प्रतिहार (पड़िहार) वंश

प्रतिहार (पड़िहार) राजवंश : उत्पत्ति एवं परिचय 

 

प्रतिहार (पड़िहार) राजवंश : उत्पत्ति एवं परिचय  

  (By - घनश्यामसिंह चंगोई)

 

प्रतिहार 36 क्षत्रिय राजवंशों में से एक वंश है। प्रतिहार, परिहार या पड़िहार अग्निवंशी क्षत्रिय है। ये सूर्यवंशी श्री राम के अनुज श्री लक्ष्मण जी के वंशज कहे जाते हैं। लक्ष्मण के पुत्र अंगद, जो करपथ (राजस्थान और पंजाब) के शासक थे, उनके राजवंशज की 126 वीं पीढ़ी में राजपूत राजा हरिचंद्र प्रतिहार का उल्लेख है (590 AD) वज्रभट सत्यश्रय या हरिचंद्र प्रतिहार कुल के पूर्वज है। इन्हें अग्निकुल का भी कहा जाता हैं, क्योंकि परिहारों की उत्पत्ति राजस्थान प्रदेश के अरावली पर्वतमाला के सर्वोच्च शिखर पर स्थित माउंट आबू में एक हवन कुंड से होने के ऐतिहासिक उद्धरण भी मौजूद हैं। कुछ इतिहास में समुपलब्ध साक्ष्यों तथा भविष्यपुरांण में समुपवर्णित विवेचन कर सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय बनारस के विद्वानों के द्वारा बतौर प्रमाण यजुर्वेदसंहिता, कौटिल्यार्थ शास्त्र, श्रीमद्भग्वद्गीता, मनुस्मृति, ऋकसंहिता पाणिनीय अष्टाध्यायी, याज्ञवल्क्य स्मृति, महाभारत, क्षत्रिय वंशावली  इत्यादि में भी परिहार एवं विन्ध्य क्षेत्रीय वरगाही उपाधि धारी परिहारों का वर्णन मिलता है। यह वंश मध्यकाल के दौरान मध्य-उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से में राज्य करने वाला राजवंश था, जिसकी स्थापना नागभट्ट प्रतिहार ने 725 ई० में की थी। इनके पुत्र वत्सराज ने कन्नौज के शासक इन्द्रायुध को परास्त कर कन्नौज पर अधिकार कर इसे आगे बढ़ाया। इसलिए वत्सराज को 'रणहस्तिन्' कहा गया है। पूर्व मध्यकाल में इस वंश का राज्य मण्डोर व भीनमाल (मारवाड़ में) तथा कन्नौज में काफी समय तक रहा है। मण्डोर के प्रतिहार राजाओं में नरभट्ट, शिलुक, कक्कुक, नाहरराव वहीं भीनमाल के नागभट्ट व वत्सराज तथा कन्नौज के मिहिरभोज व महेन्द्रपाल प्रतापी राजा हुये हैं। कन्नोज के मिहिरभोज का साम्राज्य दक्षिण में नर्मदा नदी, पश्चिम में सतलज नदी और पूर्व में बंगाल तक फैला हुआ था।

इस राजवंश के लोग स्वयं को श्री राम के अनुज श्री लक्ष्मण के वंशज मानते हैं, जिसने अपने भाई राम को एक विशेष अवसर पर प्रतिहार की भाँति सेवा की। प्रतिहार राजवंश की उत्पत्ति, प्राचीन कालीन ग्वालियर प्रशस्ति अभिलेख से ज्ञात होती है। अपने स्वर्णकाल में इनका साम्राज्य पश्चिम में सतलुज नदी से उत्तर में हिमालय की तराई और पुर्व में बंगाल-असम से दक्षिण में सौराष्ट्र और नर्मदा नदी तक फैला हुआ था। सम्राट मिहिर भोज महान इस राजवंश के सबसे प्रतापी और महान राजा थे। अरब लेखक उनके काल को सम्पन्न काल बताते हैं। इतिहासकारों का मानना है कि इस राजवंश ने भारत को अरब हमलों से लगभग 300 वर्षों तक बचाये रखा था। वर्तमान में इस राजवंंश के मूलतः ठिकाने जालोर जिले में है परिहार और प्रतिहारो को एक ही माना जाता है। इनका मूलतः सबसे बड़ा गांव छायन हैं जो जैसलमेर जिले में है। पहले इनका राज मंडोर में भी था। नागभट्ट, नागभट्ट-II और मिहिर भोज जैसे महान शासक गुर्जर-प्रतिहार राजवंश से संबंधित है। परिहार वंश के लोग बाद के काल में अन्य राजवंशों में सलाहकार के रूप में भी रहे। 

 

रघुवंशी प्रतिहार

राजा रघु के वंशज (क्योंकि श्रीराम और लक्ष्मण जी दोनों रघु के वंशज थे) होने के कारण ही इन्होंने रघुवंशी पदवी धारण की। रघुवंशी प्रतिहारों (पड़िहारों) ने चावड़ों से प्राचीन गुर्जर देश छीन लिया। उनकी राजधानी भीनमाल थी। उनकी उत्पत्ति के विषय में ग्वालियर से मिली हुई प्रतिहार राजा भोज (प्रथम) के समय की प्रशस्ति में लिखा है- “सूर्य वंश में मनु, इक्ष्वाकु, ककुत्स्थ आदि राजा हुए। उनके वंश में रावण को मारनवाले राम हुए, जिनका प्रतिहार उनका छोटा भाई लक्ष्मण था। उसके वंश में नागभट हुआ।” आगे चलकर उसी प्रशस्ति में वत्सराज को इक्ष्वाकु वंश की उन्नति करनेवाला कहा है। रघुवंशी प्रतिहारों ने प्रथम चावड़ों से भीनमाल का राज्य छीना, फिर कन्नौज के महाराज्य को अपने हस्तंगत कर वहीं अपनी राजधानी स्थापित की, जिससे उनको कन्नौज के प्रतिहार भी कहते हैं। उनकी नामावली तथा संक्षिप्त वृत्तान्त आगे  लिखा जाता है।

 

गुर्जर-प्रतिहार :

गुर्जर-प्रतिहार राजवंश की उत्पत्ति इतिहासकारों के बीच बहस का विषय है। इस राजवंश के शासकों ने स्वयं अपने लिए "प्रतिहार" शब्द का उपयोग किया जो उनके द्वारा स्वयं चुना हुआ पदनाम अथवा उपनाम था। इनका दावा है कि ये रामायण के सहनायक और राम के भाई लक्ष्मण के वंशज हैं, लक्ष्मण ने एक प्रतिहारी अर्थात द्वार रक्षक की तरह राम की सेवा की, जिससे इस वंश का नाम "प्रतिहार" पड़ा। कुछ आधुनिक इतिहासकार यह व्याख्या प्रस्तुत करते हैं कि ये राष्ट्रकूटों के यहाँ सेना में रक्षक (प्रतिहार) थे जिससे यह शब्द निकला।

इस साम्राज्य के कई पड़ोसी राज्यों द्वारा अभिलेखों में उन्हें "गुर्जर" के रूप में वर्णित किया गया है। केवल एक मात्र अभिलेख एक सामंत मथनदेव का मिलता है जिसमें उसने स्वयं को "गुर्जर-प्रतिहार" के नाम से अभिहित किया है। का मानना है कि "गुर्जर" एक क्षेत्र का नाम था, जो मूल रूप से प्रतिहारों द्वारा ही शासित था और बाद में यह शब्द इस क्षेत्र के लोगों के लिए भी प्रयोग में आ गया। 

 

 प्रतिहार/परिहार वंश की वर्तमान स्थिति

भले ही यह विशाल प्रतिहार राजपूत साम्राज्य 15 वीं शताब्दी के बाद छोटे छोटे राज्यों में सिमट कर बिखर हो गया हो, लेकिन इस वंश के वंशज राजपूत आज भी इसी साम्राज्य की परिधि में मिलते हैँ। आजादी के पहले भारत मे प्रतिहार राजपूतों के कई राज्य थे। जहां आज भी ये अच्छी संख्या में है --

राजस्थान--  जालौर, मण्डौर, माउंट आबू, पाली, बेलासर (बीकानेर), चुरु, बाड़मेर !

उतर प्रदेश-- कन्नौज, हमीरपुर  प्रतापगढ, झगरपुर, उरई, जालौन, इटावा, झांसी, कानपुर, उन्नाव ! 

मध्य प्रदेश-- उज्जैन, चंदेरी, ग्वालियर, जिगनी, अलीपुरा, नागौद, उचेहरा, दमोह, सिंगोरगढ़ !

गुजरात-- पोरबंदर, एकलबारा, मियागाम, कर्जन, काठियावाड़, उमेटा,  दुधरेज ! 

हिमाचल प्रदेश-- खनेती, कुमहारसेन !

जम्मू कश्मीर-- जम्मू आदि

 

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प्रतिहार वंश के गोत्र-प्रवर (वंशचिन्ह)

प्रतिहार वंश के गोत्र-प्रवर (वंशचिन्ह)

वंश – सूर्य वंश

गोत्र – कपिल

वेद – यजुर्वेद

शाखा – वाजस्नेयी

प्रवर – कश्यप, अप्सार, नैधुव

उपवेद – धनुर्वेद

कुल देवी – चामुंडा माता

वर देवी – गाजन माता

कुल देव – विष्णु भगवान

सूत्र – पारासर

शिखा – दाहिनी

कुलगुरु – वशिष्ट

निकास – उत्तर

प्रमुख गादी – भीनमाल, मंडोर, कन्नोज

ध्वज – लाल (सूर्य चिन्ह युक्त)

वॄक्ष – सिरस

पितर – नाहङराव, लूलर गोपालजी

नदी – सरस्वती

तीर्थ – पुष्कर राज

मन्त्र – गायत्री जाप

पक्षी – गरुड़

नगारा – रणजीत

चारण – लालस

ढोली – सोनेलिया लाखणिया 

विरद – गुजरेश्वर, राणा 

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प्रतिहार/ पड़िहार वंश की शाखाएं : 

प्रतिहार/ पड़िहार वंश की शाखाएं : 

(संकलन- घनश्यामसिंह चंगोई)

 

मंडोर के प्रतिहारों की शाखाएं --

  • इंदा पड़िहार 
  • लूलावत पड़िहार 
  • रामावत (रामोटा) पड़िहार 
  • नादावत (नादौता)परिहार 
  • सुरावत पड़िहार 
  • सोंधिया पड़िहार 

