परमार (पंवार) वंश की उत्पति
परमार (पंवार) वंश की उत्पति
(By - घनश्यामसिंह चंगोई)
इतिहास में परमार राजवंश अति प्रसिद्ध रहा है। परमार शब्द का अपभ्रंश होकर पंवार हो गया। इस वंश में राजा विक्रमादित्य व राजा भोज जैसे प्रसिद्ध राजा हुए। जनमानस में कहावत है, “पंवारां पृथ्वी तणी, पृथ्वी तणा पंवार’ !!
परमार अग्नि वंशीय हैं। परमार क्षत्रिय वंश के प्रसिद्ध 36 कुलों में से एक हैं। ये स्वयं को चार प्रसिद्ध अग्नि वंशियों में से मानते हैं। परमारों के वशिष्ठ के अग्निकुण्ड से उत्पन्न होने की कथा परमारों के प्राचीनतम शिलालेखों और ऐतिहासिक काव्यों में वर्णित है। जनमानस में प्रचलित है कि अशोक के पुत्रों के काल मे ईसा पूर्व 232 से 215 मे आबूपर्वत पर ब्रह्महोम (यज्ञ) हुआ। इस यज्ञ में कोई चंद्रवंशी क्षत्रिय शामिल हुआ। ॠषियों ने सामवेद मंत्र से उसका नाम प्रमार (परमार) रखा व इसके वंशज परमार क्षत्रिय कहलाए। डा. दशरथ शर्मा लिखते हैं कि ‘हम किसी अन्य वंश को अग्निवंश माने या न माने परन्तु परमारों को अग्निवंशी मानने में कोई आपत्ति नहीं है।’ सिन्धुराज के दरबारी कवि पद्मगुप्त ने उनके अग्निवंशी होना और आबू पर्वत पर वशिष्ठ मुनि के अग्निकुण्ड से उत्पन्न होना लिखा है। बसन्तगढ़, उदयपुर, नागपुर, अथूणा, हरथल, देलवाड़ा, पारनारायण, अंचलेश्वर आदि के परमार शिलालेखों में भी उत्पति के कथन की पुष्टि होती है। अबुलफजल ने आइने अकबरी में परमारों की उत्पति आबू पर्वत पर महाबाहु ऋषि द्वारा बौद्धों से तंग आने पर अग्निकुण्ड से होना लिखा है।
नामकरण- परमार का शाब्दिक अर्थ शत्रु को मारने वाला होता है। परमार शब्द का अपभ्रंश होकर पंवार हो गया। परमार वाक्पतिकुंज (वि. सं. १०३१-१०५०) के दरबारी कवी पद्मगुप्त द्वारा रचित नवसहशांक -चरित पुस्तक में अवतरण पाया जाता है जिसका सार यह है की आबू -पर्वत पर वशिष्ठ ऋषि रहते थे। उनकी गो नंदनी को विश्वामित्र छल से हर ले गए | इस पर वशिष्ठ मुनि ने क्रोध में आकर अग्निकुंड में आहूति दी, जिससे वीर पुरुष उस कुंड से प्रकट हुआ जो शत्रु को पराजीत कर गो को ले आया। जिससे प्रसन्न होकर ऋषि ने उस का नाम परमार रखा। उस वीर पुरुष के वंश का नाम परमार हुआ। राजा भोज परमार के समय के कवि धनपाल ने तिलोकमंजरी में परमारों की उत्पत्ति सम्बन्धी प्रसंग इस प्रकार है….
वाषिष्ठेसम कृतस्म्यो बरशेतरस्त्याग्निकुंडोद्रवो |
भूपाल: परमार इत्यभिघयाख्यातो महिमंडले ||
अधाष्युद्रवहर्षगग्दद्गिरो गायन्ति यस्यार्बुदे |
विश्वामित्रजयोजिझ्ततस्य भुजयोविस्फर्जित गुर्जरा: ||
घनश्यामसिंह राजवी चंगोई
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परमार वंश के वंशचिन्ह
परमार वंश के वंशचिन्ह (गोत्र-प्रवरादि)
(संकलन- घनश्यामसिंह चंगोई)
वंश – अग्निवंश
गोत्र – वशिष्ठ
प्रवर – वशिष्ठ, अत्रि ,साकृति
वेद – यजुर्वेद
उपवेद – धनुर्वेद
शाखा – वाजसनयि
प्रथम राजधानी – उज्जेन (मालवा)
कुलदेवी – सच्चियाय माता
इष्टदेव – सूर्यदेव, महादेव
तलवार – रणतरे
ढाल – हरियण
निशान – केसरी, सिंह
ध्वजा – पीला
गढ – आबू
शस्त्र – भाला
गाय – कवली
वृक्ष – कदम्ब,पीपल
नदी – सफरा (क्षिप्रा)
पाघ – पंचरंगी
राजयोगी – भर्तहरी
संत – जाम्भोजी
पक्षी – मयूर
प्रमुख गादी – धार नगरी
घनश्यामसिंह राजवी चंगोई
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पंवार वंश की शाखाएँ
पंवार वंश की शाखाएँ
(संकलन- घनश्यामसिंह चंगोई)
(1) चन्ना :-- यह परमारों की प्राचीन शाखा है।
(2) मोरी :-- परमारों की प्राचीन शाखा किसी मोरी परमार के वंशज। सम्भवतः चित्तौड़ का मान मोरी परमार ही था। कुछ लोग इसे मौर्य वंश से भी जोड़ते हैं।
(3) बीहल :-- परमारों की प्राचीन शाखा। चन्द्रावती (आबू) के पास इनका राज्य था।
(4) वराह :-- नौकोटी मारवाड़ के संस्थापक धरणीवराह के वंशज।
