(संकलन- घनश्यामसिंह राजवी चंगोई)
“पंद्रहसौ पेंतालवे, सुद बैशाख सुमेर !
थावर बीज थरपियो, बीको बीकानेर !!”


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जोधपुर के राव जोधाजी के जेष्ठ पुत्र व बीकानेर के संस्थापक राव बीकाजी का जन्म सांखली राणी नोरंगदे के गर्भ से विक्रम सम्वत 1495, श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को हुआ।
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 Rao Bikaji
 . वंशक्रम 
1. राजा जयचंद राठौड़ (कन्नौज)
2. बरदाई सेन जी
3. सेतरामजी
4. राव सीहाजी (पाली)
5. आस्थानजी (खेड़)
6. धुहड़ जी
7. रायपाल जी
8. कान्हपालजी
9. जालणसी जी
10. छाडा जी
11. टीडा जी
12. सलखा जी
13. वीरमजी
14. राव चुंडाजी (मण्डोर)
15. रणमलजी
16. राव जोधाजी (जोधपुर)
17. राव बीकाजी (बीकानेर)
राव बीकाजी का नए राज्य के लिए प्रस्थान

बीकाजी राव जोधा के दूसरे एवं जीवित पुत्रों में सबसे बड़े थे। राव जोधा के कई पुत्र थे। चूँकि उनकी मृत्यु के उपरान्त उत्तराधिकार के लिये झगड़ा होने को अधिक सम्भावना थी, उसने बीका से कहा कि वह अपने पिता के सिंहासन को उत्तराधिकार में पाने की प्रतीक्षा करने की अपेक्षा अपने लिये एक नया राज्य बनाकर अपनो योग्यता प्रमाणित करने का प्रयत्न करे। इस प्रकार 30 सितम्बर सन् १४६५ को राव बीका नये प्रदेश जीतने की दृढ़ इच्छा से अपने चाचा काँधल और अपने मामा नापा सांखला को साथ लेकर मारवाड़ से रवाना हुए । उसके साथ बहुत से स्वामी भक्त हित चिन्तक भी थे। जिनमें चाचा रूपा, मण्डला, नाथू और बीका के भाई जोगा व बीदा के अलावा पड़िहार बेला भी था। बीका के साथ एक सौ सवार तथा पाँच सो पैदल सैनिक थे। 

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 (राव बीकाजी -मध्य में- अपने चाचा कांधलजी व छोटे भाई बीदाजी के साथ नए राज्य की स्थापना हेतु जोधपुर से प्रस्थान करते हुए )
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घर से चलकर राव बीका पहले दिन मण्डोर ठहरा और वहाँ उसने गौरीजी की पूजा की । वहाँ से आगे चलकर बीका देशनोक में जा कर ठहरा और करणी जी के प्रति अपनी श्रद्धा अर्पित की। करणी जी चारण जाति में उत्पन्न एक देवी थी। अति प्राकृत शक्तियों के कारण वह लोगों द्वारा पूजी जाती थी। कहा जाता है कि करणी जी ने भविष्य वाणी की कि बीका यश और शक्ति में अपने पिता से भी बढ़कर होगा और बहुत से बड़े-2 लोग उसे अपना स्वामी मान कर गौरवान्वित होंगे ।

 
बीकानेर की स्थापना

वर्तमान बीकानेर, चुरू, हनुमानगढ़ और गंगानगर जिलों का क्षेत्र, बीकानेर रियासत के राजस्थान संघ में एकीकरण से पूर्व, बीकानेर के राठौड़ राज्य के नाम से ज्ञात था। यह 27 से 30° उत्तरी अक्षांश तथा 72 से 75° पूर्व देशान्तर के बीच स्थित था। यह उत्तर और पश्चिम में भावलपुर रियासत, दक्षिण- पश्चिम में जैसलमेर रियासत, दक्षिण में जोधपुर रियासत, दक्षिण पूर्व में जयपुर रियासत, पूर्व में लोहारू रियासत व हिसार जिले एवं उत्तर-पूर्व में फिरोजपुर जिले से घिरा हुआ था।” इसका क्षेत्रफल २३,३१७ वर्ग मील था और क्षेत्रफल की दृष्टि से यह भारत की समस्त रियासतों में छठी ओर राजपूताना में दूसरी सबसे बड़ी रियासत थी। इस क्षेत्र के उत्तरी भाग समतल और उपजाऊ है एवं नहर द्वारा सिंचित भूमि के अतिरिक्त, वर्षा के वर्षों में रबी और खरीफ दोनों फसल उगाने की दृष्टि से काफी उपजाऊ है।

पूर्वकाल में यहाँ के प्राकृतिक रूप, विशेषताओं, जलवायु और दूसरे भौगोलिक विषयों ने बीकानेर के पास रहने वाले लोगों के जीवन को इतना अधिक प्रभावित किया है कि इसका यहाँ के इतिहास के प्रवाह पर निश्चित प्रभाव पड़ा है। सिवाय एक छोटे भू भाग के उत्तर पश्चिम का समस्त क्षेत्र ऊँचे रेत ले टीलों का है जो स्थान बदलते रहते हैं। सतह का आकार इस प्रकार का है कि रेगिस्तान में से निकलना लगभग असम्भव हो जाता है। सूरतगढ़ तक का भाग निर्जन है और रेत के टीलों वाला है जो जंगली झाड़ियों से ढ़का हुआ है। यद्यपि वहाँ से आगे चिकनी मिट्टी का समतल मैदान है जहाँ वनस्पति ज्यादा है और गाँव भी अधिक हैं। लेकिन यह समस्त क्षेत्र बंजर भूमि वाला और डाकुओं व लुटेरों का अड्डा था। यहाँ की जमीन ऐसी है कि वर्षा के सारे पानी को बरसते ही सोख लेती है इससे बहुत गहरे कुओं का निर्माण आवश्यक हो जाता है। जीवन के सामान्य कार्यों और घरेलू उपयोग के लिए भी वर्षा के पानी को कुन्डों में इकट्ठा करने के सभी सम्भव प्रयत्न किये जाते हैं। भूतकाल में पानी की कमी ने बहुधा यहाँ के निवासियों को अपने पूरे परिवार के साथ अधिक उपजाऊ भूमि में चले जाने को विवश किया। पानी का प्रभाव, वर्षा की कमी व नदियां न होने से यहां के लोग खेती की अपेक्षा पशुपालन को अधिक उपयुक्त समझते थे।

बीका रेगिस्तानी भाग को मील-मील करके जीतता गया जो बाद में बीकानेर राज्य बना। उसे इस इलाके में रहने वाले लोगों के हमलों को रोकना पड़ा। इस इलाके से उत्तर और पश्चिम की ओर भाटियों का अधिकार था। उत्तर पूर्व और दक्षिण पूर्व में जाटों के स्वाधीन शासक थे। इसके अलावा भट्टी, चायल और जोहिया थे। थोड़ी ही दूर हिसार में दिल्ली के बादशाह का मुस्लिम सूबे दार शासन करता था। क्यामखानी, जिनका शेखावटी पर अधिकार था और बीदावत क्षेत्र के मोहिल और खीची बिना विरोध किये अपने इतने अधिक पास एक नई शक्ति का उदय नहीं देखना चाहते थे।

करणी जी के निर्देशानुसार राव बीका चाण्डासर के निकट बस गया जहां वह 3 वर्ष तक रहा। उसके बाद वह देशनोक चला गया जहां वह बहुधा करणी जी के दर्शन करता था। बाद में उसने आस पास के इलाके जीत लिये और कोड़मदेसर में जाकर बस गया। सन् 1472 में उसने अपने को राजा घोषित किया।

ख्यातों के अनुसार पूगल का शासक राव शेखा लूट मार किया करता था। एक बार जब वह मुल्तान की ओर से लूट कर आ रहा था तो मुल्तान के सूबेदार की सेना से उसकी मुठभेड़ हो गई। इसमें उसके कई आदमी मारे गये और वह पकड़ लिया गया। शेखा को छुड़ाने के लिए उसकी पत्नी ने करणीजी से सहायता माँगी । करणीजी द्वारा राव शेखा को कैद से छुड़ाने पर राव शेखा की पुत्री रंगदे अथवा रंगकुमारी का विवाह राव बीका से कर दिया।

सन् 1478 में राव बीका ने कोड़मदेसर के तालाब के पास एक किला बनवाना चाहा। राव शेखा ने इसका विरोध किया। राव बीका अपनी योजना के अनुसार काम करता रहा। इस पर भाटी नाराज हो गये और कलिकर्ण, जो जैसलमेर के रावल का छोटा पुत्र था, की सहायता से एक शक्तिशाली सेना लेकर बीका पर आक्रमण किया। बीका ने अपने भाई बीदा और चाचा कान्धल की सहायता से भाटियों को बुरी तरह हराया।

हार के बावजूद भाटियों की नाराजी बराबर बनी रही अतः बीका ने किले के लिए कोई दूसरा स्थान ढूंढ़ने का निश्चय किया। उसने नापा और कई दूसरे लोगों को जगह ढूढ़ने के लिये भेजा। खोज करने वाले राती घाटी नामक स्थान पर आये। इसे उन्होंने शुभ समझा और बीका ने यहां किले की नींव रक्खी। लेकिन नापा और उसके साथियों द्वारा इससे भी अधिक अनुकूल स्थान की खोज जारी रही। नापा ने एक दूसरा और अधिक बड़ा किला बनाने के लिये एक अन्य स्थान का चयन किया। यहाँ सन् 1485 में बीका के किले की नींव रक्खी गई और निर्माण आरम्भ हुआ।

 

 
जोधपुर से पूजनिक चीजों को बीकानेर लाना
 
Junagarh Fort

 

 

 

 

मारवाड़ के शासक राव जोधा की छः रानियाँ व सत्तरह पुत्र थे। राव जोधा का सबसे बड़ा पुत्र राव नीबा, राव जोधा के शासन काल में ही स्वर्गवासी हो गया था। दूसरा पुत्र राव बीका ही मारवाड़ का उत्तराधिकारी था; लेकिन राव जोधा ने अपनी प्रिय रानी जसमादे के प्रभाव में आकर दूसरे पुत्र राव सातल को जोधपुर का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। राव सातल को जोधपुर का उत्तराधिकारी घोषित कर देने से बीका नाराज हो गया। बीका के बढ़ते प्रभाव को देखकर राव जोधा घबरा गया। उसको डर था कि कहीं बीका जोधपुर पर आक्रमण न कर दे, किन्तु बीका ने अपने पिता को वचन दिया कि- “मैं जोधपुर पर कभी आक्रमण नहीं करूँगा व जोधपुर रियासत को अपना ज्येष्ठ मानूँगा।”

सन 1489  में जोधपुर के राव जोधाजी का स्वर्गवास होने पर बीकाजी ने जेष्ठ पुत्र होने के नाते राजगद्दी पर अपना अधिकार जताया। लेकिन अपनी सौतेली मां के यह कहने पर कि “तुम तो पहले से ही एक स्वतंत्र राज्य के स्वामी हो, अपने पिता का राज्य अपने छोटे भाइयों के लिए छोड़ दो” बीकाजी ने जोधपुर की राजगद्दी पर अपना अधिकार छोड़ दिया। लेकिन टिकाईपने की निम्न लिखित 14 पूजनिक चीजें जोधपुर से बीकानेर ले आये ….