भीनमाल के नाग भट्ट प्रथम के वंश की शाखाएं --

  • देवल प्रतिहार 
  • डाबी प्रतिहार
  • जाम प्रतिहार
  • जेठवा प्रतिहार

कन्नौज के वत्सरज प्रतिहार के वंश की शाखाएं --

  • ग्वालियर-नरवर के प्रतिहार 
  • चम्बल के प्रतिहार 
  • मल्ह जनी प्रतिहार
  • चौबिसी के प्रतिहार 
  • ओरई और उन्नाव के प्रतिहार 
  • अलीपुरा-छतरपुर के परिहार 
  • मालवा-चंदेरी के प्रतिहार 

गुर्जर प्रतिहार शाखाएँ-- 

  • बड़गुजर शाखा 
  • मढाड प्रतिहार 
  • सिकरवार प्रतिहार 

उत्तर भारत के प्रतिहार-- 

  • खरल प्रतिहार 
  • ताखी प्रतिहार

अवध पूर्वांचल के प्रतिहार (कल्हणपाल प्रतिहार के वंशज) 

  • कल्हण के प्रतिहार 
  • नरौनी के प्रतिहार

 

मंडोर के प्रतिहारों की शाखाएं 

इंदा पड़िहार : (इंदासिंह प्रतिहार के वंशज) 'वंशभास्कर' में दी हुई पड़िहारों की वंशावली में प्रसिद्ध नाहड़रा ( नागभट ) का प्रतिहार से 171 वीं पीढ़ी में होना बतलाया है। नाहराव से छठी पीढ़ी में श्रमायक हुआ, जिसके 12 पुत्रों से 12 शाखाओं का चलना माना है। उनमें से सोधक नाम के एक पुत्र का बेटा इंदा हुआ, जिससे प्रसिद्ध इँदा नाम की शाखा चली। इस शाखा के पड़िहारों की ज़मींदारी रैदावाटी जोधपुर से 15 कोस. पश्चिम में है। मंडोर का गढ़ ईदा शाखा के पड़िहारों ने पड़िहार राणा हमीर से, जो दुराचारी था, तंग आकर राव वीरम के पुत्रां राठोड़ चूंडा को वि० सं० 1451 में दहेज में दिया। 13 वीं शताब्दी में मंडोर के इन्दा प्रतिहार मांडू के सूबेदार के अधीन थे। उन्हें लगा कि वे लंबे समय तक मंडोर पर कब्जा करने में सक्षम नहीं होंगे, उन्होंने राव चुंडाजी राठौर को अपनी राजकुमारी थी व उन्हें मंडोर सौंप दिया। बदले में, इंदा ने मंडोर से संन्यास ले लिया और पोखरण और मंडोर के पश्चिम में 84 गाँव ले लिए। 

 

इंदावटी के 84 गाँवों में से जो ज्यादातर जोधपुर के बालेसर और शेरगढ़ तहसील में हैं।  27 गाँवों में इंदा राजपूतों की प्रमुख उपस्थिति है। राव चंद्रसेन राठौड़ के पास कई वफादार प्रमुख थे जैसे कि बानकर इंदा, बन्धेर इंदा और वरजंगोत इंदा। औरंगजेब के साथ संघर्ष के दौरान, दुर्गादास राठौर के साथियों में कई इन्दा राजपूत थे जसे की: भोज सिंह इंदा और जयसिंह इंदा। रामचंद्र इंदा ने सभी इंदा राजपूतो को संगठित करने के बाद मुगल सूबेदार यूसुफ खान पर हमला किया और उसे मार डाला, जिसके बाद उन्होंने दुगार ठीकाना प्राप्त किया (बालेसर तहसील, जोधपुर) . कोलायत तहसील में एक इंदो का गांव है जिसको इंदो का बाला कहते हैं। 

 

लूलावत पड़िहार : (लूलाजी परिहार के वंशज) यह प्रतिहारों की सबसे वरिष्ठ शाखा है। मूल रूप से वे मंडोर में रहते थे लेकिन बाद में लुलवात राजपूतों ने मंडोर को छोड़ दिया और छायान गांव (पोखरण तहसील, जैसलमेर), को अपना राजधानी बना दिया। लूलावत बेलाजी परिहार और उनके भाई ने राव बीकाजी राठौड़ की सहायता की इसीलिए उन्हें उपहार में बीकानेर मे कुछ जागीरे मिली। बेला परिहार द्वारा बेलासर (बीकानेर) की स्थापना की गई। राजस्थान में पड़िहारो के काफी संख्या में गांव है जो कि मूल रूप से लुलावत ही है परंतु समय के साथ-साथ अपने पूर्वजों के नाम से उप शाखाओं में में विभक्त होते गए संघन घनत्व की दृष्टि से अवलोकन किया जाए तो रतनसिंघोत लुलावतो की तादाद सबसे ज्यादा हैं। 

 

बीकानेर तहसील का बेलासर गांव पूरे राजस्थान में इनका सबसे बड़ा गांव है तथा द्वितीय श्रेणी पर पोकरण तहसील का गांव छायण आता है इन दो गांवों के अतिरिक्त इस गोत्र के पड़िहार बीकानेर, रतनगढ़, हुडेरा, सूरतगढ़, नोहर, दून्कर, गोपालसर, धीऀगधाणिया, जाजीवाल, बावरला, जालेली, घुड़ला, व कोलार (पंजाब) आदि गांवों में आबाद है। उपरोक्त गांवों के अलावा राजस्थान के बहुत से दूसरे गांवों में लुलावत पड़िहारो की अन्य उपशाखाएं भी आबाद हैं जैसे कि – उदासर (बीकानेर), दुलचासर, सूरतसिंहपुरा, सुरधना पड़िहारान, मेहरासर, खारड़ा, नापासर, नांदड़ा, अमरपुरा भाटियान, इत्यादि एवं डूंगरगढ, सरदारशहर, नोखा, नागौर, ओसिया, शेरगढ़ तहसीलो के कुछ गांवों में भी आबाद है। उपरोक्त कुछ गांवों में उदयसिंघोत और कुछ गांवों में नादावत पड़िहार भी आबाद है तथा मूल रूप से अवलोकन किया जाए तो यह सभी लुलावत पड़िहारो से ही निकली हुई उपशाखाएं हैं। लुलावत शाखा के अन्य गांव खारा बीकानेर हुसनसर बीकानेर रजपूरिया व सानई जोधपुर, खाखूरी (फलोदी जोधपुर) हरियाढाणा, रणसी गांव, खि़रजाँ भोजा, अजबार, बेलवा, नवतला, खुडियाला, बस्तवा, भालू राजवा खियासरिया, बांकियावास कल्लां, बोङाना, नोख, खाखूसरी आदि। 

 

रामावत (रामोटा) पड़िहार : (रामजी प्रतिहार के वंशज) रामावत मुख्य रूप से बीकानेर पंच-पीर में पाए जाते हैं। किसी समय पूंगलगढ़ में तांबल नामक रामटा पडिहार का शासन था। रामदेवजी तंवर की बहन की शादी पुगल (बीकानेर) के रामावतों में हुई थी। रामावत राजपूतों के बाद पुगल मुख्य रूप से भाटी राजपूतों के हाथ में चला गया। नान्दड़ी, नान्दड़ा कलाँ खूर्द, कुथड़ी, डिगाड़ी, जालेली, हिरादेसर आदि (जोधपुर), गुढ़ा बीकानेर इन गांवो में सीमित संख्या में ही आबाद है। 

 

नादावत परिहार : नादाजी परिहार लूलाजी के वंशज है। नादाजी परिहार, राव चुंडाजी के समकालीन थे। नादवत राजपूत झालार (जयली तहसील, नागौर) और मलगाँव (नागौर तहसील, नागौर) में पाए जाते है। 

 

सोंधिया पड़िहार : (लुलाजी के पुत्र दीपसिंह के पुत्र सोंध के वंशज) दीपसिंह ने सिंध नदी के तट पर शत्रु को परास्त करके विजय हासिल की थी अत: इनके वंशज सोंधिया प्रतिहार कहलाए। जिन्होंने झालावाड़ की पिङावा तहसील और मंदसौर के निकटवर्ती भागों को कवर करते हुए सोंधवाड की स्थापना की। वर्तमान में इनके वंशज मध्यप्रदेश के ग्वालियर क्षेत्र तथा झालावाड़ के क्षेत्र में आबाद है। 

 

चौनिया प्रतिहार: यह राजस्थान के फलोदी में है। 

सुरावत पड़िहार : सुर सिंह परिहार के वंशज

 

भीनमाल के नागभट्ट प्रथम के वंशज से शाखाएं 

देवल प्रतिहार: (नागभट्ट प्रथम के वंशज) राजा मानसिंह प्रतिहार के पुत्र, देवलसिंह प्रतिहार,आबू के राजा महिपाल परमार (1000-1014 ईस्वी) के समकालीन थे। राजा देवलसिंह ने अपने देश को मुक्त करने के लिए या भीनमाल पर प्रतिहार पकड़ को फिर से स्थापित करने के लिए कई प्रयास किए लेकिन व्यर्थ। अंत में उन्होंने भीनमाल के दक्षिण पश्चिम में चार पहाड़ियों - डोडासा, नदवाना, काला-पहाड और सुंधा माता पहाड़ के बीच में बसे क्षेत्र को अपनी आसरा बना लिया। उन्होंने लोहियाना (वर्तमान जसवंतपुरा) को अपनी राजधानी बनाया। इसलिए यह उपनगर उनके वंशजों, देवल राजपूतों  की भी राजधानी बन गई। धीरे-धीरे देवल राजपूतों के जागीर में आधुनिक जालोर जिले और उसके आसपास के 52 गाँव शामिल हो गए। देवल राजपूतों ने जालोर के चौहान राजपूत कान्हाददेव के अलाउद्दीन खिलजी के प्रतिरोध में भाग लिया था। यह वंश अभी राजस्थान के जालौर जिले में आबाद है। जालौर के शासित सोनगरा चौहान राजपूतों और देवल राजपूतों के संबंध बहुत अच्छे थे, दोनों वंशो ने मिलकर जालौर में मौजूद सुंधा माता मंदिर की स्थापना की थी जसवंतपुरा के ठाकुर धवलसिंह देवल ने महाराणा प्रताप को जनशक्ति की आपूर्ति की और उनकी बेटी से विवाह किया बदले में महाराणा ने उन्हें "राणा" की उपाधि दी जो आज तक उनके वंशजों के साथ है। 

 