(5) सोढ़ा :-- नौकोटी मारवाड़ के संस्थापक धरणीवराह के पुत्र बाहड़ के पुत्र सोढ़ा के वंशज सोढ़ा परमार कहलाते है।
(6) सांखला :-- उपरोक्त सोढ़ के भाई बाघ के पुत्र वीरम को सच्चियाय माता ने शंख दिया, जिससे इनके वंशज सांखला परमार कहलाते है।
(7) लोद्रवा :-- धरणीवराह के भाई भाण (लोद्रवा के शासक) के वंशज।
(8) बूंटा :-- वराह और लोद्रवा परमारों के समकालीन भटिण्डे के आस-पास रहते थे।
(9) सुमरा :-- धरणीवराह के वंशज मूंगराव के पुत्र सुमरसी के वंशज।
(10) ऊमठ :-- धरणीवराह के वंशज मूंगराव के पुत्र उमरसी के।
(11) डोडिया :-- यह 9 वीं शताब्दी से पहले की शाखा है। गुजरात के बड़ौदा के पास डोड नामक स्थान से निकास के कारण ये डोडिया परमार कहलाते है।
(12) भायल :-- मालवा के राजा भोज (वि सं 1066 से 1099) के पुत्र जयसिंह व पौत्र उदादित्य हुए। उदादित्य के वंशजों से बहुत सी शाखाएँ चली। उदादित्य के पुत्र जगदेव के पुत्र डाभरिख के वंशज सज्जन भायल के वंशज भायल परमार कहलाते है।
(13) भाभा :-- उदादित्य के पुत्र रिणधवल के पुत्र वीरसल के पुत्र भाभा के वंशज।
(14) हूण :--- रिणधवल के पुत्र हूण के वंशज। (आक्रमणकारी हूण जाति इससे भिन्न थी।)
(15) सांवत :-- रिणधवल के पुत्र हमीर के पुत्र सांवत के वंशज।
(16) बारड़ :-- उदादित्य के पुत्र जगदेव बारड़ के वंशज।
(17) सुजान :-- रिणधवल के पुत्र हमीर के पुत्र सुजान के वंशज।
(18) कुन्तल :-- हमीर के पुत्र कुन्तल के वंशज।
(19) हुरड़ :-- रिणधवल के पुत्र महीदेव के पुत्र करमन के पुत्र हुरड़ के वंशज।
(20) सालावत :-महीदेव के पुत्र साला के वंशज।
(21) रबड़िया :--महीदेव के पुत्र रबड़ के वंशज।
(22) थलवार :-- महीदेव के पुत्र थलवती के वंशज।
(23) धन्ध :-- महीदेव के पुत्र धन्धु के वंशज।
(24) बोरड़ :-- महीदेव के पुत्र अमरेश के पुत्र बोरड़ के वंशज।
(25) कुरड़ :-- अमरेश के पुत्र कुरड़ के वंशज।
(26) उलधा :-- अमरेश के पुत्र उलधा के वंशज।
(27) बलिला :-- अमरेश के पुत्र बलिल के वंशज।
(28) गूंगा :--- उदादित्य के पुत्र जगदेव के पुत्र गूंगा के वंशज।
(29) काबा :-- जगदेव के पुत्र काबा के वंशज।
(30) गलहडा :- जगदेव के पुत्र गहला के वंशज।
(31) सिंघल :-- किसी सिंघल परमार के वंशज। गुजरात मे बोरडू बेलो इनका मुख्य ठिकाना था।
(32) नांगल :-- वाखासर (बाड़मेर) इनका मुख्य ठिकाना था।
(33) थिरिया :--जैसलमेर जिला के चारणवाला आदि गाँवों मे।
(34) जौखा :-- उदादित्य के पुत्र रिणधवल के पुत्र पातल के पुत्र जोखा के वंशज।
(35) नल :- पातल के पुत्र नल के वंशज।
(36) मदन :-- पातल के पुत्र मदन के वंशज।
(37) पोसवा :-- पातल के पुत्र पोसवा के वंशज।
(38) खहर :-- पातल के पुत्र खहरा के वंशज।
(39) कालमा :-- पातल के पुत्र कालमा के वंशज।
(40) सरबड़िया :-पातल के पुत्र सरबड़िया के वंशज।
(41) सूकला :-- उदादित्य के पुत्र महीधवल के पुत्र सुकुल के वंशज।
(42) महपावत :-- मालवा के राजा भोज के वंश में सांगण, हम्मीर, हरपाल व महपा (महिपाल) हुए। इसी महपा के वंशज महपावत परमार हुए। अजमेर के पास पीसांगन इनका राज्य था। बीकानेर क्षेत्र में जैतसीसर, राणासर, जैतासर, सोनपालसर, राजासर, लूणसरा, भादरसरा आदि इनके ठिकाने थे।
घनश्यामसिंह राजवी चंगोई
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राजा विक्रमादित्य एवं भोज परमार
मालवा के राजा विक्रमादित्य एवं भोज परमार
(संकलन- घनश्यामसिंह चंगोई)
मालवा के प्राचीन परमार शासक- मालवा पर परमारों का ईसा से पूर्व में शासन था। हरनामसिंह चौहान के अनुसार परमार मौर्यवंश की शाखा है। राजस्थान के जाने-माने विद्वान ठाकुर सुरजनसिंह झाझड़ की भी यही मान्यता है। डॉ गौरीशंकर ओझा के अनुसार सम्राट अशोक के बाद मौर्यों की एक शाखा का मालवा पर शासन था (कुछ लोग मौर्य को परमार की शाखा शाखा मानते हैं)। भविष्य पुराण भी मालवा पर परमारों के शासन का उल्लेख करता है। मालवा का प्रसिद्ध राजा गंधर्वसेन था। गन्धर्वसेन का राज्य विस्तार दक्षिणी राजस्थान तक माना जाता है। उसके बाद विक्रमादित्य मालवा के शासक बने।