1. तख्त एक चन्दन का (कन्नौज से लाया हुआ)
2. राव जोधा की ढाल
3. राव जोधा की तलवार
4. राव जोधा की कटार
5. छत्र
6. चंवर
7. हिरण्यगर्भ लक्ष्मीनारायण जी की मूर्ति
8. नागणेची जी की चांदी की अट्ठारह हाथों की मूर्ति
9. करंड (संदूक)
10. भंवर ढोल
11. बेरिसाल नगारा
12. राव जोधा का दलसिंगार घोड़ा
13. दक्षिणावर्त शंख
14. भूंजाई की देग

 

उस समय इस क्षेत्र की उत्तरी पूर्वी सीमा पर जाटों का अधिकार था। इनमें से गोदारों ने जोहियों के हमले से बचने के लिये बीका की सत्ता स्वीकार करली। बीका ने सारणों के मुखिया पूला के विरुद्ध गोदारां के मुखिया पांडु की सहायता की। पूला को बुरी तरह से हराया तो धीरे धीरे जाटों की दूसरी जातियों ने भी बीका की अधीनता स्वीकार कर ली। इस प्रकार जाटों को विभिन्न जातियों के 1664 गाँव बीकानेर राज्य में मिल गये।

तब बीका ने सिंधाना पर आक्रमण किया और जोहियों को अपने अधीन कर लिया। बाद में उसने खिचियों पर हमला किया जिनके पास बीकानेर के बीच में 140 गाँव थे। बीका ने देवराज खींची को मार डाला और उसके गांवों को अपने राज्य में मिला लिया। उसने सिंध की ओर बिलोचों के कुछ इलाकों पर भी कब्जा कर लिया। तथा क्यामखानियों से शेखावाटी व पठानों से कर्णवाटी का कुछ क्षेत्र छीन लिया। इस प्रकार बीकानेर राज्य अब तीन हजार गांवों तक फैला हुआ था व इसकी सीमा पंजाब तक पहुंच गई थी।

बीका का अंतिम आक्रमण रेवाड़ी पर हुआ। बहुत दिनों से उसकी इच्छा दिल्ली की तरफ़ की भूमि दबाने की थी। अतएव फ़ौज के साथ उसने रेवाड़ी की ओर कूच किया और उधर की बहुत सी भूमि पर अधिकार कर लिया। खंडेले के स्वामी रिड़मल को जब इसकी खबर लगी तो उसने दिल्ली के सुलतान से सहायता की याचना की, जिसपर सुलतान ने 4000 फ़ौज के साथ नवाब हिंदाल को उसके साथ कर दिया। ये दोनों बीका पर चढ़े, जिसपर बीका ने वीरतापूर्वक इनका सामना किया तथा रिड़मल और हिन्दाल दोनों को तलवार के घाट उतार नवाब की सारी सेना को भगा दिया।

 

राव बीका से बीकानेर का अलग इतिहास आरम्भ हुआ। उसने अपनी मातृभूमि छोड़ी और जांगलू के साँखलों में उत्तरी सीमाओं पर बसने आया। यहां से उसकी दृष्टि उत्तर पूर्व की ओर गई जिसके बहुत बड़े इलाके का कुछ भाग शान्ति प्रिय जाटों के अधिकार में था और कुछ भाग लड़ाकू मोहिलों के। उसने अपनी महत्वाकांक्षा से विजय का अभियान प्रारम्भ किया। फलस्वरूप थोड़े ही समय में यह पूगल की सीमा से हिसार तक और घग्घर से नागौर की सीमा तक सारे रेगिस्तान का स्वामी बन गया। अपनी विजयी तलवार से उसने देरावर, दीपालपुर, भटनेर, भटिंडा, नागौर और फतेहपुर के द्वार खटखटाये। इस प्रकार बीका का इतिहास मानव की महत्वाकांक्षा और दृढ़ निश्चय के उज्ज्वल स्मारक का प्रतीक है।

11 सितम्बर सन 1504 को 66 वर्ष की उम्र में बीकानेर में बीका का स्वर्गवास हो गया। बीकाजी के दस पुत्र थे (नैणसी की ख्यात में 7 पुत्रों का उल्लेख है) … 

  1. राव नरोजी – बीकानेर के राजा बने !
  2. राव लुनकरणजी – बीकानेर के राजा बने ! 
  3. कुंवर घड़सी :- इनके वंशज घड़सियोत बीका हुए (ठिकाना घड़सीसर, गारबदेसर ) !
  4. कुंवर अमर सिंह :- इनके वंशज अमरावत बीका हुए !
  5. कुंवर राज सिंह :- इनके वंशज राजसिंगोत बीका हुए !
  6. कुंवर मेघराज 
  7. कुंवर केलण 
  8. कुंवर देवसी 
  9. कुंवर विजयसिंह 
  10. कुंवर बीसा  :- इनके वंशज बिसावत बीका हुए !  

राव नरा  (बीकानेर के दूसरे राजा : 1504-1505) – 

   राव बीका के मृत्यु के बाद उसका पुत्र नरा बीकानेर का शासक बना, लेकिन उसकी कुछ महिनों बाद ही मृत्यु हो गई।

 

राव लूणकरण (बीकानेर के तीसरे राजा : 1505-1526) –

   राव नरा की मृत्यु के बाद बीकाजी का दूसरा पुत्र लूणकरण बीकानेर का शासक बना। जिसने डीडवाणा, सिघांणा व बांगड़ प्रदेश को अपने प्रदेश में मिला लिया। उसने 1509 में ददरेवा के स्वामी मानसिंह चौहान को हराकर ददरेवा पर कब्ज़ा किया। 1512 में उसने फतेहपुर पर आक्रमण किया और 120 गांवों पर कब्जा कर लिया। चायलवाड़ा (साहवा से हिसार व् सिरसा के मध्य) के मालिक पूना चायल को हराकर 400 गांवों पर कब्ज़ा किया। 1513 में नागौर के स्वामी मुहम्मद खान ने बीकानेर पर हमला किया लेकिन लूणकरण ने उसे पराजित कर दिया। सन 1526 में नारनौल के नवाब के साथ युद्ध में धौंसा नामक स्थान पर राव लूणकरण मारा गया। यह भी अपने पिता की तरह वीर और प्रजापालक था। वैसे बीकानेर का कर्ण के नाम से भी जाना जाता है, बीठू सुजा ने अपने ग्रन्थ राव जेतसी रो छन्द में लुणकरण की दानशीलता का उल्लेख किया है। इसके 12 पुत्र हुए (नैणसी की ख्यात में 10 पुत्रों का उल्लेख है) … 

  • राव जैतसी – बीकानेर के राजा बने ! 
  • कुंवर रतन सिंह  :- इनके वंशज रतनसिंगोत बीका हुए (ठिकाना महाजन, कुंभाणा) !
  • कुंवर प्रताप सिंह :- इनके वंशज प्रतापसिंगोत बीका हुए !
  • कुंवर बैरसी :- इनके पुत्र नारण के वंशज नारणोत बीका हुए (ठिकाना मगरासर, मेनसर, तेहनदेसर, कातर)!
  • कुंवर तेजसी  :- इनके वंशज तेजसिंहोत बीका हुए !  
  • कुंवर नेतसी 
  • कुंवर करमसी 
  • कुंवर किशनसी 
  • कुंवर रामसिंह 
  • कुंवर सूरजमल 
  • कुंवर कुशलसिंह 
  • कुंवर रूपसी 

 राव जैतसी-  (बीकानेर के चौथे राजा : 1526- 1542)

लुणकरण की मृत्यु के बाद उसका पुत्र राव जैतसिह बीकानेर का शासक बना। जिसने गंगाणी के युद्ध में जोधपुर के शासक राव गागा की मदद की। सन 1534 में बाबर के पुत्र कामरान ने भटनेर (जोकि कांधल के पौत्र खेतसी के अधिकार में था) पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया व फिर सेना लेकर बीकानेर पर चढ़ आया। जेतसी एक बार तो गढ़ छोड़कर हट गया, लेकिन फिर सेना एकत्र कर वापिस हमला किया व रातीघाटी के युद्ध में  मुगल सेना को मार भगाया। जोधपुर के शासक राव मालदेव ने 1541 में अपनी विस्तारवादी व महत्वकांक्षी नीति के तहत बीकानेर पर आक्रमण कर दिया। राव जैतसी पाहिबा/सौहुए के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ व बीकानेर पर मालदेव का अधिकार हो गया। यह पहला अवसर था जब दोनों रियासतों के मध्य युद्ध हुआ। इससे पहले ये सामुहिक रूप से प्रतिकार करते थे। जैतसी के तेरह पुत्र हुए …. 

  • राव कल्याणमल :- बीकानेर के राजा बने !
  • राजकुमार भीमराज :- इनके वंशज भीमराजोत बीका हुए  (ठिकाना राजपुरा) ! 
  • राजकुमार ठाकुरसी :- इनके पुत्र बाघसिंह के वंशज बाघावत बीका हुए (ठिकाना मेघाणा) !
  • राजकुमार मालदेव
  • राजकुमार कान्ह 
  • राजकुमार श्रृंग :- इनके वंशज श्रिंगोत (सिणगोत) बीका हुए (ठिकाने भुकरका, जसाणा, सिधमुख, बांय, अजितपुरा, बिरकाली, शिमला, रसलाणा, थिराणा, रणसीसर, जबरासर, कानसर) !
  • राजकुमार सुरजन 
  • राजकुमार करमसेन
  • राजकुमार पूरनमल
  • राजकुमार अचलदास
  • राजकुमार मान सिंह :- इनके वंशज मानसिंहोत बीका हुए !
  • राजकुमार भोजराज
  • राजकुमार तिलोकसी

राव कल्याण मल(बीकानेर के पांचवे राजा : 1542- 1574)

पाहिबा के युद्ध में जैतसी वीरगति को प्राप्त हुआ अतः उसका पुत्र कल्याणमल शेरशाह सूरी के पास चला गया। अधिकांश बीकानेर पर मालदेव का अधिकार होने के कारण कल्याणमल का राज्याभिषेक ठकुरियासर में हुआ । सिरसा में रहते हुए ही उसने अपने पैतृक राज्य को प्राप्त करने का प्रयास किया । शेरशाह सूरी व जोधपुर  के राजा मालदेव के मध्य 5 जनवरी 1544 ई. को गिरी सुमेल का युद्ध हुआ । राम कल्याणमल ने गिरी सुमेल के युद्ध में शेरशाह की सहायता की थी।  गीर्री-सुमेल के मैदान में मालदेव पराजित हो गया। 1544 ई. में शेरशाह सूरी ने बीकानेर राज्य कल्याणमल को दे दिया। 1570 ई. में जब अकबर ने नागौर दरबार का आयोजन किया तो बीकानेर शासक राव कल्याणमल अपने पुत्र रायसिंह व पृथ्वीराज के साथ नागौर दरबार में उपस्थित हुआ। अकबर ने कल्याण सिंह के बडे पुत्र रायसिंह को जोधपुर का प्रशासक नियुक्त कर दिया व छोटे पुत्र पृथ्वीराज को मुगल दरबार में ले गया। राव कल्याणमल बीकानेर राज्य तथा मुगलों के बीच प्रथम संधि पर हस्ताक्षर करने वाले प्रथम शासक थे। राव कल्याणमल को दो हजार का मनसब दिया गया । 24 जनवरी 1574 को राव कल्याणमल का देहांत हो गया। इन के 10 पुत्र थे  … 

  • राजा रायसिंह :- बीकानेर के राजा बने !
  • राजकुमार अमर सिंह :- इनके वंशज अमरसिंहोत बीका हुए ( ठिकाना हरदेसर) !  
  • राजकुमार सुरतान 
  • राजकुमार पृथ्वीराज :- कवि पीथळ के नाम से प्रसिद्ध हुए। अकबर के दरबार में नवरत्नों में थे। अकबर ने इन्हे गागरोन का किला दिया था। इनके वंशज पृथ्वीराजोत बीका हुए (ठिकाना ददरेवा)! 
  • राजकुमार राम सिंह 
  • राजकुमार भाण 
  • राजकुमार सारंगदेव   
  • राजकुमार भाखरसी 
  • राजकुमार भोपालसी  
  • राजकुमार राघवदास  

राजा रायसिह (बीकानेर के छठे राजा : 1574- 1612) 

