके: 1. आनंद विलास 2. भाषा भूषण 3. प्रबोध चंद्रोदय 4. अपरोक्ष सिद्धांत सार। उसने मुगलों की ओर से शिवाजी के विरुद्ध भी युद्ध में भाग लिया था। इनकी मृत्यु सन् 1678 ई. में अफगानिस्तान के जमरूद नामक स्थान पर हुई थी। वीर दुर्गादास इन्हीं का दरबारी व सेनापति था। इतिहासकार मुहता (मुहणोत) नैणसी इन्हीं के दरबार में रहता था। नेणसी ने 'मारवाड़ री परगना री विगत' तथा 'नैणसी री ख्यात' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ लिखे। इसे 'मारवाड़ का अबुल फजल कहा जाता है। महाराजा जसवंत सिंह ने 'भाषा भूषण' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की। जसवंतसिंह द्वारा रचित अन्य ग्रंथ अपरोक्ष सिद्धान्त सार प्रबोध चन्द्रोदय नाटक हैं। इनके चार पुत्र हुए जिनमे तीन की मृत्यु उनके जीवनकाल में ही हो गई व अजीतसिंह का जन्म उनके मृत्यु उपरांत हुआ  --

  • राजकुमार पृथ्वी सिंह 
  • राजकुमार जगत सिंह
  • राजकुमार दलथंबनसिंह 
  • महाराजा अजीत सिंह 

 

महाराजा अजीतसिंह (1678-1724 ई.) - 

जसवंत सिंह की मृत्यु के समय उनके कोई जीवित उत्तराधिकारी ना होने के कारण औरंगजेब ने जोधपुर राज्य को खालसा घोषित कर मुगल साम्राज्य में मिला दिया था। महाराजा जसवंत सिंह के मरणोपरांत 19 वें फरवरी 1679 अजीतसिंह का जन्म हुआ। जोधपुर के राठौड़ सरदारों द्वारा बालक अजीत सिंह के जोधपुर का शासक बनाने की मांग करने पर औरंगजेब ने इसे टालते हुए अजीत सिंह को परवरिश हेतु दिल्ली बुला लिया वहां इन्हें रूप सिंह राठौड़ की हवेली में रखा गया। वीर दुर्गादास व अन्य सरदारों ने औरंगजेब की चालाकी को भांपकर बालक अजीत सिंह को बाघेली महिला की मदद से औरंगजेब के चंगुल से निकालकर गुप्त रूप से सिरोही के कालिंदी नामक स्थान पर जयदेव ब्राह्मण के घर भेज दिया तथा दिल्ली में एक अन्य बालक को नकली अजीत सिंह के रुप में रखा गया। बादशाह औरंगजेब ने बालक को असली अजीत सिंह समझते हुए उसका नाम मोहम्मदीराज रखा मारवाड़ में अजीत सिंह को सुरक्षित ना देख कर वीर राठौड़ दुर्गादास ने मेवाड़ की शरण ली। अंजितसिंह की माता राजसिंह की भतीजी थी मेवाड़ महाराणा राजसिंह ने अजीत सिंह के निर्वाह के लिए दुर्गादास को केलवा की जागीर प्रदान की। दुर्गादास राठौड़ ने अजीतसिंह को राजा बनाने के लिए 30 वर्ष संघर्ष किया था। 1698 ई. में औरंगजेब ने जालौर, सांचोर का सिवाना के परगना जागीर में देकर अजितसिंह को शाही मनसब प्रदान की तथा दुर्गादास को तीन हजारी मनसब प्रदान कर अन्हिलवाडा व पाटन का फौजदार नियुक्त किया। 1708 ई. में देबारी समझौते के बाद अजीतसिंह मारवाड़ का राजा बना। महाराजा अजीत सिंह ने मुगल बादशाह फर्रुखसियर से संधि कर अपनी लड़की इंद्र कुंवरी का विवाह बादशाह से कर दिया। अजीतसिंह ने जोधपुर दुर्ग में फतैपोल और गोपाल पोल के बीच का कोट बनवाया। उसने जोधपुर दुर्ग में नई फतहपोल, दौलतखाना, फतैमहल, भोजनसाल, ख्वाबगाह के महल, रंगसाल और छोटे जनाने महल तथा जोधपुर नगर में घनश्यामजी का मंदिर एवं मूल नायकजी का मंदिर बनवाया। अजीतसिंह की हत्या उसके पुत्र बख्तसिंह द्वारा की गयी। अजीतसिंह के दाह संस्कार के समय अनेक मोर तथा बन्दरों ने स्वेच्छा से अपने प्राणों की आहुति दी।

 इनके 8 पुत्रियां व सत्रह पुत्र हुए -- 

(1) अभयसिंह (जोधपुर के राजा हुए) (2) बखतसिंह (जोधपुर के राजा हुए) (3) आनन्दसिंह (ईडर के राजा) (4) किशोरसिंह (5) रायसिंह (6) रत्नसिंह (झाबुआ में गोद गए) (7) सुलतानसिंह (8) तेजसिंह, (9) दौलत सिंह (10) जोधसिंह, (11) सोभागसिंह, (12) प्रखैसिंह, (13) रूपसिंह, (14) जोरावरसिंह, (15) मानसिंह, (16) प्रतापसिंह और (17) छत्रसिंह !

पुत्रियां - (1) फूलकुंवर बाई (जैसलमेर के रावल अखसिंह को व्याही गई), (2) इंद्रकुंवर बाई, (3) फ़तह कुंवर बाई, (4) सूरजकुंवर बाई, (5) किशोरकुंवर बाई, (6) अवैकुंवर • बाई, (7) वरकुंवर बाई और (8) सौभाग्यकुंवर बाई (महाराणा जगतसिंह के पुत्र प्रतापसिंह को व्याही गई) !

इनके पांच  पुत्र हुए -- 

  • महाराजा अभय सिंह  
  • महाराजा राय सिंह द्वितीय  
  • महाराजा बख्त सिंह  
  • राजा आनंद सिंह , (ईडर के राजा) 
  • राजकुमार रसा सिंह (झाबुआ में गोद  गए) 

 

दुर्गादास राठौड़ - वीर दुर्गादास जसवन्त सिंह के मंत्री आसकरण का पुत्र था। उसने बालक अजीतसिंह को मुगलों के चंगुल से मुक्त कराया व् सुरक्षित स्थान पर ले जाकर उसके पालन पोषण की व्यवस्था की तथा बालिग होने पर उसे जोधपुर के सिंहासन पर आरूढ़ किया। उसने मेवाड़ व मारवाड़ में सन्धि करवायी। अजीतसिंह ने दुर्गादास को देश निकाला दे दिया तब वह उदयपुर के महाराजा अमर सिंह द्वितीय की सेवा में रहा। दुर्गादास का निधन उज्जैन में हुआ और वहीं क्षिप्रा नदी के तट पर उनकी छतरी (स्मारक) बनी हुई है।

 

महाराजा अभयसिंह (1724-1749 ई.) -  

महाराजा अजीतसिंह की मृत्यु के बाद 1724 ई. में उनका पुत्र अभयसिंह जोधपुर का शासक बना। इनका राज्याभिषेक दिल्ली में हुआ। इन्होंने 1734 ई. में मराठों के विरुद्ध राजपूताना के शासकों को एकजुट करने के लिए आयोजित हुरड़ा सम्मेलन में भाग लिया। इनके समय चारण कवि करणीदान ने 'सूरजप्रकाश भट्ट जगजीवन ने 'अभयोदय', वीरभाण ने 'राजरूपक' तथा सूरतिमिश्र ने 'अमरचंद्रिका' ग्रंथ की रचना की। इन दोनों पुस्तकों से अहमदाबाद युद्ध की जानकारी मिलती है। इस युद्ध में अभयसिंह ने गुजरात के सर बुलंद खां को हरा दिया था। अभयसिंह ने मण्डोर में अजीत सिंह का स्मारक बनवाना प्रारंभ किया लेकिन इनके समय यह निर्माण कार्य पूर्ण नहीं हो सका। अभयसिंह ने चांदपोल दरवाजे के बाहर अभयसागर तालाब तथा जोधपुर दुर्ग में चौकेलाव का कुंआ फूल महल तथा कच्छवाहीजी का महल बनाया। इनके समय चारण कवि पृथ्वीराज द्वारा 'अभयविलास' काव्य लिखा गया। इनके एक पुत्र महाराजा राम सिंह हुआ। 

 

महाराजा रामसिंह (1749-1751 ई.) -  

महाराजा अभयसिंह के निधन के बाद रामसिंह शासक बने ।  यह एक कमजोर शासक थे तथा सरदारों के प्रति इनका व्यवहार भी अच्छा नहीं था जिसके कारण इन्हें जल्दी ही शासक पद से हाथ धोना पड़ा।

 

महाराजा बख्तसिंह (1751-1752 ई.) - 

बख्तसिंह ने महाराजा रामसिंह को पराजित कर जोधपुर पर अधिकार कर लिया। बख्तसिंह महाराजा अजीतसिंह के पुत्र तथा महाराजा अभयसिंह के छोटे भाई थे। बख्तसिंह वीर, बुद्धिमान तथा कार्यकुशल शासक थे। राजा बखतसिंह ने जोधपुर नगर के बीच कोतवाली का स्थान बनवाया था मण्डी में अनाज की बिक्री के लिये चौक बनवाया। राव मालदेव के समय बनी शहर पनाह छोटी पड़ने लगी थी इसलिये बखतसिंह ने उसका फिर से विस्तार करवाया तथा दुर्ग में भी कई सुधार किये। उसने जसवंतसिंह के समय बना महल गिरवाकर दौलतखाने का चौक बनवाया, लोहापोल के पास के कोठारों को तुड़वाकर वहां का मार्ग चौड़ा करवाया तथा दुर्ग में जान डेवढ़ी की नई पोल, नई सूरजपोल और आनंदघनजी का मंदिर बनवाया। इन्होंने नागौर के किले में कई महल बनावाए जिनमें से 'आबहवा महल' अधिक प्रसिद्ध है। इन्होंने अपने पिता अजीतसिंह की हत्या कर दी थी जिस कारण ये पितृहंता कहलाए। 1752 ई. में सींघोली (जयपुर) नामक स्थान पर इनका देहांत हो गया। दो पुत्र .... १. महाराजा बिजय सिंह २. राजकुमार अजीत सिंह

 

महाराजा विजयसिंह (1752-1793 ई.) - 

महाराजा बख्तसिंह के देहांत के बाद विजयसिंह मारवाड़ के शासक बने। इस समय रामसिंह ने पुन: जोधपुर राज्य पर अधिकार करने के प्रयास किए तथा इसके लिए उसने आपाजी सिंधिया को आमंत्रित किया। विजयसिंह की सहायता के लिए बीकानेर के महाराजा गजसिंह तथा किशनगढ़ के शासक बहादुरसिंह सेना सहित आये लेकिन विजयसिंह पराजित हुए। अंत में 1756 ई. में मराठों से संधि हुई तथा जोधपुर, नागौर आदि मारवाड़ राज्य विजयसिंह को तथा सोजत, जालौर, मारोठ का क्षेत्र रामसिंह को मिला। विजयसिंह ने वैष्णव धर्म स्वीकार किया तथा राज्य में मद्य-मांस की बिक्री पर रोक लगवा दी। विजयसिंह के समय ढलवाये गए सिक्कों को विजयशाही सिक्के कहा गया। 1787 ई. में तुंगा के युद्ध में विजयसिंह ने जयपुर शासक प्रताप सिंह के साथ मिलकर माधवराव सिंधिया को पराजित किया।  पाटण के युद्ध (1790 ई.) में महादजी सिंधिया की सेना ने विजयसिंह की सेना को पराजित किया। यह युद्ध तंवरो की पाठण (जयपुर) नामक स्थान पर हुआ। 1790 ई. डंगा के युद्ध (मेड़ता) में महादजी सिंधिया के सेनानायक डी. बोइन ने विजयसिंह को पराजित किया। इस युद्ध के परिणामस्वरूप सांभर की संधि हुई जिसके तहत विजयसिंह ने अजमेर शहर तथा 60 लाख रुपये मराठों को देना स्वीकार किया। विजयसिंह पर अपनी पासवान गुलाबराय का अत्यधिक प्रभाव था तथा समस्त शासनकार्य उसके अनुसार ही चलते थे। इस कारण वीर विनोद के रचयिता श्यामदास ने विजयसिंह को 'जहाँगीर का नमूना' कहा है। बखतसिंह का पुत्र विजयसिंह जोधपुर के महान राजाओं में से एक था। उसने जोधपुर में गोकुलिये गुसाईयों को लाकर बसाया, जिससे जोधपुर में ब्रज की संस्कृति का प्रसार हुआ। उसने अपने राज्य में जीव हत्या का निषेध कर दिया तथा कसाईयों से उनका परम्परागत कार्य छुड़वाकर उन्हें दूसरे कामों पर लगा दिया। उसके समय जोधपुर में गंगश्यामजी का मंदिर, बालकृष्णजी का मंदिर, कुंज बिहारी का मंदिर, गुलाब सागर तालाब, गिरदीकोट, मायला बाग और उसका झालरा, फतैसागर तथा दुर्ग में मुरली मनोहरजी का मंदिर बनवाये गये। गुलाबराय ने गुलाबसागर तालाब, कुजंबिहारी का मंदिर तथा जालौर दुर्ग के महल आदि का निर्माण करवाया। बारहठ विशनसिंह ने 'विजय विलास' नामक ग्रंथ की रचना की।  इनके सात पुत्र हुए -- 

  • भोम सिंह (इनका पुत्र भीम सिंह राजा हुआ )
  • गुमान सिंह (इनका पुत्र मान सिंह भी बाद में राजा हुआ) 
  • फतेह सिंह , (युवा की मृत्यु हो गई)
  • जालिम सिंह (उन्होंने उदयपुर (मेवाड़) में आत्महत्या कर ली)
  • सावंत सिंह
  • शेर सिंह 
  • सरदार सिंह

 

महाराजा भीमसिंह (1793-1803 ई.) -  

नियमानुसार राजा विजय सिंह के बड़े बेटे के पुत्र भीमसिंह को उतराधिकार मिलना था पर गुलाबराय द्वारा शेरसिंह को उतराधिकारी बनाने की मुहीम के चलते विजय सिंह के पोत्र भीमसिंह ने उतराधिकार से वंचित रहने की आशंका के चलते महाराजा विजय सिंह की अनुपस्थिति में वि.स. 1849 में जोधपुर किले पर कब्ज़ा कर अपने आपको जोधपुर का महाराजा घोषित कर दिया| भीम सिंह के किले पर कब्ज़ा करने के बाद जोधपुर के सामंतों द्वारा विजयसिंह के बाद उसे जोधपुर की गद्दी मिलने का आश्वासन और सिवाना की जागीर मिलने के बाद किले पर कब्ज़ा छोड़ दिया| विजय सिंह की मृत्यु के बाद भीमसिंह का आषाढ़ शुक्ला 12  वि.स. 1850 को पुन: जोधपुर की राजगद्दी पर राज्याभिषेक किया गया। इनका स्वभाव क्रूर था, इन्होने सिंहासन पर बैठते ही अपने विरोधी भाइयों की हत्या करवा दी। भीमसिंह ने अजीतसिंह के अपूर्ण स्मारक को पूर्ण करवाया। इनके समय भट्ट हरिवंश ने 'भीम प्रबंध' तथा कवि रामकर्ण ने 'अलंकार समुच्चय' की रचना की। इनके एक पुत्र धोंकलसिंह हुआ। 

 

महाराजा मानसिंह (1803-1843 ई.) - 

1803 में उत्तराधिकार युद्ध के बाद पूर्व महाराजा विजय सिंह के पांचवे पुत्र गुमान सिंह के पुत्र मानसिंह जोधपुर सिंहासन पर बैठे। जब मानसिंह जालौर में मारवाड़ की सेना से घिरे हुए थे, तब गोरखनाथ सम्प्रदाय के गुरु आयस देवनाथ ने भविष्यवाणी की, कि मानसिंह शीघ्र ही जोधपुर के राजा बनेंगे। अतः राजा बनते ही मानसिंह ने आयस देवनाथ को जोधपुर बुलाकर अपना गुरु बनाया तथा वहां नाथ सम्प्रदाय के महामंदिर का निर्माण करवाया। कर्नल टॉड लिखता है- ” मानसिंह का जीवनवृत मानवीय, सहिष्णुता, साहस और धैर्य का एक ऐसा उदाहरण है जो अन्य किसी देश और युग में कठिनाई से मिलता है। किन्तु विपदाओं की निरंतर अनुभूतियों ने उसे भी निर्दयी बना दिया| उसमें सिंह का भयंकर क्रोध ही नहीं था अपितु इससे भी घातक उसकी चालाकी भी उसमें थी|” मानसिंह ने जोधपुर राज्य पर चालीस वर्षों तक शासन किया पर अपने पुरे शासन काल में वे कभी चैन से नहीं बैठ सके| बाल्यकाल से ही गृह कलेश के चलते षड्यंत्रों व लड़ाई झगड़ों में उलझे रहे| चाहे वह जालौर दुर्ग में रहते हुए भीमसिंह द्वारा डाले घेरे में रहें हो या फिर जोधपुर के राजा बनने के बाद परिजनों, सामंतों के षड्यंत्र से बचने के संघर्ष में रहें हो उनका पूरा जीवन संघर्षमय ही रहा| और शायद इन षड्यंत्रों का ही नतीजा था कि उनकी दंड प्रक्रियाएं कठोर व निर्दयी रही| लोक में मानसिंह की “रीझ और खीझ” प्रसिद्ध है| जिस पर अप्रसन्न हो गए फिर उसके अस्तित्व को ही मिटा दिया और जिस पर मुग्ध हो गए उसे आकाश पर बिठा दिया। भारत के उस वक्त के प्रभावशाली राजनीतिज्ञ पंजाब के महाराजा रणजीतसिंह से भी मानसिंह की बहुत अच्छी मित्रता थी| अंग्रेजों के दो बड़े शत्रु जसवंतराव होल्कर और नागपुर के अप्पाजी भोंसले को अंग्रेजों से हारने पर अंग्रेजों के विरोध के बावजूद मानसिंह ने अपने यहाँ शरण दी व सहायता दी| अपने खिलाफ प्रतिकूल परिस्थितियाँ होने के चलते मानसिंह ने सन् 1818 में 16 जनवरी को अंग्रेजों से संधि कर मारवाड़ की सुरक्षा का भार ईस्ट इंडिया कम्पनी को सौंप दिया।