राजा विक्रमादित्य बहुत ही शक्तिशाली सम्राट थे। उन्होंने शकों को परास्त कर देश का उद्धार किया। वह एक वीर व गुणवान शासक थे जिनका दरबार नवरत्नों से सुशोभित था। ये थे-कालीदास, अमरसिंह, वराहमिहीर, धन्वतरी वररूचि, शकु, घटस्कर्पर, क्षपणक व बेताल भट्ट। उनके शासन में ज्योतिष विज्ञान प्रगति के उच्च शिखर पर था। वैधशाला का कार्य वराहमिहीर देखते थे। उज्जैन तत्कालीन ग्रीनवीच थी जहां से प्रथम मध्यान्ह की गणना की जाती थी। सम्राट विक्रमादित्य का प्रभुत्व सारा विश्व मानता था। काल की गणना विक्रमी संवत् से की जाती थी। राजा विक्रमादित्य जनमानस में बहुत प्रसिद्ध रहा। आज भी इसके नाम से कितनी ही कहानियां, किवदन्तियां जनमानस में प्रचलित हैं। विक्रमादित्य ने शकों को पराजित कर भारतीय जनता पर बड़ा उपकार किया। विक्रमादित्य का दरबार विद्वानों का दरबार था। विद्वानों की राय मे इस समय पुनः कृतयुग का समय आ रहा था। अतः शकों पर विजय के पश्चात विक्रमादित्य ने विद्वानों की राय से कृत संवत् आरंभ किया जो नवी शताब्दी में विक्रम संवत कहलाया। विक्रमादित्य के बाद देवभट्ट, शालीवाहन, शालीहोम, शालीवर्धन, सुविहोम, इंद्रपाल, माल्यवान, शंभूदत्त, भोमराज, वत्सराज, भोजराज, शंभूदत्त, बिंदुपाल, राजपाल, महीनर, शकहंता, शुत्रोह, सोमवर्मा, कानर्वा, रंगपाल, कल्वसी व गंगासी मालवा के शासक हुए। विक्रमादित्य के वंशजों ने 550 ईस्वी तक मालवा पर शासन किया। इसके बाद हुणों ने मालवा से परमारों का राज्य समाप्त कर दिया।
मध्यकालीन मालवा राज्य :-- नवीं-दसवीं शताब्दी में फिर से मालवा में परमार राज्य स्थापित हुआ। परमारों की प्रारम्भिक राजधानी उज्जयनी (उज्जैन) थी, पर कालान्तर में राजधानी ‘धार’ में स्थानान्तरित कर ली गई। मालवा के परमार शासकों में पहला नाम कृष्णराज (उपेन्द्र) का मिलता है। इसने अपने बाहुबल से एक बड़े स्वतंत्र राज्य की स्थापना की थी। इनके बाद बैरीसिंह मालवा के शासक बने। बैरीसिंह का दूसरा पुत्र अबरसिंह था जिसने वागड़ में अपना राज्य स्थापित किया। बेरसी प्रथम के बाद सियक व हुआ। सियक के दो पुत्र मुंज व सिंधुराज थे। वाक्पति (मुंज) उत्पल विक्रम संवत् 1030 में राजा बना। मुंज ने चेदि नरेश युवराज कलचुरी को हराकर त्रिपुरी पर अधिकार किया। किराडू प्रदेश बलिराज से जीतकर अपने पुत्र अरण्यराज को आबू दिया। जालौर अपने पुत्र चंदन को व भीनमाल अपने भतीजे दूसाल को दिया। चालुक्य तेलप ने मुंज को गिरफ्तार कर उसकी हत्या करवा दी। मुंज के बाद उसका भाई सिंधुराज गद्दी पर बैठा। इसने दक्षिण कौशल वागड़ व नागों का राज्य बैरागढ़ जीता। नागों ने अपनी पुत्री शशिप्रभा का विवाह सिंधुराज से किया। सिंधूराज के बाद उसका पुत्र भोज गद्दी पर बैठा।
राजा भोज मालवा के परमारों में सबसे अधिक ख्याति प्राप्त शासक हुआ। राजा भोज के नाम से आज भी जनमानस में कई किवदन्तियां प्रसिद्ध हैं। मलयपर्वत से दक्षिण तक इसका विस्तृत राज्य था। राजा भोज स्वयं विद्या रसिक एवं विद्वान था उसने सरस्वती, कण्ठाभरण, राज्यमृगांक, श्रृंगारमंजरी, कला आदि ग्रंथ लिखे तथा उसके दरबारी विद्वानों ने भी भोजप्रबंध, चिंतामणि आदि ग्रंथ लिखे। कहा जाता है कि वर्तमान मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल को राजा भोज ने ही बसाया था, तब उसका नाम भोजपाल नगर था। जो कि कालान्तर में भूपाल और फिर भोपाल हो गया। राजा भोज ने भोजपाल नगर के पास ही एक समुद्र के समान विशाल तालाब भोपाल ताल का निर्माण कराया था, जो पूर्व और दक्षिण में भोजपुर के विशाल शिव मंदिर तक जाता था।