यह अकबर व जहांगीर के विश्वसनीय सेनानायक बने। राजा बनने से पहले ही इनकी योग्यता को देखते हुए 1572 ई. में अकबर ने इन्हे जोधपुर का प्रशासक नियुक्त किया। वहा उनका तीन वर्ष तक अधिकार रहा। 1574 में रायसिह बीकानेर के शासक बने। अकबर ने इन्हे राजा की उपाधि प्रदान दी (इनसे पहले के शासको की उपाधि राव थी)। उन्होने मुगल सेना की मदद से सोजत और सिरियारी में जोधपुर के राजा को हराया। उन्होंने अलग-अलग मौकों पर गुजरात, बंगाल और काबुल के अभियानों में मुगल सेना का नेतृत्व किया। 1577 ई. में अकबर ने इकावन (51) परगने रायसिंह को दिये। खुसरों के विद्रोह के समय जहांगीर ने रायसिंह को अपना विश्वस्त मानकर राजधानी आगरा की जिम्मेदारी सौंपी। उनकी मनसबदारी को 4000 से बढ़ाकर 5000 किया गया। उन्हें 1585 में बुरहानपुर का सूबेदार, 1596 में सूरत का राज्यपाल और 1612 में बुरहानपुर का राज्यपाल नियुक्त किया गया। अकबर और जहांगीर का विश्वासपात्र होने के कारण विशेष अवसरों पर रायसिंह की नियुक्ति हुआ करती थी और समय-समय पर उसे बादशाह की ओर से जागीरें भी मिलती रहीं। 1567 से पहले ही जूनागढ़ और सोरठ के ज़िले रायसिंह को जागीर में मिल गये थे।

पाउलेट ने ‘गैजेटियर ऑव दि बीकानेर स्टेट’ में अकबर के 43 वे राज्यवर्ष ( ई० स० 1566) के उस फ़रमान का उल्लेख किया है, जिसमें रायसिंह को चार करोड़ दाम (करीब 10 लाख रूपये) आय के निम्नलिखित परगने मिलना लिखा है’–
बीकानेर 32,50,000 दाम
बाटलोद  6,40.000 दाम
बारथल (सूबा हिसार में)  9,80,032 दाम
सिदमुख  (सूबा हिसार में)  72,152 दाम
द्रोणपुर (सूबा अजमेर)   7,81,386 दाम
भटनेर (सरकार हिसार में) 6,32,742 दाम
मारोठ (सरकार मुल्तान में) 2,80,000 दाम
सरकार सूरत (सोरठ) में जूनागढ़ तथा अन्य 47 परगने 3,32,66,662 दाम
कुलजोड़ 4,02,06,274 दाम (अर्थात् अनुमान 10,05,157 रुपये)।
वि०सं० १६५७ (सन 1600) में सरकार नागोर आदि के परगने भी उसकी जागीर में शामिल कर दिये गये । वि० सं० १६६१ ( ई० स० 1604) में परगना शम्साबाद के दो भाग कर दोनों ही रायसिंह को दे दिये गये। 

1589 में अपने मंत्री कर्मचंद की देखरेख में बीकानेर के वर्तमान दुर्ग जूनागढ़ का निर्माण करवाया तथा दुर्ग में एक प्रशस्ति लगाई। रायसिह विद्यानुरागी व धार्मिक प्रवृत्ति का था। जिसने ‘राय सिंह महोत्सव’ व ज्योतिष रत्नमाला जैसे ग्रंथों की रचना की। कवि जयसोम रचित  “कर्मचन्द वंशौत्कीर्तिम् काव्यम्” में महाराजा रायसिंह को राजेन्द्र कहा गया है। इनकी दानशीलता के कारण मुंशीदेवी प्रसाद ने इन्हे राजपूतानें के करण की संज्ञा दी। 1612 में दक्षिण भारत के बुरहानपुर में इनकी मृत्यु हो गई।  इन के पांच पुत्र हुए  (नोट- नेणसी ने 4 पुत्रों के ही नाम दिए हैं, हनवंत सिंह का नाम नहीं है) …. 

  • राजा दलपतसिंह :- बीकानेर के राजा बने !
  • राजा सूरसिंह :- बीकानेर के राजा बने !
  • राजकुमार भूपसिंह  
  • राजकुमार हनवंत सिंह
  • राजकुमार किशन सिंह :- इनके वंशज किशनसिंहोत बीका हुए ( ठिकाना सांखू, नीमा, रावतसर कुंजला) ! 

राजा दलपत सिंह (बीकानेर के 7वें राजा : 1612-1614) 

महाराजा रायसिंह की मृत्यु के बाद दलपत सिह बीकानेर के शासक बने। यह बहुत ही वीर एवं महत्वाकांक्षी थे। राव दलपत का सम्राट जहांगीर से मनमुटाव हो गया। जहांगीर ने दलपत को गद्दी से हटाकर उसके भाई सूरसिह को शासक बना दिया।

राजा सूर सिंह (बीकानेर के 8वें राजा : 1614 -1631)  

उन्हें अपने भाई दलपत के स्थान पर जहांगीर के सहयोग से बीकानेर की गद्दी मिली। इन्होने अपने पिता रायसिंह को अंतिम समय में दिए वचन की पलना में, उनके साथ षड्यंत्र करने वालों (दीवान कर्मचंद, पुरोहित मान महेश, बारहठ चौथ व भरथा सारण) से बदला लिया। इन के शासनकाल के अंत तक बीकानेर राज आकार में बहुत कम हो गया था। उन्होंने भी दिल्ली के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखा और विभिन्न सैन्य अभियानों में शाही सेना का नेतृत्व किया। इनके तीन पुत्र हुए  …. 

  • राजा कर्ण सिंह 
  • राजकुमार शत्रुसालजी
  • राजकुमार अर्जुनसिंह  
राजा कर्णसिंह (बीकानेर के 9वें राजा 1631/1669) 

बीकानेर के राठौड़ राजाओं में महाराजा करण सिंह का स्थान बड़ा महत्त्वपूर्ण है। बादशाह शाहजहाँ के दरबार में करणसिंह का सम्मान ऊँचा था। उनके पास दो हजार जात व डेढ़ हजार सवार का मनसब था। कट्टर और धर्मांध मुग़ल शासक औरंगजेब से बीकानेर के राजाओं में सबसे पहले उनका ही सम्पर्क हुआ था। औरंगजेब के साथ उन्होंने कई युद्ध अभियानों में भाग लिया था अत: जहाँ वे औरंगजेब की शक्ति, चतुरता से वाकिफ थे। वहीं औरंगजेब की कुटिल मनोवृति, कुटिल चालें, कट्टर धर्मान्धता उनसे छुपी नहीं थी। यही कारण था कि औरंगजेब ने जब पिता से विद्रोह किया तब वे बीकानेर लौट आये और दिल्ली की गद्दी के लिए हुए मुग़ल भाइयों की लड़ाई में तटस्थ बने रहे। औरंगजेब के साथ कई युद्ध अभियानों में भाग लिया पर वे सदैव उसकी तरफ से सतर्क रहते थे। उन्होंने सभी हिन्दू राजाओं को औरंगजेब का जबरन मुसलमान बनाने का षड्यंत्र विफल कर दिया। औरंगजेब की उक्त मंशा असफल होने पर वह महाराजा करण सिंह पर काफी क्रुद्ध हुआ।  

जंगलधर बादशाह की पदवी : राजस्थान के मूर्धन्य इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार “ ऐसी प्रसिद्धि है कि एक समय बहुत से राजाओं को साथ लेकर बादशाह ने ईरान (?) की और प्रस्थान किया और मार्ग में अटक में डेरे हुए. औरंगजेब की इस चाल में कयास भेद था, यह उसके साथ जाने वाले राजपूत राजाओं को मालूम न होने से उनके मन में नाना प्रकार के सन्देह होने लगे, अतएव आपस में सलाह कर उन्होंने साहबे के सैय्यद फ़क़ीर को, जो करण सिंह के साथ था, बादशाह के असली मनसूबे का पता लगाने भेजा. उस फ़क़ीर को अस्तखां से जब मालूम हुआ कि बादशाह सब को एक दीन करना चाहते है, तो उसने तुरंत इसकी खबर करण सिंह को दी. तब सब राजाओं ने मिलकर यह राय स्थिर की कि मुसलमानों को पहले अटक के पार उतर जाने दिया जाय, फिर स्वयं अपने अपने देश को लौट जायें. बाद में ऐसा ही हुआ. मुसलमान पहले उतर गये. इसी समय तब सब के सब करण सिंह के पास गए और उन्होंने उससे कहा कि आपके बिना हमारा उद्धार नहीं हो सकता. आप यदि नावें तुड़वा दें तो हमारा बचाव हो सकता है, क्योंकि ऐसा होने से देश को प्रस्थान करते समय शाही सेना हमारा पीछा न कर सकेगी. करणसिंह ने भी प्रस्ताव स्वीकार कर लिया ऐसा ही किया गया और इसके बदले में समस्त राजाओं ने करणसिंह को “जंगलधर बादशाह” का ख़िताब दिया. जैसा की इतिहासकार गौरीशंकर ओझा ने लिखा है कि औरंगजेब के षड्यंत्र विफल करने के लिए राजाओं का नेतृत्व करने के बदले राजाओं ने उन्हें जंगलधर बादशाह का ख़िताब दिया. 

अंतिम समय : हिन्दू राजाओं को मुसलमान बनाने का षड्यंत्र विफल कर देने पर औरंगजेब ने नाराज होकर दिल्ली लौटने पर उनके ऊपर सेना भेजी। उनके पुत्र को राजा की पदवी व मनसब आदि दिए गए व उन्हें बुलाकर मरवाने का षड्यंत्र द्वारा रचा गया। इसी षड्यंत्र के तहत उन्हें एक दूत के माध्यम से सूचना देकर दरबार में बुलवाया गया, जिसे उन्होंने स्वीकार भी कर लिया। पर औरंगजेब की कुटिल चालों को समझने वाले महाराजा करण सिंह अपने दो वीर पुत्रों केसरी सिंह तथा पद्म सिंह को साथ ले दिल्ली दरबार में पहुंचे, जिसकी वजह से औरंग द्वारा उन्हें मरवाने के प्रबंध विफल हो गए। तब बादशाह ने उन्हें औरंगाबाद में भेज दिया, जहाँ वे अपने नाम से बसाए कर्णपुरा में रहने लगे। 

विद्यानुराग : महाराजा करण सिंह स्वयं विद्वान व विद्यानुरागी होने के साथ विद्वानों के आश्रयदाता थे। उनकी सहायता से कई विद्वानों ने मिलकर “साहित्यकल्पद्रुम” नामक ग्रन्थ रचा, पंडित गंगानंद मैथिल ने “कर्णभूषण”, “काव्य डाकिनी”, भट्ट होसिक कृत “कर्णवंतस”, कवि मुद्रल कृत “कर्णसंतोष” व “वृतासवली” नामक ग्रन्थों की रचना हुई जो आज भी बीकानेर के राजकीय पुस्तकालय में विद्यमान है। 

औरंगाबाद पहुँचने के लगभग एक वर्ष बाद महाराजा करण सिंह निधन हो गया।  करणसिंह की स्मारक छतरी के लेख के अनुसार वि.स. 1726 आषाढ़ सुदि 4 मंगलवार (22 जून 1669) को उनका निधन हुआ था। नेणसी ने महाराजा करण सिंह के 10 पुत्रों के नाम दिए हैं,- 

  • महाराजा अनूप सिंह
  •  कुंवर केसरी सिह 
  •  कुंवर पद्म सिंह,  
  •  कुंवर मोहनसिंह, 
  •  कुंवर देवीसिंह, 
  • कुंवर मदन सिंह,
  • कुंवर अमरसिंह.
  • कुंवर अजबसिंह 
  • उदयसिंह
  • मालीदास

(नोट-  गौरीशंकरओझा के इतिहास में उदयसिंह व मालीदास के नाम नहीं है। नेणसी  ने मालीदास, शायद बनमालीदास को लिखा है, जोकि अनौरस पुत्र था)

महाराजा अनूपसिंह (बीकानेर के 10वें राजा 1669 -1698)