इनमे  4 उप-शाखाएँ हैं : मनावत देवल, धरावत देवल, लखावत देवल और वाघावत देवल। इस शाखा में अनेक सूरमा हुवे जिनमें कुंवर नरपाललदेव देवल का नाम विशेष उल्लेखनीय है। जिसका वीरतापूर्वक युद्ध करते हुवे सिर कट गया था। सिर कटने के बाद भी वह युद्धरत रहा तथा शत्रु सेना का भारी विनाश करके हाहाकार मचा दिया। इसी शाखा के ठाकुर रायधवल ने अपनी पुत्री का विवाह मेवाड़ के राणा प्रताप सिंह के साथ किया था । जालौर क्षेत्र के जसवंतपुरा, रानीवाडा पहाडपुरा मुख्य ठिकाने है इन क्षेत्रों में काफी अच्छी संख्या में देवल प्रतिहार है एवं रानीवाडा विधानसभा से वर्तमान विधायक नारायणसिंह देवल है। 

 

डाबी प्रतिहार: (अबू के नागभट्ट प्रथम के वंशज डाबसिंह प्रतिहार के वंशज) डाभी राजपूतों ने आबू क्षेत्र में परमारों के हाथों अपनी सत्ता खो दी। 13 वीं शताब्दी में, राव सिहाजी राठौर और राव आस्थान राठौर ने खेड़ (बालोतरा तहसील, बाड़मेर) के डाबियों की मदद ली, खेड़ के गोहिलों को हराने के लिए और बाद में डाभियों को खेड से भी हटा दिया गया।  डाबियो का गुडा (तेह खमनोर, राजसमंद जिला) भी इस प्रतिहार खाप के नाम पर रखा गया है और अपने प्रारंभिक इतिहास में उनकी उपस्थिति पर संकेत देता है। वर्तमान में, डाभी राजपूत साबरकांठा और गोडवाड़ में पाए जाते हैं। महेसाना के निकट डंगरवा राज्य और पिंडवाड़ा (तहसील, सिरोही) में पिंडवाड़ा जागीर आजादी तक डाबी प्रतिहारों की थी। 

 

जाम प्रतिहार: (नागभट्ट प्रथम के वंशज) सिंध मे बसने के कारण ही ये सिंध परिहार भी कहलाते है। जैसलमेर के यदुवंशी भाटी क्षत्रियों ने इन्हे जाम की पदवी से विभूषित किया था। वर्तमान में ये राजस्थान मे कहीं-कहीं तथा सिंध (पाकिस्तान) और जूनागढ (गुजरात) आदि स्थानों पर निवास करते है। 

 

बारी शाखा के प्रतिहार: (नागभट्ट प्रथम के वंशज) बारी शाखा, प्रतिहारो की शाखा है, वे 17 वीं शताब्दी में मेवाड़ मैं बस गए और उसके बाद से गुजरात में। वे अभी सौराष्ट्र और सुरेंद्रनगर जिले में उपस्थित (पडियार के रूप में) है। उनमें से कई संभवतः गुजरात में राजपूतों की उपजाति कराड़िया राजपूत बन गए। 

 

जेठवा प्रतिहार : यह वंश मूल रूप से कश्मीर का है। तथा वहा से सिंध होते हुए काठियावाड़ (सौराष्ट्र) पहुंचकर अपना राज्य स्थापित किया। यह क्षेत्र जेठवाड़ भी कहलाता है। इसकी राजधानी धुमली थी जिसका दूसरा नाम भूतांबिका था। इसलिए यहां के निवासी भुतहा प्रतिहार भी कहलाते है।जेठवा शासकों ने सौराष्ट्र में श्रीनगर ग्राम बसाया। तथा सूर्य का मंदिर बनवाया। जेठवा शासक राणा सुल्तान जी ने ई. स सन 1671 से 1699 में पोरबंदर में किले का निर्माण करवाया। भारत के स्वतंत्र होकर देशी राज्यो के विलनिकरण तक पोरबंदर पर जेठवा प्रतिहारो का शासन रहा। आज भी इस क्षेत्र मे पांच हजार से उपर जेठवा परिहार राजपूत निवास कर रहे है।

 

कन्नौज के वत्सरज प्रतिहार के वंश से शाखाएँ 

ग्वालियर-नरवर के प्रतिहार : ग्वालियर के परिहार वंश की स्थापना परमल देव ने 1129 CE में की थी। ग्वालियर पर परिहार शासन रामदेव के 1150 शिलालेख और लोहांगा-देवता के 1194 शिलालेख से भी जुड़ा हुआ है। हालाँकि, अजयपाल कछवाहा  के शिलालेख (1192 और 1194), इस तथ्य के साथ ये इशारा करते की प्रतिहार राजपूत शासक या तो संयुक्त रूप से कछवाहों के साथ शासन करते थे या फिर कछवाहों के जागीरदार थे। ताजुल-मासीर ने सुझाव दिया है कि घुरिद सामान्य कुतुब अल-दीन ऐबक ने 1196 में ग्वालियर पर आक्रमण किया था, और राजा सुलक्षण परिहार की मृत्यु हो गई। बाद के वर्षों में आक्रमणकारियों ने किले पर अधिकार कर लिया। अंतिम शासक राजा सारंगदेव परिहार ने 1232 ईस्वी में ग्वालियर से मऊ सहनिया गाँव (नौगोंग तहसील, छतरपुर जिला) के लिए प्रस्थान किया उनके भाई राघवदेव परिहार रामगढ़ चले गए जबकि एक़ अन्य भाई रामदेव परिहार आधुनिक इटावा के क्षेत्र में चले गए। ग्वालियर के परिहार वंश के 7 शासक इस प्रकार हैं: परमलदेव, रामदेव, हमीरदेव, कुवेर्देव, रतनदेव, लोहंगदेव और सारंगदेव। कुर्था शिलालेख (1221 सीई) में प्रतिहार परिवार और नटुला प्रतिहार नाम के राजा का जन्म हुआ है। नटुला के पुत्र प्रतापसिम्हा, जिन्हें नृप या राजा कहा जाता है, का एक पुत्र विग्रह परिहार था, जिसका विवाह नाडोल के राव केलाना चौहान की बेटी अलहन्देवी से हुआ था। विग्रह का काल (1205) ईसवी माना जाता है। विग्रह लोहांगदेव या उनके भाई हो सकते हैं, प्रतापसिंह रतनदेव और नटुला कुवेर्देव के समान हैं। वर्तमान में, ग्वालियर में परिहार राजपूतों के 25 गाँव हैं। 

 

वर्तमान में भी ग्वालियर के आसपास कई गांवो में प्रतिहारो का निवास है। सन 1258 ई. मे बलबन बहुत शक्तिशाली हो गया था। उसने बडी सेना लेकर ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया उस समयतक चाहडदेव स्वर्गवासी हो चुका था। उसका नाती ” गणपति याजपल्ल ” दुर्ग का अधिपति था। इसमें इतनी क्षमता नही थी की कुछ हजार सैनिकों के बल पर वह दिल्ली की सेना का सामना कर सके। अस्तु वह रात में ही परिवार सहित बिहार चला गया। जहां इनके वंशजो ने परिहारपुर ग्राम बसाया और आज भी हजारो की संख्या में आबाद है। और बाकी कुछ प्रतिहार दल झगरपुर , वीसडीह , मैनीयर उत्तर सुरिजपुर , सुखपुरा, हरपुरा आदि ग्रामों मे आबाद है। चाहडदेव ने अपने राज्य का विस्तार चंदेरी तक कर लिया था। इस तरह कभी सत्ता मे तो कभी सत्ताहीन होकर ग्वालियर मे परिहारो का आवास रहा है और लगभग 150 वर्षो तक संघर्षरत शासन किया। और आज भी ग्वालियर अंचल मे लगभग 25 से उपर गांव है प्रतिहारो के जो आवासित है।सारंगदेव प्रतिहार13 वीं शताब्दी तक ग्वालियर से परिहार वंश का पतन हो गया और बचे कुचे परिहार अलग अलग जगह बस गये। जिसमे सारंगदेव ग्वालियर को छोडकर मऊसहानियां आ गये। एवं इनके अन्य भाई राघवदेव परिहार रामगढ जिगनी चले गये, रामदेव परिहार औरैया गये एवं छोटे भाई गंगरदेव परिहार डुमराई में जा बसे जहां आज भी इनके वंशज लगभग 30 गांवो से उपर आबाद है। 

 

चम्बल के प्रतिहार - ग्वालियर के अंतिम शासक, राजा सरनदेव प्रतिहार ने अपने छोटे भाई रामदेव परिहार को 13 वीं शताब्दी में सिंधौस (चकरनगर, इटावा) का इलाका दिया। .इस पथ को परिहार  के नाम से जाना जाता था और इसमें 16 गाँव शामिल थे, जिनमें से 12 गाँव परिहार राजपूतों के थे और 4 कछवाहा राजपूतों के थे।साईंदौस परिहार की राजधानी थी। रामदेव के 3 बेटे थे, जिनके वंशज आज इन 14 गांवों में निवास करते हैं, जो हैं: गढ़िया पिपरौली, कुंवरपुर, विंदवा। 

मल्हजनी प्रतिहार- ग्वालियर के राजा सारंगदेव परिहार के छोटे बेटे जालिम सिंह परिहार 13 वीं शताब्दी में ग्वालियर से सरसेह (जिला हमीरपुर) चले गए। उनके कुछ वंशज सिद्धपुर (जिला जालौन) चले गए। महीपालसिंह परिहार अपने भाइयों के साथ इटावा जिले में चले गए और मल्हजनी (जसवंतनगर), के राजा बन गए। इटावा) भदौरिया चौहान शासकों से 8 गाँवों की जागीर में लिए।  ये शाखाएँ चंबल के धौलपुर हिस्से तक भी पश्चिम में चली गईं। वर्तमान में इनके वंशजो के आठ गांव जिला इटावा और तीन गांव जिला रायबरेली में है। 

 