राजा भोज का उत्तराधिकारी जयसिंह हुआ। इसके उत्तराधिकारी उदादित्य ने ग्वालियर के पास उदयपुर बसाया। उदादित्य के तीन पुत्र लक्ष्मीदेव, नरवर्मा व जगदेव थे। जगदेव जनमानस में जगदेव पंवार के नाम से प्रसिद्ध है, जिसने अपने शीश का दान दिया। उदादित्य के बाद लक्ष्मीदेव गद्दी पर बैठे व लक्ष्मीदेव का उत्तराधिकारी उसका भाई नरवर्मा हुआ। नरवर्मा के बाद क्रमशः यशोवर्मा, जयवर्मा, अजयवर्मा, विंध्यवर्मा ,सुभट्टवर्मा, अर्जुनवर्मा, देवपाल आदि राजा हुए। इसी वंश में बैरीसिंह द्वितीय हुआ जिसने गौड़ प्रदेश में बगावत के समय हूणों से मुकाबला किया और विजय प्राप्त की। वि सं 1348 में फिरोज शाह खिलजी ने उज्जैन के मंदिरों को तोड़ा व मालवा का पूर्वी हिस्सा छीन लिया। फिर मोहम्मद तुगलक के समय मालवा का परमार राज्य समाप्त हो गया।
घनश्यामसिंह राजवी चंगोई
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राजपुताना के परमार राज्य
राजपुताना के पंवार (परमार) राज्य
(संकलन- घनश्यामसिंह चंगोई)
नो कोटी मारवाड़ :-- पांचवीं-छठी शताब्दी में पश्चिमी राजस्थान आबू, बाड़मेर, लोद्रवा, पूंगल आदि पर भी परमारों का राज्य था। यह राज्य उन्होंने नागवंश से छीना था। इनमें धरणीवराह प्रसिद्ध राजा हुआ। उसने अपने राज्य को अपने सहित नौ भागों में बांटकर अपने भाईयों को दे दिया, जिससे नौ कोटी मारवाड़ कहलाया। नेणसी ने भी लिखा हे की धरणीवराह परमार ने अपने नो भाइयों में अपने राज्य को नो कोट (नो किले) में बाँट दिया। इस कारण मारवाड़ नो कोटी मारवाड़ कहलाती है --
(1) मण्डोर सावंत
(2) सांभर सिंध
(3) पुंगल गजमल
(4) लोद्रवा भाण
(5) धरधार(अमरकोट क्षेत्र) जोगराज
(6) पारकर(पाकिस्तान मे) हासु
(7) आबू आल्ह व पल्ह
(8) जालंधर (जालौर) भोजराज
(9) किराडू(बाड़मेर) स्वयं धरणीवराह
इतिहासकार नेणसी ने नो कोट सम्बन्धी ऐक छपय प्रस्तुत किया है –
“मंडोर सांबत हुवो ,अजमेर सिधसु |
गढ़ पूंगल गजमल हुवो ,लुद्र्वे भाणसु |
जोंगराज धर धाट हुयो ,हासू पारकर |
अल्ह पल्ह अरबद ,भोजराज जालन्धर ||
नवकोटी किराडू सुजुगत ,थिसर पंवारा हरथापिया |
धरनी वराह घर भाईयां , कोट बाँट जूजू किया ||”
सातवीं शताब्दी में ब्राह्मण हरिश्चंद्र परिहार के पुत्रों ने मंडोर ले लिया। नवी शताब्दी में वराह परमारों से देवराज भाटी ने लोद्रवा ले लिया। सोजत का क्षेत्र हूलों ने छीन लिया। इस प्रकार राजस्थान का परमारों का यह राज्य निर्बल हो गया। परमारों का पुनरुत्थान 11वीं शताब्दी में हुआ जिसमें सर्वप्रथम सिंधुराज परमार का नाम मिलता है।
पीसांगन (अजमेर) राज्य :-- मालवा पर मुसलमानों का अधिकार हो जाने पर राजाभोज के वंशज सांगण ने अजमेर क्षेत्र में अधिकार किया। इस सांगन के नाम से पीसांगन बसाया। सांगन के पुत्र हमीरदेव का वि सं 1532 का शिलालेख है। हमीर के बाद हरपाल व महिपाल हुए। महिपाल (महपा) के वंशज महपावत पंवार कहलाए। महपा महाराणा कुंभा की सेवा में रहा। महपा का पुत्र रघुनाथ व पौत्र करमचंद हुआ। राणा सांगा अपने आपत्तिकाल में करमचंद के पास रहे थे। करमचंद की रानी रामादेवी ने रामासर तालाब वि सं 1580 में बनवाया। करमचंद के बाद क्रमशः जगमाल, मेहाजल व पंचायण हुए। पंचायण वि सं 1589 में चित्तौड़ की रक्षार्थ काम आया। पंचायण के पुत्र मालदेव को राणा उदयसिंह जी ने जहाजपुर की जागीर दी। मालदेव के पुत्र शार्दुल की राजधानी मसूदा थी। इसने अजमेर के निकट श्रीनगर बसाया। शार्दुल परमार के वंशज सुल्तानसिंह के पुत्र जैतसिंह को बीकानेर के महाराजा जोरावरसिंह जी ने जागीर दी। जैतसिंह ने जैतसीसर गांव बसाया। जो सरदारशहर तहसील में है। राजासर, सोनपालसर, नाहरसरा, लूणासर, राणासर, जेतासर आदि पंवार ठिकानों का निकास जैतसीसर से है।