गिंगोली का युद्ध- मेवाड़ महाराणा भीमसिंह की राजकुमारी कृष्णा कुमारी के विवाह के विवाद में जयपुर राज्य की महाराजा जगतसिंह की सेना मध्य युद्ध हुआ। पिंडारियों व अन्य सेनाओं ने संयुक्त रूप से जोधपुर पर मार्च, 1807 में आक्रमण कर दिया तथा अधिकांश हिस्से पर कब्जा कर लिया। परन्तु शीघ्र ही मानसिंह ने पुनः सभी इलाकों पर अपना कब्जा कर लिया। 

परिस्थितियां अनुकूल ना होने के बावजूद मानसिंह ने ज्ञानार्जन का मोह नहीं छोड़ा, समय निकालकर उन्होंने कवियों,पंडितों आदि के साथ कई भाषाओँ व विषयों यथा- धर्म शास्त्र, कुरान, पुराण, ज्योतिष, आयुर्वेद, साहित्यशास्त्र, संगीत शास्त्र आदि का अध्ययन किया| कर्नल टॉड जैसे  इतिहासकार की मानसिंह से अच्छी मित्रता थी। मानसिंह ने लगभग साठ पुस्तकें लिखी, जोधपुर के किले में “पुस्तक प्रकास” नाम से पुस्तकालय की स्थापना की, कई लेखकों की रचनाओं व प्रतियों को कलमबद्ध कर सुरक्षित करवाया| “गुणीजन सभा” नाम से राजा ने एक सभा भी बना रखी थी जिसकी हर सोमवार रात्री को सभा होती थी जिसमें कवि, गायक, कलाकार, पंडित आदि सभी अपनी अपनी विद्या का प्रदर्शन करते थे साथी पंडितों के बीच शास्त्रार्थ होता था जिसमे राजा खुद भाग लेते थे| इस के दरबार में कवि बांकीदास था। मानसिह ने इन्हें ‘कविराज’ की उपाधि दी। पुस्तकः- 1. बांकीदास री ख्यात 2. कुकवि बत्तीसी 3. दातार बावनी 4. मान जसो मंडन। उसने रामायण, दुर्गा चरित्र पुराण, शिव रहस्य, नाथ चरित्र आदि अनेक धार्मिक ग्रंथों के आधार पर बड़े चित्र बनवाये । मानसिंह के समय में जोधपुर में दुर्ग के भीतर जैपोल, जनानी डेवढ़ी के सामने की दीवार, आयस देवनाथ की समाधि, लोहापोल के सामने का कोट, जैपोल और दखना पोल के बीच का कोट, चौकेलाव से रानीसर तक का मार्ग, उसकी रक्षा के लिये दीवार, भैंरू पोल, चतुर्सेवा की डेवढ़ी पर का नाथजी का मंदिर और भटियानी का महल बनवाया गया। जोधा, विजय सिंह तथा मानसिंह के बारे में कहा जाता है ‘जोध बसायो जोधपुर ब्रिज कीन्ही ब्रिजपाल, लखनऊ काशी दिल्ली मान कियो नेपाल’। अर्थात् जोधा ने जोधपुर बसाया और विजयसिंह ने वैष्णव सम्प्रदाय के मंदिर बनवाकर इसे ब्रज भूमि बना दिया। महाराजा मानसिंह ने गवैयों, पण्डितों और योगियों को बुलाकर इसे लखनऊ, काशी, दिल्ली और नेपाल बना दिया।

राजा मानसिंह ने कुल तेरह विवाह किये थे साथ ही इनकी छ: उपपत्नियाँ (पासवान) भी थी| इनकी रानियों से आठ पुत्र और दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई जिनमें एक पुत्र छत्रसिंह व दो पुत्रियों को छोड़ सभी अल्पायु में ही काल कलवित हो गए थे| इकलौते पुत्र छत्रसिंह को भी इनके षड्यंत्रकारी सामंतों ने 17 वर्ष की आयु में ही युवराज का पद दिलवा शासन व्यवस्था उसके हाथों में दिलवा दी| और उसे कुसंग्तियों यथा नशा, विलासिता आदि में डाल दिया जिसकी वजह जल्द ही उसकी भी मृत्यु हो गयी| जीवनभर चले षड्यंत्रों में स्वजनों को खोने के बाद एक मात्र पुत्र को खोने व अपने धर्म गुरु नाथों की हत्या व गिफ्त्तारियों के बाद मानसिंह का जीवन व शासन के प्रति मोह भंग हो गया और उन्होंने सन्यास ले लिया वे विक्षिप्तों की तरह इधर उधर घुमने लगे, भोजन करना छोड़ दिया, शरीर पर राख लगा ली और जोधपुर के ही निकट पाल गांव चले गए और वहां से जालौर चले गए इसी दरमियान उन्हें बुखार रहने लगा| पोलिटिकल एजेंट लाडलो को जब यह बात पता चली तो वह उन्हें किसी तरह शासन व्यवस्था बिगड़ने की दलील देकर वापस लाया और वे जोधपुर आकर राइका बाग़ में आकर ठहर गए जहाँ से स्वस्थ्य गिरने के बाद वे मंडोर चले गए और मंडोर में ही 1943  में इनका निधन हो गया|

 

महाराजा तख्तसिंह (1843/1873) - 

मानसिंह के बाद तख्तसिंह जोधपुर के शासक बने। तख्तसिंह के समय ही 1857 का विद्रोह हुआ जिसमें तख्तसिंह ने अंग्रेजों का साथ दिया। तख्तसिंह ने ओनाड़सिंह तथा राजमल लोढ़ा के नेतृत्व में आउवा सेना भेजी। आउवा के निकट बिथौड़ा नामक स्थान पर 8 सितम्बर, 1857 को युद्ध हुआ जिसमें जोधपुर की सेना की पराजय हुई। तख्तसिंह ने राजपूत जाति में होने वाले कन्यावध को रोकने के लिए कठोर आज्ञाएं प्रसारित की तथा इनको पत्थरों पर खुदवाकर किलों के द्वारों पर लगवाया। 1870 ई. में अंग्रेजी सरकार ने जोधपुर राज्य के साथ नमक की संधि सम्पन्न की। तख्तसिंह ने अजमेर में मेयो कॉलेज की स्थापना के लिए एक लाख रुपये का चंदा दिया। महाराजा तख्तसिंह के समय जोधपुर में रानीसर, पदमसर, गुलाबसागर बाईजी का तालाब और फतैसागर की दीवारों तथा उनकी नहरों का विस्तार किया गया। बाईजी के तालाब के पैदे का निर्माण किया गया। गुलाबसागर पर के राजमहल मंडी की घाटी का चबूतरा, गंगश्यामजी के मंदिर के नीचे की पूर्व की तरफ की दुकानें, मंडी में सायर का मकान और कोतवाली के मकान बनाये गये जोधपुर नगर से बाहर विद्यासाल, बालसमंद के महल, छैलबाग के महल, कायलाना के महल, तखतसागर आदि का निर्माण करवाया गया। उसकी रानजी जाडेजी ने बालसमंद के पास देवराजी के तालाब पर महल और बाग बनवाया था। तख्तसिंह की परदायत मगराज ने नागौरी दरवाजे के बाहर और लछराज ने जालोरी दरवाजे के बाहर अपने नाम पर बावलियां बनवाई तथा तख्तसिंह की माता चावड़ीजी ने के सामने फतेबिहारीजी का मंदिर बनवाया। चामुण्डा माता मंदिर का दुबारा निर्माण करवाया जो कि बारुदखाने के विस्फोट में उड़ गया था। इनके 30 के करीब पत्नियां थी, जिनमे से दो सिरोही की राजकुमारियों के आलावा धमोतर व नाचना ठिकाने से भी थी।  उनके दस पुत्र थे …. 

  • महाराजा जसवंतसिंह द्वितीय 
  • जोरावरसिंहजी (रावटी की जागीर  प्रदान की गई) 
  • सर प्रताप सिंहजी (ईडर  के महाराजा)
  • रणजीत सिंह
  • भोपाल सिंह 
  • किशोर सिंह 
  • माधो सिंह
  • बहादुर सिंह 
  • महाबत सिंह
  • जालिम सिंह 

 

महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय (1873-1895 ई.) -  

महाराजा तख्तसिंह के बाद जसवंत सिंह द्वितीय जोधपुर के शासक बने। इन्होंने 1892 ई. में जोधपुर में जसवंत सागर का निर्माण करवाया। जसवंत सिंह द्वितीय पर नन्ही जान नामक महिला का अत्यधिक प्रभाव था। इस समय स्वामी दयानंद सरस्वती जोधपुर आये थे। किसी बात से नाराज होकर नन्ही जान ने महाराजा के रसोइये गौड मिश्रा के साथ मिलकर दयानंद सरस्वती को विष दे दिया। इसके बाद स्वामीजी अजमेर आ गए जहाँ 30 अक्टूबर, 1883 को उनकी मृत्यु हो गई। 1873 ई. में जसवंतसिंह द्वितीय ने राज्य प्रबंध तथा प्रजाहित के लिए 'महकमा खास' की स्थापना की। 1882 ई. में इन्होंने 'कोर्ट- सरदारन' नामक न्यायालय की स्थापना  महारानी विक्टोरिया के शासन के 50 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष में जसवंत सिंह द्वितीय के प्रधानमंत्री प्रतापसिंह ने जोधपुर में जुबली कोर्ट परिसर का निर्माण करवाया। जसवंतसिंह के समय जोधपुर का जैसे नये सिरे से निर्माण किया गया। उसके समय में 3 जुलाई 1876 को अंग्रेजी भाषा की शिक्षा के लिये जोधपुर में राजकीय स्कूल खुला। उसके समय में जोधपुर में पहली बार रेलगाड़ी आई। पहली बार डाकखाने खुले बालसमंद बांध से नहरों के माध्यम से जोधपुर मं पेयजल लाने की व्यवस्था की गई। राजकीय छापाखाने की स्थापना हुई। नागौरी दरवाजे से किले पर जाने के लिये सड़क बनाई गई। उच्च शिक्षा के लिये जसवंत कॉलेज की स्थापना हुई। अंग्रेजी पद्धति की चिकित्सा के लिये 15 हॉस्पीटल खुले। डाक-तार और सड़कों की व्यवस्था हुई। वन विभाग स्थापित किया गया। म्युनिसिपैलिटी खोली गई। जसवंतसागर बांध बना। महाराजा जसवंतसिंह से लेकर महाराजा उम्मेदसिंह के समय तक जोधपुर को प्रधानमंत्री के रूप में सर प्रताप की सेवाएं प्राप्त हुईं। आधुनिक जोधपुर की रूपरेखा बहुत कुछ उनकी निर्धारित की हुई है। वे महाराजा जसवंतसिंह के छोटे भाई थे। जसवंत सिंह द्वितीय के समय बारहठ मुरारीदान ने 'यशवंत यशोभूषण' नामक ग्रंथ की रचना की। इनकी ८ रानियों में से एक नवानगर के जाम की पुत्री व एक नरसिंहगढ़ की राजकुमारी थी। जबकि एक मात्र पुत्र सरदारसिंह इनकी पंवार रानी से हुए। 

 

महाराजा सरदारसिंह (1895-1911 ई.) - 

1895 ई. में सरदारसिंह जोधपुर के शासक बने। चीन के बॉक्सर युद्ध में सरदारसिंह ने अपनी सेना चीन भेजी तथा इस कार्य के लिए जोधपुर को अपने झंडे पर 'चाइना-1900' लिखने सम्मान प्रदान किया गया। 1910 ई. में सरदारसिंह ने 'एडवर्ड रिलीफ फण्ड' स्थापित किया जिसमें असमर्थ लोगों के लिए पेंशन का प्रबंध किया गया। महाराजा सरदारसिंह के समय में तलहटी के महलों में जोधपुर राज्य का पहला फीमेल हॉस्पीटल खुला। उसके समय में नगर में यातायात को सुचारू बनाने के लिये फुलेलाव ताल पास का पहाड़ काटकर नई सड़क बनाई गई और नगर की सड़क प्रकाश की व्यवस्था की गई। जसवंतसिंह ने जोधपुर में घंटाघर बनवाया । गिरदी कोट नामक पुरानी नाज की मण्डी में सरदार मार्केट और घण्टाघर तथा किले के पास इन्होंने देवकुंड के तट पर अपने पिता जसवंत सिंह द्वितीय के स्मारक 'जसवंत थड़ा का निर्माण करवाया। इसी देवकुंड के तट पर जसवंत सिंह तथा उनके बाद के नरेशों की अत्येष्टि यहाँ की जाने लगी। जसवंतथड़ा को ' राजस्थान का ताजमहल ' कहा जाता है ।  उसके समय में जोधपुर रियासत में 1 स्नातक कॉलेज, 1 हाई स्कूल, 16 वर्नाक्यूलर स्कूल. 44 एंग्लो वर्नाक्यूलर स्कूल, 7 राजपूत नोबेल स्कूल. 1 संस्कृत स्कूल, 1 नॉर्मल स्कूल, 25 राजकीय सहायता प्राप्त स्कूल 89 डाकखाने और 23 हॉस्पीटल कार्य करने लगे  थे। रेलवे लाइन की लम्बाई 525 मील हो गई तथा सरदार समंद, हेमावास एवं एडवर्ड समंद के कार्य प्रारंभ हुए। 1910 में इनके समय डिंगल भाषा की कविताओं आदि का संग्रहण करने हेतु 'बौद्धिक रिसर्च कमेटी की स्थापना की गई। सरदारसिंह घुड़दौड़, शिकार तथा पोलो खेलने के शौकीन थे। इनके शौक के कारण उस समय जोधपुर को 'पोलो का घर' कहा जाता था। इनके तीन पुत्र हुए -- 1. महाराजा सुमेरसिंह 2. महाराजा उम्मेद सिंह 3. कुंवर अजीतसिंह।  

 

महाराजा सुमेरसिंह (1911-1918 ई.) - 

सरदारसिंह के देहांत के बाद सुमेरसिंह जोधपुर के शासक बने। इनकी आयु कम होने के कारण शासन प्रबंध के लिए रीजेंसी काउंसिल की स्थापना की गई तथा महाराजा सुमेरसिंह के चाचा प्रतापसिंह (सर प्रताप) को इसका रीजेंट बनाया गया। 1912 ई. में जोधपुर में 'चीफ कोर्ट' की स्थापना हुई। प्रथम विश्वयुद्ध के समय महाराजा सुमेरसिंह तथा सर प्रतापसिंह अपनी सेना सहित अंग्रेजों की सहायता के लिए लंदन पहुँचे तथा फ्रांस के मोचों पर भी युद्ध करने पहुँचे। सुमेरसिंह के समय 'सुमेर कैमल कोर' की स्थापना की गई। जोधपुर के अजायबघर का नाम महाराजा सरदारसिंह के नाम पर 'सरदार म्यजियम' रखा गया।महाराजा सुमेरसिंह के समय चौपासनी में राजपूत हाई स्कूल का उद्घाटन हुआ, जोधपुर में सरदार म्यूजियम की स्थापना हुई तथा सुमेर पब्लिक लाइब्रेरी खोली गई। मात्र २० वर्ष की आयु में इनका स्वर्गवास हो गया। इनकी शादी नवानगर की राजकुमारी से हुयी थी, जिनसे सिर्फ एक पुत्री हुई जोकि जयपुर के सवाई मानसिंह को ब्याही थी। 

 

महाराजा उम्मेद सिंह (1918-1947 ई.) - 

महाराजा सुमेरसिंह के देहांत के पश्चात उनके छोटे भाई उम्मेदसिंह जोधपुर के शासक बने। इस समय उम्मेदसिंह को शासनाधिकार तो दिए गए लेकिन वास्तविक शक्तियां ब्रिटिश सरकार के अधीन थी। मारवाड़ के तत्कालीन चीफ मिनिस्टर सर डोनाल्ड फील्ड को 'डीफैक्टो रूलर ऑफ जोधपुर स्टेट' कहा जाता था। 1923 में उम्मेदसिंह के राज्याभिषेक के समय भारत के वायसराय लॉर्ड रीडिंग जोधपुर आये थे। महाराजा उम्मेदसिंह को आधुनिक जोधपुर का निर्माता कहा जा सकता है। उसके समय में दरबार हाई स्कूल का भवन तथा जसवंत कॉलेज का नया हिस्सा बना जोधपुर में इम्पीरियल बैंक की शाखा खोली गई। ई. 1929 में उम्मेद पैलेस की नीवं रखी गई। जोधपुर रियासत का सबसे बड़ा अस्पताल बना जिसे अब महात्मा गांधी अस्पताल कहा जाता है। महाराजा उम्मेदसिंह ने 'उम्मेद भवन पैलेस' (1929-1942 ई.) का निर्माण करवाया जो 'छीतर पैलेस' के नाम से भी जाना जाता है। इस पैलेस के वास्तुविद विद्याधर भट्टाचार्य तथा सैमुअल स्विंटन जैकब थे तथा यह 'इंडो- कोलोनियल' कला में निर्मित हैं। उम्मेदसिंह ने 24 जुलाई, 1945 को जोधपुर में विधानसभा के गठन की घोषणा की।

 

महाराजा हनुवंत सिंह (जून 1947- मार्च 1949) -  

महाराजा उम्मेदसिंह के देहांत के बाद हनुवंत सिंह शासक बने। हनुवंत सिंह जोधपुर राज्य को पाकिस्तान में शामिल करने के इच्छुक थे तथा ये मुहम्मद अली जिन्ना से मिलने पाकिस्तान भी गये। लेकिन वी.पी. मेनन तथा वल्लभ भाई पटेल के समझाने पर 30 मार्च 1949 को जोधपुर का संयुक्त राजस्थान में विलय कर दिया। 

 

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घनश्यामसिंह राजवी चंगोई 

Whatsaap no. 9460000581

बीकानेर राज्य

(संकलन- घनश्यामसिंह राजवी चंगोई)
 
“पंद्रहसौ पेंतालवे, सुद बैशाख सुमेर !
थावर बीज थरपियो, बीको बीकानेर !!”
 
 
 


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जोधपुर के राव जोधाजी के जेष्ठ पुत्र व बीकानेर के संस्थापक राव बीकाजी का जन्म सांखली राणी नोरंगदे के गर्भ से विक्रम सम्वत 1495, श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को हुआ।
 .
 