चौबिसी के प्रतिहार : बुंदेलखंड अंचल के रामगढ़ जिगनी आदि बारह गांवो में आबाद तथा इसी अंचल के मंगरोठ, मझगवां, लिधोरा, घगवा,अटोलया, गुढ़ा चिकासी आदि में तथा प्रतिहारों के प्रसिद्ध दुर्ग रामगढ़ पर बुंदेलों के अधिकार हो जाने से तथा महासिंह के बडे पुत्र तो ग्वालियर की गद्दी पर थे तथा छोटे दो पुत्र वापस रामगढ आ गये। जहां बुंदेला शासक ने बडे भाई मदनदेव प्रतिहार को राव की उपाधि दी तथा जिगनी जागीर मे दी। इसके वंशधर बारह गांवो मे है। राव मदनदेव के सात पुत्र थे, राव जैतसिंह जिगनी, पहाडसिंह मंगरोठ, बानसिंह मझगवां, रणसिंह लिधौरा, बलसिंह गधवा, सिहणदेव अटैलिया, औधणसिंह गुढा चिकासी आदि मे इनके वंशज है। राव जैतसिंह के दस पुत्र थे, राव जसकरण सिंह जिगनी तथा शत्रुजीत, प्रतापसिंह और हाथीराज सिंह भी जिगनी मे ही रहे। सबदल सिंह को कटरा मानपुर (इलाहाबाद) मे जागीर मिली, चितर सिंह को बिल्टी कानपुर में, रामसिंह को मलहेटा की तथा मुकुट सिंह को झगडपुर जिला उन्नाव की जागीर मिली और भूपतसिंह एवं रतन सिंह मलहेटा जिला हमीरपुर मे रहे उक्त स्थानों पर आज भी इनके वंशज अच्छी संख्या में आबाद है। यह शाखा झाँसी जिले में भी पाई जाती है। 

 

ओरई और उन्नाव के प्रतिहार- कन्नौज के राजा विजयपाल परिहार II (956–960) के वंशज शिविश्राह थे, उनके वंशज ओराई और उन्नाव में पाए जाते हैं। 

 

अलीपुरा-छतरपुर के परिहार (झूझर परिहार)- राजा महीपाल के दूसरे पुत्र के वंशज (955–956)- राजा महीपाल द्वितीय (955-956) के दूसरे बेटे झूझर परिहार ने बुंदेलखंड में प्रवास किया - उनके वंशज अचल सिंह परिहार को पन्ना के बुंदेला शासकों द्वारा भूमि अनुदान दिया गया था, जहाँ छतरपुर जिले में पूर्व में स्थापित अलीपुरा राज्य था। अलीपुरा , पन्ना, बुंदेलखंड, जुझौति प्रदेश, बड़ा गांव आदि के आस पास का अंचल। 

 

नागोद के प्रतिहार- कन्नौज के राजा रामपाल के वंशज, वीरराज परिहार के नेतृत्व में परिहार का एक वर्ग, अपने पुत्र देवराज परिहार के माध्यम से उन्हारा राज्य की स्थापना की (उन्नाव तहसील, सतना जिला), यह अंततः [नागोद] के रूप में जाना जाने लगा जब राजधानी को नागोद तहसील में स्थानांतरित कर दिया गया। इसमें सतना और कटनी जिले शामिल थे।. नागोद परिहार आज मुख्य रूप से सतना जिले और कटनी जिले में पाए जाते हैं। वे रीवा, सीधी और उमरिया में भी पाए जाते हैं। 

 

मालवा-चंदेरी के प्रतिहार- कन्नौज के प्रतिहार शासक विनायकपाल के दो अभिलेखों के अनुसार रकेरा (चंदेरी) से। इसलिए इस चंदेरी-मालवा में परिहार की उपस्थिति कम से कम 10 वीं शताब्दी तक है। चंदेरी की स्थापना 11 वीं शताब्दी में कीर्तिपाल परिहार ने की थी। झाँसी जिले (987 CE) सियादोनी से भारत कला भवन शिलालेख में नीलकंठ परिहार और उनके पुत्र हरिराज परिहार का उल्लेख है। जैतवर्मन प्रतिहार के चंदेरी शिलालेख में प्रतिहार राजाओं के वंश का उल्लेख है। नीलकंठ, हरिराज, भीम, रानापाला, वत्सराजा, स्वर्णपाल, कीर्तिपाल सिरोही, अभयपाल, गोविंदराज, राजराज, वीरराज और जैतवर्मन। इसमें कीर्तिपाल परिहार द्वारा कीर्ति सागर, कीर्ति दुर्गा और कीर्ति मंदिर के निर्माण का भी उल्लेख है। कीर्ति दुर्गा चंदेरी किले का दूसरा नाम है, जो किली कीर्ति सागर और कीर्ति मंदिर झील और मंदिर के साथ पहचान है। हालाँकि बाद में चंदेरी सुल्तानों के अधीन आ गई। 16 वीं शताब्दी में, एक शानदार स्थानीय सरदार मेदिनी राय परिहार का मांडू की खिलजी सल्तनत की सेवा में प्रभुत्व बढ़ गया।

सैन्य इतिहासकार डिर्क एच ए कोल्फ़ ने उन्हें मालवा का वास्तविक शासक कहा है। समकालीन लेखक निजामुद्दीन ने कहा कि 1516 में, पुरबिया राजपूत सरदार, सुल्तान महमूद को हटाने और मेदिनी के बेटे राय रियान को मांडू सिंहासन पर बैठाने की संभावना पर विचार कर रहे थे। इस अवसर पर, निजामुद्दीन ने मेदिनी परिहार को उद्धृत किया है। 1520 में, मेवाड़ के महाराणा सांगा ने शहर पर कब्जा कर लिया, और मालवा के सुल्तान महमूद द्वितीय के खिलाफ अपनी सेवाओं के बदले मेदिनी राय परिहार को दे दिया। बाद में, मेदिनी ने खानवा (1527) की लड़ाई में सांगा की भी सेवा की। बाद में, बाबर ने चंदेरी (1528) पर आक्रमण किया, जिसमें शक के बाद एक जौहर किया गया। इसके बाद, कई परिहार जबलपुर-नरसिंहपुर की ओर दक्षिण की ओर चले गए। 

 

मढाड प्रतिहार -- हरियाणा के पिहोवा खूखरकोट (रोहतक), सिरसा, दिल्ली मे मिहिरभोज (836-890) के विभिन्न सिक्के, और शिलालेख मिले है। जो प्रतिहार राजपूतों की मौजूदगी का उपस्थिति साबित करता है,सिरसा प्रतिहारों की संभागीय मुख्यालय था। हरियाणा में प्रतिनियुक्त प्रतिहार वंश अंततः मुढाड प्रतिहार बन गए, जो उत्तरी और मध्य हरियाणा को कवर करने वाले मार्ग में बारगुर्ज से बड़े हैं। जोहिया राजपूतों ने 9 वीं शताब्दी में वर्तमान जींद और सिरसा जिलों पर शासन किया था, जहां से उन्हें राजा जिंन्दर के नेतृत्व में मुढाड प्रतिहारों द्वारा विस्थापित किया गया था। उन्होंने चंदेल राजपूतों और वराह परमार राजपूतों को भी खदेड़ दिया, जिन्होंने पटियाला में क्रमशः सिवालिकों और घग्गर में पथ पर कब्जा कर लिया, जहां वे अब भी मौजूद हैं। राजा जिंदाव के पुत्र राजा जिंदिर ने हरियाणा में जींद शहर की स्थापना की। इस प्रकार से जींद का क्षेत्र माधड़ के 360 गांव जागीर में आ गया। करनाल की भी स्थापना माधव प्रतिहारों ने की थी। 1038 में महमूद गजनवी के हमले के बाद, कई प्रतिहार अंततः उत्तर की ओर कैथल की ओर जाने को मजबूर हुए, जहाँ उन्होंने कलायत (कैथल जिले की कलायत तहसील) में अपनी राजधानी स्थापित की।

कैथल चंदेलो जीतयो, रोपी दग-दग राड, I  

नरदक धरा का राजवी, मानवे मोड मडाढ II

प्रतिहार कालदेव मडाढ के बेटे ने असंध और वर परमार को अपना क्षेत्र से निकाल दिया और उन्हें पटियाला और लुधियाना में जाने के लिए मजबूर किया, जहां वे आज भी मौजूद हैं। इस प्रकार करनाल में असंध जींद और सलवान तहसील में गांव में उनके अन्य छोटे ठिकाने बन गए। उन्होंने चंदेल राजपूतों को कोहंड और घरौंडा से निष्कासित कर दिया। जब वे करनाल के उन हिस्सों में आए, चंदेलों ने उन्हें फिर से मुकाबला किया और कलियट से सीधे आने वाले मढाडयों ने टोहना पर कब्जा कर लिया। 

1528-29 में राजा मोहन सिंह मढाड़ के नेतृत्व में कैथल (हरियाना) में कलायत के मढाड़ परिहारों ने बाबर के खिलाफ विद्रोह किया और जनरल अली कुली हमदानी के नेतृत्व में 3000 पुरुषों की मजबूत मुगल सेना को हराया। जवाब में, बाबर ने उनकी बस्तियों को लूटने और विद्रोह को कुचलने के लिए 4000 मजबूत घुड़सवार और हाथी भेजे। मुआना, करनाल और कैथल में, इस शाखा के 60 से अधिक गाँव हैं। क्षेत्र के बड़े गाँवों के मूल निवासियों ने 1857 के विद्रोह के दौरान अंग्रेजों को बहुत परेशान किया। अम्बाला, पटियाला, रोपड़, सहारनपुर, रूडकी व करनाल, कुरुक्षेत्र,जीन्द सहित अब मुंढाड राजपूत वंश हरियाणा के 80 गांव में बसता है।

 

उत्तर भारत के प्रतिहार (हरिदेव के वंशज)

खरल प्रतिहार : खरल, परिहारों की एक पुरानी शाखा है जो बीकाजी राठौड के पहले से ही राजपुताना  जांगल देश में रहते थे। नेणसी द्वारा अपने खायत में उल्लिखित “कुंवरसी सांखला री खायत” में कुंवरसी सांखला के वैवाहिक गठजोड़ का उल्लेख है, जो पल्लू गांव (रावतसर तहसील, हनुमानगढ़) के राणा वेणीदास खरल के साथ है। जांगलादेश की बीकाजी राठौड़ की विजय और क्षेत्र में एक केंद्रीकृत राज्य की स्थापना, की वाजह से ज्यादातर पुराने राजपूत वंश पंजाब के पड़ोसी हिस्सों में चले गए। राय अहमद खान खरल जिसे आमो खरल भी कहा जाता है (1785-1857) एक पंजाबी स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने भारतीय विद्रोह में ब्रिटिश राज के खिलाफ लड़े थे। 

 