महाराजा कर्णसिंह के आठ पुत्र थे जिनमें अनूपसिंह सबसे बड़ा था। जब महाराजा कर्णसिंह से राजपाट छीना गया तब औरंगजेब ने अनूपसिंह को दो हजार जात तथा डेढ़ हजार सवार का मनसब देकर बीकानेर का राज्याधिकार सौंप दिया। महाराजा कर्णसिंह की मृत्यु होने के बाद 4 जुलाई 1669 को अनूपसिंह बीकानेर की गद्दी पर बैठा। 1685-86 ई. मे बीजापुर और 1687 ई. में गोलकुंडा के घेरे के समय यह मुगल सेना के साथ था । उसे छत्रपति शिवाजी के विरुद्ध लड़ने के लिये भेजा गया जहां उसने बड़ी वीरता से मुस्लिम फौज का नेतृत्व किया तथा महाराज शिवाजी को बड़ी क्षति पहुंचायी। नूपसिंह की वीरता से प्रभावित होकर औरंगजेब ने इसे ‘ महाराजा ‘ व “माही भरातिव‘ की उपाधि दी। उस ने अनूपगढ़ नामक दुर्ग का निर्माण करवाया।    

बनमालीदास को मरवाना– अनूपसिंह के अनौरस (पासवानिये) भाई बनमालीदास ने बादशाह की सेवा में रहकर वहां के एक कार्यकर्ता सय्यद हसनअली से बड़ी घनिष्टता पैदा कर ली थी, जिसकी सिफ़ारिश पर बादशाह ने पीछे से बीकानेर का आधा मनसब उस (बनमालीदास) को प्रदान कर दिया। तब कुछ फ़ौज साथ लेकर बनमालीदास बीकानेर गया और पुराने गढ़ के पास ठहरा। राज्य की ओर से उसका अच्छा सत्कार किया गया। उसने मूंधड़ा रघुनाथ आदि खजांवियों को बुलाकर पट्टा-बही लाने को कहा। जब उन्होंने ऐसा करने से इनकार किया तो उसने उन्हें क़ैद कर लिया। अनूपसिंह के पास इसकी खबर पहुंचने पर उसने उदैराम अहीर से बनमालीदास को मरवाने की सलाह की। उदैराम यह कार्यभार अपने ऊपर ले बनमालीदास के पास पहुंचा और थोड़े समय में ही उसने उसले खूब मेल-जोल पैदा कर लिया। फिर चंगोई के पास उसका गढ़ बनवाने का विचार देख उदैराम वह स्थान एवं बीकानेर के गांवों का रुका अनूपसिंह से लिखवा कर बनमालीदास को दे दिया। वनमालीदास उदैराम की इस सेवा से बहुत प्रसन्न हुआ और कुछ समय बाद चंगोई चला गया। अनूपसिंह का एक विवाह वाय के सोनगरे लक्ष्मीदास की पुत्री से हुआ था। इस समय बनमालीदास को मारने का कार्य अनूपसिंह ने लक्ष्मीदास को बुलाकर उसे ही सौंपा और उसकी सहायता के लिए राजपुरा के प्रतापसिंह बीका भीमराजोत को उसके साथ कर दिया। कुछ दिनों बाद दोनों अनूप सिंह के विद्रोहियों के रूप में चंगोई में बनमालीदास के पास पहुंचे। अनूपसिंह ने इस सम्बन्ध में बनमालीदास को सचेत करते हुए एक पत्र उसके पास भेज दिया था, परन्तु इससे उसने और भी उतेजित हो उन्हें अपनी सेवा में रख लिया । अनन्तर लक्ष्मीदास ने उस (बनमालीदास) से अर्ज़ की कि मैं साथ में एक डोला लाया हूं; यदि आप विवाह कर लें तो बड़ा उपकार हो । बनमालीदास के स्वीकार करने पर, एक दासी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया गया, जिसने विवाह की रात्रि को ही पूर्व आदेशानुसार उसको शराब में संस्त्रिया मिलाकर पिला दिया, जिससे उसी समय उसकी मृत्यु हो गई। बनमालीदास की स्मारक छतरी अभी भी चंगोई गांव (तारानगर के पास) में बनी हुई है।

महाराजा कर्णसिंह के पुत्र केसरीसिंह, पदमसिंह और मोहनसिंह भी बड़े पराक्रमी क्षत्रिय थे। किंतु उनकी वीरता से प्रभावित होकर औरंगजेब ने उन्हें अपनी चतुराई, कपट और कृत्रिम विनय का प्रदर्शन कर उन्हें पूर्णतः कब्जे में कर रखा था। जब केसरीसिंह और पद्मसिंह दाराशिकोह को खजुराहो के मैदान में परास्त कर औरंगजेब के पास ले आये तो औरंगजेब ने अपने रूमाल से उनके बख्तरों की धूल साफ की। ये दोनों औरंगजेब के लिये लड़ाइयां लड़ते हुए मारे गये। पद्मसिंह को तो बीकानेर राजपरिवार का सबसे वीर पुरुष माना जाता है। उसकी तलवार का वजन आठ पौण्ड तथा खाण्डे का वजन पच्चीस पौण्ड था। वह घोड़े पर बैठकर बल्लम से शेर का शिकार करता था। इनका एक दोहा भी प्रसिद्ध है ..

कटारी अमरेश री, पदमे री तलवार ! सेल तिहारो राजसिंह, सराह्यो संसार !!

विद्यानुराग- महाराजा अनूपसिंह को विद्वानों का जन्मदाता कहा जाता है । अनूपसिंह संस्कृत भाषा का अधिकारी विद्वान था। उसने अनूप विवेक (तंत्रशास्त्र), काम प्रबोध ( कामशास्त्र), श्राद्ध प्रयोग चिंतामणि और गीत गोविंद की अनूपोदय नामक टीका की रचना की। उसके दरबार में संस्कृत के अनेक विद्वान रहते थे। अनूपसिंह के समय आन्नदराम ने पहली बार गीता का राजस्थानी भाषा में अनुवाद किया। महाराजा अनूपसिंह के शासनकाल में ही “बेताल पचीसी‘ की कथाओं का कविता मिश्रित मारवाड़ी गद्य में अनुवाद किया गया। अनूपसिंह के दरबारी मणिराम ने ” अनूप व्यवहार सागर, अनूप विलास ‘ अनंग भट्ट ने ” तीर्थ रत्नाकर ‘ तथा वैद्यनाथने ‘ज्योत्पत्ति सार’ नामक ग्रंथों की रचना की। उन्होंने दक्कन में रहते हुए संस्कृत और अन्य भाषाओं में बड़ी संख्या में दुर्लभ पांडुलिपियों का संग्रह किया और एक पुस्तकालय की स्थापना की, जिसे अनूप संस्कृत पुस्तकालय के रूप में जाना जाता है। उसने देश भर के संस्कृत के दुलर्भ ग्रंथों को खरीद कर बीकानेर के पुस्तकालय में सुरक्षित करवाया ताकि उन्हें औरंगजेब नष्ट न कर सके। पुस्तकों की ही भांति मूर्तियों को भी उसने हिन्दुस्तान भर से खरीदकर बीकानेर में संग्रहीत करवाया ताकि उन्हें मुसलमानों के हाथों नष्ट होने से बचाया जा सके। मूर्तियों का यह विशाल भण्डार 33 करोड़ देवताओं का मंदिर कहलाता है। अनूपसिंह संगीत विद्या में भी निष्णात था। उसने संगीत सम्बन्धी अनेक ग्रथों की रचना की थी। अनूपसिंह के दरबार में संगीताचार्य जनार्दन भट्ट का पुत्र भावभट्ट इनका दरबारी साहित्यकार व संगीतकार था, जिसने ‘संगीत रत्नाकर’ की रचना की। अनूपसिंह का काल बीकानेर में चित्रकला व उस्ता कला का स्वर्णकाल माना जाता है। अनूपसिंह के समय उस्ताकला लाहोर से बीकानेर आई। 

मुंशी देवीप्रसाद ने स्वयं महाराजा के बनाये हुए ग्रन्थों की नामावली में नीचे लिखे हुए नाम दिये हैं
सन्तानकल्पलता ( वैद्यक ) |
चिकित्सामालतीमाला ( वैद्यक ) |
संग्रहरत्नमाला ( वैद्यक ) |
अनूपरत्नाकर ( ज्योतिष ) ।
अनूपमहोदधि ( ज्योतिष ) ।
संगीतवर्तमान ( संगीत ) ।
संगीतानूपराग ( संगीत ) ।
लक्ष्मीनारायणस्तुति ( वैष्णवपूजा ) |
लक्ष्मीनारायण पूजासार (छन्दोबद वैष्णवपूजा ) ।
सांयसदाशिवस्तुति ( शिवपूजा) ।
कौतुकसारोद्वार ( राजविनोद ) |
संस्कृत व भाषा कौतुक (नीति ग्रन्थ) ।

महाराजा के आश्रय में बने हुए ग्रंथों के नीचे लिखे नाम भी दिये हैं –
धर्मशास्त्र’ :
“महाशान्ति, रामभट्ट-कृत ।
शान्तिसुधाकर, विद्यानाथसूरि-कृत ।
कम्मै-विपाक :
केरली सूर्य्यारुणस्य टीका, पन्तुजीभट्ट कृत ।
वैद्यक :
अमृतमंजरी, होसिंग भट्ट-कृत ।
शुभमंजरी, अम्बकभट्ट-कृत ।
ज्योतिष :
अनूपमहोदधि- वीरसिंह ज्योतिपराद्-कृत |
अनूपमेघ- रामभट्ट- कृत ।
संगीत :
संगीतविनोद, भावभट्ट-कृत |
संगीतअनूपोद्देश्य, रघुनाथ गोस्वामी कृत |
शिवपूजा :
रुद्रपति, रामभट्ट कृत
अनूपकौतुकार्णव, रामभटट-कृत ।
अनेक प्रकार के छन्दों में :
लक्ष्मीनारायणस्तुति , भट्ट शिवनन्दन- कृत ।
यन्त्रचिन्तामणि, दामोदर-कृत ।
तन्त्रलीला, तर्कानन सरस्वती भट्टाचार्य-कृत ।
सहस्रार्जुनदीपदान, त्रिम्बक-कृत ।
वायुस्तुतनुष्ठानप्रयोग, रामभट्ट- कृत ।
राजधर्म :
कामप्रबोध,जनार्दन-कृत।
दशकुमारप्रबन्ध, शिवराम-कृत ।
माधवीयकारिका, शांबभट्ट-कृत ।
( मुंशी देवीप्रसाद; राजरसनामृतः पृ० ४६-४८ ) |

8 मई सन 1698 में अनूपसिंह का स्वर्गवास हो गया। उसके 5  पुत्र थे  …

  • महाराजा सरूप सिंह 
  • महाराजा सुजान सिंह 
  • कुंवर रूपसिंह 
  • कुंवर रुद्रसिंह 
  • कुंवर आनंद सिंह (नेणसी ने एक गजसिंह भी नाम दिया है)

महाराजा सरूप सिंह (बीकानेर के 11वें राजा 1698-1700) 

8 मई 1698 को महाराजा अनूपसिंह का देहांत हो गया और स्वरूपसिंह बीकानेर की गद्दी पर बैठा। उस समय उसकी आयु मात्र 9 वर्ष ही थी। राज्य कार्य स्वरूपसिंह की माता सीसोदणी चलाने लगी। दो वर्ष बाद मात्र 11 वर्ष की आयु में 15 दिसम्बर 1700 को शीतला (चेचक) के पकोप से स्वरूपसिंह की मृत्यु हो गयी,  वे निस्संतान थे। 

महाराजा सुजान सिंह (बीकानेर के 12वें राजा 1700 से 1736) 