 
 Rao Bikaji
 . वंशक्रम 
1. राजा जयचंद राठौड़ (कन्नौज)
2. बरदाई सेन जी
3. सेतरामजी
4. राव सीहाजी (पाली)
5. आस्थानजी (खेड़)
6. धुहड़ जी
7. रायपाल जी
8. कान्हपालजी
9. जालणसी जी
10. छाडा जी
11. टीडा जी
12. सलखा जी
13. वीरमजी
14. राव चुंडाजी (मण्डोर)
15. रणमलजी
16. राव जोधाजी (जोधपुर)
17. राव बीकाजी (बीकानेर)
 
राव बीकाजी का नए राज्य के लिए प्रस्थान

बीकाजी राव जोधा के दूसरे एवं जीवित पुत्रों में सबसे बड़े थे। राव जोधा के कई पुत्र थे। चूँकि उनकी मृत्यु के उपरान्त उत्तराधिकार के लिये झगड़ा होने को अधिक सम्भावना थी, उसने बीका से कहा कि वह अपने पिता के सिंहासन को उत्तराधिकार में पाने की प्रतीक्षा करने की अपेक्षा अपने लिये एक नया राज्य बनाकर अपनो योग्यता प्रमाणित करने का प्रयत्न करे। इस प्रकार 30 सितम्बर सन् १४६५ को राव बीका नये प्रदेश जीतने की दृढ़ इच्छा से अपने चाचा काँधल और अपने मामा नापा सांखला को साथ लेकर मारवाड़ से रवाना हुए । उसके साथ बहुत से स्वामी भक्त हित चिन्तक भी थे। जिनमें चाचा रूपा, मण्डला, नाथू और बीका के भाई जोगा व बीदा के अलावा पड़िहार बेला भी था। बीका के साथ एक सौ सवार तथा पाँच सो पैदल सैनिक थे। 

 .
 
 (राव बीकाजी -मध्य में- अपने चाचा कांधलजी व छोटे भाई बीदाजी के साथ नए राज्य की स्थापना हेतु जोधपुर से प्रस्थान करते हुए )
 .

घर से चलकर राव बीका पहले दिन मण्डोर ठहरा और वहाँ उसने गौरीजी की पूजा की । वहाँ से आगे चलकर बीका देशनोक में जा कर ठहरा और करणी जी के प्रति अपनी श्रद्धा अर्पित की। करणी जी चारण जाति में उत्पन्न एक देवी थी। अति प्राकृत शक्तियों के कारण वह लोगों द्वारा पूजी जाती थी। कहा जाता है कि करणी जी ने भविष्य वाणी की कि बीका यश और शक्ति में अपने पिता से भी बढ़कर होगा और बहुत से बड़े-2 लोग उसे अपना स्वामी मान कर गौरवान्वित होंगे ।

बीकानेर की स्थापना
वर्तमान बीकानेर, चुरू, हनुमानगढ़ और गंगानगर जिलों का क्षेत्र, बीकानेर रियासत के राजस्थान संघ में एकीकरण से पूर्व, बीकानेर के राठौड़ राज्य के नाम से ज्ञात था। यह 27 से 30° उत्तरी अक्षांश तथा 72 से 75° पूर्व देशान्तर के बीच स्थित था। यह उत्तर और पश्चिम में भावलपुर रियासत, दक्षिण- पश्चिम में जैसलमेर रियासत, दक्षिण में जोधपुर रियासत, दक्षिण पूर्व में जयपुर रियासत, पूर्व में लोहारू रियासत व हिसार जिले एवं उत्तर-पूर्व में फिरोजपुर जिले से घिरा हुआ था।” इसका क्षेत्रफल 23,317 वर्ग मील था और क्षेत्रफल की दृष्टि से यह भारत की समस्त रियासतों में छठी ओर राजपूताना में दूसरी सबसे बड़ी रियासत थी। इस क्षेत्र के उत्तरी भाग समतल और उपजाऊ है एवं नहर द्वारा सिंचित भूमि के अतिरिक्त, वर्षा के वर्षों में रबी और खरीफ दोनों फसल उगाने की दृष्टि से काफी उपजाऊ है।

पूर्वकाल में यहाँ के प्राकृतिक रूप, विशेषताओं, जलवायु और दूसरे भौगोलिक विषयों ने बीकानेर के पास रहने वाले लोगों के जीवन को इतना अधिक प्रभावित किया है कि इसका यहाँ के इतिहास के प्रवाह पर निश्चित प्रभाव पड़ा है। सिवाय एक छोटे भू भाग के उत्तर पश्चिम का समस्त क्षेत्र ऊँचे रेत ले टीलों का है जो स्थान बदलते रहते हैं। सतह का आकार इस प्रकार का है कि रेगिस्तान में से निकलना लगभग असम्भव हो जाता है। सूरतगढ़ तक का भाग निर्जन है और रेत के टीलों वाला है जो जंगली झाड़ियों से ढ़का हुआ है। यद्यपि वहाँ से आगे चिकनी मिट्टी का समतल मैदान है जहाँ वनस्पति ज्यादा है और गाँव भी अधिक हैं। लेकिन यह समस्त क्षेत्र बंजर भूमि वाला और डाकुओं व लुटेरों का अड्डा था। यहाँ की जमीन ऐसी है कि वर्षा के सारे पानी को बरसते ही सोख लेती है इससे बहुत गहरे कुओं का निर्माण आवश्यक हो जाता है। जीवन के सामान्य कार्यों और घरेलू उपयोग के लिए भी वर्षा के पानी को कुन्डों में इकट्ठा करने के सभी सम्भव प्रयत्न किये जाते हैं। भूतकाल में पानी की कमी ने बहुधा यहाँ के निवासियों को अपने पूरे परिवार के साथ अधिक उपजाऊ भूमि में चले जाने को विवश किया। पानी का प्रभाव, वर्षा की कमी व नदियां न होने से यहां के लोग खेती की अपेक्षा पशुपालन को अधिक उपयुक्त समझते थे।

बीका रेगिस्तानी भाग को मील-मील करके जीतता गया जो बाद में बीकानेर राज्य बना। उसे इस इलाके में रहने वाले लोगों के हमलों को रोकना पड़ा। इस इलाके से उत्तर और पश्चिम की ओर भाटियों का अधिकार था। उत्तर पूर्व और दक्षिण पूर्व में जाटों के स्वाधीन शासक थे। इसके अलावा भट्टी, चायल और जोहिया थे। थोड़ी ही दूर हिसार में दिल्ली के बादशाह का मुस्लिम सूबे दार शासन करता था। क्यामखानी, जिनका शेखावटी पर अधिकार था और बीदावत क्षेत्र के मोहिल और खीची बिना विरोध किये अपने इतने अधिक पास एक नई शक्ति का उदय नहीं देखना चाहते थे।

करणी जी के निर्देशानुसार राव बीका चाण्डासर के निकट बस गया जहां वह 3 वर्ष तक रहा। उसके बाद वह देशनोक चला गया जहां वह बहुधा करणी जी के दर्शन करता था। बाद में उसने आस पास के इलाके जीत लिये और कोड़मदेसर में जाकर बस गया। सन् 1472 में उसने अपने को राजा घोषित किया।

ख्यातों के अनुसार पूगल का शासक राव शेखा लूट मार किया करता था। एक बार जब वह मुल्तान की ओर से लूट कर आ रहा था तो मुल्तान के सूबेदार की सेना से उसकी मुठभेड़ हो गई। इसमें उसके कई आदमी मारे गये और वह पकड़ लिया गया। शेखा को छुड़ाने के लिए उसकी पत्नी ने करणीजी से सहायता माँगी । करणीजी द्वारा राव शेखा को कैद से छुड़ाने पर राव शेखा की पुत्री रंगदे अथवा रंगकुमारी का विवाह राव बीका से कर दिया।

सन् 1478 में राव बीका ने कोड़मदेसर के तालाब के पास एक किला बनवाना चाहा। राव शेखा ने इसका विरोध किया। राव बीका अपनी योजना के अनुसार काम करता रहा। इस पर भाटी नाराज हो गये और कलिकर्ण, जो जैसलमेर के रावल का छोटा पुत्र था, की सहायता से एक शक्तिशाली सेना लेकर बीका पर आक्रमण किया। बीका ने अपने भाई बीदा और चाचा कान्धल की सहायता से भाटियों को बुरी तरह हराया।

हार के बावजूद भाटियों की नाराजी बराबर बनी रही अतः बीका ने किले के लिए कोई दूसरा स्थान ढूंढ़ने का निश्चय किया। उसने नापा और कई दूसरे लोगों को जगह ढूढ़ने के लिये भेजा। खोज करने वाले राती घाटी नामक स्थान पर आये। इसे उन्होंने शुभ समझा और बीका ने यहां किले की नींव रक्खी। लेकिन नापा और उसके साथियों द्वारा इससे भी अधिक अनुकूल स्थान की खोज जारी रही। नापा ने एक दूसरा और अधिक बड़ा किला बनाने के लिये एक अन्य स्थान का चयन किया। यहाँ सन् 1485 में बीका के किले की नींव रक्खी गई और निर्माण आरम्भ हुआ।

 

जोधपुर से पूजनिक चीजों को बीकानेर लाना
 
Junagarh Fort

मारवाड़ के शासक राव जोधा की छः रानियाँ व सत्तरह पुत्र थे। राव जोधा का सबसे बड़ा पुत्र राव नीबा, राव जोधा के शासन काल में ही स्वर्गवासी हो गया था। दूसरा पुत्र राव बीका ही मारवाड़ का उत्तराधिकारी था; लेकिन राव जोधा ने अपनी प्रिय रानी जसमादे के प्रभाव में आकर दूसरे पुत्र राव सातल को जोधपुर का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। राव सातल को जोधपुर का उत्तराधिकारी घोषित कर देने से बीका नाराज हो गया। बीका के बढ़ते प्रभाव को देखकर राव जोधा घबरा गया। उसको डर था कि कहीं बीका जोधपुर पर आक्रमण न कर दे, किन्तु बीका ने अपने पिता को वचन दिया कि- “मैं जोधपुर पर कभी आक्रमण नहीं करूँगा व जोधपुर रियासत को अपना ज्येष्ठ मानूँगा।”

सन 1489  में जोधपुर के राव जोधाजी का स्वर्गवास होने पर बीकाजी ने जेष्ठ पुत्र होने के नाते राजगद्दी पर अपना अधिकार जताया। लेकिन अपनी सौतेली मां के यह कहने पर कि “तुम तो पहले से ही एक स्वतंत्र राज्य के स्वामी हो, अपने पिता का राज्य अपने छोटे भाइयों के लिए छोड़ दो” बीकाजी ने जोधपुर की राजगद्दी पर अपना अधिकार छोड़ दिया। लेकिन टिकाईपने की निम्न लिखित 14 पूजनिक चीजें जोधपुर से बीकानेर ले आये ….

1. तख्त एक चन्दन का (कन्नौज से लाया हुआ)
2. राव जोधा की ढाल
3. राव जोधा की तलवार
4. राव जोधा की कटार
5. छत्र
6. चंवर
7. हिरण्यगर्भ लक्ष्मीनारायण जी की मूर्ति
8. नागणेची जी की चांदी की अट्ठारह हाथों की मूर्ति
9. करंड (संदूक)
10. भंवर ढोल
11. बेरिसाल नगारा
12. राव जोधा का दलसिंगार घोड़ा
13. दक्षिणावर्त शंख
14. भूंजाई की देग
 

उस समय इस क्षेत्र की उत्तरी पूर्वी सीमा पर जाटों का अधिकार था। इनमें से गोदारों ने जोहियों के हमले से बचने के लिये बीका की सत्ता स्वीकार करली। बीका ने सारणों के मुखिया पूला के विरुद्ध गोदारां के मुखिया पांडु की सहायता की। पूला को बुरी तरह से हराया तो धीरे धीरे जाटों की दूसरी जातियों ने भी बीका की अधीनता स्वीकार कर ली। इस प्रकार जाटों को विभिन्न जातियों के 1664 गाँव बीकानेर राज्य में मिल गये।

 

तब बीका ने सिंधाना पर आक्रमण किया और जोहियों को अपने अधीन कर लिया। बाद में उसने खिचियों पर हमला किया जिनके पास बीकानेर के बीच में 140 गाँव थे। बीका ने देवराज खींची को मार डाला और उसके गांवों को अपने राज्य में मिला लिया। उसने सिंध की ओर बिलोचों के कुछ इलाकों पर भी कब्जा कर लिया। तथा क्यामखानियों से शेखावाटी व पठानों से कर्णवाटी का कुछ क्षेत्र छीन लिया। इस प्रकार बीकानेर राज्य अब तीन हजार गांवों तक फैला हुआ था व इसकी सीमा पंजाब तक पहुंच गई थी।

 

बीका का अंतिम आक्रमण रेवाड़ी पर हुआ। बहुत दिनों से उसकी इच्छा दिल्ली की तरफ़ की भूमि दबाने की थी। अतएव फ़ौज के साथ उसने रेवाड़ी की ओर कूच किया और उधर की बहुत सी भूमि पर अधिकार कर लिया। खंडेले के स्वामी रिड़मल को जब इसकी खबर लगी तो उसने दिल्ली के सुलतान से सहायता की याचना की, जिसपर सुलतान ने 4000 फ़ौज के साथ नवाब हिंदाल को उसके साथ कर दिया। ये दोनों बीका पर चढ़े, जिसपर बीका ने वीरतापूर्वक इनका सामना किया तथा रिड़मल और हिन्दाल दोनों को तलवार के घाट उतार नवाब की सारी सेना को भगा दिया।

 

राव बीका से बीकानेर का अलग इतिहास आरम्भ हुआ। उसने अपनी मातृभूमि छोड़ी और जांगलू के साँखलों में उत्तरी सीमाओं पर बसने आया। यहां से उसकी दृष्टि उत्तर पूर्व की ओर गई जिसके बहुत बड़े इलाके का कुछ भाग शान्ति प्रिय जाटों के अधिकार में था और कुछ भाग लड़ाकू मोहिलों के। उसने अपनी महत्वाकांक्षा से विजय का अभियान प्रारम्भ किया। फलस्वरूप थोड़े ही समय में यह पूगल की सीमा से हिसार तक और घग्घर से नागौर की सीमा तक सारे रेगिस्तान का स्वामी बन गया। अपनी विजयी तलवार से उसने देरावर, दीपालपुर, भटनेर, भटिंडा, नागौर और फतेहपुर के द्वार खटखटाये। इस प्रकार बीका का इतिहास मानव की महत्वाकांक्षा और दृढ़ निश्चय के उज्ज्वल स्मारक का प्रतीक है।

11 सितम्बर सन 1504 को 66 वर्ष की उम्र में बीकानेर में बीका का स्वर्गवास हो गया। बीकाजी के दस पुत्र थे (नैणसी की ख्यात में 7 पुत्रों का उल्लेख है) … 

  1. राव नरोजी – बीकानेर के राजा बने !
  2. राव लुनकरणजी – बीकानेर के राजा बने ! 
  3. कुंवर घड़सी :- इनके वंशज घड़सियोत बीका हुए (ठिकाना घड़सीसर, गारबदेसर ) !
  4. कुंवर अमर सिंह :- इनके वंशज अमरावत बीका हुए !
  5. कुंवर राज सिंह :- इनके वंशज राजसिंगोत बीका हुए !
  6. कुंवर मेघराज 
  7. कुंवर केलण 
  8. कुंवर देवसी 
  9. कुंवर विजयसिंह 
  10. कुंवर बीसा  :- इनके वंशज बिसावत बीका हुए !  

राव नराजी 

बीकानेर के दूसरे राजा : 1504-1505 :– राव बीका के मृत्यु के बाद उसका पुत्र नरा बीकानेर का शासक बना, लेकिन उसकी कुछ महिनों बाद ही मृत्यु हो गई।

 

राव लूणकर्ण 

बीकानेर के तीसरे राजा (1505-1526) :– राव नरा की मृत्यु के बाद बीकाजी का दूसरा पुत्र लूणकरण बीकानेर का शासक बना। जिसने डीडवाणा, सिघांणा व बांगड़ प्रदेश को अपने प्रदेश में मिला लिया। उसने 1509 में ददरेवा के स्वामी मानसिंह चौहान को हराकर ददरेवा पर कब्ज़ा किया। 1512 में उसने फतेहपुर पर आक्रमण किया और 120 गांवों पर कब्जा कर लिया। चायलवाड़ा (साहवा से हिसार व् सिरसा के मध्य) के मालिक पूना चायल को हराकर 400 गांवों पर कब्ज़ा किया। 1513 में नागौर के स्वामी मुहम्मद खान ने बीकानेर पर हमला किया लेकिन लूणकरण ने उसे पराजित कर दिया। सन 1526 में नारनौल के नवाब के साथ युद्ध में धौंसा नामक स्थान पर राव लूणकरण मारा गया। यह भी अपने पिता की तरह वीर और प्रजापालक था। वैसे बीकानेर का कर्ण के नाम से भी जाना जाता है, बीठू सुजा ने अपने ग्रन्थ राव जेतसी रो छन्द में लुणकरण की दानशीलता का उल्लेख किया है। इसके 12 पुत्र हुए (नैणसी की ख्यात में 10 पुत्रों का उल्लेख है) … 

  • राव जैतसी – बीकानेर के राजा बने ! 
  • कुंवर रतन सिंह  :- इनके वंशज रतनसिंगोत बीका हुए (ठिकाना महाजन, कुंभाणा) !
  • कुंवर प्रताप सिंह :- इनके वंशज प्रतापसिंगोत बीका हुए !
  • कुंवर बैरसी :- इनके पुत्र नारण के वंशज नारणोत बीका हुए (ठिकाना मगरासर, मेनसर, तेहनदेसर, कातर)!
  • कुंवर तेजसी  :- इनके वंशज तेजसिंहोत बीका हुए !  
  • कुंवर नेतसी 
  • कुंवर करमसी 
  • कुंवर किशनसी 
  • कुंवर रामसिंह 
  • कुंवर सूरजमल 
  • कुंवर कुशलसिंह 
  • कुंवर रूपसी 

 राव जैतसी 

बीकानेर के चौथे राजा (1526- 1542) :- लुणकरण की मृत्यु के बाद उसका पुत्र राव जैतसिह बीकानेर का शासक बना। जिसने गंगाणी के युद्ध में जोधपुर के शासक राव गागा की मदद की। सन 1534 में बाबर के पुत्र कामरान ने भटनेर (जोकि कांधल के पौत्र खेतसी के अधिकार में था) पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया व फिर सेना लेकर बीकानेर पर चढ़ आया। जेतसी एक बार तो गढ़ छोड़कर हट गया, लेकिन फिर सेना एकत्र कर वापिस हमला किया व रातीघाटी के युद्ध में  मुगल सेना को मार भगाया। जोधपुर के शासक राव मालदेव ने 1541 में अपनी विस्तारवादी व महत्वकांक्षी नीति के तहत बीकानेर पर आक्रमण कर दिया। राव जैतसी पाहिबा/सौहुए के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ व बीकानेर पर मालदेव का अधिकार हो गया। यह पहला अवसर था जब दोनों रियासतों के मध्य युद्ध हुआ। इससे पहले ये सामुहिक रूप से प्रतिकार करते थे। जैतसी के तेरह पुत्र हुए …. 