ताखी प्रतिहार : राजस्थान के किसी स्थान से हरिहरदेव नामक प्रतिहार अपने भाई को राज्य देकर ज्वालामुखी की तीर्थ यात्रा पर गया था। वह वापस लौटकर नहीं आया और उसने वहीं पर कांगड़ा के कटोच वंशी शासक त्रिलोकचंद की पुत्री से विवाह कर लिया और दहेज में मिले राज्य का शासक हुआ। वर्तमान में पंजाब एवं अन्य समीप के प्रान्तों में जो प्रतिहार हैं वे इसी राजा हरिहरदेव के वंशज हैं। हरिहर देव प्रतिहार के वंशजो को ताखी प्रतिहार कहा जाता है। हरिहर देवजी 10 वीं शताब्दी मैं हुए थे। मौखिक इतिहास के अनुसार  संभवतः उन्हें कन्नौज के सम्राट भोजदेव प्रतिहार II (910-913 CE) द्वारा नियुक्त किया गया था। सिख प्रतिहार राजपूत और हिंदू प्रतिहार राजपूत ,दोनों होशियारपुर में पाय जाते हैं। जालंधर,अमृतसर और सियालकोट अधमपुर, नवांशहर, जैसे गांव और शहरों में सिख प्रतिहार राजपूत पाए जाते हैं। खनेती दरबार, खनेती गाँव, कुम्हारसैन तहसील, शिमला यह हिमाचल के परिहार का निवास स्थान था। हिमाचल (पहले पंजाब की पहाड़ियों) में, कांगड़ा, ऊना और बिलासपुर जिलों में पाए जाते हैं। खनेटी और कुम्हारसैन इस शाखा के परिहारों द्वारा शासित दो रियासतें थीं। शिमला में हिमाचल में परिहार राजपूतों की आबादी सबसे ज्यादा है, और सबसे ज्यादा मध्ययुगीन परिहार, शिमला जिले में हैं। जम्मू क्षेत्र में, किश्तवाड़ जिले में और डोडा के आसन्न भद्रवाह तहसील में इनकी प्रधानता है। आज़ादी तक त्रिथलु गाँव (भलसाला तहसील, डोडा) एक प्रतिहार ठीकाना था। इसी प्रकार दोआब और जालंधर में भी तखी प्रतिहार हैं वे भड़ाना गाँव के नाम से भद कहलाते । उनकी पदवी महता है और इन तखी प्रतिहारों का गांव कुशल है। 

 

अवध पूर्वांचल के प्रतिहार (कल्हणपाल प्रतिहार के वंशज) 

कल्हण के प्रतिहार- ये कल्हणपाल प्रतिहार के वंशज हैं जो अवध क्षेत्र में गोंडा जिले में चले गए। सहज सिंह ने एक शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की जिसमें गोंडा के पूरे दक्षिणी भाग खुरासा के थे। उन्होंने 16 वीं शताब्दी में अपने क्षेत्र को डिग्गीर बिसेन को दिए जाने तक इस पर शासन किया। 1901 में गोंडा जिले में उनके 12,617 वंशज थे। 

 

नरौनी के प्रतिहार- नरवर में उत्पन्न होने के कारण इन्हें नरौनी नाम दिया गया है। नरवर से ये परिहार जिला बलिया और सारण जिले के कुछ हिस्सों में स्थित खारिद चले गए। पूर्व में, उन्होंने बंसडीह और सुखपुरा के दो टापों का अधिग्रहण किया, उनका मुख्य मुख्यालय बंसडीह और खारौनी था। 1881 में, उनके 5,707 वंशज थे और उनके पास 40,000 एकड़ जमीन थी।

 

इतिहासकार मुंहगोत नैणसी ने अपनी ख्यात में, जो वि० सं० 1705 और 1725 के बीच लिखी गई थी, भाट नीलिया के पुत्र खंगार के लिखाने के अनुसार पड़िहारों की निम्नलिखित 26 शाखाएं दर्ज की हैं --

१- पड़िहार  

२ - ईदा- जिसकी उपशाखा में मलसिया, काल्पा, घड़सिया और दूलया हैं। 

३- तूलोरा- ये मिया के वंशज हैं। 

४- रामावट  

५. चोथा- जो मारवाड़ में पाटोदी के पास हैं। 

६-चारी- ये मेवाड़ में राजपूत और मारवाड़ में तुर्क हैं। 

७ घांधिया- ये जोधपुर इलाक़े में राजपूत हैं।

८- खरवड़- ये मेवाड़ ( उदयपुर राज्य ) में बहुत हैं। 

६ सीधका- ये मेवाड़ और बीकानेर राज्यों में हैं। 

१०-चोहिल- मेवाड़ में बहुत हैं । 

११-फलू- ये सिरोही तथा जालोर के इलाक़े में बहुत हैं । 

१२ चैनिया- फलोदी की तरफ़ हैं। 

१३ बोजरा  

१४-भांगरा- ये मारवाड़ में भाट हैं. और धनेरिया, मूंभलिया और खीचीवाड़े में राजपूत हैं। 

१५-बापणा- ये महाजन हैं। 

१६-चौपड़ा- ये महाजन हैं। 

१७-पेसवाल- ये खोखरियावाले रैवारी (ऊंट आदि पशु पालनेवाले) है। 

१८-गोढला  

१९-टाकसिया- ये मेवाड़ में हैं। 

२०-चांदारा- (चांदा के वंश के), ये नींबाज में कुंभार हैं । 

२१ माहप- ये राजपूत हैं और मारवाड़ में बहुत हैं। 

२२-इराणा- ये राजपूत हैं। 

२३ सदर- ये मारवाड़ में राजपूत हैं ।

२४- पूमोर  

२५-सामोर  

२६ जेठवा- गुजरात में हैं।

 

घनश्यामसिंह राजवी चंगोई 

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मंडोर का प्रतिहार (पड़िहार) राज्य 

मंडोर का प्रतिहार (पड़िहार) राज्य 

(संकलन- घनश्यामसिंह राजवी चंगोई) 

 

मंडोर के प्रतिहारों के कुछ शिलालेख मिले हैं, जिनमें से तीन में उनके वंश की उत्पत्ति तथा वंशावली दी है। उनमें से एक जोधपुर शहर के कोट (शहरपनाह) में लगा हुआ मिला, जो मूल में मंडोर के किसी बिष्णुमंदिर में लगा था। यह शिलालेख वि० सं० 894 (ई० स० 837) चैत्र सुदि 5 का है। दूसरे दो शिलालेख घटियाले में मिले हैं। ये दोनों शिलालेख ई० सं० 861 चैत्र सुंदि 2 के हैं। इन तीनों लेखों से पाया जाता है कि 'हरिश्चंद्र', जिसको रोहिलद्धि भी कहते थे, वेद और शास्त्रों का अर्थ जानने में पारंगत था। उसके दो त्रियां थीं, एक द्विजः (ब्राह्मण) वंश की और दूसरी बड़ी गुणवती क्षत्रिय कुल की थी। ब्राह्मणी से जो पुत्र उत्पन्न हुए वे ब्राह्मण प्रतिहार कहलाये और क्षत्रिय वर्ण की राणी भद्रा से जो पुत्र जन्मे वे मद्यः पीनेवाले हुए। इस प्रकार मंडोर के प्रतिहारों के उन तीनों शिलालेखों से हरिश्चंद्र का किसी "राजा का प्रतिहार” होना पाया जाता है। उसकी दूसरी स्त्री भद्रा को रानी लिखा है, जिससे संभव है कि हरिश्चंद्र के पास जागीर भी रही हो। उसकी ब्राह्मण वंश की स्त्री के पुत्र ब्राह्मण प्रतिहार कहलाये। जोधपुर राज्य में अव तक प्रतिहार ब्राह्मण हैं, जो उसी हरिश्चंद्र प्रतिहार के वंशज होने चाहिये। उसकी क्षत्रिय वर्णवाली स्त्री भद्रा के पुत्रों की गणना उस समय की प्रथा के अनुसार मद्य पीनेवालों अर्थात् क्षत्रियों में हुई। मंडोर के प्रतिहारों की वंशावली उपर्युक्त शिलालेख में इस प्रकार मिलती है --

(1) हरिश्चंद्र (550–575)- प्रारंभ में किसी राजा का प्रतिहार था। उसकी रानी भद्रा से, जो क्षत्रिय वंश की थी, चार पुत्र भोगभट, फक, रज़िल और दद्द हुए। उन्होंने अपने बाहुबल से मांडव्य पुर (मंडोर) का दुर्ग लेकर वहां ऊंचा प्राकार (कोट) बनवाया।

(2) रजिल (575–600)- वज्रभट्ट के बाद उनके तीसरे पुत्र रजिला थे, जो वर्मलता चावड़ा(चावड़ा राजपूत वंश) के जागीरदार थे। तब मंडोर राजाओं ने उनके वंश को उनके तीसरे पुत्र रजिला परिहार के नाम से जाना, भोगभट्ट ने अर्बुदा-देसा (आबू क्षेत्र) की ओर प्रस्थान किया और दद्दा ने अलवर की ओर प्रस्थान किया। 

(3) नरभट (600–625)-  उसकी वीरता के कारण उसको 'पेलापेलि' कहते थे ।

(4) नागभट (625–650)- (नरभट का पुत्र ) उसको नाहड़ भी कहते थे। उसने मेडतकपुर (मेड़ता, वर्तमान जोधपुर राज्य) में अपनी राजधानी स्थिर की। उसकी राणी जज्जिकादेवी से दो पुत्र - तात और भोज हुए।

(5) तात - ( नागभट्ट का पुत्र ) उसने जीवन को बिजली के समान चंचल जानकर अपना राज्य अपने छोटे भाई को दे दिया और आप मांडव्य के पवित्र आश्रम में जाकर धर्माचरण में प्रवृत्त हुआ।

(6) भोज (650–675)- (तात का छोटा भाई ) ।

(7) यशोवर्द्धन (675–700)- (भोज का पुत्र ) ।

(8) चंदुक (700–725)- (यशोवर्द्धन का पुत्र ) ।

(9) शीलुक (725–750)- (चंदुक का पुत्र ) - उसने जवणी और वल' देशों में अपनी सीमा स्थिर की अर्थात् उनको अपने राज्य में मिलाया, और वल्ल मंडल (वल्ल देश) के स्वामी भट्टिक (भाटी) देवराज को पछाड़ कर उसका छत्र छीन लिया। शिलुक ने एक तालाब की खुदाई भी की, एक नए शहर की स्थापना की और त्रेता नामक स्थान पर सिद्धेश्वरा महादेव मंदिर की स्थापना की।

(10) झोट (750–775)- (शीलुक का पुत्र ) - उसने राज्य सुख भोगने के पीछे गंगा में मुक्ति पाई।

(11) मिलादित्य (775–800)- (झोट का पुत्र ) - उसने युवावस्था में राज्य किया, फिर अपने पुत्र को राज्यभार सौंपकर वह गंगाद्वार ( हरिद्वार ) को चला गया जहां 18 वर्ष जीवित रहा और अन्त में उसने अनशन व्रत से शरीर छोड़ा। 