अमरकोट (सिन्ध) राज्य :-- आबू व नो कोटी मारवाड़ के शासक धरणीवराह जिनका समय पाँचवी छटी शताब्दी माना जाता है। धरणीवराह के वंशज सोढ़ हुए। इन्ही सोढ़ाजी के वंशज सोढ़ा परमार कहलाते है। सोढ़ाजी ने सुमरा परमारों की मदद से राताकोट पर अधिकार किया। सोढ़ाजी के बाद रायसी व राणा चाचकदे राताकोट के स्वामी हुए। वि सं 1212 मे चाचकदे सोढ़ा ने सुमरा परमारों को हराकर अमरकोट पर भी अधिकार कर लिया। चाचकदे के बाद क्रमशः जयभ्रम, जसहड़, सोमेश्वर व धारावर्ष हुए। धारावर्ष के बड़े पुत्र दुर्जनशाल अमरकोट के राजा हुए व छोटे पुत्र आसराव ने पारकर पर अधिकार किया। दुर्जनशाल के बाद क्रमशः खींवरा, अवतारदे, थीरा व हम्मीर हुए। हम्मीर ने अमरकोट पर सैय्यदों का आक्रमण विफल किया। हम्मीर के बाद क्रमशः बीसा, तेजसी, कुम्पा, चांपा, गंगा व पत्ता(वीरशाल) गद्दी पर बैठे। पत्ता ने हुमायूं को अमरकोट मे शरण दी। वि सं 1598 मे अकबर का जन्म अमरकोट मे ही हुआ था। पत्ता के बाद चन्द्रसेन भोजराज व राणा ईशरदास राजा हुए। वि सं 1710 मे जैसलमेर के राजा सबलसिंह ने ईशरदास से अमरकोट छीनकर अपने चाचा जयसिंह को दे दिया। इस प्रकार अमरकोट जैसलमेर के अधीन हो गया।
पारकर (सिंध) राज्य :-- अमरकोट के शासक धारावर्ष के छोटे पुत्र आसराव सोढा ने कच्छ भुज के उत्तरी भाग पर अधिकार कर पारकर राज्य की स्थापना की। आसराव के बाद क्रमशः देवराज, सलखा, देवा, खंगार, भीम, बैरसल, भाखरसी, गांगो, अखो, माणकराव, लुणो, देवो आदि पारकर के परमार शासक हुए।
वागड़ (मेवाड़) राज्य :-- मेवाड़ का डूंगरपुर बांसवाड़ा क्षेत्र वागड़ कहलाता है। 10 वीं सदी के उत्तरार्ध में मालवा के परमार राजा वाक्पति के बड़े पुत्र बेरसी द्वितीय तो मालवा के राजा बने व छोटे पुत्र डम्बरसिंह को वागड़ की जागीर मिली। वागड़ में अर्थूणा इन की राजधानी थी। डंबरसिंह के पुत्र धनिक ने उज्जैन में धनिकेश्वर शिवमंदिर बनवाया। धनिक के बाद उसका भतीजा चच्च वागड़ का शासक हुआ। चच्च के बाद डम्बरसिंह का पौत्र कंकदेव राजा हुआ। यह मालवा के राजा सियक द्वितीय (वि सं 1000 से 1030) का समकालीन था। यह सियक द्वितीय के पक्ष में राष्ट्रकूट खोटिंग की सेना से युद्ध करते हुए काम आया। कंकदेव के बाद क्रमशः चण्डप, सत्यराज, लिबराज, मंडलिक व चामुण्डराज गद्दी पर बैठे। इसने वि सं 1136 में अर्थूणा (बांसवाड़ा) में शिवमंदिर बनवाया। इसके पुत्र विजयसिंह का शासन काल वि सं 1165 से 1190 तक का रहा। मेवाड़ के शासक सामंतसिंह ने वि सं 1236 के लगभग वागड़ का राज्य छीन लिया। वागड़ के परमारों के वंशज आजादी के पूर्व तक सौर्थ महीकांठा गुजरात के राजा थे।
आबू (राजस्थान) राज्य :- मालवा के शासक वाकपति (मुंज) उत्पल ने वि सं 1040 में आबू जीतकर अपने छोटे भाई सिंधुराज को यहां का प्रशासक बनाया। फिर मुंज ने अपने पुत्र अरण्यराज को आबू, चंदन को जालोर व अपने भतीजे दुशाल को भीनमाल का राज्य दिया। अरण्यराज के बाद कृष्णराज, महिपाल, धुन्धक आबू के शासक हुए। धुन्धक पर गुजरात के भीमदेव सोलंकी ने आक्रमण किया। भीमदेव के दण्डपति विमलशाह महाजन ने संधि करवाई तथा धुन्धक की आज्ञा से विमलशाह ने आबू पर देलवाड़ा गांव में वि सं 1088 में करोड़ों रुपयों की लागत से भव्य मंदिर बनवाया। धुन्धक की पुत्री लाहिनी ने अपने पति विग्रहराज के मरने पर वशिष्ठपुर बसंतगढ़ में वि सं 1099 में बावड़ी बनवाई। धुन्धक का वंशज धारावर्ष बहुत ही वीर व्यक्ति था। यह एक बाण से तीन भैसें बेध देता था। धारावर्ष के छोटे भाई प्रहलाद ने प्रहलादनपुर बसाया जो आज का पालनपुर गुजरात है। धरावर्ष के बाद सोमसिंह, कृष्णराज व प्रतापसिंह आबू के शासक हुए। प्रतापसिंह ने चंद्रावती नगरी का उद्धार किया। इसके पुत्र विक्रमसिंह के समय वि सं 1368 में आबू का राज्य परमारों से चौहानों ने छीन लिया।
जालौर राजवंश :-- मालवा के परमार राजा वाक्पति (मुंज) उत्पल (वि सं 1030 से 1050) के पुत्र चंदन को जालौर की जागीर मिली। चंदनराज के बाद क्रमशः देवराज, अपराजित, विज्जल, धारावर्ष व विसल जालौर के शासक हुए। इसके बाद जालौर के परमार शासकों की कोई जानकारी नहीं मिलती है।