  • राव कल्याणमल :- बीकानेर के राजा बने !
  • राजकुमार भीमराज :- इनके वंशज भीमराजोत बीका हुए  (ठिकाना राजपुरा) ! 
  • राजकुमार ठाकुरसी :- इनके पुत्र बाघसिंह के वंशज बाघावत बीका हुए (ठिकाना मेघाणा) !
  • राजकुमार मालदेव
  • राजकुमार कान्ह 
  • राजकुमार श्रृंग :- इनके वंशज श्रिंगोत (सिणगोत) बीका हुए (ठिकाने भुकरका, जसाणा, सिधमुख, बांय, अजितपुरा, बिरकाली, शिमला, रसलाणा, थिराणा, रणसीसर, जबरासर, कानसर) !
  • राजकुमार सुरजन 
  • राजकुमार करमसेन
  • राजकुमार पूरनमल
  • राजकुमार अचलदास
  • राजकुमार मान सिंह :- इनके वंशज मानसिंहोत बीका हुए !
  • राजकुमार भोजराज
  • राजकुमार तिलोकसी

राव कल्याणमल 

बीकानेर के पांचवे राजा (1542-1574)- पाहिबा के युद्ध में जैतसी वीरगति को प्राप्त हुआ अतः उसका पुत्र कल्याणमल शेरशाह सूरी के पास चला गया। अधिकांश बीकानेर पर मालदेव का अधिकार होने के कारण कल्याणमल का राज्याभिषेक ठकुरियासर में हुआ । सिरसा में रहते हुए ही उसने अपने पैतृक राज्य को प्राप्त करने का प्रयास किया । शेरशाह सूरी व जोधपुर  के राजा मालदेव के मध्य 5 जनवरी 1544 ई. को गिरी सुमेल का युद्ध हुआ । राम कल्याणमल ने गिरी सुमेल के युद्ध में शेरशाह की सहायता की थी।  गीर्री-सुमेल के मैदान में मालदेव पराजित हो गया। 1544 ई. में शेरशाह सूरी ने बीकानेर राज्य कल्याणमल को दे दिया। 1570 ई. में जब अकबर ने नागौर दरबार का आयोजन किया तो बीकानेर शासक राव कल्याणमल अपने पुत्र रायसिंह व पृथ्वीराज के साथ नागौर दरबार में उपस्थित हुआ। अकबर ने कल्याण सिंह के बडे पुत्र रायसिंह को जोधपुर का प्रशासक नियुक्त कर दिया व छोटे पुत्र पृथ्वीराज को मुगल दरबार में ले गया। राव कल्याणमल बीकानेर राज्य तथा मुगलों के बीच प्रथम संधि पर हस्ताक्षर करने वाले प्रथम शासक थे। राव कल्याणमल को दो हजार का मनसब दिया गया । 24 जनवरी 1574 को राव कल्याणमल का देहांत हो गया। इन के 10 पुत्र थे  … 

  • राजा रायसिंह :- बीकानेर के राजा बने !
  • राजकुमार अमर सिंह :- इनके वंशज अमरसिंहोत बीका हुए ( ठिकाना हरदेसर) !  
  • राजकुमार सुरतान 
  • राजकुमार पृथ्वीराज :- कवि पीथळ के नाम से प्रसिद्ध हुए। अकबर के दरबार में नवरत्नों में थे। अकबर ने इन्हे गागरोन का किला दिया था। इनके वंशज पृथ्वीराजोत बीका हुए (ठिकाना ददरेवा)! 
  • राजकुमार राम सिंह 
  • राजकुमार भाण 
  • राजकुमार सारंगदेव   
  • राजकुमार भाखरसी 
  • राजकुमार भोपालसी  
  • राजकुमार राघवदास  

राजा रायसिह

बीकानेर के छठे राजा (1574-1612)- यह अकबर व जहांगीर के विश्वसनीय सेनानायक बने। राजा बनने से पहले ही इनकी योग्यता को देखते हुए 1572 ई. में अकबर ने इन्हे जोधपुर का प्रशासक नियुक्त किया। वहा उनका तीन वर्ष तक अधिकार रहा। 1574 में रायसिह बीकानेर के शासक बने। अकबर ने इन्हे राजा की उपाधि प्रदान दी (इनसे पहले के शासको की उपाधि राव थी)। उन्होने मुगल सेना की मदद से सोजत और सिरियारी में जोधपुर के राजा को हराया। उन्होंने अलग-अलग मौकों पर गुजरात, बंगाल और काबुल के अभियानों में मुगल सेना का नेतृत्व किया। 1577 ई. में अकबर ने इकावन (51) परगने रायसिंह को दिये। खुसरों के विद्रोह के समय जहांगीर ने रायसिंह को अपना विश्वस्त मानकर राजधानी आगरा की जिम्मेदारी सौंपी। उनकी मनसबदारी को 4000 से बढ़ाकर 5000 किया गया। उन्हें 1585 में बुरहानपुर का सूबेदार, 1596 में सूरत का राज्यपाल और 1612 में बुरहानपुर का राज्यपाल नियुक्त किया गया। अकबर और जहांगीर का विश्वासपात्र होने के कारण विशेष अवसरों पर रायसिंह की नियुक्ति हुआ करती थी और समय-समय पर उसे बादशाह की ओर से जागीरें भी मिलती रहीं। 1567 से पहले ही जूनागढ़ और सोरठ के ज़िले रायसिंह को जागीर में मिल गये थे।

पाउलेट ने ‘गैजेटियर ऑव दि बीकानेर स्टेट’ में अकबर के 43 वे राज्यवर्ष ( ई० स० 1566) के उस फ़रमान का उल्लेख किया है, जिसमें रायसिंह को चार करोड़ दाम (करीब 10 लाख रूपये) आय के निम्नलिखित परगने मिलना लिखा है’–
बीकानेर 32,50,000 दाम
बाटलोद  6,40.000 दाम
बारथल (सूबा हिसार में)  9,80,032 दाम
सिदमुख  (सूबा हिसार में)  72,152 दाम
द्रोणपुर (सूबा अजमेर)   7,81,386 दाम
भटनेर (सरकार हिसार में) 6,32,742 दाम
मारोठ (सरकार मुल्तान में) 2,80,000 दाम
सरकार सूरत (सोरठ) में जूनागढ़ तथा अन्य 47 परगने 3,32,66,662 दाम
कुलजोड़ 4,02,06,274 दाम (अर्थात् अनुमान 10,05,157 रुपये)।
वि०सं० १६५७ (सन 1600) में सरकार नागोर आदि के परगने भी उसकी जागीर में शामिल कर दिये गये । वि० सं० १६६१ ( ई० स० 1604) में परगना शम्साबाद के दो भाग कर दोनों ही रायसिंह को दे दिये गये। 

1589 में अपने मंत्री कर्मचंद की देखरेख में बीकानेर के वर्तमान दुर्ग जूनागढ़ का निर्माण करवाया तथा दुर्ग में एक प्रशस्ति लगाई। रायसिह विद्यानुरागी व धार्मिक प्रवृत्ति का था। जिसने ‘राय सिंह महोत्सव’ व ज्योतिष रत्नमाला जैसे ग्रंथों की रचना की। कवि जयसोम रचित  “कर्मचन्द वंशौत्कीर्तिम् काव्यम्” में महाराजा रायसिंह को राजेन्द्र कहा गया है। इनकी दानशीलता के कारण मुंशीदेवी प्रसाद ने इन्हे राजपूतानें के करण की संज्ञा दी। 1612 में दक्षिण भारत के बुरहानपुर में इनकी मृत्यु हो गई।

 

राजकुमार पृथ्वीराज- साहित्यक जगत में पीथळ के नाम से प्रसिद्ध पृथ्वीराज बीकानेर के राजा रायसिंह के छोटे भाई थे| जिनका जन्म 1549 को हुआ था।| वे बड़े वीर, विष्णु के परम भक्त और उंचे दर्जे के कवि थे। संस्कृत और डिंगल साहित्य के वे विद्वान थे। राजस्थानी भाषा के साहित्य जगत में पृथ्वीराज की विष्णु-भक्ति की कई कथाएं प्रसिद्ध हैं। “वेलि क्रिसन रुकमणी री” पृथ्वीराज की सर्वोत्कृष्ट रचना मानी जाती है। इस ग्रन्थरत्न का निर्माण ई.सं. 1580 में हुआ था। इसके अतिरिक्त उसके राम-कृष्ण सम्बन्धी तथा अन्य फुटकर गीत एवं छन्द भी उपलब्ध हैं, जो अपने ढंग के अनोखे हैं। 

इतिहासकार कर्नल टॉड पृथ्वीराज के बारे में लिखते है- “पृथ्वीराज अपने युग के सर्वाधिक पराक्रमी प्रमुखों में से एक था तथा वह पश्चिम के प्राचीन ट्रोबेडूर राजाओं की भाँती युद्ध-कला के साथ ही कवित्व-कला में भी निपुण था| चारणों की सभा में इस राजपूत अश्वारोही योद्धा को एक मत से प्रशंसा का ताल-पत्र दिया गया था| प्रताप के नाम से उसके मन में अगाध श्रद्धा थी|” (कर्नल टॉड कृत राजस्थान का पुरातत्व एवं इतिहास, पृष्ठ 359.) इतिहासकार डा. गोपीनाथ शर्मा, अपनी पुस्तक “राजस्थान का इतिहास” के पृष्ठ-322,23. पर लिखते है-“पृथ्वीराज, जो बड़ा वीर, विष्णु का परमभक्त और उच्चकोटि का कवि था, अकबर के दरबारियों में सम्मानित राजकुमार था| मुह्नोत नैणसी की ख्यात में पाया जाता है कि बादशाह ने उसे गागरौन का किला जागीर में दिया था| वह मिर्जा हकीम के साथ 1581 ई. की काबुल की और 1596 ई. की अहमदनगर की लड़ाई में शाही सेना में सम्मिलित था|” अकबर के समय के लिखे हुए इतिहास ‘अकबरनामे’ में भी उनका नाम दो-तीन स्थानों पर आया है। 

अकबर के दरबार में रहते हुए भी पृथ्वीराज अकबर के सबसे बड़े शत्रु महाराणा प्रताप के परमभक्त थे| एक दिन अकबर ने उन्हें बताया कि महाराणा प्रताप उसकी अधीनता स्वीकार करने को राजी हो गये है, तब उन्होंने अकबर से कहा कि यह नहीं हो सकता, यह खबर झूंठ है, यदि आज्ञा हो तो मैं पत्र लिखकर सच्चाई का पता कर लूँ| और इस तरह उन्होंने बादशाह की अनुमति लेकर उसी समय निम्नलिखित दो दोहे बनाकर महाराणा के पास भेजे—
पातल जो पतसाह, बोलै मुख हूंतां बयण ।
मिहर पछम दिस मांह, ऊगे कासप राव उत॥1 ॥
पटकूं मूंछां पाण, के पटकूं निज तन करद।
दीजे लिख दीवाण, इण दो महली बात इक’॥2 ॥
        इन दोहों का उत्तर महाराणा ने इस प्रकार दिया—
तुर्क कहासी मुखपती, इणू तन सूं इकलिंग।
ऊगै जांही ऊगसी, प्राची बीच पतंग॥1 ॥
खुसी हूंत पीथल कमध, पटको मूंछां पाण।
पछटण है जेतै पतौ, कलमाँ सिर केवाण ॥2 ॥
सांग मूंड सहसी सको, समजस जहर सवाद।
भड़ पीथल जीतो भलां बैण तुरक सुं वाद ॥3 ॥

पृथ्वीराज ने 1600 ई. में मथुरा के विश्रान्त घाट पर प्राण-त्याग किया। पृथ्वीराज की मृत्यु पर बादशाह अकबर ने उनके वियोग में निम्न दोहा कहा-
पीथल सूं मजलिस गई, तानसेन सौ राग।
रीझ बोल हंस खेलबौ, गयौ बीरबळ साथ।।

पृथ्वीराज के वंश के पृथ्वीराजोत बीका कहलाते हैं, जो दद्रेवा ठिकाने के पट्टेदार हैं और दोलड़ी ताज़ीम का सम्मान प्राप्त हैं।

 

  राजा रायसिंह के पांच पुत्र हुए  (नोट- नेणसी ने 4 पुत्रों के ही नाम दिए हैं, हनवंत सिंह का नाम नहीं है) …. 

  • राजा दलपतसिंह :- बीकानेर के राजा बने !
  • राजा सूरसिंह :- बीकानेर के राजा बने !
  • राजकुमार भूपसिंह  
  • राजकुमार हनवंत सिंह
  • राजकुमार किशन सिंह :- इनके वंशज किशनसिंहोत बीका हुए ( ठिकाना सांखू, नीमा, रावतसर कुंजला) ! 

 

 

राजा दलपतसिंह 

बीकानेर के 7वें राजा (1612-1614)- महाराजा रायसिंह की मृत्यु के बाद दलपत सिह बीकानेर के शासक बने। यह बहुत ही वीर एवं महत्वाकांक्षी थे। राव दलपत का सम्राट जहांगीर से मनमुटाव हो गया। जहांगीर ने दलपत को गद्दी से हटाकर उसके भाई सूरसिह को शासक बना दिया।

 

राजा सूरसिंह 

बीकानेर के 8वें राजा (1614 -1631) - उन्हें अपने भाई दलपत के स्थान पर जहांगीर के सहयोग से बीकानेर की गद्दी मिली। इन्होने अपने पिता रायसिंह को अंतिम समय में दिए वचन की पलना में, उनके साथ षड्यंत्र करने वालों (दीवान कर्मचंद, पुरोहित मान महेश, बारहठ चौथ व भरथा सारण) से बदला लिया। इन के शासनकाल के अंत तक बीकानेर राज आकार में बहुत कम हो गया था। उन्होंने भी दिल्ली के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखा और विभिन्न सैन्य अभियानों में शाही सेना का नेतृत्व किया। इनके तीन पुत्र हुए  …. 

  • राजा कर्ण सिंह 
  • राजकुमार शत्रुसालजी
  • राजकुमार अर्जुनसिंह  

 

राजा कर्णसिंह 

बीकानेर के 9वें राजा (1631-1669)- बीकानेर के राठौड़ राजाओं में महाराजा करण सिंह का स्थान बड़ा महत्त्वपूर्ण है। बादशाह शाहजहाँ के दरबार में करणसिंह का सम्मान ऊँचा था। उनके पास दो हजार जात व डेढ़ हजार सवार का मनसब था। कट्टर और धर्मांध मुग़ल शासक औरंगजेब से बीकानेर के राजाओं में सबसे पहले उनका ही सम्पर्क हुआ था। औरंगजेब के साथ उन्होंने कई युद्ध अभियानों में भाग लिया था अत: जहाँ वे औरंगजेब की शक्ति, चतुरता से वाकिफ थे। वहीं औरंगजेब की कुटिल मनोवृति, कुटिल चालें, कट्टर धर्मान्धता उनसे छुपी नहीं थी। यही कारण था कि औरंगजेब ने जब पिता से विद्रोह किया तब वे बीकानेर लौट आये और दिल्ली की गद्दी के लिए हुए मुग़ल भाइयों की लड़ाई में तटस्थ बने रहे। औरंगजेब के साथ कई युद्ध अभियानों में भाग लिया पर वे सदैव उसकी तरफ से सतर्क रहते थे। उन्होंने सभी हिन्दू राजाओं को औरंगजेब का जबरन मुसलमान बनाने का षड्यंत्र विफल कर दिया। औरंगजेब की उक्त मंशा असफल होने पर वह महाराजा करण सिंह पर काफी क्रुद्ध हुआ।  

जंगलधर बादशाह की पदवी : राजस्थान के मूर्धन्य इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार “ ऐसी प्रसिद्धि है कि एक समय बहुत से राजाओं को साथ लेकर बादशाह ने ईरान (?) की और प्रस्थान किया और मार्ग में अटक में डेरे हुए. औरंगजेब की इस चाल में कयास भेद था, यह उसके साथ जाने वाले राजपूत राजाओं को मालूम न होने से उनके मन में नाना प्रकार के सन्देह होने लगे, अतएव आपस में सलाह कर उन्होंने साहबे के सैय्यद फ़क़ीर को, जो करण सिंह के साथ था, बादशाह के असली मनसूबे का पता लगाने भेजा. उस फ़क़ीर को अस्तखां से जब मालूम हुआ कि बादशाह सब को एक दीन करना चाहते है, तो उसने तुरंत इसकी खबर करण सिंह को दी. तब सब राजाओं ने मिलकर यह राय स्थिर की कि मुसलमानों को पहले अटक के पार उतर जाने दिया जाय, फिर स्वयं अपने अपने देश को लौट जायें. बाद में ऐसा ही हुआ. मुसलमान पहले उतर गये. इसी समय तब सब के सब करण सिंह के पास गए और उन्होंने उससे कहा कि आपके बिना हमारा उद्धार नहीं हो सकता. आप यदि नावें तुड़वा दें तो हमारा बचाव हो सकता है, क्योंकि ऐसा होने से देश को प्रस्थान करते समय शाही सेना हमारा पीछा न कर सकेगी. करणसिंह ने भी प्रस्ताव स्वीकार कर लिया ऐसा ही किया गया और इसके बदले में समस्त राजाओं ने करणसिंह को “जंगलधर बादशाह” का ख़िताब दिया. जैसा की इतिहासकार गौरीशंकर ओझा ने लिखा है कि औरंगजेब के षड्यंत्र विफल करने के लिए राजाओं का नेतृत्व करने के बदले राजाओं ने उन्हें जंगलधर बादशाह का ख़िताब दिया. 