(12) कक्क (800–825)- (मिलादित्य का पुत्र ) - उसने मुद्गगिरि (मुंगेर, बिहार ) में गौड़ों के साथ लड़ने में यश पाया। वह व्याकरण, ज्योतिष, तर्क (न्याय) और सर्व भाषाओं के कवित्व में निपुण था। उसकी भट्टि ( भाटी ) वंश की महाराणी पद्मिनी से वाउक और दूसरी राणी दुर्लभदेवी से कक्कुक का जन्म हुआ । उसका उत्तराधिकारी वाउक हुआ। कक्क रघुवंशी प्रतिहार राजा वत्सराज का सामंत होना चाहिये, क्योंकि गौड़ों के साथ लड़ने में उसके यश पाने के उल्लेख से यही मालूम होता है कि जब वत्सराज ने गौड़ देश के राजा को परास्त कर उसकी राज्यलक्ष्मी और दो श्वेत छत्र छीने, उस समय कक्क उसका सामंत होने से उसके साथ लड़ने को गया होगा ।

(13) वाउक (825–850)- (कक्क का पुत्र ) - जब शत्रुओं का अतुल सैन्य नंदावल्ल को मारकर भूअकूप में श्रा गया और अपने पक्षवाले द्विजनृपकुल के प्रतिहार भाग निकले, तथा अपना मंत्री एवं अपना छोटा भाई भी छोड़ भागा, उस समय उस राण (राणा, वाउक) ने घोड़े से उतरकर अपनी तलवार उठाई। फिर जब नवों मंडलों के सभी समुदाय भाग निकले और अपने शत्रु राजा मयूर को एवं उसके सैनिक रूपी मृगों को मार गिराया तब उसने अपनी तलवार म्यान में की'  वि० सं० 894 ( ई० स० 837) की ऊपर लिखी हुई जोधपुर की प्रशस्ति उसी ने खुदवाई थी।

(14) कक्कुक (850–880)- (वाउक का भाई )  घटियाले से मिले हुए वि० सं० 918 के दोनों शिलालेख उसी के हैं, जिनके अनुसार “उसने अपने सच्चरित्र से मरु, माड, वल, तमणी (त्रवणी), अज्ज (आर्य) एवं गुर्ज्जरत्रा के लोगों का अनुराग प्राप्त किया। वडणाराय मंडल में पहाड़ पर की पल्लियों ( पालों, भीलों के गांवों ) को जलाया; -रोहिन्सकूप ( घटियाले ) के निकट गांव में हट्ट ( हाट, बाज़ार) वनवाकर महाजनों को वसाया और मंडोर तथा रोहिन्सकूप गांवों में जयस्तंभ स्थापित किये” । कक्कुक न्यायी, प्रजापालक एवं विद्वान् था और संस्कृत में काव्यरचना भी करता था । घटियाले के वि० सं० 918 के संस्कृत शिलालेख के अन्त में एक श्लोक उसका बनाया हुआ खुदा है और साथ में यह भी लिखा है कि यह श्लोक स्वयं कक्कुक का बनाया हुआ है।

मंडोर के प्रतिहारों की कक्कुक तक की शृंखलाबद्ध वंशावली उपर्युक्त तीन शिलालेखों से मिलती है। संवत् केवल बाउक और कक्कुक के ही मालूम हुए हैं, जो ऊपर दिये गये हैं। इस वंश का मूल पुरुष हरिश्चंद्र कब हुआ यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं, किंतु बाउक के निश्चित संवत् 894 से प्रत्येक का राज्य-समय - श्रौसत हिसाब से 20 वर्ष मानकर पीछे हटते जावें तो हरिश्चंद्र का वि० सं० 654 (ई० स० 597 ) के आसपास विद्यमान होना स्थिर होता है। विक्रम सं०- 918 के पीछे भी मंडोर के राज्य पर प्रतिहारों का अधिकार रहा, परन्तु उस समय की शृंखलाबद्ध नामावली वाला कोई शिलालेख अब तक प्राप्त नहीं हुआ। एक लेख जोधपुर राज्य के चेराई गांव से प्रतिहार दुर्लभराज के पुत्र जसकरणका वि० सं० 993 ( ई० स० 936 ) ज्येष्ठ सुदि 10 का मिला है। दुर्लभराज और जसकरण शायद बाउक और कक्कुक के वंशधर रहे हों।

 

बाद में, नाहर राव परिहार ने विक्रम सम्वत 1100  में मंडोर में फिर से राज स्थापित किया और उस समय तक, मंडोर नाडोल के चौहानों का सामंत बन गया और 12 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में गिरावट तक ऐसा ही रहा।  नाहर राव के परपोते अमायक परिहार के कई बेटे थे जिनसे कई शाखाएँ बनी - लुलोजी परिहार जिनसे लूलावत, सुरजी जिनसे सूरवात, रामजी परिहार से रामावत। अमयक परिहार का एक बेटा सोढक भी था, जिसका बेटा इंदा से इंदा परिहार शाखा निकली। 1159 ई में, बालाक राव परिहार ने बालसमंद झील (जोधपुर) की स्थापना की। वि० सं० 1200 के आसपास नाडौल के चौहान रायपाल ने, जिसके शिलालेख वि० सं० 1189 से 1202 तक के मिले हैं, मंडोर पडिहारों से छीन लिया। उसके पुत्र सहजपाल का एक शिलालेख ( १६ टुकड़ों में ) मंडोर से मिला है, जिससे मालूम होता है कि वि० सं० 1202 (ई० स० 1145)  के आसपास सहजपाल वहां का राजा था'। 

 

घनश्यामसिंह राजवी चंगोई 

(नोट- वेबसाईट का updation जारी है, अपने सुझाव व संशोधन whatsapp no. 9460000581 पर भेज सकते हैं) .

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भीनमाल व कन्नौज राज्य 

 

भीनमाल व कन्नौज राज्य 

(संकलन- घनश्यामसिंह राजवी चंगोई) 

 

(1) नागभट  (725–756)- उस से ही उनकी नामावली मिलती हैं। उसको नागावलोक भी कहते थे। हांसोट (भड़ौच जिले के अलेश्वर तालुके में ) से एक दानपत्र चौहान राजा भर्तृह (भर्तृवृद्ध दूसरे का मिला है, जो वि० सं० ८१३ (३० स० ७५६) का है। उक्त ताम्रपत्र से पाया जाता है कि भर्तृ बृद्ध (दूसरा ) राजा नागावलोक का सामंत था। उक्त दानपत्र का नागाव लोक यही प्रतिहार नागभट (नागावलीक) होना चाहिये। यदि यह अनु मान ठीक हो तो उसका राज्य उत्तर में मारवाड़ से लगाकर दक्षिण में भड़ौच तक मानना पड़ता है। उसके राज्य पर म्लेच्छ ( मुसलमान ) वलचों (बिलोचों) मे आक्रमण किया, परंतु उसमें वे परास्त हुए। मुसलमानों की मारवाड़ पर की यह चढ़ाई सिंध की ओर से हुई होगी। नागभट्ट प्रथम ने अपने भतीजे कक्का और देवराज को अपना उत्तराधिकारी बनाया। 

(2) ककुस्थ  (756–765)- उसको कक्का भी कहते थे।

(3) देवराज (765–778)-  उसको देवशक्ति भी कहते थे और वह परम वैष्णव था। उसकी रानी  भूमिकादेवी से वत्सराज का जन्म हुआ। देवराज प्रतिहार को उनके पुत्र वत्सराज प्रतिहार ने मार डाला।

(4) वत्सराज (778–805)- उसने गौड़ और बंगाल के राजाओं पर विजय प्राप्त की। गौड़ के राजा के साथ की लड़ाई में उसका सामंत मंडोर का प्रतिहार कक्क भी उसके साथ था।  सम्राट वत्सराज प्रतिहार (780-800), ने पश्चिमी भारत पर शासन किया उनके शासित क्षेत्र में ओसैन, जालोर और डीडवाना शामिल थे। गलाका शिलालेख (795 CE) में लता, कर्ण शासकों पर वत्सराज की जीत और जयपीड़ा कर्कोटा पर उनकी जीत की चर्चा है, उसमें यह भी कहा गया है की महाराजा वात्सरज प्रतीहार अपनी सेना कश्मीर तक लेकर गए थे, कर्कोटा को हराने के लिए। गौड़ शासक दक्षिणापथ और म्लेच्छ (अरब) राजाओं को महाराजा वत्सराज प्रतीहार ने पराजित किया। उन्होंने अपने साम्राज्य को पूरे उत्तर भारत जितना विशाल बनाया , इस कारण वे एक चक्रवर्ती सम्राट (सर्व-भूपर्पिटवत्) बन गए। जिस समय उसने मालवे के राजा पर चढ़ाई की उस समय दक्षिण का राष्ट्रकूट (पठोड़ ) राजा ध्रुवराज अपने सामंत लाट देश के राठोड़ राजा कर्कराज सहित, जो इन प्रतिहारों का पड़ोसी था, मालवे के राजा को बचाने के लिए गया, जिससे वत्सराज को हारकर अरु ( मारवाड़ ) देश में लौटना पड़ा और गौड़ देश के राजा के जो दो श्वेत छत्र उस ( वत्सराज) ने छीने थे वे राठोड़ों ने उससे ले लिये' । उस क्षत्रियपुंगव ने बलपूर्वक अंड' के वंश का राज्य छीनकर इक्ष्वाकु वंश को उन्नत किया।  ई० स० 783  में दिगंबर जैन आचार्य जिनसेन ने 'हरिवंश पुराण' लिखा, जिसमें उक्त संवत् में उत्तर ( कन्नौज ) में इंद्रायुध और पश्चिम (मारवाड़) में वत्सराज का राज्य करना लिखा है। वह परम माहेश्वर (शैव ) था, उसकी राणी सुंदरीदेवी से नागभट का जन्म हुआ। उदयनताना सूरी द्वारा 778 CE में जालोर में रचित कुवलयमाला काहा  यह दर्शाता है की उन्होंने व्याग्रह तोमर राजपूतो को भी पराजित किया, वत्सराज के संरक्षण में यह दर्शाता है कि कम से कम 778 ईस्वी तक उनकी राजधानी भीनमाल थी।जैसे प्रदेशों का विस्तार हुआ और गौड़ और कर्कोटा के साथ युद्ध हुए, राजधानी को भीनमाल से अवंती /उज्जैन स्थानांतरित कर दिया गया। 