सुजानसिंह के गद्दी पर बैठते ही औरंगजेब ने उसे दक्षिण के मोर्चे पर बुला लिया। सुजानसिंह 10 वर्ष तक दक्षिण के मोर्चे पर रहा। ई. 1707 में दक्षिण में ही औरंगजेब की मृत्यु हो गई। इससे जोधपुर नरेश अजीतसिंह ने अपने राज्य का विस्तार करना आरंभ कर दिया। सुजानसिंह की बीकानेर से अनुपस्थिति का लाभ उठाकार अजीतसिंह ने बीकानेर नगर पर भी अधिकार कर लिया और नगर में अपने नाम की दुहाई फेर दी। भूकरका का सरदार पृथ्वीराज तथा मलसीसर का हिन्दूसिंह जोधपुर की सेना से लड़ने के लिये आगे आये। सरदारों का विरोध देखकर अजीतसिंह ने बीकानेर खाली कर दिया। औरंगजेब के बाद बहादुरशाह, जहांदारशाह, फर्रूखसीयर, रफीउद्दरजात. रफीउद्दौला तथा मुहम्मदशाह दिल्ली के तख्त पर बैठे। ये बादशाह स्वयं ही चारों ओर षड़यंत्र से घिरे रहे अतः हिन्दू राजाओं पर मुगल बादशाहों की पकड़ ढीली हो गयी। ई.1720 में मुहम्मदशाह ने बीकानेर नरेश सुजानसिंह को दिल्ली दरबार में पेश होने के आदेश दिये किंतु मुगलों की चला चली के दौर का आकलन कर सुजानसिंह बादशाह की सेवा में नहीं गया तथा अपने कुछ सेवकों को दिल्ली तथा अजमेर भिजवा दिया।

अपने पिता जोधपुर नरेश अजीतसिंह की हत्या कर राजकुमार अभयसिंह जोधपुर की गद्दी पर बैठा तथा पितृहंता बख्तसिंह नागौर का स्वामी हुआ। इन दोनों भाइयों ने ई. 1737 में बीकानेर पर हमला कर दिया। उदयपुर के महाराणा संग्रामसिंह (द्वितीय) ने दोनों पक्षों में समझौता करवा दिया | ई. 1734 में बख्तसिंह ने एक बार फिर बीकानेर पर अधिकार करने का षड़यंत्र रचा। उसने बीकानेर के किलेदार तथा कई आदमियों को अपनी ओर मिला लिया। उन दिनों सुजानसिंह ने अधिकांश राज्यकार्य राजकुमार जोरावरसिंह को सौंप रखा था।

जब जोरावरसिंह ऊदासर गया हुआ था तब षड्यंत्रकारियो ने किले के सब दरवाजों पर से ताले हटा लिये तथा बख्तसिंह के आदमियों को सूचना करने के लिये आदमी भेजा। बख्तसिंह अपने आदमियों के साथ किले के पास ही छिपा हुआ था, किंतु इसी बीच ऊदासर में षड़यंत्रकारियों के एक साथ उदयसिंह परिहार ने शराब के नशे में अपने सम्बन्धी जैतसी परिहार को यह भेद बता दिया कि किले का पतन होने वाला है। जैतसी ऊँट पर सवार होकर भागा-भागा बीकानेर आया तथा किले के उस हिस्से में पहुंचा जहां पड़िहारों का पहरा था। उनसे रस्सी गिरवाकर वह गढ़ में दाखिल हो गया और महाराजा सुजानसिंह को षड़यंत्र की सूचना दी। सुजानसिंह जैतसिंह को लेकर सूरजपोल पहुंचा तो उसने वहां के ताले खुले हुए पाये। गढ़ के अन्य दरवाजों के ताले भी खुले हुए पाये गये। उसी समय गढ़ के सारे द्वारों पर ताले जड़वाये गये तथा किले की तोपें दागी गयीं। तोपों की आवाज सुनकर षड़यंत्रकारी समझ गये कि भेद खुल गया है अतः वे वहां से भाग लिये। किले के भीतर स्थित सांखला राजपूत मार दिये गये और किले की सुरक्षा धाय भाई को सौंप दी गयी। इससे पूर्व बीकानेर के किलेदार वंश परम्परा से नापा सांखला के वंशज होते आये थे, जो अपनी राजभक्ति के लिये प्रसिद्ध थे। 

 कुछ दिनों बाद भूकरका के ठाकुर कुशलसिंह तथा भाद्रा के ठाकुर लालसिंह में वैमनस्य उत्पन्न हो गया, जिससे गांव रायसिंहपुरे में उन दोनों में झगड़ा हुआ । जब सुजानसिंह को इस घटना की खबर हुई तो वह उधर गया, जिससे वहां शांति स्थापित हो गई। रायसिंहपुरे में ही सुजानसिंह रोगग्रस्त हुआ और 16 दिसम्बर 1735  को वहीं उसका देहावसान हो गया। उसके दो पुत्र थे  … 

  • महाराजा जोरावर सिंह 
  • कुमार अभय सिंह 

महाराजा जोरावर सिंह (बीकानेर के 13वें महाराजा 1736-1745)

  1735 में सुजानसिंह की मृत्यु हो गयी तथा जोरावरसिंह राजा हुआ। भादरा और चुरू के ठाकुर महाराजा के खिलाफ विद्रोह में उठे, जोरावरसिंह ने विद्रोही ठाकुरों को सफलतापूर्वक हराया। उसके शासन काल में जोधपुर नरेश अभयसिंह ने फिर बीकानेर पर आक्रमण किया किंतु इस बार नागौर के बख्तसिंह ने बीकानेर का साथ दिया। अभयसिंह वापस जोधपुर लौट गया। एक साल बाद ई.1740 में अभयसिंह ने फिर बीकानेर पर आक्रमण किया। अभयसिंह बीकानेर नगर में घुस गया और वहां खूब लूटपाट मचाई तथा बीकानेर का दुर्ग घेर कर उस पर तोपों से गोलों की बरसात कर दी । जोरावरसिंह दुर्ग में घिर गया। उसने अपने आदमी नागौर तथा जयपुर भेजे। बख्तसिंह सेना लेकर बीकानेर आ गया तथा उधर जयपुर नरेश जयसिंह ने जोधपुर जाकर मेहरानगढ़ को घेर लिया।अभयसिंह को बीकानेर से हटना पड़ा। उसके शासनकाल के अंत में बीकानेर और जोधपुर के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित हुए।

सन 1745 में  गूजरमल की सहायता से हंसी, हिसार व् फतेहाबाद पर पुनः अधिकार किया। वहां से लौटते हुए वः रस्ते में अस्वस्थ हो गया (ऐसा अंदेशा है की उसे विष दे दिया गया) व 5 जून 1745 को अनुपपुरा गांव में मात्र 32 वर्ष की आयु में जोरावरसिंह की निःसंतान अवस्था में मृत्यु हो गयी। वह वीर कुशल राजनीतिज्ञ, प्रतिभा सम्पन्न तथा काव्य मर्मज्ञ था। वह संस्कृत और डिंगल का विद्वान था। उसकी लिखी हुई दो पुस्तकों- ‘वैद्यकसार’ तथा ‘पूजा पद्धति’ बीकानेर के पुस्तकालय में हैं।

 

महाराजा गजसिंह (बीकानेर के 14वें महाराजा 1745-1787)

जोरावरसिंह के कोई संतान नहीं थी, अतः उसके मरते ही राज्य का सारा प्रबंध भूकरका ठाकुर कुशलसिंह तथा मेहता बख्तावरसिंह ने अपने हाथ में ले लिया तथा बाद में जोरावरसिंह के चचेरे भाई गजसिंह (महाराजा सुजानसिंह के छोटे भाई आनंदसिंह का पुत्र) से यह वचन लेकर कि वह उस समय तक के राज्यकोष का हिसाब नहीं मांगेगा, उसे गद्दी पर बैठा दिया। जोरावरसिंह के चचेरे भाइयों में अमरसिंह सबसे बड़ा था किंतु उसे राजा नहीं बनाया गया इसलिये वह नाराज होकर जोधपुर चला गया और वहां से विशाल सेना लेकर बीकानेर पर चढ़ आया। रामसर कुंएँ पर दोनों पक्षों में युद्ध हुआ जिसमें जोधपुर की सेना परास्त हो गई। मुगल बादशाह मुहम्मदशाह का वजीर मंसूर अली खां (सफदरजंग) बागी हो गया तब बादशाह ने बीकानेर एवं जोधपुर से सहायता मांगी। बीकानेर नरेश ने सैनिक सहायता देकर मेहता बख्तावरसिंह को बादशाह की सेवा में भेजा। सेना के समय पर पहुँच जाने से बादशाह की बादशाही बच गयी। इस पर बादशाह ने गजसिंह को सात हजारी मनसब देकर सिरोपाव भिजवाया तथा उसे श्री राज राजेश्वर महाराजाधिराज महाराज शिरोमणि श्री गजसिंह की उपाधि दी । साथ ही माही मरातिब भी प्रदान किया। 

गजसिंह का अधिकांश समय लड़ाई झगड़ों में ही बीता। कभी जोधपुर के साथ, कभी अपने बड़े भाई अमरसिंह के साथ, तो कभी राज्य के विभिन्न सरदारों (महाजन के भीमसिंह, भादरा के लालसिंह, सांखू के शिवदानसिंह, मगरासर के नारणोत, बीदासर व मलसीसर के बीदावत, रावतसर के आनंदसिंह, बीकमपुर के भाटी स्वरूपसिंह, पूगल के राव अमरसिंह के आलावा भट्टियों व् जोहियों) के बागी हो जाने पर उनके विद्रोह को दबाने में मशगूल रहा। बाद में उसका ज्येष्ठ पुत्र राजसिंह भी बागी हो गया था। एक बार तो उसे भी कैद करना पड़ा। लेकिन कुछ समय बाद जब गजसिंह बीमार रहने लगा तो उसने राजसिंह को कैद से मुक्त करके, उसे अन्य भाईयों के साथ उचित व्यवहार का वचन लेकर, सारे सरदारों को बुला कर राज्य कार्य उसे सौंप दिया। इसके चार दिन बाद 25 मार्च 1987 को उसका देहांत हो गया। 

गजसिंह के राज्य समय में सन 1755 में भयानक दुर्भिक्ष पड़ा। उस समय उसने प्रजा हित में सदाव्रत खुलवाए व रोजगार के लिए नई इमारतों व शहरपनाह का निर्माण कराया। 1757 में नोहर में गढ़ का निर्माण कराया। 1765-66 में उसने अपने बड़े पुत्र राजसिंह के नाम पर राजगढ़ नगर बसाया। 

महाराजा गजसिंह के 18 पुत्र थे  …. 

  • महाराजा राज सिंह 
  • महाराजा सूरत सिंह 
  • कुमार छत्तर सिंह
  • कुमार अजब सिंह 
  • कुमार सुल्तान सिंह 
  • कुमार श्याम सिंह 
  • कुमार देवी सिंह
  • कुमार खुमाण सिंह
  • कुमार मोहकम सिंह
  • कुमार राम सिंह
  • कुमार गुमान सिंह
  • कुमार सबल सिंह
  • कुमार भोपाल सिंह
  • कुमार जगत सिंह
  • कुमार मोहन सिंह
  • कुमार उदय सिंह
  • कुमार जालिम सिंह
  • कुमार खुशाल सिंह 

महाराजाराज सिंह  (बीकानेर के 15 वें महाराजा 1787)  

 राजसिंह के राज्याभिषेक के बाद बीकानेर राजघराने में राजगद्दी के लिये षड्यंत्र चलने लगे। महाराज गजसिंह की एक रानी के मन में अपने पुत्र को बीकानेर की राजगद्दी पर बैठाने की हसरतों ने जन्म ले लिया। उसने राजसिंह जी से गद्दी छीन अपने पुत्र को राजगद्दी पर बैठाने हेतु षड्यंत्र रचने शुरू कर दिए और महाराज राजसिंह जी के राज्याभिषेक के 21 दिन बाद ही उनको खाने में विष देकर उनकी हत्या कर दी गयी। इनके दो पुत्र थे   …. 