अंतिम समय : हिन्दू राजाओं को मुसलमान बनाने का षड्यंत्र विफल कर देने पर औरंगजेब ने नाराज होकर दिल्ली लौटने पर उनके ऊपर सेना भेजी। उनके पुत्र को राजा की पदवी व मनसब आदि दिए गए व उन्हें बुलाकर मरवाने का षड्यंत्र द्वारा रचा गया। इसी षड्यंत्र के तहत उन्हें एक दूत के माध्यम से सूचना देकर दरबार में बुलवाया गया, जिसे उन्होंने स्वीकार भी कर लिया। पर औरंगजेब की कुटिल चालों को समझने वाले महाराजा करण सिंह अपने दो वीर पुत्रों केसरी सिंह तथा पद्म सिंह को साथ ले दिल्ली दरबार में पहुंचे, जिसकी वजह से औरंग द्वारा उन्हें मरवाने के प्रबंध विफल हो गए। तब बादशाह ने उन्हें औरंगाबाद में भेज दिया, जहाँ वे अपने नाम से बसाए कर्णपुरा में रहने लगे। 

विद्यानुराग : महाराजा करण सिंह स्वयं विद्वान व विद्यानुरागी होने के साथ विद्वानों के आश्रयदाता थे। उनकी सहायता से कई विद्वानों ने मिलकर “साहित्यकल्पद्रुम” नामक ग्रन्थ रचा, पंडित गंगानंद मैथिल ने “कर्णभूषण”, “काव्य डाकिनी”, भट्ट होसिक कृत “कर्णवंतस”, कवि मुद्रल कृत “कर्णसंतोष” व “वृतासवली” नामक ग्रन्थों की रचना हुई जो आज भी बीकानेर के राजकीय पुस्तकालय में विद्यमान है। 

औरंगाबाद पहुँचने के लगभग एक वर्ष बाद महाराजा करण सिंह निधन हो गया।  करणसिंह की स्मारक छतरी के लेख के अनुसार वि.स. 1726 आषाढ़ सुदि 4 मंगलवार (22 जून 1669) को उनका निधन हुआ था। नेणसी ने महाराजा करण सिंह के 10 पुत्रों के नाम दिए हैं,- 

  • महाराजा अनूप सिंह
  •  कुंवर केसरी सिह 
  •  कुंवर पद्म सिंह,  
  •  कुंवर मोहनसिंह, 
  •  कुंवर देवीसिंह, 
  • कुंवर मदन सिंह,
  • कुंवर अमरसिंह.
  • कुंवर अजबसिंह 
  • उदयसिंह
  • मालीदास

(नोट-  गौरीशंकरओझा के इतिहास में उदयसिंह व मालीदास के नाम नहीं है। नेणसी  ने मालीदास, शायद बनमालीदास को लिखा है, जोकि अनौरस पुत्र था)

 

महाराजा अनूपसिंह (बीकानेर के 10वें राजा 1669 -1698)

महाराजा कर्णसिंह के आठ पुत्र थे जिनमें अनूपसिंह सबसे बड़ा था। जब महाराजा कर्णसिंह से राजपाट छीना गया तब औरंगजेब ने अनूपसिंह को दो हजार जात तथा डेढ़ हजार सवार का मनसब देकर बीकानेर का राज्याधिकार सौंप दिया। महाराजा कर्णसिंह की मृत्यु होने के बाद 4 जुलाई 1669 को अनूपसिंह बीकानेर की गद्दी पर बैठा। 1685-86 ई. मे बीजापुर और 1687 ई. में गोलकुंडा के घेरे के समय यह मुगल सेना के साथ था । उसे छत्रपति शिवाजी के विरुद्ध लड़ने के लिये भेजा गया जहां उसने बड़ी वीरता से मुस्लिम फौज का नेतृत्व किया तथा महाराज शिवाजी को बड़ी क्षति पहुंचायी। अनूपसिंह की वीरता से प्रभावित होकर औरंगजेब ने इसे ‘ महाराजा ‘ व “माही भरातिव‘ की उपाधि दी। उस ने अनूपगढ़ नामक दुर्ग का निर्माण करवाया।    

बनमालीदास को मरवाना– अनूपसिंह के अनौरस (पासवानिये) भाई बनमालीदास ने बादशाह की सेवा में रहकर वहां के एक कार्यकर्ता सय्यद हसनअली से बड़ी घनिष्टता पैदा कर ली थी, जिसकी सिफ़ारिश पर बादशाह ने पीछे से बीकानेर का आधा मनसब उस (बनमालीदास) को प्रदान कर दिया। तब कुछ फ़ौज साथ लेकर बनमालीदास बीकानेर गया और पुराने गढ़ के पास ठहरा। राज्य की ओर से उसका अच्छा सत्कार किया गया। उसने मूंधड़ा रघुनाथ आदि खजांवियों को बुलाकर पट्टा-बही लाने को कहा। जब उन्होंने ऐसा करने से इनकार किया तो उसने उन्हें क़ैद कर लिया। अनूपसिंह के पास इसकी खबर पहुंचने पर उसने उदैराम अहीर से बनमालीदास को मरवाने की सलाह की। उदैराम यह कार्यभार अपने ऊपर ले बनमालीदास के पास पहुंचा और थोड़े समय में ही उसने उसले खूब मेल-जोल पैदा कर लिया। फिर चंगोई के पास उसका गढ़ बनवाने का विचार देख उदैराम वह स्थान एवं बीकानेर के गांवों का रुका अनूपसिंह से लिखवा कर बनमालीदास को दे दिया। वनमालीदास उदैराम की इस सेवा से बहुत प्रसन्न हुआ और कुछ समय बाद चंगोई चला गया। अनूपसिंह का एक विवाह वाय के सोनगरे लक्ष्मीदास की पुत्री से हुआ था। इस समय बनमालीदास को मारने का कार्य अनूपसिंह ने लक्ष्मीदास को बुलाकर उसे ही सौंपा और उसकी सहायता के लिए राजपुरा के प्रतापसिंह बीका भीमराजोत को उसके साथ कर दिया। कुछ दिनों बाद दोनों अनूप सिंह के विद्रोहियों के रूप में चंगोई में बनमालीदास के पास पहुंचे। अनूपसिंह ने इस सम्बन्ध में बनमालीदास को सचेत करते हुए एक पत्र उसके पास भेज दिया था, परन्तु इससे उसने और भी उतेजित हो उन्हें अपनी सेवा में रख लिया । अनन्तर लक्ष्मीदास ने उस (बनमालीदास) से अर्ज़ की कि मैं साथ में एक डोला लाया हूं; यदि आप विवाह कर लें तो बड़ा उपकार हो । बनमालीदास के स्वीकार करने पर, एक दासी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया गया, जिसने विवाह की रात्रि को ही पूर्व आदेशानुसार उसको शराब में संस्त्रिया मिलाकर पिला दिया, जिससे उसी समय उसकी मृत्यु हो गई। बनमालीदास की स्मारक छतरी अभी भी चंगोई गांव (तारानगर के पास) में बनी हुई है।

महाराजा के भाई- कर्णसिंह के पुत्र केसरीसिंह, पदमसिंह और मोहनसिंह भी बड़े पराक्रमी क्षत्रिय थे। किंतु उनकी वीरता से प्रभावित होकर औरंगजेब ने उन्हें अपनी चतुराई, कपट और कृत्रिम विनय का प्रदर्शन कर उन्हें पूर्णतः कब्जे में कर रखा था। जब केसरीसिंह और पद्मसिंह दाराशिकोह को खजुराहो के मैदान में परास्त कर औरंगजेब के पास ले आये तो औरंगजेब ने अपने रूमाल से उनके बख्तरों की धूल साफ की। ये दोनों औरंगजेब के लिये लड़ाइयां लड़ते हुए मारे गये। पद्मसिंह को तो बीकानेर राजपरिवार का सबसे वीर पुरुष माना जाता है। उसकी तलवार का वजन आठ पौण्ड तथा खाण्डे का वजन पच्चीस पौण्ड था। वह घोड़े पर बैठकर बल्लम से शेर का शिकार करता था। इनका एक दोहा भी प्रसिद्ध है .. कटारी अमरेश री, पदमे री तलवार ! सेल तिहारो राजसिंह, सराह्यो संसार !!

 

विद्यानुराग- महाराजा अनूपसिंह को विद्वानों का जन्मदाता कहा जाता है । अनूपसिंह संस्कृत भाषा का अधिकारी विद्वान था। उसने अनूप विवेक (तंत्रशास्त्र), काम प्रबोध ( कामशास्त्र), श्राद्ध प्रयोग चिंतामणि और गीत गोविंद की अनूपोदय नामक टीका की रचना की। उसके दरबार में संस्कृत के अनेक विद्वान रहते थे। अनूपसिंह के समय आन्नदराम ने पहली बार गीता का राजस्थानी भाषा में अनुवाद किया। महाराजा अनूपसिंह के शासनकाल में ही “बेताल पचीसी‘ की कथाओं का कविता मिश्रित मारवाड़ी गद्य में अनुवाद किया गया। अनूपसिंह के दरबारी मणिराम ने ” अनूप व्यवहार सागर, अनूप विलास ‘ अनंग भट्ट ने ” तीर्थ रत्नाकर ‘ तथा वैद्यनाथने ‘ज्योत्पत्ति सार’ नामक ग्रंथों की रचना की। उन्होंने दक्कन में रहते हुए संस्कृत और अन्य भाषाओं में बड़ी संख्या में दुर्लभ पांडुलिपियों का संग्रह किया और एक पुस्तकालय की स्थापना की, जिसे अनूप संस्कृत पुस्तकालय के रूप में जाना जाता है। उसने देश भर के संस्कृत के दुलर्भ ग्रंथों को खरीद कर बीकानेर के पुस्तकालय में सुरक्षित करवाया ताकि उन्हें औरंगजेब नष्ट न कर सके। पुस्तकों की ही भांति मूर्तियों को भी उसने हिन्दुस्तान भर से खरीदकर बीकानेर में संग्रहीत करवाया ताकि उन्हें मुसलमानों के हाथों नष्ट होने से बचाया जा सके। मूर्तियों का यह विशाल भण्डार 33 करोड़ देवताओं का मंदिर कहलाता है। अनूपसिंह संगीत विद्या में भी निष्णात था। उसने संगीत सम्बन्धी अनेक ग्रथों की रचना की थी। अनूपसिंह के दरबार में संगीताचार्य जनार्दन भट्ट का पुत्र भावभट्ट इनका दरबारी साहित्यकार व संगीतकार था, जिसने ‘संगीत रत्नाकर’ की रचना की। अनूपसिंह का काल बीकानेर में चित्रकला व उस्ता कला का स्वर्णकाल माना जाता है। अनूपसिंह के समय उस्ताकला लाहोर से बीकानेर आई। 

मुंशी देवीप्रसाद ने स्वयं महाराजा के बनाये हुए ग्रन्थों की नामावली में नीचे लिखे हुए नाम दिये हैं ....
सन्तानकल्पलता ( वैद्यक ) |
चिकित्सामालतीमाला ( वैद्यक ) |
संग्रहरत्नमाला ( वैद्यक ) |
अनूपरत्नाकर ( ज्योतिष ) ।
अनूपमहोदधि ( ज्योतिष ) ।
संगीतवर्तमान ( संगीत ) ।
संगीतानूपराग ( संगीत ) ।
लक्ष्मीनारायणस्तुति ( वैष्णवपूजा ) |
लक्ष्मीनारायण पूजासार (छन्दोबद वैष्णवपूजा ) ।
सांयसदाशिवस्तुति ( शिवपूजा) ।
कौतुकसारोद्वार ( राजविनोद ) |
संस्कृत व भाषा कौतुक (नीति ग्रन्थ) ।

महाराजा के आश्रय में बने हुए ग्रंथों के नीचे लिखे नाम भी दिये हैं –
धर्मशास्त्र’ :
“महाशान्ति, रामभट्ट-कृत ।
शान्तिसुधाकर, विद्यानाथसूरि-कृत ।
कम्मै-विपाक :
केरली सूर्य्यारुणस्य टीका, पन्तुजीभट्ट कृत ।
वैद्यक :
अमृतमंजरी, होसिंग भट्ट-कृत ।
शुभमंजरी, अम्बकभट्ट-कृत ।
ज्योतिष :
अनूपमहोदधि- वीरसिंह ज्योतिपराद्-कृत |
अनूपमेघ- रामभट्ट- कृत ।
संगीत :
संगीतविनोद, भावभट्ट-कृत |
संगीतअनूपोद्देश्य, रघुनाथ गोस्वामी कृत |
शिवपूजा :
रुद्रपति, रामभट्ट कृत
अनूपकौतुकार्णव, रामभटट-कृत ।
अनेक प्रकार के छन्दों में :
लक्ष्मीनारायणस्तुति , भट्ट शिवनन्दन- कृत ।
यन्त्रचिन्तामणि, दामोदर-कृत ।
तन्त्रलीला, तर्कानन सरस्वती भट्टाचार्य-कृत ।
सहस्रार्जुनदीपदान, त्रिम्बक-कृत ।
वायुस्तुतनुष्ठानप्रयोग, रामभट्ट- कृत ।
राजधर्म :
कामप्रबोध,जनार्दन-कृत।
दशकुमारप्रबन्ध, शिवराम-कृत ।
माधवीयकारिका, शांबभट्ट-कृत ।
( मुंशी देवीप्रसाद; राजरसनामृतः पृ० ४६-४८ ) | 

 

8 मई सन 1698 में अनूपसिंह का स्वर्गवास हो गया। उसके 5  पुत्र थे  …

  • महाराजा सरूप सिंह 
  • महाराजा सुजान सिंह 
  • कुंवर रूपसिंह 
  • कुंवर रुद्रसिंह 
  • कुंवर आनंद सिंह (नेणसी ने एक गजसिंह भी नाम दिया है)

महाराजा सरूप सिंह (बीकानेर के 11वें राजा 1698-1700) 

8 मई 1698 को महाराजा अनूपसिंह का देहांत हो गया और स्वरूपसिंह बीकानेर की गद्दी पर बैठा। उस समय उसकी आयु मात्र 9 वर्ष ही थी। राज्य कार्य स्वरूपसिंह की माता सीसोदणी चलाने लगी। दो वर्ष बाद मात्र 11 वर्ष की आयु में 15 दिसम्बर 1700 को शीतला (चेचक) के पकोप से स्वरूपसिंह की मृत्यु हो गयी,  वे निस्संतान थे। 

महाराजा सुजान सिंह (बीकानेर के 12वें राजा 1700 से 1736) 

सुजानसिंह के गद्दी पर बैठते ही औरंगजेब ने उसे दक्षिण के मोर्चे पर बुला लिया। सुजानसिंह 10 वर्ष तक दक्षिण के मोर्चे पर रहा। ई. 1707 में दक्षिण में ही औरंगजेब की मृत्यु हो गई। इससे जोधपुर नरेश अजीतसिंह ने अपने राज्य का विस्तार करना आरंभ कर दिया। सुजानसिंह की बीकानेर से अनुपस्थिति का लाभ उठाकार अजीतसिंह ने बीकानेर नगर पर भी अधिकार कर लिया और नगर में अपने नाम की दुहाई फेर दी। भूकरका का सरदार पृथ्वीराज तथा मलसीसर का हिन्दूसिंह जोधपुर की सेना से लड़ने के लिये आगे आये। सरदारों का विरोध देखकर अजीतसिंह ने बीकानेर खाली कर दिया। औरंगजेब के बाद बहादुरशाह, जहांदारशाह, फर्रूखसीयर, रफीउद्दरजात. रफीउद्दौला तथा मुहम्मदशाह दिल्ली के तख्त पर बैठे। ये बादशाह स्वयं ही चारों ओर षड़यंत्र से घिरे रहे अतः हिन्दू राजाओं पर मुगल बादशाहों की पकड़ ढीली हो गयी। ई.1720 में मुहम्मदशाह ने बीकानेर नरेश सुजानसिंह को दिल्ली दरबार में पेश होने के आदेश दिये किंतु मुगलों की चला चली के दौर का आकलन कर सुजानसिंह बादशाह की सेवा में नहीं गया तथा अपने कुछ सेवकों को दिल्ली तथा अजमेर भिजवा दिया।

अपने पिता जोधपुर नरेश अजीतसिंह की हत्या कर राजकुमार अभयसिंह जोधपुर की गद्दी पर बैठा तथा पितृहंता बख्तसिंह नागौर का स्वामी हुआ। इन दोनों भाइयों ने ई. 1737 में बीकानेर पर हमला कर दिया। उदयपुर के महाराणा संग्रामसिंह (द्वितीय) ने दोनों पक्षों में समझौता करवा दिया | ई. 1734 में बख्तसिंह ने एक बार फिर बीकानेर पर अधिकार करने का षड़यंत्र रचा। उसने बीकानेर के किलेदार तथा कई आदमियों को अपनी ओर मिला लिया। उन दिनों सुजानसिंह ने अधिकांश राज्यकार्य राजकुमार जोरावरसिंह को सौंप रखा था।

जब जोरावरसिंह ऊदासर गया हुआ था तब षड्यंत्रकारियो ने किले के सब दरवाजों पर से ताले हटा लिये तथा बख्तसिंह के आदमियों को सूचना करने के लिये आदमी भेजा। बख्तसिंह अपने आदमियों के साथ किले के पास ही छिपा हुआ था, किंतु इसी बीच ऊदासर में षड़यंत्रकारियों के एक साथ उदयसिंह परिहार ने शराब के नशे में अपने सम्बन्धी जैतसी परिहार को यह भेद बता दिया कि किले का पतन होने वाला है। जैतसी ऊँट पर सवार होकर भागा-भागा बीकानेर आया तथा किले के उस हिस्से में पहुंचा जहां पड़िहारों का पहरा था। उनसे रस्सी गिरवाकर वह गढ़ में दाखिल हो गया और महाराजा सुजानसिंह को षड़यंत्र की सूचना दी। सुजानसिंह जैतसिंह को लेकर सूरजपोल पहुंचा तो उसने वहां के ताले खुले हुए पाये। गढ़ के अन्य दरवाजों के ताले भी खुले हुए पाये गये। उसी समय गढ़ के सारे द्वारों पर ताले जड़वाये गये तथा किले की तोपें दागी गयीं। तोपों की आवाज सुनकर षड़यंत्रकारी समझ गये कि भेद खुल गया है अतः वे वहां से भाग लिये। किले के भीतर स्थित सांखला राजपूत मार दिये गये और किले की सुरक्षा धाय भाई को सौंप दी गयी। इससे पूर्व बीकानेर के किलेदार वंश परम्परा से नापा सांखला के वंशज होते आये थे, जो अपनी राजभक्ति के लिये प्रसिद्ध थे। 

 कुछ दिनों बाद भूकरका के ठाकुर कुशलसिंह तथा भाद्रा के ठाकुर लालसिंह में वैमनस्य उत्पन्न हो गया, जिससे गांव रायसिंहपुरे में उन दोनों में झगड़ा हुआ । जब सुजानसिंह को इस घटना की खबर हुई तो वह उधर गया, जिससे वहां शांति स्थापित हो गई। रायसिंहपुरे में ही सुजानसिंह रोगग्रस्त हुआ और 16 दिसम्बर 1735  को वहीं उसका देहावसान हो गया। उसके दो पुत्र थे  … 

  • महाराजा जोरावर सिंह 
  • कुमार अभय सिंह 

महाराजा जोरावर सिंह (बीकानेर के 13वें महाराजा 1736-1745)