(5) नागभट दूसरा (800–833)- उसने चक्रायुध को परास्त कर कन्नौज का साम्राज्य उससे छीना। उसी के समय से गुर्जर देश के इन प्रतिहारों की राजधानी कन्नौज स्थिर होनी चाहिये। उपर्युक्त ग्वालियर की प्रशस्ति में लिखा है कि उसने आंध्र, सैंधव, विदर्भ ( बरार ), कलिंग और बंग के राजाओं को जीता, तथा आनर्त, मालव, किरात, तुरुष्क, वत्स और मत्स्य आदि देशों के पहाड़ी क़िले से लिये। राजपूताने में जिस नाहड़राव पड़िहार का नाम बहुत प्रसिद्ध है और जिसके विषय में पुष्कर के घाट बनवाने की ख्याति चली आती है, वह यही नागभट ( नाहड़ ) होना चाहिये, न कि उस नाम का मंडोर का प्रतिहार । उसके समय का एक शिलालेख वि० सं० ८७२ ( ई० स०८१५ ) का बुचकला ( जोधपुर राज्य के बीलाड़ा परगने में) से मिला है। नाग भट भगवती (देवी) का परम भक्त था। उसकी राणी ईसटादेवी से राम भद्र उत्पन्न हुआ। नागभट का स्वर्गवास वि० सं० ८६० भाद्रपद सुदि ५ ( ई० स० ८३३ ता० २३ अगस्त) को होना जैन चंद्रप्रभसूरि ने अपने प्रभा वक चरित' में लिखा है। 

(6) रामभद्र (833–836) - उसको राम तथा रामदेव भी कहते थे। उसने बहुत थोड़े समय तक राज्य किया। वह सूर्य का भक्त था। उसकी रानी अप्पादेवी से भोज का जन्म हुआ।

(7) भोज प्रथम/ मिहिरभोज  (836–890)- उसको मिहिर और आदिवराह भी कहते थे। वह अपने पड़ोसी लाट देश के राठोड़ राजा ध्रुवराज (दूसरे) से लड़ा, जिसमें राठोड़ों के कथनानुसार वह हार गया।  ​​मिहिरभोज प्रतिहार ने प्रतिहार साम्राज्य को हिमालय की तलहटी से लेकर नर्मदा नदी तक एक बड़े क्षेत्र तक विस्तार किया,अपनी ऊंचाई पर, भोज का साम्राज्य दक्षिण में नर्मदा नदी, उत्तर पश्चिम में सतलज नदी और पूर्व में बंगाल तक फैला हुआ था।। उनके कार्यकाल में, राजधानी को एक बार फिर कन्नौज में स्थानांतरित कर दिया गया।उसके समय के 5  शिलालेखादि वि० सं० 600 से लगाकर 638 तक के' मिले हैं और चांदी व तांबे के सिक्के भी मिले। जिनके एक तरफ़ 'श्रीमदादिवराह' लेख और दूसरी ओर 'वराह' ( नरवराह ) की मूर्ति बनी है। वह भगवती (देवी) का भक्त था। उसकी रानी चंद्रभट्टारिका देवी से महेन्द्रपाल उत्पन्न हुआ था। भोजदेव के युवराज का नाम नागभट मिलता है, परंतु महेन्द्रपाल और विनायकपाल के दानपत्रों में उसका नाम राजाओं की नामावली में न मिलने से अनुमान होता है कि उसका देहान्त भोजदेव की विद्यमानता में ही हो गया, जिससे भोजदेव का उत्तराधिकारी उसका दूसरा पुत्र महेन्द्रपाल हुआ।

(8) महेन्द्रपाल  (890–910) - उसको महेन्द्रायुध, माईंदपाल, निर्भयराज और निर्मयनरेन्द्र भी कहते थे। उसके समय के दो शिलालेख और तीन ताम्रपत्र मिले हैं। उन तीन ताम्रपत्रों में से दो काठियावाड़ में मिले, जिनसे पाया जाता है कि काठियावाड़ के दक्षिणी हिस्से पर भी उसका राज्य था, जहां उसके सोलंकी सामंत राज्य करते थे और उसकी तरफ से वहां का शासक धीइक था | काव्यमीमांसा, कर्पूरमंजरी, विद्धशालभंजिका, बालरामायण, बालभारत आदि ग्रन्थों का कर्त्ता प्रसिद्ध कवि राजशेखर उसका गुरु थां । महेन्द्र पाल भी अपने पिता की नाई भगवती (देवी) का भक्त था। उसके तीन पुत्रों-महीपाल ( क्षितिपाल), भोज और विनायकपाल के नामों का पता लगा है। भोज की माता का नाम देह . नागादेवी और विनायकपाल की माता का नाम महीदेवी मिला है।

(9) क्षितिपाल/ महिपाल (910-952 ) - उसके समय काव्यमीमांसा आदि का कर्त्ता राजशेखर कवि कन्नौज में विद्यमान था, जो उसको आर्यावर्त का महाराजाधिराज तथा मुरल, मेकल, कलिंग, केरल, कुलूट, कुंतल और रमठ देशवालों को पराजित करनेवाला लिखता है। महीपाल दक्षिण के राठौड़ इंद्रराज ( तीसरे, नित्यवर्ष ) से भी लड़ा था, जिसमें राठोड़ों के कथनानुसार उसकी हार हुई थी। उसके समय का एक दानपत्र हड्डाला गांव ( काठियावाड़) से सन 614 का मिला', जिसके अनुसार उस समय बढ़वाण में उसके सामंत चाप (चावड़ा ) वंशी धरणीवराह का अधिकार था। 

(10 ) भोज दूसरा- उसने थोड़े ही समय तक राज्य किया। अब तक यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हुआ कि भोज ( दूसरा ) बड़ा था या महीपाल ।

(11 ) विनायकपाल (954–955)- उसके समय का एक दानपत्र स० 931 का मिला है। उसकी राणी प्रसाधना देवी से महेंद्रपाल ( दूसरे ) का जन्म हुआ। उसके अंतिम समय से कन्नौज के प्रतिहारों का राज्य निर्बल होता गया और सामंत लोग स्वतंत्र बनने लगे।

(12) महेन्द्रपाल दूसरा (955–956)- उसके समय का एक शिलालेख प्रतापगढ़ से मिला है, जो वि० सं० 1003 का है। उससे पाया जाता है कि घोंटावर्षिका ( घोटास, प्रतापगढ़ से अनुमान 6 मील पर ) का चौहान इंद्रराज उसका सामंत था, उस समय मंडपिका ( मांडू ) में बलाधिकृत (सेनापति) कोकट का नियुक्त किया हुआ श्रीशर्मा रहता था और मालवे का तंत्रपाल (शासक, हाकिम) महासामंत, महादंडनायक माधव ( दामोदर का पुत्र ) था जो उज्जैन में रहता था। चौहान इंद्रराज के बनवाये हुए घोटावर्षिका ( घोटार्सी) के 'इन्द्रराजादित्यदेव' नामक सूर्यमंदिर को 'धारापद्रक' ( धर्यावद ) गांव महेन्द्रपाल ( दूसरे ने भेट किया, जिसकी सनद ( दानपत्र) पर उक्त माधव ने हस्ताक्षर किये थे' । 

(13 ) देवपाल - उसके समय का एक शिलालेख वि० सं० 1005 का मिला है, जिसमें उसके बिरुद परमभट्टारक, महाराजाधिराज और परमेश्वर दिये हैं। उसको क्षितिपालदेव ( महीपालदेव) का पादानुध्यात (उत्तराधिकारी ) कहा है। यदि देवपाल ऊपर लिखे हुए क्षितिपालदेव ( महीपालदेव) का पुत्र हो तो हमें यही मानना पड़ेगा कि उसकी बाल्यावस्था के कारण उसका चचा विनायकपाल उसका राज्य दबा बैठा हो, और महेन्द्रपाल ( दूसरे ) के पीछे वह राज्य का स्वामी हुआ हो।

(14 ) विजयपाल (956–960) - उसके समय का एक शिलालेख वि० सं० 1016 का अलवर राज्य में राजोरगढ़ से मिला है। 

(15 ) राज्यपाल  (960–1018)-  उसके समय कन्नौज के प्रतिहारों का राज्य निर्बल तो हो ही रहा था इतने में महमूद गजनी ने कन्नौज पर चढ़ाई कर दी। अल् उत्बीने अपनी 'तारीख यमीनी' में लिखा है, “वह बड़े राज्य और समृद्धि का स्वामी था, परंतु अचानक उसपर हमला हो जाने के कारण सामना करने या अपनी सेना एकत्र करने का उसको अवसर न मिला। उसने शत्रु की बड़ी सेना से डरकर सुलतान की अधीनता स्वीकार की। पर सुलतान के चले जाने के बाद पड़ोसी राजाओं ने हमला किया। सुलतान तुरंत ही उसकी सहायता को चला, परंतु उसके पहुंचने के पहले ही कालिंजर के राजा नंदराय ( गंड, चंदेल) ने कन्नौज को घेरकर कुंवरराय (राज्यपाल) को मार डाला ।" 

( 16) त्रिलोचनपाल (1018–1027) - उसके समय का एक दानपत्र वि० सं० 1078 का मिला है।

(17) यशपाल (1024–1036) एक साथ पश्चिम से तुर्किक , दक्षिण मे राष्ट्रकूट और पूर्व में पाला हमलों को रोकने के परिणामस्वरूप, प्रतिहारों ने अपने सामंतों पर राजस्थान का नियंत्रण खो दिया। 10 वीं शताब्दी के अंत तक प्रतिहार राजपूत राज्य घटकर कन्नौज पर केंद्रित एक छोटे से राज्य में सीमित हो गया था। कन्नौज के अंतिम प्रतिहार शासक जसपाल की मृत्यु 1036 में हुई। उसके पीछे  गाहड़वाल (गहरवार) महीचंद्र का पुत्र चंद्रदेव कन्नौज का राज्य प्रतिहारों से छीनकर वहां का स्वामी बन गया। 