किराडू राजवंश :-- आबू के परमार राजा कृष्णराज प्रथम के बड़े पुत्र महिपाल तो आबू के राजा हुए व छोटे पुत्र धरणीवराह भीनमाल के शासक हुए। धन्धुक के बाद कृष्णराज द्वितीय व सोच्छराज हुए। सोच्छराज का शासन किराडू तक फैल चुका था। ई. 1080 के करीब सोछराज ने यहाँ अपना राज्य स्थापित किया। यह दानी था और गुजरात के शासक सिन्धुराज जयसिंह का सामंत था। इस सोच्छराज के बाद उदयराज और सोमेश्वर किराडू के शासक हुए। इसके पुत्र सोमेश्वर ने वि. 1218 में राजा जज्जक को परास्त परास्त कर जैसलमेर के तनोट और जोधपुर के नोसर किलों पर अधिकार प्राप्त किया। किराडू के परमार वंशीय आज भी यहाँ राजस्थान के बाड़मेर संभाग में स्थित है।
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अन्य परमार राज्य
अन्य परमार राज्य
(संकलन- घनश्यामसिंह चंगोई)
देवास व धार राज्य :-- मालवा पर मुसलमानों का अधिकार हो जाने के बाद कुछ परमार आगरा के पास जगनेर में रहे। यहां से अशोक परमार राणा सांगा की सेवा में आया। मेवाड़ मे प्रथम श्रेणी के ठिकाने बिजोलिया मे अशोक परमार के वंशज है। अशोक के छोटे भाई शंभूसिंह ने अहमदनगर व पुणे के पास राज्य स्थापित किया। शंभूसिंह के पुत्र कृष्णाजी शिवाजी के पास चले गए व कई युद्धों में बहादुरी का परिचय दिया। कृष्णाजी के तीन पुत्रों बुआजी, रामाजी व कैरोजी ने राजाराम के साथ मराठा साम्राज्य के विस्तार में योगदान दिया। इससे बुआजी के पुत्र कालोजी को देवास व संभाजी को धार का राज्य मिला। सन् 1818 की संधि के बाद देवास व धार राज्य अंग्रेजों के अधीन हुए। धार व देवास राज्य पर देश की स्वतंत्रता तक परमार शासन करते रहे।
टिहरी गढ़वाल व पोङी गढ़वाल राज्य :--
मालवा से कनकपाल परमार कुमायूं गए। कलसाह के वंशजों ने टेहरी गढ़वाल व पोरी गढ़वाल में राज्य स्थापित किए। कनकपाल मालवा क्षेत्र का शासक था जो कि 887 ई० में तीर्थाटन पर आया था। कनकपाल ने चांदपुरगढ़(चमोली) के शासक भानुप्रताप की पुत्री से विवाह किया। चाँदपुरगढ़ में कोनपुर गढ़ स्थित है जिसे कनकपाल का गढ़ माना जाता है। राजा अजयपाल ने चांदपुरगढ़ से अपनी राजधानी पहले देवलगढ़ और फिर श्रीनगर (1517) में स्थापित की। किंवदन्ती है कि दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोदी (1451-88) ने परमार नरेश बलभद्रपाल को शाह की उपाधि देकर सम्मानित किया। इसी कारण परमार नरेश शाह कहलाने लगे। परमार वंश में उस समय वर्तमान हिमाचल प्रदेश के योग-योग, मन्थन, रंवाईगढ़ आदि क्षेत्र भी सम्मिलित थे। गढ़वाल के परमार(पंवार) वंश के प्रमुख राजा 24वें राजा) सोनपाल को सुवर्णपाल के नाम से ही जाना जाता है। इसने खस राजाओं को हराया, इसने भिलंग घाटी में अपनी राजधानी बनायी। इसके पुत्रों ने राजधानी को दो भागों में बांटा- 1.भिलंग घाटी 2.चंदपुरगढ़ ! भिलंग घाटी के शासक सोनवंशी कहलाये। महिपतशाह (1631-1635) के समय तीन तिब्बती हमले हुए जिनका उन्होंने सफलतापूर्वक सामना किया। रतूड़ी ने महीपत शाह का ‘दापा’ या ‘दाबा’ आक्रमण का उल्लेख किया है, जिनमें उन्हें अद्वितीय सफलता प्राप्त हुई। महिपतशाह ने सिरमौर (हिमाचल प्रदेश) को भी जीता था। 1635 में मुगल बादशाह(शाहजहां) के सेनापति नवजातखां ने दून घाटी पर हमला किया। गढ़वाल की सरंक्षिका महारानी कर्णावती ने अपनी सूझबूझ व शाहस से मुगल सैनिको को पकड़कर उनके नाक काट दिये इस घटना के बाद उनका नाम नाककटी रानी प्रसिद्ध हो गया। रानी कर्णावती पंवार शासक महिपत शाह की पत्नी थी। 1803 में गोरखों से पराजित होकर परमार वंशी शासक अपना राज्य खो बैठे। 1814 में अंग्रेजों के हाथों गोरखों के पराभव के परिणामस्वरूप गढ़वाल स्वतन्त्र हो गया लेकिन अंग्रेजों को लड़ाई का खर्च न दे सकने के कारण गढ़वाल नरेश को समझौते में अपना राज्य अंग्रेजों को देना पड़ा। इसके बाद गढ़वाल नरेश ने अपनी राजधानी टिहरी गढ़वाल पर राज्य में स्थापित की। टिहरी राज्य पर राज करते रहे तथा भारत में विलय के बाद टिहरी राज्य को उत्तर प्रदेश का एक जनपद बना दिया गया।