  1735 में सुजानसिंह की मृत्यु हो गयी तथा जोरावरसिंह राजा हुआ। भादरा और चुरू के ठाकुर महाराजा के खिलाफ विद्रोह में उठे, जोरावरसिंह ने विद्रोही ठाकुरों को सफलतापूर्वक हराया। उसके शासन काल में जोधपुर नरेश अभयसिंह ने फिर बीकानेर पर आक्रमण किया किंतु इस बार नागौर के बख्तसिंह ने बीकानेर का साथ दिया। अभयसिंह वापस जोधपुर लौट गया। एक साल बाद ई.1740 में अभयसिंह ने फिर बीकानेर पर आक्रमण किया। अभयसिंह बीकानेर नगर में घुस गया और वहां खूब लूटपाट मचाई तथा बीकानेर का दुर्ग घेर कर उस पर तोपों से गोलों की बरसात कर दी । जोरावरसिंह दुर्ग में घिर गया। उसने अपने आदमी नागौर तथा जयपुर भेजे। बख्तसिंह सेना लेकर बीकानेर आ गया तथा उधर जयपुर नरेश जयसिंह ने जोधपुर जाकर मेहरानगढ़ को घेर लिया।अभयसिंह को बीकानेर से हटना पड़ा। उसके शासनकाल के अंत में बीकानेर और जोधपुर के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित हुए।

सन 1745 में  गूजरमल की सहायता से हंसी, हिसार व् फतेहाबाद पर पुनः अधिकार किया। वहां से लौटते हुए वः रस्ते में अस्वस्थ हो गया (ऐसा अंदेशा है की उसे विष दे दिया गया) व 5 जून 1745 को अनुपपुरा गांव में मात्र 32 वर्ष की आयु में जोरावरसिंह की निःसंतान अवस्था में मृत्यु हो गयी। वह वीर कुशल राजनीतिज्ञ, प्रतिभा सम्पन्न तथा काव्य मर्मज्ञ था। वह संस्कृत और डिंगल का विद्वान था। उसकी लिखी हुई दो पुस्तकों- ‘वैद्यकसार’ तथा ‘पूजा पद्धति’ बीकानेर के पुस्तकालय में हैं।

 

महाराजा गजसिंह (बीकानेर के 14वें महाराजा 1745-1787)

जोरावरसिंह के कोई संतान नहीं थी, अतः उसके मरते ही राज्य का सारा प्रबंध भूकरका ठाकुर कुशलसिंह तथा मेहता बख्तावरसिंह ने अपने हाथ में ले लिया तथा बाद में जोरावरसिंह के चचेरे भाई गजसिंह (महाराजा सुजानसिंह के छोटे भाई आनंदसिंह का पुत्र) से यह वचन लेकर कि वह उस समय तक के राज्यकोष का हिसाब नहीं मांगेगा, उसे गद्दी पर बैठा दिया। जोरावरसिंह के चचेरे भाइयों में अमरसिंह सबसे बड़ा था किंतु उसे राजा नहीं बनाया गया इसलिये वह नाराज होकर जोधपुर चला गया और वहां से विशाल सेना लेकर बीकानेर पर चढ़ आया। रामसर कुंएँ पर दोनों पक्षों में युद्ध हुआ जिसमें जोधपुर की सेना परास्त हो गई। मुगल बादशाह मुहम्मदशाह का वजीर मंसूर अली खां (सफदरजंग) बागी हो गया तब बादशाह ने बीकानेर एवं जोधपुर से सहायता मांगी। बीकानेर नरेश ने सैनिक सहायता देकर मेहता बख्तावरसिंह को बादशाह की सेवा में भेजा। सेना के समय पर पहुँच जाने से बादशाह की बादशाही बच गयी। इस पर बादशाह ने गजसिंह को सात हजारी मनसब देकर सिरोपाव भिजवाया तथा उसे श्री राज राजेश्वर महाराजाधिराज महाराज शिरोमणि श्री गजसिंह की उपाधि दी । साथ ही माही मरातिब भी प्रदान किया। 

गजसिंह का अधिकांश समय लड़ाई झगड़ों में ही बीता। कभी जोधपुर के साथ, कभी अपने बड़े भाई अमरसिंह के साथ, तो कभी राज्य के विभिन्न सरदारों (महाजन के भीमसिंह, भादरा के लालसिंह, सांखू के शिवदानसिंह, मगरासर के नारणोत, बीदासर व मलसीसर के बीदावत, रावतसर के आनंदसिंह, बीकमपुर के भाटी स्वरूपसिंह, पूगल के राव अमरसिंह के आलावा भट्टियों व् जोहियों) के बागी हो जाने पर उनके विद्रोह को दबाने में मशगूल रहा। बाद में उसका ज्येष्ठ पुत्र राजसिंह भी बागी हो गया था। एक बार तो उसे भी कैद करना पड़ा। लेकिन कुछ समय बाद जब गजसिंह बीमार रहने लगा तो उसने राजसिंह को कैद से मुक्त करके, उसे अन्य भाईयों के साथ उचित व्यवहार का वचन लेकर, सारे सरदारों को बुला कर राज्य कार्य उसे सौंप दिया। इसके चार दिन बाद 25 मार्च 1987 को उसका देहांत हो गया। 

गजसिंह के राज्य समय में सन 1755 में भयानक दुर्भिक्ष पड़ा। उस समय उसने प्रजा हित में सदाव्रत खुलवाए व रोजगार के लिए नई इमारतों व शहरपनाह का निर्माण कराया। 1757 में नोहर में गढ़ का निर्माण कराया। 1765-66 में उसने अपने बड़े पुत्र राजसिंह के नाम पर राजगढ़ नगर बसाया। 

महाराजा गजसिंह के 18 पुत्र थे  …. 

  • महाराजा राज सिंह 
  • महाराजा सूरत सिंह 
  • कुमार छत्तर सिंह
  • कुमार अजब सिंह 
  • कुमार सुल्तान सिंह 
  • कुमार श्याम सिंह 
  • कुमार देवी सिंह
  • कुमार खुमाण सिंह
  • कुमार मोहकम सिंह
  • कुमार राम सिंह
  • कुमार गुमान सिंह
  • कुमार सबल सिंह
  • कुमार भोपाल सिंह
  • कुमार जगत सिंह
  • कुमार मोहन सिंह
  • कुमार उदय सिंह
  • कुमार जालिम सिंह
  • कुमार खुशाल सिंह 

महाराजाराज सिंह  (बीकानेर के 15 वें महाराजा 1787)  

 राजसिंह के राज्याभिषेक के बाद बीकानेर राजघराने में राजगद्दी के लिये षड्यंत्र चलने लगे। महाराज गजसिंह की एक रानी के मन में अपने पुत्र को बीकानेर की राजगद्दी पर बैठाने की हसरतों ने जन्म ले लिया। उसने राजसिंह जी से गद्दी छीन अपने पुत्र को राजगद्दी पर बैठाने हेतु षड्यंत्र रचने शुरू कर दिए और महाराज राजसिंह जी के राज्याभिषेक के 21 दिन बाद ही उनको खाने में विष देकर उनकी हत्या कर दी गयी। इनके दो पुत्र थे   …. 

  • महाराजा प्रताप सिंह 
  • कुमार जय सिंह

 

महाराजा प्रतापसिंह (बीकानेर के 16वें महाराजा 1787-1788 )

राज सिंह जी की हत्या के बाद उनके उनके नाबालिग पुत्र प्रतापसिंह का बीकानेर की राजगद्दी पर राज्याभिषेक किया गया| सूरत सिंह बालक महाराज प्रताप सिंह के संरक्षक बन राजकार्य चलाने लगे, पूरी शासन व्यवस्था उनके हाथों में थी फिर भी वे बालक महाराज को मारने के षड्यंत्र रचते रहे। उन्हें पता था कि बालक महाराज की हत्या के बाद बीकानेर के सामंतगण उन्हें राजा के तौर पर स्वीकार नहीं करेंगे, सो सूरत सिंह ने बीकानेर रियासत के कई सामंतों को धन, जमीन आदि देकर अपने पक्ष में कर लिया। उसके बावजूद कोई सामंत बालक महाराज का वध करने के पक्ष में नहीं था| साथ ही बालक महाराज की एक भुआ बालक महाराज के खिलाफ किये जा सकने वाले षड्यंत्रों के प्रति पूरी सचेत थी और वह हर वक्त बालक महाराज की सुरक्षा के लिये छाया की तरह उनके साथ रहती थी| सूरत सिंह जानते थे कि जब तक अपनी उस बहन को वे अलग नहीं कर देंगे तब तक बालक महाराज की हत्या नहीं की जा सकती| अत: सूरत सिंह ने अपनी उस बहन का विवाह कर उसे बालक महाराज से दूर करने का षड्यंत्र रचा, और उनके विवाह के बाद मौका पाकर क्रूर सूरत सिंह ने अपने बड़े भाई के पुत्र बालक महाराज प्रताप सिंह की हत्या कर दी और खुद राजा बन गया। 

 

महाराजा सूरत सिंह (बीकानेर के 17वें महाराजा 1788-1828 ) 

महाराजा गजसिंह के दूसरे पुत्र सूरतसिंह ने अपने भतीजे प्रतापसिंह की हत्या कर दी और स्वयं राजा बन गया। इससे राज्य के सारे सरदार सूरतसिंह के शत्रु हो गये और उसे उखाड़ फेंकने का उपक्रम करने लगे। इनके समय जॉर्ज टॉमस ने बीकानेर पर आक्रमण किया लेकिन दोनों पक्षों के बीच समझौता होने से यह युद्ध बंद हो गया। 1807 ई. के गिंगोली के युद्ध में महाराजा सूरतसिंह ने जयपुर की सेना का साथ दिया था। ई. 1808 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का अधिकारी एल्फिंस्टन काबुल जाते हुए बीकानेर में ठहरा। उस समय महाराजा सूरतसिंह अपने जागीरदारों के साथ कलह में उलझा हुआ था। महाराजा ने एल्फिंस्टन का समुचित सत्कार किया और अंग्रेजों से मित्रता करनी चाहीं, किंतु  उसने कोई वचन भी नहीं दिया। बीकानेर की स्थिति और भी खराब हो जाने पर महाराजा ने काशीनाथ ओझा को ई. 1817 में अंग्रेजों की सेवा में भेजा और पुनः संधि का प्रस्ताव किया। उस समय अंग्रेज पिण्डारियों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिये सशक्त प्रतिरोध खड़ा करना चाह रहे थे, इसलिये 9 मार्च 1818 को दोनों पक्षों में संधि पर हस्ताक्षर हुए और मुहर लगी। अंग्रेजों की ओर से चार्ल्स थियोफिलस मेटकाफ ने तथा महाराजा सूरतसिंह की ओर से काशीनाथ ने हस्ताक्षर किये। 

 

सूरतसिंह ने अमरचंद सुराणा के नेतृत्व 16 अप्रेल, 1805 ई. में मंगलवार के दिन जास्ता खां भट्टी से भटनेर दुर्ग जीता था। इसी कारण भटनेर दुर्ग का नाम हनुमानगढ पडा। सूरतसिंह ने 1799 ई. में सूरतगढ़ का निर्माण करवाया। सूरतसिंह ने करणीमाता मंदिर (देशनोक) को आधुनिक स्वरूप दिया। सूरतसिंह के शासनकाल में दयालदास ने ‘ बीकानेर राठौड़ री ख्यात ‘ में जोधपुर व बीकानेर के राठौड़वंश का वर्णन किया। 24 मार्च 1828 को सूरतसिंह का देहांत हो गया। उसके चार पुत्र थे  …. 

  • महाराजा रतनसिंह 
  • कुंवर मोतीसिंह 
  • कुंवर लखमीसिंह 
  • कुंवर टीकमसिंह 

 

महाराजारतनसिंह (बीकानेर के 18 वें महाराजा 1828-1851 ई.)

 महाराजा सूरतसिंह के बाद इनके ज्येष्ठ पुत्र रतनसिंह बीकानेर के शासक बने। 1829 ई. में बीकानेर व जैसलमेर के मध्य वासणपी का युद्ध हुआ जिसमें बीकानेर राज्य की पराजय हुई।  इस युद्ध में अंग्रेजों ने मेवाड़ के महाराणा जवानसिंह को मध्यस्थ बनाकर दोनों पक्षों में समझौता करवाया।

लाहौर के सिक्खों से अंग्रेज़ों की लड़ाई में सहायता की व जिन बीकानेरी सरदारों पूर्व सैनिकों ने बहादुरी दिखलाई थी, उन्हें उसने सिरोपाव और आभूषण आदि देकर सम्मानित किया। उसने हरद्वार, गया और नाथद्वारा की यात्रा की थी। वह राजपूतों में प्रचलित लड़कियों को मारने की प्रथा का कट्टर विरोधी था। गया में रहते समय उसने अपने सरदारों से इस कुप्रथा को बन्द कर देने की प्रतिज्ञा करवाई और पीछे से उस प्रतिक्षा का उल्लंघन करनेवाले की जागीर जब्त करवाने की आज्ञा निकलवाई। उसके राज्य में मुगल साम्राज्य की दशा बिगड़ जाने के कारण देश में सर्वत्र समय अशान्ति फैल गई। पिंडारियों और मरहटों के उपद्रयों के कारण आय के साधन नष्ट हो गये, जिससे कुछ सरदारों ने लूट-खसोट का धन्धा अख्तियार कर लिया। महाराजा ने ऐसे सरदारों का सदा युक्ति से दमन किया। इनके समय मे भी महाजन, पूगल, कुंभाना, भादरा सहित कई ठिकानेदारों जे बागी रवैया अपनाया। उनकी जागीरें जब्त करने सहित उनपर कठोर  कार्यवाही की। लेकिन बाद में अधिकांश को माफी दे दी। अंग्रेज सेना के बागी व छावनी लूटने वाले डूंगजी जवारजी व उनके साथियों ने जब बीकानेर राज्य में भी लूटमार की तो अंग्रेज सेना से सामंजस्य से उनमें से कई को पकडा, लेकिन अंग्रेजों को नहीं सौंपा।

मुगल साम्राज्य की दशा उस समय बहुत हीन हो गई थी और अंग्रेज़ों के बढ़ते हुए प्रभुत्व के आगे उनका प्रभाव क्षीण हो गया था। ऐसी अवस्था में भी तत्कालीन मुगल शासक अकबर (दूसरा) ने पुरानी परिपाटी के अनुसार महाराजा के पास माही मरातिब का सम्मान और खिलअत आदि भेजकर दोनों घरानों की पुरानी मित्रता का परिचय दिया था। अफगानिस्तान में विद्रोह के समय अंग्रेज सेना को ऊंटों की आवश्यकता हुई, जोकि उनके पास नहीं तबे। महाराजा ने उनकी सहायतार्थ 200 ऊंटों सहित सैनिक सहायता की, जिससे अंग्रेजों के साथ संबंध प्रगाढ़ हुए।

राज्य की प्रजा को बढ़े हुए करों के कारण सदा कष्ट रहता था, जिससे उसने उन करों में बहुत कमी की और यात्रियों की सुविधा के लिए अंग्रेज़ सरकार के अनुरोध करने पर भावलपुर और सिरसा के मार्ग कुएं, मीनारें और सरायें बनवाई। उसे इमारतें बनवाने का भी बड़ा शौक था। वह विष्णु का परमभक्त था । राजरतनबिहारी के मन्दिर की प्रतिष्ठा उसी के समय में हुई थी। अपने स्वर्गीय पिता के प्रति उसकी असीम श्रद्धा थी। देवीकुंड सागर में पिता की स्मारक छत्री निर्माण करने के अतिरिक्त उसने अपने पूर्वजों की छत्रियों का भी, जो टूट-फूट गई थीं, जीर्णोद्धार कराया। इनके समय में बीठू भोमा ने रतनविलास तथा सागरदान करणीदानोत ने रतनरूपक नामक ग्रंथ की रचना की।

7 अगस्त 1851 को उनका देहांत हो गया। उनके दो पुत्र थे …

  • महाराजा सरदारसिंह 
  • कुंवर शेरसिंह 

 

महाराजा सरदारसिंह (बीकानेर के 19 वें महाराजा 1851-1872 ई.)

1857 में भारतव्यापी गदर का सूत्रपात हुआ। उस समय राजपूताने के राजाओं में एक महाराजा सरदारसिंह ही ऐसे थे, जो स्वयं विद्रोह के स्थानों में अपने सरदारों सहित अंग्रेज़ों की सहायता के लिए गये थे। उन्होने विद्रोहियों का दमन और उन्हें गिरफ्तार करने के अतिरिक्त पीड़ित अंग्रेज़ कुटुम्बों को खोज-खोजकर अपने संरक्षण में लिया। अंग्रेज़ सरकार ने महाराजा की वीरता और समयोचित सहायता की बड़ी प्रशंसा की थी। राज्य के सुप्रबन्ध की ओर भी वह विशेषरूप से प्रयत्नशील रहे और उनके समय में राज्य कौन्सिल की स्थापना भी हुई, परन्तु उससे विशेष लाभ न हुआ। महाराजा के समय में राज्य कोष में धन की बहुत कमी रही, जिसका परिणाम यह हुआ कि उनके केवल बीस वर्ष के राज्यकाल में अट्ठारह दीवान बदले गये। 

 

महाराजा सरदारसिंह वीर और बुद्धिमान शासक थे। उनका हृदय बड़ा कोमल था। समाज में फैली हुई कुरीतियों की ओर उनका ध्यान विशेषरूप से गया था। विवाह और मौसर श्रादि के अवसरों पर गरीब लोग भी औरों की देखा-देखी फ़ज़ूलखर्ची करते थे, जिससे वे बुरी तरह ऋण ग्रस्त होकर कष्ट पाते थे। महाराजा ने क़ानून बनाकर लोगों को हैसियत के अनुसार खर्च करने पर बाध्य किया। 1854 ई. में सरदारसिंह ने सतीप्रथा तथा जीवित समाधि प्रथा पर रोक लगवायी। सरदारसिंह ने जनहित के लिए अनेक कानूनों का निर्माण करवाया तथा महाजनों से लिया जाने वाला बाछ कर माफ कर दिया। अमीर महाजनों का यह हाल था कि निर्धन प्रजा का धन हस्तगत कर वे प्रायः दिवाला निकाल दिया करते थे। इससे उनका तो कुछ न बिगड़ता था, परन्तु  प्रजा की दशा अधिक शोचनीय हो जाती थी। इसके विरुद्ध कानून बन जाने से प्रजा को बड़ा लाभ हुआ। प्रजा की वास्तविक दशा का ज्ञान करने के लिए महाराजा स्वयं रियासत का दौरा करता था। उसने हरिद्वार की तीर्थयात्रा भी की थी। सरदारसिंह ने अपने सिक्कों से मुगल बादशाह का नाम हटाकर महारानी विक्टोरिया का नाम अंकित करवाया।

 

वह बड़े धर्मशील थे, उन्होने बीकानेर में रसिक शिरोमणि का मंदिर बनवाया और राजलवाड़ा गांव के स्थान में सरदारशहर बसाया, जो बीकानेर राज्य में तीसरे दर्जे का शहर था। महाराजा के कई महाराणियां थीं, परन्तु संतान उनमें से किसी के भी नहीं हुई। 16  मई 1872 को महाराजा का स्वर्गवास हो गया’ । 

 

महाराजा डूंगरसिंह (बीकानेर के 20 वें महाराजा 1872- 1887 ई.)