  • महाराजा प्रताप सिंह 
  • कुमार जय सिंह

 

महाराजा प्रतापसिंह (बीकानेर के 16वें महाराजा 1787-1788 )

राज सिंह जी की हत्या के बाद उनके उनके नाबालिग पुत्र प्रतापसिंह का बीकानेर की राजगद्दी पर राज्याभिषेक किया गया| सूरत सिंह बालक महाराज प्रताप सिंह के संरक्षक बन राजकार्य चलाने लगे, पूरी शासन व्यवस्था उनके हाथों में थी फिर भी वे बालक महाराज को मारने के षड्यंत्र रचते रहे। उन्हें पता था कि बालक महाराज की हत्या के बाद बीकानेर के सामंतगण उन्हें राजा के तौर पर स्वीकार नहीं करेंगे, सो सूरत सिंह ने बीकानेर रियासत के कई सामंतों को धन, जमीन आदि देकर अपने पक्ष में कर लिया। उसके बावजूद कोई सामंत बालक महाराज का वध करने के पक्ष में नहीं था| साथ ही बालक महाराज की एक भुआ बालक महाराज के खिलाफ किये जा सकने वाले षड्यंत्रों के प्रति पूरी सचेत थी और वह हर वक्त बालक महाराज की सुरक्षा के लिये छाया की तरह उनके साथ रहती थी| सूरत सिंह जानते थे कि जब तक अपनी उस बहन को वे अलग नहीं कर देंगे तब तक बालक महाराज की हत्या नहीं की जा सकती| अत: सूरत सिंह ने अपनी उस बहन का विवाह कर उसे बालक महाराज से दूर करने का षड्यंत्र रचा, और उनके विवाह के बाद मौका पाकर क्रूर सूरत सिंह ने अपने बड़े भाई के पुत्र बालक महाराज प्रताप सिंह की हत्या कर दी और खुद राजा बन गया। 

 

महाराजा सूरत सिंह (बीकानेर के 17वें महाराजा 1788-1828 ) 

महाराजा गजसिंह के दूसरे पुत्र सूरतसिंह ने अपने भतीजे प्रतापसिंह की हत्या कर दी और स्वयं राजा बन गया। इससे राज्य के सारे सरदार सूरतसिंह के शत्रु हो गये और उसे उखाड़ फेंकने का उपक्रम करने लगे। इनके समय जॉर्ज टॉमस ने बीकानेर पर आक्रमण किया लेकिन दोनों पक्षों के बीच समझौता होने से यह युद्ध बंद हो गया। 1807 ई. के गिंगोली के युद्ध में महाराजा सूरतसिंह ने जयपुर की सेना का साथ दिया था। ई. 1808 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का अधिकारी एल्फिंस्टन काबुल जाते हुए बीकानेर में ठहरा। उस समय महाराजा सूरतसिंह अपने जागीरदारों के साथ कलह में उलझा हुआ था। महाराजा ने एल्फिंस्टन का समुचित सत्कार किया और अंग्रेजों से मित्रता करनी चाहीं, किंतु  उसने कोई वचन भी नहीं दिया। बीकानेर की स्थिति और भी खराब हो जाने पर महाराजा ने काशीनाथ ओझा को ई. 1817 में अंग्रेजों की सेवा में भेजा और पुनः संधि का प्रस्ताव किया। उस समय अंग्रेज पिण्डारियों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिये सशक्त प्रतिरोध खड़ा करना चाह रहे थे, इसलिये 9 मार्च 1818 को दोनों पक्षों में संधि पर हस्ताक्षर हुए और मुहर लगी। अंग्रेजों की ओर से चार्ल्स थियोफिलस मेटकाफ ने तथा महाराजा सूरतसिंह की ओर से काशीनाथ ने हस्ताक्षर किये। 

 

सूरतसिंह ने अमरचंद सुराणा के नेतृत्व 16 अप्रेल, 1805 ई. में मंगलवार के दिन जास्ता खां भट्टी से भटनेर दुर्ग जीता था। इसी कारण भटनेर दुर्ग का नाम हनुमानगढ पडा। सूरतसिंह ने 1799 ई. में सूरतगढ़ का निर्माण करवाया। सूरतसिंह ने करणीमाता मंदिर (देशनोक) को आधुनिक स्वरूप दियासूरतसिंह के शासनकाल में दयालदास ने ‘ बीकानेर राठौड़ री ख्यात ‘ में जोधपुर व बीकानेर के राठौड़वंश का वर्णन किया। 24 मार्च 1828 को सूरतसिंह का देहांत हो गया। उसके चार पुत्र थे  …. 

  • महाराजा रतनसिंह 
  • कुंवर मोतीसिंह 
  • कुंवर लखमीसिंह 
  • कुंवर टीकमसिंह 

 

महाराजारतनसिंह (बीकानेर के 18 वें महाराजा 1828-1851 ई.)

 महाराजा सूरतसिंह के बाद इनके ज्येष्ठ पुत्र रतनसिंह बीकानेर के शासक बने। 1829 ई. में बीकानेर व जैसलमेर के मध्य वासणपी का युद्ध हुआ जिसमें बीकानेर राज्य की पराजय हुई।  इस युद्ध में अंग्रेजों ने मेवाड़ के महाराणा जवानसिंह को मध्यस्थ बनाकर दोनों पक्षों में समझौता करवाया।

लाहौर के सिक्खों से अंग्रेज़ों की लड़ाई में सहायता की व जिन बीकानेरी सरदारों पूर्व सैनिकों ने बहादुरी दिखलाई थी, उन्हें उसने सिरोपाव और आभूषण आदि देकर सम्मानित किया। उसने हरद्वार, गया और नाथद्वारा की यात्रा की थी। वह राजपूतों में प्रचलित लड़कियों को मारने की प्रथा का कट्टर विरोधी था। गया में रहते समय उसने अपने सरदारों से इस कुप्रथा को बन्द कर देने की प्रतिज्ञा करवाई और पीछे से उस प्रतिक्षा का उल्लंघन करनेवाले की जागीर जब्त करवाने की आज्ञा निकलवाई। उसके राज्य में मुगल साम्राज्य की दशा बिगड़ जाने के कारण देश में सर्वत्र समय अशान्ति फैल गई। पिंडारियों और मरहटों के उपद्रयों के कारण आय के साधन नष्ट हो गये, जिससे कुछ सरदारों ने लूट-खसोट का धन्धा अख्तियार कर लिया। महाराजा ने ऐसे सरदारों का सदा युक्ति से दमन किया। इनके समय मे भी महाजन, पूगल, कुंभाना, भादरा सहित कई ठिकानेदारों जे बागी रवैया अपनाया। उनकी जागीरें जब्त करने सहित उनपर कठोर  कार्यवाही की। लेकिन बाद में अधिकांश को माफी दे दी। अंग्रेज सेना के बागी व छावनी लूटने वाले डूंगजी जवारजी व उनके साथियों ने जब बीकानेर राज्य में भी लूटमार की तो अंग्रेज सेना से सामंजस्य से उनमें से कई को पकडा, लेकिन अंग्रेजों को नहीं सौंपा।

मुगल साम्राज्य की दशा उस समय बहुत हीन हो गई थी और अंग्रेज़ों के बढ़ते हुए प्रभुत्व के आगे उनका प्रभाव क्षीण हो गया था। ऐसी अवस्था में भी तत्कालीन मुगल शासक अकबर (दूसरा) ने पुरानी परिपाटी के अनुसार महाराजा के पास माही मरातिब का सम्मान और खिलअत आदि भेजकर दोनों घरानों की पुरानी मित्रता का परिचय दिया था। अफगानिस्तान में विद्रोह के समय अंग्रेज सेना को ऊंटों की आवश्यकता हुई, जोकि उनके पास नहीं तबे। महाराजा ने उनकी सहायतार्थ 200 ऊंटों सहित सैनिक सहायता की, जिससे अंग्रेजों के साथ संबंध प्रगाढ़ हुए।

राज्य की प्रजा को बढ़े हुए करों के कारण सदा कष्ट रहता था, जिससे उसने उन करों में बहुत कमी की और यात्रियों की सुविधा के लिए अंग्रेज़ सरकार के अनुरोध करने पर भावलपुर और सिरसा के मार्ग कुएं, मीनारें और सरायें बनवाई। उसे इमारतें बनवाने का भी बड़ा शौक था। वह विष्णु का परमभक्त था । राजरतनबिहारी के मन्दिर की प्रतिष्ठा उसी के समय में हुई थी। अपने स्वर्गीय पिता के प्रति उसकी असीम श्रद्धा थी। देवीकुंड सागर में पिता की स्मारक छत्री निर्माण करने के अतिरिक्त उसने अपने पूर्वजों की छत्रियों का भी, जो टूट-फूट गई थीं, जीर्णोद्धार कराया। इनके समय में बीठू भोमा ने रतनविलास तथा सागरदान करणीदानोत ने रतनरूपक नामक ग्रंथ की रचना की।

7 अगस्त 1851 को उनका देहांत हो गया। उनके दो पुत्र थे …

  • महाराजा सरदारसिंह 
  • कुंवर शेरसिंह 

 

महाराजा सरदारसिंह (बीकानेर के 19 वें महाराजा 1851-1872 ई.)

1857 में भारतव्यापी गदर का सूत्रपात हुआ। उस समय राजपूताने के राजाओं में एक महाराजा सरदारसिंह ही ऐसे थे, जो स्वयं विद्रोह के स्थानों में अपने सरदारों सहित अंग्रेज़ों की सहायता के लिए गये थे। उन्होने विद्रोहियों का दमन और उन्हें गिरफ्तार करने के अतिरिक्त पीड़ित अंग्रेज़ कुटुम्बों को खोज-खोजकर अपने संरक्षण में लिया। अंग्रेज़ सरकार ने महाराजा की वीरता और समयोचित सहायता की बड़ी प्रशंसा की थी। राज्य के सुप्रबन्ध की ओर भी वह विशेषरूप से प्रयत्नशील रहे और उनके समय में राज्य कौन्सिल की स्थापना भी हुई, परन्तु उससे विशेष लाभ न हुआ। महाराजा के समय में राज्य कोष में धन की बहुत कमी रही, जिसका परिणाम यह हुआ कि उनके केवल बीस वर्ष के राज्यकाल में अट्ठारह दीवान बदले गये। 

 

महाराजा सरदारसिंह वीर और बुद्धिमान शासक थे। उनका हृदय बड़ा कोमल था। समाज में फैली हुई कुरीतियों की ओर उनका ध्यान विशेषरूप से गया था। विवाह और मौसर श्रादि के अवसरों पर गरीब लोग भी औरों की देखा-देखी फ़ज़ूलखर्ची करते थे, जिससे वे बुरी तरह ऋण ग्रस्त होकर कष्ट पाते थे। महाराजा ने क़ानून बनाकर लोगों को हैसियत के अनुसार खर्च करने पर बाध्य किया। 1854 ई. में सरदारसिंह ने सतीप्रथा तथा जीवित समाधि प्रथा पर रोक लगवायी। सरदारसिंह ने जनहित के लिए अनेक कानूनों का निर्माण करवाया तथा महाजनों से लिया जाने वाला बाछ कर माफ कर दिया। अमीर महाजनों का यह हाल था कि निर्धन प्रजा का धन हस्तगत कर वे प्रायः दिवाला निकाल दिया करते थे। इससे उनका तो कुछ न बिगड़ता था, परन्तु  प्रजा की दशा अधिक शोचनीय हो जाती थी। इसके विरुद्ध कानून बन जाने से प्रजा को बड़ा लाभ हुआ। प्रजा की वास्तविक दशा का ज्ञान करने के लिए महाराजा स्वयं रियासत का दौरा करता था। उसने हरिद्वार की तीर्थयात्रा भी की थी। सरदारसिंह ने अपने सिक्कों से मुगल बादशाह का नाम हटाकर महारानी विक्टोरिया का नाम अंकित करवाया।

 

वह बड़े धर्मशील थे, उन्होने बीकानेर में रसिक शिरोमणि का मंदिर बनवाया और राजलवाड़ा गांव के स्थान में सरदारशहर बसाया, जो बीकानेर राज्य में तीसरे दर्जे का शहर था। महाराजा के कई महाराणियां थीं, परन्तु संतान उनमें से किसी के भी नहीं हुई। 16  मई 1872 को महाराजा का स्वर्गवास हो गया’ । 

 

महाराजा डूंगरसिंह (बीकानेर के 20 वें महाराजा 1872- 1887 ई.)