जगदीशपुर व डूमराव (बिहार) राज्य :-- मालवा से कई परमार तीर्थ यात्रा पर गए। वापस आते समय शाहबाद जिले के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। इनके वंशज नारायणमल्ल को शाहजहां ने भोजपुर के पास जागीर दी। बँटवारा होने पर एक भाई जगदीशपुर व दूसरे भाई को मैठीगढ़ मिला। बांदा जिला के आरा में डूमराव भी इनका राज्य था। जगदीशपुर के कुंवरसिंह ने अंग्रेजों के विरुद्ध आजादी की लड़ाई में भाग लिया वह अपना प्राणोत्सर्ग किया।
राजगढ़ और नरसिंहगढ़ (म प्र) राज्य :-- आबू के शासक धरणीवराह जिनका समय पांचवी छठी शताब्दी माना जाता है। धरणीवराह के वंशज तीन भाई झेलरसी, उमरसी व सुमेरसी हुए। इनका समय नौ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध था। उमरसी व सुमरसी ने सिंध जाकर नया राज्य स्थापित किया। उमरसी ने उमरकोट का किला बनवाया व समरसी को उमरकोट का राज्य दिया। उमरसी ने आबू के पास दट के किले पर अधिकार किया। दट से उमरसी के वंशज उज्जैन धार होते हुए आगे बढ़े व राजगढ़ व नरसिंहगढ़ राज्य स्थापित किए। उमरसी के वंशज उमठ परमार व सुमरसी के सुमरा परमार कहलाते हैं। राणा उमरसी के बाद दतारजी, पालजी, भीमजी व रावत सारंगसेन हुए। सारंगसेन ने मध्यप्रदेश मे राजगढ़ व नरसिंहगढ़ राज्य स्थापित किए। आगे चलकर ये दोनों राज्य अलग हुए। देश की स्वतंत्रता के समय राजगढ़ के शासक विक्रमादित्य सिंह जी व नरसिंहगढ़ के शासक भानुप्रताप सिंह जी थे।
छतरपुर राज्य :-- कुमार सोनेशाह परमार पन्ना के राजा हिंदूपत के यहां रहते थे। सोनेशाह को पुत्र प्रताप सिंह को अंग्रेजों ने सन् 1806 में छतरपुर का राज्य दिया व सन् 1827 मैं उन्हें राजा बहादुर की पदवी प्रदान की। देश की आजादी तक छतरपुर का राज्य प्रताप सिंह के वंशजों के अधिकार में रहा।
बेड़ी राज्य (बुंदेलखंड) :-- बुंदेलखंड में स्थित जैतपुर के राजा ने अपनी पुत्री का विवाह अचलजू परमार से किया व दहेज मे 12 लाख की जागीर के उमरो, ददरी, चिल्लो आदि कई गांव दिए। 18 वीं सदी में बेड़ी राज्य की स्थापना हुई। अचलजू के बाद क्रमशः खुमानसिंह, फेरनसिंह, विश्वनाथसिंह, विजयसिंह, रघुराजसिंह, तिलकसिंह आदि शासक हुए। देश की आजादी तक यह राज्य बना रहा।
इसके अतिरिक्त बखतगढ़ व मथवार (मालवा) तथा बाघल, बघट,बलसान (शिमला हि प्र) आदि परमारों के राज्य थे।
घनश्यामसिंह राजवी चंगोई
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सांखला व सोढा
सांखला व सोढा
(संकलन- घनश्यामसिंह चंगोई)
सांखला पंवारों की एक शाखा है। वि.सं. 1381 के प्राप्त शिलालेख में शंखकुल शब्द का प्रयोग किया गया है। धरणीवराह पुराने किराडू का राजा था। धरणीवराह के अधीन मारवाड़ का क्षेत्र भी था। धरणीवराह का पुत्र वाहड़ तथा वाहड़ के दो पुत्र सोढ़ और वाघ थे। सोढ़ के वंशज सोढ़ा कहलाए। वाघ जैचन्द पड़ियार (परिहार) के हाथों युद्ध में मारा गया। वाघ का पुत्र वैरसी अपने पिता की मौत का बदला लेने की दृढ़ प्रतिज्ञ था। वाघ ओसियां सचियाय माता के मन्दिर गया। वहाँ सचियाय माता ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिए तथा वरदान के रूप में शंख प्रदान किया, तभी से ये बैरसी के वंशज शंख प्राप्ति से सांखला कहलाने लगे। उसने अपने पिता की मृत्यु का बदला लिया। इसने जैचन्द के मूघिताड़ के किले को तुड़वाकर रूण में किला बनवाया, तब से ये राणा कहलाने लगे। वाघ का पुत्र राजपाल था तथा राजपाल के तीन पुत्र छोहिल, महिपाल और तेजपाल थे। पूर्व में महिपाल का पोता उदगा पृथ्वीराज चौहान के सामंतों में था। राजपाल का पुत्र महिपाल के बेटे रायसी ने रूण आकर जांगलू के चौहानों को हराकर अपना राज्य कायम किया। ये सांखले रूणेचे साँखले कहलाए।