महाराजा सरदारसिंह के कोई पुत्र नहीं होने के कारण उनकी मृत्यु पश्चात कुछ समय तक शासन कार्य कप्तान बर्टन की अध्यक्षता वाली समिति ने किया। वायसराय लॉर्ड नॉर्थब्रुक की स्वीकृति से कप्तान बर्टन ने डूंगरसिंह को बीकानेर का शासक बनाया। इन्होंने अंग्रेजों के साथ नमक समझौता किया। वह अंग्रेज़ सरकार के सदा मित्र बना रहे। डूंगरसिंह ने अंग्रेजों व अफगानिस्तान के मध्य हुए युद्ध में अंग्रेजों की सहायता की। जब काबुल में सरकारी सेना भेजी गई, तो महाराजा ने भी यहां अपनी सेना भेजने की इच्छा प्रकट की, पर वह स्वीकार न होने पर आठ सौ ऊंट उक्त मुहिम के अवसर पर अंग्रेज़ सरकार के पास भेजे गए। इससे अंग्रेज़ सरकार भी उनका बड़ा सम्मान करती थी। फलतः सरदारों के उपद्रव के समय अंग्रेज़ सरकार ने भी उनकी कार्यवाही उचित समझ सैनिक सहायता देकर उपद्रव को शांत किया।

 

महाराजा डूंगरसिंह दृढ़-चित्त, साहसी, न्यायी, विचारशील, ईश्वरभक्त और निरभिमानी शासक थे। कर्त्तव्य परायणता, सहानुभूति आदि गुणों के कारण बीकानेर के इतिहास में उनका का नाम चिरस्मरणीय रहेगा। वह गुणग्राहक थे और विद्वानों का आदर कर उनको संतुष्ट करते थे। बीकानेर राज्य में जो शासन सुधार हुए हैं, उनका सूत्रपात उक्त महाराजा के समय में ही हुआ था। न्याय से उनको पूरा प्रेम था, इसलिए उनके समय में दीवानी, फौजदारी, माल आदि के क़ानून जारी हुए। जिससे प्रजा को बड़ी सुविधा हो गई और मनमानी कार्यवाही मिट गई। प्रजा के सुख-दुःख की वह पूरी खबर रखते और यथा साध्य उनके दुःखों को मिटाने की चेष्टा करते थे। उनके पंद्रह वर्ष के शासन काल में राज्य कार्य में बड़ा परिवर्त्तन हुआ और राज्य कार्य व्यवस्था पूर्वक होने लगा। महाराजा स्वयं राज्य कार्य में परिश्रम करते एवं उनका अंतिम निर्णय विचारपूर्ण होता था। उन की गद्दीनशीनी के प्रारंभ में राज्य की आय केवल छः लाख रुपये वार्षिक थी, जो बड़ी कठिनाइयां होने पर भी, उनके समय में बढ़कर तिगुनी हो गई। प्रजा से माल का हासिल नक़द रुपये में लेने की व्यवस्था बीकानेर राज्य में उनके समय में ही हुई। सरकारी सवार आदि प्रजा से जो खुराक आदि वसूल करते थे, उसका लिया जाना बंद किया। चोरी और डाकों को बन्द करने के लिए पुलिस तथा गिराई के महकमे स्थापित किये। राजकीय मुलाज़िमों के वेतन में वृद्धि कर उनकी आय के अनुचित साधन बंद किये। सरदारों की रेख पहले पैदावार के हिसाब से ली जाती थी, परंतु वास्तविक आय से बहुत थोड़ी रक़म सरदार लोग राज्य को देते थे। इसलिए महाराजा ने उनकी पैदावार के सही अंदाज़ से रेख रक़म लेना चाहा, जिसको अधिकांश सरदारों ने स्वीकार कर लिया, किन्तु बीकानेर के कुछ सरदारों को, जो सदा से निरंकुश थे, यह बात अप्रिय हुई और उन्होंने उपद्रय खड़ा कर दिया। इसपर भी महाराजा ने उदार नीति से काम लिया और उनको समझाकर तय करना चाहा, परन्तु उपद्रवी और कलह-प्रिय सरदारों ने महाराजा की आशा का पालन न किया। तब वे अंत में बंदी कर लिये गये। तो भी क्षमाशील महाराजा ने रावतसर और सांडवा के ठाकुरों का अपराध क्षमाकर अपनी महत्ता का परिचय दिया। 

 

महाराजा को विद्या से बड़ा प्रेम था, अतएव उनके समय में राजधानी के स्कूल में पर्याप्त उन्नति की गई और गांवों में भी कितने ही स्थानों में पाठशालाएं खोली गई, जिनमें निःशुल्क शिक्षा दी जाने लगी। उनके राज्य काल में अस्पताल और शफ़ाखानों में भी वृद्धि हुई। बीकानेर राज्य में रेल, नहरें आदि लाने की योजनाएं भी उक्त महाराजा के समय में ही बनीं। प्रजाहित के कामों में महाराजा की बड़ी रुचि थी। उन के समय में राज्य में डाक का आना-जाना आरंभ हुआ और आवागमन के मार्ग निरापद बनाये गये। कितने ही नवीन कुंए और सरायें यात्रियों के लिए बनवाई गई। राजधानी बीकानेर में जल का बड़ा अभाव था, जिससे लोगों को कष्ट होता था, अतएव अनूपसागर (चौतीना) नामक कुएं में नल लगाने की योजना की। डूंगरसिंह ने बीकानेर किले का जीर्णोद्वार करवाया तथा इसमें सुनहरी बुर्ज, गणपति निवास, लाल निवास, गंगा निवास आदि महल बनवाये। 

 

महाराजा को सामाजिक सुधारों से भी पूरा अनुराग था, परन्तु प्रजा की प्रवृत्ति रुढ़िवाद की ओर अधिक होने के कारण वह विचारों को कार्य रूप में परिणित न कर सके। महाराजा सूरतसिंह, रत्नसिंह और सरदार सिंह के समय से ही राज्य ऋण ग्रस्त और खज़ाना खाली था। उक्त महाराजा ने पुराना सब ऋण चुकाकर राज्य के वैभव को बढ़ाया। लाखों रुपये इमारतों, देवस्थानों, यात्रा तथा अन्य कार्यों में व्यय करने पर भी जब उनका परलोकवास हुआ, उस समय उन्होने पर्याप्त निजी धन छोड़ा था, जिससे राज्य को रेल्वे आदि के कार्य में बड़ी सहायता मिली। 

 

उनके कोई संतान न थी, इसलिए उन्होने अपने छोटे भाई गंगासिंह को अपना उत्तराधिकारी निर्धारित कर इस संबंध में एक सरीता अंग्रेज सरकार के पास भेज दिया। 19 अगस्त 1887 को उनका स्वर्गवास हो गया ।

 

महाराजा गंगासिंह (बीकानेर के 21 वें महाराजा 1887-1943 ई.)

महाराजा डूंगरसिंह की मृत्यु के पश्चात 31 अगस्त 1887 को गंगासिंह बीकानेर के शासक बने,इस समय गंगासिंह की आयु 7 वर्ष थी। गंगासिंह की शिक्षा अजमेर के मेयो कॉलेज से सम्पन्न हुई। इनके लिए पंडित रामचंद्र दुबे को शिक्षक नियुक्त किया गया। गंगासिंह ने देवली की छावनी से सैनिक शिक्षा भी प्राप्त की। 

 

 गंगासिंह को आधुनिक बीकानेर का निर्माता भी कहते है। महाराजा गंगासिंह ने ‘प्रजावतिनों वयम्‘ आदर्श का पालन किया। दमन, उत्पीड़न और निर्वासन महाराजा गगंगासिंह की शासन नीति के मूलमंत्र थे। गंगासिंह के शासनकाल में 1899 से 1900 ( विक्रमसंवत्1956 ) तक भयंकर अकाल पड़ा, जिसे ‘छप्पनिया अकाल‘ के नाम से जाना जाता है। छप्पनिया अकाल में गंगासिंह ने बीकानेर में शहरपनाह व गजनेर झील का निर्माण करवाया। इनके समय अंग्रेजों की सहायता से ‘कैमल कोर’ का गठन किया गया जो ‘गंगा रिसाल’ के नाम से भी जानी जाती थी। गंगासिंह के समय राजपूताने का सबसे बडा रेल मार्ग बना, जिसका आधुनिक लोको व वर्कशोप था। 1910 ई. में महाराजा गंगासिंह ने बीकानेर में स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना की। राजपूताने में यह प्रथम राज्य था, जिसने कार्यपालिका और न्यायपालिका को पृथक किया। 1912 ई. में महाराजा गंगासिंह ने अपने शासन के रजत जयंती वर्ष के उपलक्ष्य में हिंदी को अपनी सरकारी कामकाजी भाषा बनाया। 1913 ई. में महाराजा गंगासिंह ने बीकानेर में ‘प्रजा प्रतिनिधि सभा’ की स्थापना की। 

 

महाराजा गंगासिंह को राजस्थान का भागीरथ के उपनाम से जाना जाता है। महाराजा गंगासिंह के द्वारा 1927 ई में गगनहर का निर्माण करवाया गया। जिससे गंगासिंह को राजपूताने का तथा आधुनिक भारत का भागीरथ कहा जाता है। गंगनहर के 1927 में रामनगर क्षेत्र में आने के के कारण इस क्षेत्र का नाम श्रीगंगानगर पड़ा । गंगनहर भारत की सबसे प्राचीनतम नहर परियोजना हैं। गंगासिंह ने मांड गायिका अल्लाह-जिल्लाई बाई को संरक्षण दिया। इन्हीं के काल में बीकानेर में डूंगर कॉलेज की स्थापना हुई ।  गंगासिंह ने 1931 ई. में रामदेवरा मे बाबा रामदेवजी के मंदिर का निर्माण करवाया। गंगासिह ने गोगामेडी को आधुनिक स्वरूप दिया तथा अग्नि नृत्य को संरक्षण दिया। महाराजा गंगासिंह ने अपने पिता लालसिंह की याद में लालगढ़ पैलेस का निर्माण करवाया । महाराजा गंगासिंह ने लालगढ़ पैलेस को एक ब्रिटिश द्वारा तैयार करवाया था । 1912 ई. मे गंगासिंह ने बीकानेर में गंगा निवास उद्यान का निर्माण करवाया जो वर्तमान में पब्लिक पार्क के नाम से जाना जाता है ।

 

छप्पनिया अकाल के समय राहतकरयों हेतु इनको ब्रिटिश सरकार ने केसर-ए-हिंद की उपाधि दी 31 मई , 1901 ई. को लंदन में सम्राट एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक में महाराजा स्वयं सम्मिलित हुए। महाराजा गंगासिंह को प्रिंस आफ वेल्स ने अपना ए.डी.सी. बनाया । महाराजा गंगासिंह चीन के 1901 ई. में हुए बॉक्सर विद्रोह को दबाने के लिए ऊंटों की सेना गंगा रिसाला लेकर चीन गये  महाराजा गंगासिंह ने सर अल्फ्रेड के साथ पिटांग के किले पर विजय प्राप्त की । महारानी ने 24 जुलाई, 1901 ई. को महाराजा गंगासिंह को के.सी.आई. की उपाधि तथा चीन में युद्ध मैडल से सम्मानित किया । 2 जनवरी,1903 ई. को ड्यूक आफ कनाट भारत आए, उनके सम्मान में आयोजित दिल्ली दरबार में गंगासिंह भी सम्मिलित हुए। जनवरी, 1903 ई. में महाराजा गंगासिंह ने गंगा रिसाला के सैनिक सोमाली लैंड ( अफ्रीका महाद्वीप ) में मुहम्मद बिन अब्दुल्ला हेब्र सुलेमान ओगडेन जाति के नेता) से युद्ध करने भेजे। 1900 ई. में गंगासिंह गंगा रिसाला के साथ चीन के बॉक्सर युद्ध में सम्मिलित हुए। गंगासिंह ने प्रथम विश्वयुद्ध में भाग लिया। 1914-1918 ई. के प्रथम विश्न युद्ध के ब्रिटिश इम्पीरियल वार केबिनेट के एकमात्र गैर अंग्रेज सदस्य महाराजा गंगासिंह थे। प्रथम विश्व युद्ध को जुलाई , 2014 में 100 वर्ष पूरे हो गये । 1919 ई. मे महाराजा गंगासिंह व एस पी. सिन्हा ने प्रथम विश्व युद्ध के बाद पेरिस शांति सम्मेलन (पहली युद्ध परिषद्  तथा बाद में वर्साय की संधि ) में भाग लिया । गंगासिंह ने लंदन से भारत लौटते समय रोम में एक नोट लिखा जो ‘रोम नोट’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। 1921 में भारतीय राजाओं को साम्राज्य का भागीदार बनाने के लिए नरेन्द्र मंडल की स्थापना की गई जिसमें गंगासिंह को प्रथम चांसलर बनाया गया तथा वे इस पद पर 1921 से 1925 तक रहे। गंगासिंह ने बटलर समिति से यह मांग की कि उनके संबंध भारतीय सरकार से न मानकर इंग्लैण्ड के साथ माने जाए। राजस्थान का एकमात्र राजा महाराजा गंगासिह था, जिसने 1930, 1931, 1932 के लंदन में हुए तीनों गोलमेल सम्मेलनों में भाग लिया। गंगासिह ने राष्ट्रसंघ के 5वें सत्र मे भारत का प्रतिनिधित्व किया। महाराजा गंगासिंह द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945 ई.) में गंगा रिसाला तथा लाइट इन्फेंट्री सेनाएं लेकर अंग्रेजों की सहायता करने के लिए यूरोप गए थे। अंग्रेजों ने डूंगरसिंह के समय की गई नमक संधि को रद्द करके गंगासिंह के साथ नई नमक संधि सम्पन्न की। महाराजा गंगासिंह के कार्यकाल में लगभग सभी वायसरायों ने बीकानेर में प्रवास किया । गंगासिंह ने महारानी विक्टोरिया की स्मृति में बीकानेर में विक्टोरिया मेमोरियल का निर्माण करवाया। 

 

शिक्षा प्रिय महाराजा ने डूंगर मेमोरियल कॉलेज, वॉल्टर नोबल्स हाई स्कूल, महाराणी नोबल्स गर्ल्स स्कूल, बिलिंग्डन टेक्निकल इंस्टिट्यूट अदि बनवाये। वहीं होनहार विद्यार्थियों को ये उच्च शिक्षा के लिए राज्य व्यय से छात्रवृत्ति देकर बाहर के विद्यालयों में भी भिजवाते। रोजगार व कलाकौशल की शिक्षा देने के लिए इन्होंने बिलिंग्डन टेक्निकल इंस्टिट्यूट बनाया। इनके समय राजधानी में एक बृहत् पुस्तकालय स्थापित हो गया, जिसमें पुस्तकों का उत्तम संग्रह है। इसके अतिरिक्त नागरी भंडार तथा अन्य स्वतन्त्र पुस्तकालयों से भी यहां के निवासियों को बड़ा लाभ पहुंचता है। बड़े-बड़े क़स्बों में भी पुस्तकालय खुल गये थे। इन्होंने क़िले की प्राचीन हस्त- लिखित पुस्तकों के संग्रह को ‘गङ्गा ओरिएंटल सीरीज़’ के नाम से राज्य के व्यय से प्रकाशित करने की आज्ञा प्रदान की, जिससे कई अप्राप्य, अमूल्य और महत्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाश में आये | तथा पुरातत्व सम्बन्धी सामग्री को सुरक्षित रखने के लिए राजधानी में म्यूज़ियम् की भी स्थापना की गई। चिकित्सा विभाग में भी पर्याप्त उन्नति की गई। वैज्ञानिक ढंग से चिकित्सा करने के लिए बीकानेर में विशाल अस्पताल (PBM हॉस्पिटल) बनया, जिसमें पुरुषों, स्त्रियों और बालकों की चिकित्सा के लिए भिन्न-भिन्न वार्ड हैं एवं चिकित्सा सुचारू रूप से होती। प्रायः सब बड़े-बड़े क़स्बों में अस्पतालों की स्थापना की गई और कई गांवों में आयुर्वेदिक औषधालय भी खोले। इन्होंने अपनी रजत और स्वर्ण जयन्तियों पर इस कार्य के लिए प्रचुर द्रव्य देकर अपनी उदारता का पूर्ण परिचय दिया।

 

लोकहितकारी कार्यों की ओर अधिक रुचि होने से इनके दीर्घ राज्यकाल में राजधानी बीकानेर के अतिरिक्त गांवों में भी बड़ी-बड़ी इमारतें बनी। बीकानेर नगर पहले तंग गलियों से परिपूरित था और बाज़ार में दूकानों आदि का कोई क्रम न था एवं स्वच्छता का अभाव था, वहां चौड़ी-चौड़ी सुन्दर सड़कें बनवादी गई तथा स्वच्छता का पूरा प्रबन्ध कर दिया गया। मकान आदि क्रमबद्ध और मार्ग चौड़े हो जाने से नगर की शोभा बढ़ गई। इनके समय में डूंगर मेमोरियल कॉलेज, वॉल्टर नोयल्स हाई स्कूल, महाराणी नोबल्स गर्ल्स स्कूल, बिलिंग्डन टेक्निकल इंस्टिट्यूट,  विजय हॉस्पिटल, इर्विन असेंबली हॉल, विक्टोरिया मेमोरियल, चांदकुंवरी अनाथाश्रम, किंग जॉर्ज अपाहिज- आश्रम, गंगा गोल्डन जुबिली म्यूज़ियम्, छापाखाना, पब्लिक लाइब्रेरी, विजय भवन और लालगढ़ के सुंदर महल आदि बने। इनके अतिरिक्त कई बड़े बड़े क़स्बों में बने हुए पाठशालाओं और अस्पतालों के भवन भी सुंदर हैं। गंगा सिल्वर जुबिली कोर्ट, रेल्वे ऑफ़िस भी बीकानेर की दर्शनीय वस्तुओं में हैं। महाराजा ने राजधानी में राजकुमारी चांदकुंवरबाई अनाथाश्रम, किंग जॉर्ज अपाहिज श्राश्रम आदि संस्थाएं स्थापित कर इन श्रेणियों के व्यक्तियों का बड़ा उपकार किया। प्रजा के आराम के लिए राजधानी में कई सुन्दर बाग लगे हैं, जिनमें गङ्गानिवास पब्लिक पार्क एवं श्रीरतनबिहारीजी, श्रीरसिकबिद्वारीजी तथा श्रीलक्ष्मीनारायणजी के मंदिरों के पार्क मुख्य हैं।

 

गंगनहर के आ जाने तथा जगह-जगह नये बांध बंध जाने से कृषि कर्म में वृद्धि हो गई। फलस्वरूप कई नवीन गांव बस गये। गंगनहर के समीप का इलाक़ा तो अच्छा आबाद हो गया। व्यापार की वृद्धि के लिए स्थान-स्थान पर बड़ी-बड़ी मंडियां बन गई। राज्य से समय-समय पर कर का दर निश्चित करने के लिए ब्रिटिश भारत से योग्य और अनुभवी व्यक्तियों को बुलाकर पैमाइश कराई। थोड़ी वर्षा के समय में लगान में माफ़ी होकर यथा समय काश्तकारों को सभी तकाबी भी बांटी जाती, जिससे उनको यही सुविधा हो जाती थी। बीकानेर राज्य के व्यापारी बड़े संपध थे। वे दूर-दूर तक जाकर व्यापार करते थे। रेल्वे का विस्तार हो जाने से राज्य में तिजारत की अधिक सुविधा हो गई। रेल, तार और डाक के महकमों का विस्तार होने से यात्रा एवं पत्रव्यवहार का कष्ट मिट गया। जहां रेलवे नहीं पहुंची वहां मोटरों या ऊंटों द्वारा यातायात होता, राजधानी में बीकानेर स्टेट बैंक’ स्थापित कर दिया गया, जिससे आवश्यकता के समय लोगों को कर्जा भी मिल जाता है। इनको अपने सामतों से बड़ा प्रेम था। उनकी उत्तम सेवाओं से प्रसन्न होकर इन्होंने कितने ही गांव उन्हें जागीर में प्रदान किये हैं। इन्होंने अच्छी सेवाओं के उपलक्ष्य में समय-समय पर कितने ही व्यक्तियों को नई जागीरें, उपाधियां ताजीम का उच्च सम्मान, तमगे, समद आदि देकर उनके उत्साह में वृद्धि की। राज्य के मुलाजिमों के लिए पेंशन तथा प्रॉविडेंट और ग्रेजुइटी आदि की व्यवस्था कर दी गई। कोई कर्मचारी यदि छोटी अवस्था में मर जाय तो अच्छी सेवा के उपलक्ष्य में ये उसके बाल बच्चों आदि की परवरिश का प्रवन्ध करते थे। 

 

 इनकी शासन-कुशलता व इनकी सुन्दर और व्यवस्थित कार्य शैली सर्वत्र प्रसिद्ध है। राजपूताना ही नहीं, प्रत्युत भारत के अधिकांश राज्यों में बीकानेर उन्नतिशील राज्य माना जाता था। 2 फरवरी, 1943 ई. को महाराजा गंगासिंह का देहांत हो गया। इनके चार पुत्र हुए   ….. 

