पतिव्रता ही पदमणी, देवी दुर्गा रूप।
बर पायो बीरांगना, रावळ रतनसी भूप॥
खिलजी ख्याति सुण लई, रीझयो पदमण रुप।
कड़ो कोट रै नाखियो, गढ़ चित्तौड़ा चोकूंट॥
सन्देसै सरतां लिखी, दरपण देओ दिखाय।
निरखूं राणी रुप नै, लश्कर लेऊं उठाय॥
दर्पण देखी पदमणी, तन छाई मुर्छान।
छळ सूं भूप बुलावियो, कैद कियो तुर्कान॥
“जीवित चावै रतनसी, तो हरम हमारे आव”।
सन्देसो पदमण सुण्यो, हिरदै लाग्यो घाव॥
गोरा-बादळ चढ़ चल्या, चमकावण समशीर।
संग पालकी सातसौ, ज्यां मैं रजवट वीर॥
कूटचाल गोरा चली, खिलजी सक्यो न भांप।
समझयो पदमण आ रही, ले सखियां नै साथ॥
“रावळ मिलसी पदमणी, फेर हरम मैं जाय।”
खिलजी लख्यो न बात नै, मंजूर करी आ’ राय॥
रावळ री बेड़ी कटी, बादळ लियो चढ़ाय।
अश्व उडयो फर्राट सूं, झट सूं कोट पुगाय॥
गोरा सागै जुट पड्या, पालकियां रा वीर।
तुर्क फ़ौज सूं भिड़ रया, चमक रही समशीर॥
गोरा रो सिर कट पड़्यो, थमी नहीं तलवार।
धड़ फिर भी लड़तो रयो, कर तुरकां पर वार॥
खिलजी फेर रिसाणीयो, दूणी फ़ौजां जोर।
चित्तोड़ै गढ़ आ चढ्यो, घेर लियो चहुं ओर॥
रसदां खूटी दुर्ग मैं, खूटयो अन्न ओर नीर।
छत्री कसूमल पैर नै, निकल्या ले समशीर॥
साको करियो रजवटां, तुरकां मार मचाई।
पदमण सखियां संग मैं, जौहर अगन समाई॥
पदमण तूं लुंठी सती, घणी निभाई रीत।
रजवट सुत ‘घनश्याम’ भी, गावै थारा गीत॥
✍ राजवी घनश्यामसिंह चंगोई
(24 जनवरी 2018)