राजस्थान के पंचवीरों में गिना जाने वाला जांगलू का हरभूजी सांखला बड़ा सिद्ध पुरूष हुआ। जोधपुर के संस्थापक राव जोधा का जब मंडोर पर अधिकार समाप्त हो गया और वह मेवाड़ की सेना से गुरिल्ला युद्ध कर रहे थे तो जंगल में हरभूजी सांखला से भेंट हुई। हरभूजी ने जोधाजी को राज्य पुनः स्थापित होने का आशीर्वाद दिया तथा राज्य मेवाड़ से जांगलू तक फैलने की भविष्यवाणी की, जो सत्य हुई। जांगलू के नापाजी सांखला की बहिन जोधपुर के संस्थापक राव जोधाजी को ब्याही थी। जोधाजी के पुत्र तथा बीकानेर राज्य के संस्थपक बीकाजी का वि.स.ं 1522 में वीर और बुद्धिमान नापाजी ने ही जांगलू पर अधिकार कराया था। ये बीकाजी के मामा थे, बीकाजी इनका बहुत सम्मान करते थे। नापाजी के वंशज नापा सांखला कहलाए।
सोढा परमार- किराडू के शासक धरणीवराह का पौत्र व बाहड़ के पुत्र सोढा से परमारों की सोढा शाखा चली। सोढाजी सिंध में सूमरों के पास गये जिन्होंने सोढाजी को ऊमरकोट (पाकिस्तान) से 14 कोस दूर राताकोट दिया। सोढा के सातवें वंशधर धारावर्ष के दो पुत्र आसराव और दुर्जनशाल थे। आसराव ने जोधपुर में पारकर पर अधिकार किया। दुर्जनशाल ऊमरकोट की तरफ गया। उसकी चौथी पीढ़ी के हमीर को जाम तमायची ने ऊमरकोट दिया। राणा सोढा के बड़े पुत्र कुँवर चाचकदेव सोढा हुए और छोटे कुँवर सिन्धलजी थे।
कुँवर सिन्धल जी के पुत्र राणा महेंद्र सिंह सोढा हुए जिनके प्रेम प्रसंग के किस्से मूमल-महेंद्र के नाम से आज भी थार में जाने जाते है। मूमल लोद्रवा के राजा की पुत्री थी। मूमल के महलों के अवशेष जैसलमेर के लोद्रवा गांव में देखे जा सकते हैं। विक्रम संवत 1296 में राणा महेंद्र की पुत्री कायलादे का विवाह धांधल जी के पुत्र पाबूजी राठौड़ से हुआ था।
उमरकोट के राणा वीरशाल ने ही दिल्ली के बादशाह हुमायूँ को शरण दी थी और अकबर का जन्म अमरकोट के किले में हुआ । बाद में अकबर ने राणा के कर्ज को एक चिन्ह हमीराणा दाग देकर उतारा। उस चिन्ह के पशुओं पर और राज्य में जजिया कर नही लिया जाता था। उस हमीराणा दाग से दागे गए पशु मुगल राज्य में नीलाम नही होते थे।
1947 तक उमरकोट एक स्वतन्त्र रियासत थी जो कि अब पाकिस्तान में है। राणा अर्जुन सिंह ने राजपुतनाने में न जाकर विभाजन के समय पाकिस्तान में जाने का निर्णय लिया था। पाकिस्तान के कुछ बड़े राजपूत नाम...
1) राणा चन्द्र (चंदेर) सिंह सोढा, पाकिस्तान के पूर्व कृषि और राजस्व मंत्री व निर्दलय संसद लगातार 53 साल।
2) ठाकुर लक्ष्मण सिंह जी सोढा पूर्व केंद्रीय रेल मंत्री व पूर्व संघीय मंत्री (जनरल अयूब खान की सरकार में ) ! लक्ष्मण सिंह सोढा पाक के प्रमुख नेता ज़ुल्फिकार अली भुट्टो के बेहद करीबी माने जाते थे। पूर्व प्रधानमंत्री स्व बेनजीर भुट्टो को उन्होंने अपनी गोद में खिलाया था।
3) राणा हमीर सिंह सोढा वर्तमान अमरकोट राजघराने और सोढा राजपूतो - के 26 वे राणा साहब। .. कृषि मंत्री सिंध सूबा। जिनके पुत्र कुंवर करणी सिंह का विवाह 2014 में जयपुर के कानोता ठिकाने में मान सिंह की पुत्री पद्मन्नी कँवर से हुआ।
3) ठाकुर राम सिंह सोढा पूर्व विधायक, मेयर थारपारकर जिला।
4) ठाकुर अखेसिंह सोढा पश्चिम पाकिस्तान के छाछरो के पूर्व विधायक।
5) ठाकुर लालसिंह सोढा पश्चिम पाकिस्तान के छाछरो के पूर्व विधायक।
सोढा राजपूतों का सिन्ध में बाहुल्य हैं, पाकिस्तान में सिंध के छाछरो, अमरकोट, नगरपारकर, मिठी मीरपुर, रोहड़ी, गढरा, खिंपरो, सांगड, मऊ, राणा जागीर थारपारकर तथा डिपलो आदि कस्बो में सोढा परमार राजपूतो की एक बड़ी तादाद है जो आज भी अपने ठाट बाट से जी रहे है। भोजराज सोढा के वंशजों में सारे अच्छे जगिरीदार है।
घनश्यामसिंह राजवी चंगोई
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