  • कुंवर राम सिंहजी 
  • महाराजा श्री सादुल सिंह जी 
  • कुंवर बिजय सिंहजी 
  • कुंवर वीर सिंहजी

महाराजा शार्दुल सिंह (बीकानेर के 22 वें व अंतिम महाराजा 1943-1949 ई.)

महाराजा गंगासिंह के बाद शार्दुलसिंह बीकानेर के शासक बने। ये बीकानेर रियासत के अंतिम शासक थे। सार्दूल सिंह ने ‘नोता‘ ( विवाह निमंत्रण कर ) तथा ‘तख्तनशीनी की भाछ ‘ ( उत्तराधिकार कर ) समाप्त किया था । सार्दूल सिंह द्वितीय विश्वयुद्ध में बीकानेर की सेनाओं के निरीक्षण के लिए बर्मा व ईरान गये थे । महाराजा सार्दूलसिंह ने के. एम. पणीकर को बीकानेर राज्य के प्रतिनिधि के रूप में संविधान निर्मात्री सभा के लिए मनोनीत किया। 1947 ई. में केन्द्रीय संविधान सभा में शामिल होने वाला बीकानेर प्रथम राज्य था।  इन्होंने 7 अगस्त, 1947 को ‘इस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन हस्ताक्षर किए। एकीकरण विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने वाली प्रथम रियासत बीकानेर थी । इनके समय बीकानेर रियासत का 30 मार्च, 1949 को संयुक्त राजस्थान में विलय कर दिया गया। 

 

 
Karni Mata Mandir Deshnok
 

 

 

 
 
Vanshavali
 
Maharaja Ganga Singh

 

 

 

 

 

 

 
 
 
 
 

 

बीकानेर के शासक
बीकाजी से गंगासिंह तक ये 21 राजा हुए
बीको -नरो -लूणकरण, जैतो – कल्लो -राय !
दलपत-सूरो-कर्णसिंघ, अनूप-सरुप-सुजान !
जोरो – गज्जो – राजसिंघ , परतापो -सूरत !
रतनसिंघ-सरदारसिंघ, डूंगर-गंग महिपत ! 
(नोट- वेबसाईट का updation जारी है, अपने सुझाव व संशोधन whatsapp no. 9460000581 पर भेज सकते हैं)
घनश्यामसिंह राजवी चंगोई
 
 
 
 

भारत में राठौड़ों के राज्य

रियासतों के भारत संघ में विलीनीकरण से पूर्व सम्पूर्ण भारत मे राठौड़ों के राज्य ..

  • राजपुताना – जोधपुर, बीकानेर, कुशलगढ़, किशनगढ़ .
  • मालवा- रतलाम, सैलाना, अलीराजपुर, ईडर, झाबुआ, जोबेट, काछी बड़ोदा, मुलथान, व अमझेरा.
  • संयुक्त प्रान्त (उ प्र) – रायपुर (एटा), खिमशेपुर, विजयपुर, मांडा ढहिया. 
  • बिहार – खरसवां, सिंगभूमि .
  • उड़ीसा – बोनई, रेसखोल.
  • हिमाचल – जुब्बल, चम्बा.
  • हरियाणा – जहाजगढ़.
  • गुजरात - विजयनगर 
  • बुंदेला शाखा के राज्य- ओरछा, पन्ना, दतिया, चरावरी, अजयगढ ! 

 

मारवाड़ (जोधपुर) : (विस्तृत विवरण अलग से दिया गया है)

बीकानेर (राजपूताना) : राव जोधा के पुत्र राजकुमार बीका ने, पिता के आदेश से नवीन बीकानेर राज्य की स्थापना की। (विस्तृत विवरण अलग से दिया गया है)

मेड़ता (राजपूताना) : राव जोधा ने वरसिंह तथा दूदा को मेड़ता की जागीर दी किंतु बाद में वरसिंह ने दूदा को रायण भेज दिया। दूदा कुछ दिन रायण में रहा किंतु वहाँ से अपने बड़े भाई बीका के पास बीकानेर चला गया। जोधा के पुत्र सूजा के समय में वरसिंह की मृत्यु हो गई तथा वरसिंह का पुत्र सीहा मेड़ता का स्वामी हुआ। सीहा अयोग्य तथा मदिरा के नशे में धुत्त में रहता था। इसलिये राव दूदा ने बीकानेर से मेड़ता आकर सीहा को हटा दिया और स्वयं मेड़ता का स्वतंत्र शासक बन गया। राव मालदेव के समय में मेड़ता राज्य, जोधपुर राज्य में सम्मिलित हो गया। 

कुशलगढ़ (राजपूताना) : जोधा के पुत्र वरसिंह जिसे जोधा ने मेड़ता की जागीर पर नियुक्त किया था, उसके पौत्र रामसिंह केपुत्र अखैराज को 1671 में बांसवाड़ा में कुशलगढ़ की जागीर दी गयी। बाद में इसे स्वतंत्र घोषित कर दिया।   

किशनगढ़ (राजपूताना) : जोधा की आठवीं पीढ़ी के राजकुमार किशनसिंह, (जो कि मोटा राजा उदयसिंह का पुत्र था) ने 1609 में किशनगढ़ राज्य की स्थापना की। 

नागौर (राजपूताना) : राव जोधा के दसवीं पीढ़ी के राजकुमार राव अमरसिंह ने जोधपुर राज्य में से पृथक एवं स्वतंत्र नागौर राज्य की स्थापना की। महाराजा अजीतसिंह के समय में नागौर राज्य पुनः जोधपुर राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।

रूपनगढ़ (राजपूताना) : जोधा के वंशज सावंतसिंह के पुत्र राजकुमार सरदारसिंह ने किशनगढ़ राज्य में से अलग रूपनगढ़ राज्य की स्थापना की। बाद में बिड़दसिंह के समय यह राज्य पुनः किशनगढ़ राज्य में सम्मिलित हो गया।

झाबुआ (मालवा) : यह राज परिवार जोधपुर के महान राठौर वंश की एक शाखा है। जोधा के पुत्र वरसिंह जिसे जोधा ने मेड़ता की जागीर पर नियुक्त किया था, उसके पांचवीं पीढ़ी के वंशज भीमसिंह के पुत्र केशवदास ने 1548 में मालवा क्षेत्र में झाबुआ राज्य की स्थापना की।

अमझेरा (मालवा) : यह राज परिवार जोधपुर के महान राठौर वंश की एक शाखा है। जोधा के छठी पीढ़ी के राव राम, (जो कि राव मालदेव का पुत्र था) के पौत्र जसवंतसिंह के पुत्र जगन्नाथ ने मालवा क्षेत्र में अमझेरा का राज्य स्थापित किया। 1857 ई. में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अमझेरा के शासक बख्तावरसिंह ने क्रांतिकारी सैनिकों का साथ दिया। इसलिये अंग्रेजों द्वारा यह राज्य सिंधिया को दे दिया गया। 

रतलाम (मालवा) : यह राज परिवार जोधपुर के महान राठौर वंश की एक शाखा है। जोधपुर के राजा उदय सिंह के एक परपोते, अर्थात् जालोर के महेश दास के पुत्र राजा रतन सिंहजी ने 1652 में मालवा में रतलाम का राज्य स्थापित किया।

सीतामऊ (मालवा) : यह राज परिवार जोधपुर के महान राठौर वंश की एक शाखा है। रतलाम की शाखा के राजा केशोदास के रतलाम में अपने शासनकाल के दौरान, राज्य कर्मचारियों द्वारा रतलाम में एक महत्वपूर्ण मुगल अधिकारी की हत्या कर दी गई थी, परिणामस्वरूप मुगल सम्राट ने रतलाम को जब्त कर लिया। बाद में महाराजा केशव दास को 1701 में सीतामऊ जागीर में दिया गया।  

कच्छी-बड़ौदा (मालवा) : यह राज परिवार जोधपुर के महान राठौर वंश की एक शाखा है। रतलाम के महाराजा रतन सिंह राठौर के दूसरे पुत्र, राजा राय सिंह को उत्तर मालवा में पहले बदनवर परगना का क्षेत्र प्रदान किया गया था। बाद में 1818 में महाराज भगवती सिंह और धार के आनंद राव के बीच एक समझौता किया गया, जहां कच्छी-बड़ौदा अंग्रेजों के अधीन एक रियासत बन गया। 

मुलथान (मालवा) : यह राज परिवार जोधपुर के महान राठौर वंश की एक शाखा है। रतलाम के महाराजा रतन सिंह राठौर ने छोटे पुत्र, राजा सकतसिंह को दिया।मुगल साम्राज्य के पतन के साथ, मुल्तान स्वतंत्र हो गया, और अंग्रेजों के आगमन के समय, मुल्तान शासकों को राजा का ख़िताब मिला। 

सैलाना (मालवा) : सैलाना का राज परिवार जोधपुर के महान राठौर वंश की एक शाखा है। 1716 में रतलाम के राजा रतन सिंह के परपोते राजा जय सिंह को सैलाना की जागीर दी गयी। बाद में उन्होंने आसपास के और क्षेत्रों को जीत लिया और 1731 में खुद को एक स्वतंत्र शासक के रूप में स्थापित किया। सैलाना को बनाया गया था 1736 में सैलाना राज्य को ब्रिटिश राज के दौरान एक रियासत का दर्जा दिया गया। 

अलीराजपुर (मालवा) : अलीराजपुर के शासक जोधपुर के शाही परिवार के राठौर के होने का दावा करते हैं। राज्य 1818 में ब्रिटिश शासन के अधीन आ गया। 1947 में भारतीय स्वतंत्रता के बाद, अलीराजपुर भारत संघ में शामिल हो गया। अलीराजपुर के अंतिम शासक सुरेंद्र सिंह थे, जिन्होंने बाद में 1980 के दशक में स्पेन में भारत के राजदूत के रूप में कार्य किया 

जोबट (मालवा) : अली राजपुर के राणा गुगल देव के छोटे भाई राणा केसर देव ,जोबट के प्रथम राणा थे। 

ईडर : ईडर राज्य की स्थापना मूलतः सीहा के पुत्र सोनिंग ने की थी। जोधपुर नरेश अभयसिंह के समय में मुगल बादशाह ने ईडर का राज्य अभयसिंह को दे दिया। अभयसिंह के भाई आनंदसिंह ने अभयसिंह से असंतुष्ट होकर ईडर राज्य पर अधिकार कर लिया तथा ईडर राज्य की पुनर्स्थापना की। 

 

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घनश्यामसिंह राजवी चंगोई 

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राठौड़ वंश की बुन्देला शाखा

राठौड़ वंश की बुन्देला शाखा

राजपूत वंश में वीर बुंदेला का भी महत्वपूर्ण स्थान है। काशी के शासक माणिक राय गहड़वाल (राठौड़) के पांचवे पुत्र का नाम पंचम सिंह था। राज्य न मिलने के कारण वह मध्यप्रदेश में विंध्यवासिनी देवी के चरणों में आया। पंचम सिंह विंध्यवासिनी देवी का परम भक्त था, इसलिए विंध्यवासिनी देवी की स्मृति में इसके वंशज विंध्येय, विंध्येला या *बुंदेला* कहलाए।

 

पंचम सिंह ने मध्य प्रदेश में अपना राज जमाया। इसके पुत्र वीरभद्र ने अफगान सरदार तातार खाँ को पराजित कर महोबा को राजधानी बनाया। वीरभद्र के प्रपौत्र सोहनपाल ने गढ़कुण्डार को राजधानी बनाया। सोहनपाल की 9वी पीढ़ी में राजा रुद्र प्रताप हुए। इन्होंने विक्रम संवत 1587 में ओरछा बसाया व सुदृढ़ किला तथा राजमहल बनवाए। इसका शेरशाह सूरी से युद्ध हुआ। राजा रूद्र प्रताप के 3 पुत्र भारतीचंद मधुकर व उदयजीत थे।रूद्र प्रताप के बाद मधुकर ओरछा का राजा बना। इसके 8 पुत्र थे। पहला पुत्र राम शाह ओरछा का राजा बना दूसरा पुत्र इंद्रजीत संगीत का रसिक था। प्रसिद्ध कवि केशव इसका दरबारी था। तीसरे पुत्र रत्न सेन को अकबर ने गौड़ प्रदेश का राजा बनाया। चौथे पुत्र वीर सिंह देव ने सलीम के कहने पर अबुल फजल को मारा। इस पर सलीम ने बादशाह बनने पर राम शाह को हटाकर वीरसिंह देव को ओरछा का राजा बनाया। राजा वीर सिंह देव धर्म रक्षक पुरुष था इसने मथुरा में केशव मंदिर व ओरछा में चतुर्भुज मंदिर बनवाया।

 

वीरसिंह देव के चार पुत्र थे। पहला पुत्र जुझार सिंह शाही मनसबदार हुआ किंतु इसने शाहजहां से बगावत कर दी जिस पर गोड़ों ने इसे मार दिया। दूसरा पुत्र पहाड़ सिंह ओरछा का राजा बना। पहाड़ सिंह के बाद सुजान सिंह ओरछा का राजा बना सुजान सिंह की विक्रम संवत 1725 में मृत्यु होने पर उसके छोटे भाई इंद्रमन को ओरछा का राज मिला। इंद्रमन के वंशज पृथ्वी सिंह ने विक्रम संवत 1840 में राजधानी ओरछा की जगह टीकमगढ़ बनाई।।राजा वीर सिंह देव के तीसरे पुत्र भगवान दास के वंशज दतिया के स्वामी बने। राजा वीर सिंह देव के सबसे छोटे पुत्र *हरदोल* को आज भी लोक देवता के रूप में बुंदेलखंड में पूजा जाता है। राजा रूद्र प्रताप के तीसरे पुत्र उदय जीत के प्रपौत्र चंपत राय शाहजहां से गुरिल्ला युद्ध करते रहे। एक बार वह दारा के साथ काबुल युद्ध में भी गए। उन्होंने औरंगजेब से संधि कर ली।

 

इस्वी सन् 1664 में चंपत राय की मृत्यु होने पर उनका पुत्र इतिहास प्रसिद्ध वीर छत्रसाल बुंदेला  उनका  उत्तराधिकारी हुआ। छत्रसाल हमेशा मुगलों के विरुद्ध लड़ता रहा। सन् 1659 ईसवी में छत्रपति शिवाजी से छत्रसाल का मिलन हुआ। छत्रसाल ने सन् 1671 में गढ़ाकोटा जीता व औरंगजेब के सेनापति तव्वाहर खाँ को हराया। यमुना व चंबल के बीच के क्षेत्र में छत्रसाल की दुंदुभी बजने लगी।

*इत जमुना उत नर्मदा , इत चंबल उत तोंस।* 
*छत्रसाल सो लरन की , रही ना काहू होंस।।*

सन् 1707 में बादशाह ने छत्रसाल को स्वतंत्र शासक मान लिया। छत्रसाल के 52 पुत्र थे चार रानियों से व 48 दासियों से। रानियों से उत्पन्न पुत्र ह्रदय शाह को पन्ना का वह जगत राज को जैतपुर का राज्य मिला। छत्रसाल एक वीर योद्धा के साथ कुशल राजनीतिज्ञ व सच्चे क्षत्रिय थे। बुंदेले अंग्रेजी काल में भी लड़ते रहे। जगत राज के पुत्र परीक्षित देव को अंग्रेजों ने सन् 1842 में फांसी दी। सन् 1857 में भी बुंदेल नरेशों ने डटकर अंग्रेजी सत्ता का मुकाबला किया। इस प्रकार वीर बुंदेले अपने धर्म व मातृभूमि की रक्षार्थ लड़ते रहे। उनका क्षेत्र आज भी मध्य प्रदेश में बुंदेलखंड कहलाता है।

 

*बुंदेला की उप शाखाएँ*- जिगनिया, मोहनिया, दतेले, घुंदेल, डोंगरा, नराटा, विजयरात, जेता, जेतवार, सरनिया, कर्मवार आदि।

  • बुंदेला शाखा के राज्य-  ओरछा, पन्ना, दतिया, चरावरी, अजयगढ !

 

(संकलन - घनश्यामसिंह चंगोई)

WhatsApp no. 9460000581


मेनू
चंगोई गढ़

चंगोई गढ़