महाराजा सरदारसिंह के कोई पुत्र नहीं होने के कारण उनकी मृत्यु पश्चात कुछ समय तक शासन कार्य कप्तान बर्टन की अध्यक्षता वाली समिति ने किया। वायसराय लॉर्ड नॉर्थब्रुक की स्वीकृति से कप्तान बर्टन ने डूंगरसिंह को बीकानेर का शासक बनाया। इन्होंने अंग्रेजों के साथ नमक समझौता किया। वह अंग्रेज़ सरकार के सदा मित्र बना रहे। डूंगरसिंह ने अंग्रेजों व अफगानिस्तान के मध्य हुए युद्ध में अंग्रेजों की सहायता की। जब काबुल में सरकारी सेना भेजी गई, तो महाराजा ने भी यहां अपनी सेना भेजने की इच्छा प्रकट की, पर वह स्वीकार न होने पर आठ सौ ऊंट उक्त मुहिम के अवसर पर अंग्रेज़ सरकार के पास भेजे गए। इससे अंग्रेज़ सरकार भी उनका बड़ा सम्मान करती थी। फलतः सरदारों के उपद्रव के समय अंग्रेज़ सरकार ने भी उनकी कार्यवाही उचित समझ सैनिक सहायता देकर उपद्रव को शांत किया।

 

महाराजा डूंगरसिंह दृढ़-चित्त, साहसी, न्यायी, विचारशील, ईश्वरभक्त और निरभिमानी शासक थे। कर्त्तव्य परायणता, सहानुभूति आदि गुणों के कारण बीकानेर के इतिहास में उनका का नाम चिरस्मरणीय रहेगा। वह गुणग्राहक थे और विद्वानों का आदर कर उनको संतुष्ट करते थे। बीकानेर राज्य में जो शासन सुधार हुए हैं, उनका सूत्रपात उक्त महाराजा के समय में ही हुआ था। न्याय से उनको पूरा प्रेम था, इसलिए उनके समय में दीवानी, फौजदारी, माल आदि के क़ानून जारी हुए। जिससे प्रजा को बड़ी सुविधा हो गई और मनमानी कार्यवाही मिट गई। प्रजा के सुख-दुःख की वह पूरी खबर रखते और यथा साध्य उनके दुःखों को मिटाने की चेष्टा करते थे। उनके पंद्रह वर्ष के शासन काल में राज्य कार्य में बड़ा परिवर्त्तन हुआ और राज्य कार्य व्यवस्था पूर्वक होने लगा। महाराजा स्वयं राज्य कार्य में परिश्रम करते एवं उनका अंतिम निर्णय विचारपूर्ण होता था। उन की गद्दीनशीनी के प्रारंभ में राज्य की आय केवल छः लाख रुपये वार्षिक थी, जो बड़ी कठिनाइयां होने पर भी, उनके समय में बढ़कर तिगुनी हो गई। प्रजा से माल का हासिल नक़द रुपये में लेने की व्यवस्था बीकानेर राज्य में उनके समय में ही हुई। सरकारी सवार आदि प्रजा से जो खुराक आदि वसूल करते थे, उसका लिया जाना बंद किया। चोरी और डाकों को बन्द करने के लिए पुलिस तथा गिराई के महकमे स्थापित किये। राजकीय मुलाज़िमों के वेतन में वृद्धि कर उनकी आय के अनुचित साधन बंद किये। सरदारों की रेख पहले पैदावार के हिसाब से ली जाती थी, परंतु वास्तविक आय से बहुत थोड़ी रक़म सरदार लोग राज्य को देते थे। इसलिए महाराजा ने उनकी पैदावार के सही अंदाज़ से रेख रक़म लेना चाहा, जिसको अधिकांश सरदारों ने स्वीकार कर लिया, किन्तु बीकानेर के कुछ सरदारों को, जो सदा से निरंकुश थे, यह बात अप्रिय हुई और उन्होंने उपद्रय खड़ा कर दिया। इसपर भी महाराजा ने उदार नीति से काम लिया और उनको समझाकर तय करना चाहा, परन्तु उपद्रवी और कलह-प्रिय सरदारों ने महाराजा की आशा का पालन न किया। तब वे अंत में बंदी कर लिये गये। तो भी क्षमाशील महाराजा ने रावतसर और सांडवा के ठाकुरों का अपराध क्षमाकर अपनी महत्ता का परिचय दिया। 

 

महाराजा को विद्या से बड़ा प्रेम था, अतएव उनके समय में राजधानी के स्कूल में पर्याप्त उन्नति की गई और गांवों में भी कितने ही स्थानों में पाठशालाएं खोली गई, जिनमें निःशुल्क शिक्षा दी जाने लगी। उनके राज्य काल में अस्पताल और शफ़ाखानों में भी वृद्धि हुई। बीकानेर राज्य में रेल, नहरें आदि लाने की योजनाएं भी उक्त महाराजा के समय में ही बनीं। प्रजाहित के कामों में महाराजा की बड़ी रुचि थी। उन के समय में राज्य में डाक का आना-जाना आरंभ हुआ और आवागमन के मार्ग निरापद बनाये गये। कितने ही नवीन कुंए और सरायें यात्रियों के लिए बनवाई गई। राजधानी बीकानेर में जल का बड़ा अभाव था, जिससे लोगों को कष्ट होता था, अतएव अनूपसागर (चौतीना) नामक कुएं में नल लगाने की योजना की। डूंगरसिंह ने बीकानेर किले का जीर्णोद्वार करवाया तथा इसमें सुनहरी बुर्ज, गणपति निवास, लाल निवास, गंगा निवास आदि महल बनवाये। 

 

महाराजा को सामाजिक सुधारों से भी पूरा अनुराग था, परन्तु प्रजा की प्रवृत्ति रुढ़िवाद की ओर अधिक होने के कारण वह विचारों को कार्य रूप में परिणित न कर सके। महाराजा सूरतसिंह, रत्नसिंह और सरदार सिंह के समय से ही राज्य ऋण ग्रस्त और खज़ाना खाली था। उक्त महाराजा ने पुराना सब ऋण चुकाकर राज्य के वैभव को बढ़ाया। लाखों रुपये इमारतों, देवस्थानों, यात्रा तथा अन्य कार्यों में व्यय करने पर भी जब उनका परलोकवास हुआ, उस समय उन्होने पर्याप्त निजी धन छोड़ा था, जिससे राज्य को रेल्वे आदि के कार्य में बड़ी सहायता मिली। 

 

उनके कोई संतान न थी, इसलिए उन्होने अपने छोटे भाई गंगासिंह को अपना उत्तराधिकारी निर्धारित कर इस संबंध में एक सरीता अंग्रेज सरकार के पास भेज दिया। 19 अगस्त 1887 को उनका स्वर्गवास हो गया ।

 

महाराजा गंगासिंह (बीकानेर के 21 वें महाराजा 1887-1943 ई.)

महाराजा डूंगरसिंह की मृत्यु के पश्चात 31 अगस्त 1887 को गंगासिंह बीकानेर के शासक बने,इस समय गंगासिंह की आयु 7 वर्ष थी। गंगासिंह की शिक्षा अजमेर के मेयो कॉलेज से सम्पन्न हुई। इनके लिए पंडित रामचंद्र दुबे को शिक्षक नियुक्त किया गया। गंगासिंह ने देवली की छावनी से सैनिक शिक्षा भी प्राप्त की। 

 

 गंगासिंह को आधुनिक बीकानेर का निर्माता भी कहते है। महाराजा गंगासिंह ने ‘प्रजावतिनों वयम्‘ आदर्श का पालन किया। दमन, उत्पीड़न और निर्वासन महाराजा गगंगासिंह की शासन नीति के मूलमंत्र थे। गंगासिंह के शासनकाल में 1899 से 1900 ( विक्रमसंवत्1956 ) तक भयंकर अकाल पड़ा, जिसे ‘छप्पनिया अकाल‘ के नाम से जाना जाता है। छप्पनिया अकाल में गंगासिंह ने बीकानेर में शहरपनाह व गजनेर झील का निर्माण करवाया। इनके समय अंग्रेजों की सहायता से ‘कैमल कोर’ का गठन किया गया जो ‘गंगा रिसाल’ के नाम से भी जानी जाती थी। गंगासिंह के समय राजपूताने का सबसे बडा रेल मार्ग बना, जिसका आधुनिक लोको व वर्कशोप था। 1910 ई. में महाराजा गंगासिंह ने बीकानेर में स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना की। राजपूताने में यह प्रथम राज्य था, जिसने कार्यपालिका और न्यायपालिका को पृथक किया। 1912 ई. में महाराजा गंगासिंह ने अपने शासन के रजत जयंती वर्ष के उपलक्ष्य में हिंदी को अपनी सरकारी कामकाजी भाषा बनाया। 1913 ई. में महाराजा गंगासिंह ने बीकानेर में ‘प्रजा प्रतिनिधि सभा’ की स्थापना की। 

 

महाराजा गंगासिंह को राजस्थान का भागीरथ के उपनाम से जाना जाता है। महाराजा गंगासिंह के द्वारा 1927 ई में गगनहर का निर्माण करवाया गया। जिससे गंगासिंह को राजपूताने का तथा आधुनिक भारत का भागीरथ कहा जाता है। गंगनहर के 1927 में रामनगर क्षेत्र में आने के के कारण इस क्षेत्र का नाम श्रीगंगानगर पड़ा । गंगनहर भारत की सबसे प्राचीनतम नहर परियोजना हैं। गंगासिंह ने मांड गायिका अल्लाह-जिल्लाई बाई को संरक्षण दिया। इन्हीं के काल में बीकानेर में डूंगर कॉलेज की स्थापना हुई ।  गंगासिंह ने 1931 ई. में रामदेवरा मे बाबा रामदेवजी के मंदिर का निर्माण करवाया। गंगासिह ने गोगामेडी को आधुनिक स्वरूप दिया तथा अग्नि नृत्य को संरक्षण दिया। महाराजा गंगासिंह ने अपने पिता लालसिंह की याद में लालगढ़ पैलेस का निर्माण करवाया । महाराजा गंगासिंह ने लालगढ़ पैलेस को एक ब्रिटिश द्वारा तैयार करवाया था । 1912 ई. मे गंगासिंह ने बीकानेर में गंगा निवास उद्यान का निर्माण करवाया जो वर्तमान में पब्लिक पार्क के नाम से जाना जाता है ।

 