प्रतिहारों का कन्नौज का वड़ा राज्य गाहड़वालों ( गहरवारों) के हाथ में चले जाने पर भी उनके वंशजों को समय-समय पर जो इलाक़े जागीर में मिले थे, वे उनके अधिकार में कुछ समय तक बने रहे । कुरठा ( ग्वालियर राज्य) से एक दानपत्र मलयवर्म प्रतिहार का वि० सं० 1277 का मिला है, जिसमें उस ( मलयवर्म) को नटुल का प्रपौत्र, प्रतापसिंह का पौत्र और विग्रह का पुत्र बतलाया है। मलयवर्म की माता का नाम लाल्हरादेवी दिया है, जो केल्हणदेव की पुत्री थी । यह केल्हणदेव शायद नाडोल का चौहान केल्हण रहा हो। उस दानपत्र में मलयवर्म के पिता का म्लेच्छों से लड़ना लिखा है, जो कृतबुद्दीन ऐवक से संबंध रखता होगा। मलयवर्म के सिक्के भी मिले हैं, जो वि० सं० 1280 से 1260 तक के हैं। वहीं से एक दूसरा दानपत्र वि०सं० 1304 का भी प्राप्त हुआ, जो मलय वर्म के भाई नृवर्मा (नरवर्मा ) का है। नृवर्मा के पीछे यज्वपाल के वंशज परमादिराज के पुत्र चाहड़देव न्र प्रतिहारों से नलगिरी (नरवर) आदि छीन लिए। इसके बाद कन्नौज के प्रतिहारों के पास सिर्फ बुंदेलखंड में नागोद का राज्य व् अलीपुरा तथा कुछ छोटे 2 ठिकाने गए। 

घनश्यामसिंह राजवी चंगोई 

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बड़गूजर एवं सिकरवार

गुर्जर प्रतिहार शाखाएँ 

(संकलन- घनश्यामसिंह राजवी चंगोई) 

 

बड़गूजर शाखा

राजस्थान में जालौर जिले में स्थित भीनमाल प्राचीन गुर्जरदेश (गुर्जरात्रा) की राजधानी थी, जिसका वास्तविक नाम "श्रीमाल" था,जो बाद में भिल्लमाल और फिर भीनमाल हुआ। गल्लका लेख के अनुसार अवन्ति के राजा नागभट्ट प्रतिहार ने 7 वी सदी में गुर्जरो को मार भगाया और गुर्जरदेश पर कब्जा किया, गुर्जरदेश पर अधिपत्य करने के कारण ही नागभट्ट प्रतिहार गुरजेश्वर कहलाए जैसे रावण लंकेश कहलाता था। यही से इनकी एक शाखा दौसा,अलवर के पास राजौरगढ़ पहुंची, राजौरगढ़ में स्थित एक शिलालेख में वहां के शासक मथनदेव पुत्र सावट को गुर्जर प्रतिहार लिखा हुआ है जिसका अर्थ है गुर्जरदेश से आए हुए प्रतिहार शासक। इन्ही मथंनदेव के वंशज 12 वी सदी से बडगूजर कहलाए जाने लगे क्योंकि राजौरगढ़ क्षेत्र में पशुपालक गुर्जर/गुज्जर समुदाय भी मौजूद था। जिससे श्रेष्ठता दिखाने और अंतर स्पष्ट करने को ही गुर्जर प्रतिहार राजपूत बाद में बडगूजर कहलाने लगे। पशुपालक शूद्र गुर्जर/गुज्जर समुदाय का राजवंशी बडगूजर क्षत्रियो से कोई सम्बन्ध नही था। पशुपालक गुज्जर/गुर्जर दरअसल बडगूजर (गुर्जर प्रतिहार) राजपूतो के राज्य में निवास करते थे। राजा रघु के वंशज (क्योंकि श्रीराम और लक्ष्मण जी दोनों रघु के वंशज थे) होने के कारण ही इन्होंने राघव/रघुवंशी पदवी धारण की, इनकी वंशावली में एक अन्य शासक रघुदेव के होने के कारण भी इनके द्वारा राघव टाइटल लिखा जाना बताया जाता है।

इस प्रकार बडगूजर राजपूत वंशावली में श्रीमाल (गुर्जरदेश की राजधानी भीनमाल का प्राचीन नाम) का होना तथा राजौरगढ़ शिलालेख में बड़गुजरो के पूर्वज मथनदेव को गुर्जर प्रतिहार सम्बोधित किया जाना, आधुनिक बडगूजर राजपूत वंश को प्रतिहार राजपूत वंश की ही शाखा होना सिद्ध करता है। राजोर शिलालेख (960 ईस्वी) के अनुसार, मंथनदेव प्रतिहार (885–915) "गुर्जर-प्रतिहार" व  बड़गुजर राजपूतों के पूर्वज थे। मौखिक लोकगीतों के अनुसार प्रतिहार व्याघराजा बरगुजर ने राजगढ़ शहर की स्थापना की। बाद में बरगुजर की राजधानी राजोर (तहसील राजगढ़, अलवर) से मचेरी (तहसील राजगढ़, अलवर) में स्थानांतरित कर दी गई, फिर भी राजोर या राजेपुर या परानगर उनकी कुलदेवी असावरी माता स्थान रहा। कुल मिलाकर, अलवर में बरगुजर के 16 गांव अभी भी बचे हुए हैं, क्योंकि अधिकांश बड़गूजर प्रतिहार अंततः पश्चिम यूपी और भिवानी की ओर चले गए। दौसा भी बरगुजर के अधीन था, जहाँ से कछवाहा दुलहराय के बारे में कहा जाता है कि इसने 12 वीं शताब्दी की शुरुआत में यहां अधिकार किया। 

1185 ई। में, राव प्रतापसिंह के नेतृत्व में राजोरगढ़ के बड़गूजर बुलंदशहर चले गए, जहाँ उन्होंने परमार शासक दोर की बेटी से शादी की और 150 गाँवों की जागीर प्राप्त की। 17 वीं शताब्दी में, अनूपराय बड़गुजर ने एक शाही शिकार के दौरान एक शेर से मुगल सम्राट जहांगीर को बचाया था। बदले में, प्रसन्न सम्राट ने उन्हें बुलंदशहर जिले में कुछ भूमि दी - बुलंदशहर जिले के आधुनिक अनूपशहर शहर की स्थापना और उनके नाम पर की गई थी। आज भी बड़गुजर के अनूपशहर, डिबोई, खुर्जा में लगभग सौ गांव हैं। बुलंदशहर का सिवाना और शिकारपुर (संभल जिले) के नरौली में बड़ गुर्जरों की चौरासी भी थी। अलवर में गुड़गांव से सटे कुछ हिस्सों में उनकी चौबीसी थी।

 

सीकरवार प्रतिहार -

प्रतिहारों की इस शाखा का विजयपुर सीकरी (फतेहपुर सीकरी) में रहने से नाम सिकरवार पड़ा।  विजयपुर सीकरी मूल रूप से सिकरवार द्वारा शासित था,बाद में यह तुर्की सुल्तानों के हाथों में चला गया। जैसे ही सीकरी तुर्क प्रशासन के अधीन आया, सीकरवार राजपूत दो शाखाओं में टूट गए, जो विभिन्न क्षेत्रों में जाकर बस गए।

*पहाड़गढ़ सिकरवार -  1347 में, सीकरवार राजपूतों ने यदुवंशी राजपूतों से सरसेनी गाँव (पहाड़गढ़ तहसील, मुरैना) को जीत लिया। और राव प्रतिहार दानसिंह सिकरवार पहाड़गढ़ राज्य के राव बन गए। राव दलेल सिंह (1646-1722) ने सीकरवारो का बादशाह औरंगजेब के खिलाफ महाराजा छत्रसाल बुंदेला की सहायता करने का नेतृत्व किया, जिसमें वे सफल रहे। 1767 में, महाराजा विक्रमसिंह सिकरवार ने ग्वालियर के मराठा शिंदे शासक के खिलाफ विद्रोह किया, जिसके कारण संपत्ति का नुकसान हुआ और राजा गणपतसिंह (1841-1870) ने झांसी की रानी के समर्थन में कई सीकरवारो का नेतृत्व किया, जहां कई सिकरवारों की मौत हो गई।

*पूर्वांचली सिकरवार- मुख्य रूप से गाजीपुर जिले (उ.प्र।) में पाए जाते हैं समीपवर्ती कैमूर जिला (बिहार)। गहमर (ज़मानिया तहसील, गाजीपुर) सिकरवारों की राजधानी थी। राजा धामदेव के नेतृत्व में सीकरवारो ने आगरा क्षेत्र के मुग़ल आक्रमण के बाद इस क्षेत्र से चले गए। एक स्थानीय प्रमुख, मेघार सिंह के नेतृत्व में, गाजीपुर जिले में ज़मानिया तहसील के कई सिकरवारों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह में भाग लिया। । मेघार सिंह ने अंततः जगदीशपुर के बाबू अमर सिंह और सकरवारों के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया और उज्जैनिया परमार भी अंततः सहयोगी बन गए।  गमार (ज़मानिया तहसील, गाजीपुर) इस जिले में सीकरवार का मुख्यालय था और यह भारत का सबसे बड़ा गाँव भी है।

*कामसार पठान- मूल रूप से राजा धामदेव सिकरवार के भाई, कामदेव सिकरवार के वंशज हैं और मुस्लिम सिकरवार राजपूत हैं। जबकि धामदेव और उनके अनुयायी गमर (ज़मानिया तहसील, गाजीपुर) में बसे थे, उनके भाई कामदेव और उनके अनुयायी रेतीपुर (ज़मानिया तहसील) में बस गए थे।

*चैनपुर (कैमूर) सिकरवार- सिकरवार ने कैमूर जिले के समीपवर्ती चैनपुर तहसील (भभुआ अनुमंडल) पर भी शासन किया, जो बिहार में स्थित है। चैनपुर सिकरवारों के सबसे महत्वपूर्ण शासक राजा सालिवाहन थे, जिन्होंने चैनपुर किले का निर्माण किया था और शेरशाह सूरी के उत्तराधिकार से पहले इस क्षेत्र में प्रमुख थे। कैमूर में सिकरवार गाँव कुदरा तहसील (मोहनिया उपखंड, में भी पाए जाते हैं)

मेघर सिंह के नाम से एक स्थानीय सरदार के नेतृत्व में, पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के ज़मानिया में कई सकरवार (राजपूत और भूमिहार दोनों) ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक विद्रोह में भाग लिया। लगता है कि मेघर सिंह का विद्रोह क्षेत्र के कुंवर सिंह की सेनाओं के आंदोलन से प्रभावित था और मई 1858 में, पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार में कई सकरवारों ने लूटपाट शुरू कर दी। मेघर सिंह ने अंततः जगदीशपुर के बाबू अमर सिंह के नेतृत्व को स्वीकार किया और सकरवार व उज्जैनिया सहयोगी बन गए। 

घनश्यामसिंह राजवी चंगोई 

(नोट- वेबसाईट का updation जारी है, अपने सुझाव व संशोधन whatsapp no. 9460000581 पर भेज सकते हैं) .

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चंगोई गढ़

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