छप्पनिया अकाल के समय राहतकरयों हेतु इनको ब्रिटिश सरकार ने केसर-ए-हिंद की उपाधि दी 31 मई , 1901 ई. को लंदन में सम्राट एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक में महाराजा स्वयं सम्मिलित हुए। महाराजा गंगासिंह को प्रिंस आफ वेल्स ने अपना ए.डी.सी. बनाया । महाराजा गंगासिंह चीन के 1901 ई. में हुए बॉक्सर विद्रोह को दबाने के लिए ऊंटों की सेना गंगा रिसाला लेकर चीन गये  महाराजा गंगासिंह ने सर अल्फ्रेड के साथ पिटांग के किले पर विजय प्राप्त की । महारानी ने 24 जुलाई, 1901 ई. को महाराजा गंगासिंह को के.सी.आई. की उपाधि तथा चीन में युद्ध मैडल से सम्मानित किया । 2 जनवरी,1903 ई. को ड्यूक आफ कनाट भारत आए, उनके सम्मान में आयोजित दिल्ली दरबार में गंगासिंह भी सम्मिलित हुए। जनवरी, 1903 ई. में महाराजा गंगासिंह ने गंगा रिसाला के सैनिक सोमाली लैंड ( अफ्रीका महाद्वीप ) में मुहम्मद बिन अब्दुल्ला हेब्र सुलेमान ओगडेन जाति के नेता) से युद्ध करने भेजे। 1900 ई. में गंगासिंह गंगा रिसाला के साथ चीन के बॉक्सर युद्ध में सम्मिलित हुए। गंगासिंह ने प्रथम विश्वयुद्ध में भाग लिया। 1914-1918 ई. के प्रथम विश्न युद्ध के ब्रिटिश इम्पीरियल वार केबिनेट के एकमात्र गैर अंग्रेज सदस्य महाराजा गंगासिंह थे। प्रथम विश्व युद्ध को जुलाई , 2014 में 100 वर्ष पूरे हो गये । 1919 ई. मे महाराजा गंगासिंह व एस पी. सिन्हा ने प्रथम विश्व युद्ध के बाद पेरिस शांति सम्मेलन (पहली युद्ध परिषद्  तथा बाद में वर्साय की संधि ) में भाग लिया । गंगासिंह ने लंदन से भारत लौटते समय रोम में एक नोट लिखा जो ‘रोम नोट’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। 1921 में भारतीय राजाओं को साम्राज्य का भागीदार बनाने के लिए नरेन्द्र मंडल की स्थापना की गई जिसमें गंगासिंह को प्रथम चांसलर बनाया गया तथा वे इस पद पर 1921 से 1925 तक रहे। गंगासिंह ने बटलर समिति से यह मांग की कि उनके संबंध भारतीय सरकार से न मानकर इंग्लैण्ड के साथ माने जाए। राजस्थान का एकमात्र राजा महाराजा गंगासिह था, जिसने 1930, 1931, 1932 के लंदन में हुए तीनों गोलमेल सम्मेलनों में भाग लिया। गंगासिह ने राष्ट्रसंघ के 5वें सत्र मे भारत का प्रतिनिधित्व किया। महाराजा गंगासिंह द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945 ई.) में गंगा रिसाला तथा लाइट इन्फेंट्री सेनाएं लेकर अंग्रेजों की सहायता करने के लिए यूरोप गए थे। अंग्रेजों ने डूंगरसिंह के समय की गई नमक संधि को रद्द करके गंगासिंह के साथ नई नमक संधि सम्पन्न की। महाराजा गंगासिंह के कार्यकाल में लगभग सभी वायसरायों ने बीकानेर में प्रवास किया । गंगासिंह ने महारानी विक्टोरिया की स्मृति में बीकानेर में विक्टोरिया मेमोरियल का निर्माण करवाया। 

 

शिक्षा प्रिय महाराजा ने डूंगर मेमोरियल कॉलेज, वॉल्टर नोबल्स हाई स्कूल, महाराणी नोबल्स गर्ल्स स्कूल, बिलिंग्डन टेक्निकल इंस्टिट्यूट अदि बनवाये। वहीं होनहार विद्यार्थियों को ये उच्च शिक्षा के लिए राज्य व्यय से छात्रवृत्ति देकर बाहर के विद्यालयों में भी भिजवाते। रोजगार व कलाकौशल की शिक्षा देने के लिए इन्होंने बिलिंग्डन टेक्निकल इंस्टिट्यूट बनाया। इनके समय राजधानी में एक बृहत् पुस्तकालय स्थापित हो गया, जिसमें पुस्तकों का उत्तम संग्रह है। इसके अतिरिक्त नागरी भंडार तथा अन्य स्वतन्त्र पुस्तकालयों से भी यहां के निवासियों को बड़ा लाभ पहुंचता है। बड़े-बड़े क़स्बों में भी पुस्तकालय खुल गये थे। इन्होंने क़िले की प्राचीन हस्त- लिखित पुस्तकों के संग्रह को ‘गङ्गा ओरिएंटल सीरीज़’ के नाम से राज्य के व्यय से प्रकाशित करने की आज्ञा प्रदान की, जिससे कई अप्राप्य, अमूल्य और महत्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाश में आये | तथा पुरातत्व सम्बन्धी सामग्री को सुरक्षित रखने के लिए राजधानी में म्यूज़ियम् की भी स्थापना की गई। चिकित्सा विभाग में भी पर्याप्त उन्नति की गई। वैज्ञानिक ढंग से चिकित्सा करने के लिए बीकानेर में विशाल अस्पताल (PBM हॉस्पिटल) बनया, जिसमें पुरुषों, स्त्रियों और बालकों की चिकित्सा के लिए भिन्न-भिन्न वार्ड हैं एवं चिकित्सा सुचारू रूप से होती। प्रायः सब बड़े-बड़े क़स्बों में अस्पतालों की स्थापना की गई और कई गांवों में आयुर्वेदिक औषधालय भी खोले। इन्होंने अपनी रजत और स्वर्ण जयन्तियों पर इस कार्य के लिए प्रचुर द्रव्य देकर अपनी उदारता का पूर्ण परिचय दिया।

 

लोकहितकारी कार्यों की ओर अधिक रुचि होने से इनके दीर्घ राज्यकाल में राजधानी बीकानेर के अतिरिक्त गांवों में भी बड़ी-बड़ी इमारतें बनी। बीकानेर नगर पहले तंग गलियों से परिपूरित था और बाज़ार में दूकानों आदि का कोई क्रम न था एवं स्वच्छता का अभाव था, वहां चौड़ी-चौड़ी सुन्दर सड़कें बनवादी गई तथा स्वच्छता का पूरा प्रबन्ध कर दिया गया। मकान आदि क्रमबद्ध और मार्ग चौड़े हो जाने से नगर की शोभा बढ़ गई। इनके समय में डूंगर मेमोरियल कॉलेज, वॉल्टर नोयल्स हाई स्कूल, महाराणी नोबल्स गर्ल्स स्कूल, बिलिंग्डन टेक्निकल इंस्टिट्यूट,  विजय हॉस्पिटल, इर्विन असेंबली हॉल, विक्टोरिया मेमोरियल, चांदकुंवरी अनाथाश्रम, किंग जॉर्ज अपाहिज- आश्रम, गंगा गोल्डन जुबिली म्यूज़ियम्, छापाखाना, पब्लिक लाइब्रेरी, विजय भवन और लालगढ़ के सुंदर महल आदि बने। इनके अतिरिक्त कई बड़े बड़े क़स्बों में बने हुए पाठशालाओं और अस्पतालों के भवन भी सुंदर हैं। गंगा सिल्वर जुबिली कोर्ट, रेल्वे ऑफ़िस भी बीकानेर की दर्शनीय वस्तुओं में हैं। महाराजा ने राजधानी में राजकुमारी चांदकुंवरबाई अनाथाश्रम, किंग जॉर्ज अपाहिज श्राश्रम आदि संस्थाएं स्थापित कर इन श्रेणियों के व्यक्तियों का बड़ा उपकार किया। प्रजा के आराम के लिए राजधानी में कई सुन्दर बाग लगे हैं, जिनमें गङ्गानिवास पब्लिक पार्क एवं श्रीरतनबिहारीजी, श्रीरसिकबिद्वारीजी तथा श्रीलक्ष्मीनारायणजी के मंदिरों के पार्क मुख्य हैं।

 

गंगनहर के आ जाने तथा जगह-जगह नये बांध बंध जाने से कृषि कर्म में वृद्धि हो गई। फलस्वरूप कई नवीन गांव बस गये। गंगनहर के समीप का इलाक़ा तो अच्छा आबाद हो गया। व्यापार की वृद्धि के लिए स्थान-स्थान पर बड़ी-बड़ी मंडियां बन गई। राज्य से समय-समय पर कर का दर निश्चित करने के लिए ब्रिटिश भारत से योग्य और अनुभवी व्यक्तियों को बुलाकर पैमाइश कराई। थोड़ी वर्षा के समय में लगान में माफ़ी होकर यथा समय काश्तकारों को सभी तकाबी भी बांटी जाती, जिससे उनको यही सुविधा हो जाती थी। बीकानेर राज्य के व्यापारी बड़े संपध थे। वे दूर-दूर तक जाकर व्यापार करते थे। रेल्वे का विस्तार हो जाने से राज्य में तिजारत की अधिक सुविधा हो गई। रेल, तार और डाक के महकमों का विस्तार होने से यात्रा एवं पत्रव्यवहार का कष्ट मिट गया। जहां रेलवे नहीं पहुंची वहां मोटरों या ऊंटों द्वारा यातायात होता, राजधानी में बीकानेर स्टेट बैंक’ स्थापित कर दिया गया, जिससे आवश्यकता के समय लोगों को कर्जा भी मिल जाता है। इनको अपने सामतों से बड़ा प्रेम था। उनकी उत्तम सेवाओं से प्रसन्न होकर इन्होंने कितने ही गांव उन्हें जागीर में प्रदान किये हैं। इन्होंने अच्छी सेवाओं के उपलक्ष्य में समय-समय पर कितने ही व्यक्तियों को नई जागीरें, उपाधियां ताजीम का उच्च सम्मान, तमगे, समद आदि देकर उनके उत्साह में वृद्धि की। राज्य के मुलाजिमों के लिए पेंशन तथा प्रॉविडेंट और ग्रेजुइटी आदि की व्यवस्था कर दी गई। कोई कर्मचारी यदि छोटी अवस्था में मर जाय तो अच्छी सेवा के उपलक्ष्य में ये उसके बाल बच्चों आदि की परवरिश का प्रवन्ध करते थे। 

 

 इनकी शासन-कुशलता व इनकी सुन्दर और व्यवस्थित कार्य शैली सर्वत्र प्रसिद्ध है। राजपूताना ही नहीं, प्रत्युत भारत के अधिकांश राज्यों में बीकानेर उन्नतिशील राज्य माना जाता था। 2 फरवरी, 1943 ई. को महाराजा गंगासिंह का देहांत हो गया। इनके चार पुत्र हुए   ….. 

  • कुंवर राम सिंहजी 
  • महाराजा श्री सादुल सिंह जी 
  • कुंवर बिजय सिंहजी 
  • कुंवर वीर सिंहजी

महाराजा शार्दुल सिंह (बीकानेर के 22 वें व अंतिम महाराजा 1943-1949 ई.)

महाराजा गंगासिंह के बाद शार्दुलसिंह बीकानेर के शासक बने। ये बीकानेर रियासत के अंतिम शासक थे। सार्दूल सिंह ने ‘नोता‘ ( विवाह निमंत्रण कर ) तथा ‘तख्तनशीनी की भाछ ‘ ( उत्तराधिकार कर ) समाप्त किया था । सार्दूल सिंह द्वितीय विश्वयुद्ध में बीकानेर की सेनाओं के निरीक्षण के लिए बर्मा व ईरान गये थे । महाराजा सार्दूलसिंह ने के. एम. पणीकर को बीकानेर राज्य के प्रतिनिधि के रूप में संविधान निर्मात्री सभा के लिए मनोनीत किया। 1947 ई. में केन्द्रीय संविधान सभा में शामिल होने वाला बीकानेर प्रथम राज्य था।  इन्होंने 7 अगस्त, 1947 को ‘इस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन हस्ताक्षर किए। एकीकरण विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने वाली प्रथम रियासत बीकानेर थी । इनके समय बीकानेर रियासत का 30 मार्च, 1949 को संयुक्त राजस्थान में विलय कर दिया गया। 

 

Karni Mata Mandir Deshnok

 

 

Vanshavali
Maharaja Ganga Singh

 

 

 

 

 

 

 

बीकानेर के शासक
बीकाजी से गंगासिंह तक ये 21 राजा हुए
बीको -नरो -लूणकरण, जैतो – कल्लो -राय !
दलपत-सूरो-कर्णसिंघ, अनूप-सरुप-सुजान !
जोरो – गज्जो – राजसिंघ , परतापो -सूरत !
रतनसिंघ-सरदारसिंघ, डूंगर-गंग महिपत ! 
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घनश्यामसिंह राजवी चंगोई

मेनू
चंगोई गढ़

चंगोई गढ़