भाटी वंश : उत्पत्ति एवं विस्तार
भाटी वंश : उत्पत्ति एवं विस्तार
(By- घनश्यामसिंह राजवी चंगोई)
भाटी चंद्रवंशी क्षत्रिय हैं। श्रीमदभगवत पुराण में लिखा है, चंद्रमा का जन्म अत्री ऋषि की द्रष्टि के प्रभाव से हुआ था। ब्रह्मा के पुत्र ब्रह्मर्षि अत्रि थे, अत्रि के पुत्र चंद्रमा थे। चंद्रदेव अति सुंदर थे, देवगुरु बृहस्पति की पत्नी तारा चंद्र पर मोहित हो गई व इन दोनों के संसर्ग से पुत्र बुध का जन्म हुआ। बुध का विवाह वैवस्वैत मनु की पुत्री इला से हुआ था, बुध व इला का पुत्र पुरुरवा था। स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी पुरुरवा के गुणों से मोहित हो गई व स्वर्ग छोड़कर पृथ्वी पर आ गई व पुरुरवा से विवाह किया। उनके छः पुत्र हुए- आयु (आयुष), अमावसु, विश्वायु, श्रुतायु, शतायु और दृढयु, जिनमें आयुष सबसे बड़ा था। आयुष ने असुर राजकुमारी प्रभा से विवाह किया। आयुष के पुत्र नहुष, क्षत्रावुध, राजी, राम्भ,अनीना हुए, इनमे बड़े पुत्र नहुष थे। वृत्रासुर के वध से उत्पन्न ब्रह्महत्या का प्रायश्चित्त करने के लिए जब इंद्र यज्ञ करने गए तो देवताओं ने नहुष को स्वर्ग का राजा बनने के लिए कहा। नहुष ने 100 वर्षों तक ऋषि बृहस्पति के मार्गदर्शन में तीनों लोकों पर शासन किया। नहुष के छः पुत्रों ययाति, सयाति, अयाति, वियाति, याति तथा कृति उत्पन्न हुए। ययाति 6 भाईयो मे सबसे बडे थे जिसका विवाह शुक्राचार्य की बेटी देवयानी जो कि ब्राहम्ण कन्या थी, उससे व दूसरा राजा वृष्पर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से हुआ। देवयानी के दो पुत्र हुए *यदु* और तुरवुश और दूसरी पत्नी शर्मिष्ठा से तीन पुत्र द्रुह्यु, अणु और *पुरु* हुए। यदु के कुल मे जो राजा हुए वो *यदुवंशी* कहलाए (भगवान कृष्ण इसी कुल में हुए) पुरु के कुल मे जो राजा हुए वो 'कुरुवंशी' कहलाए (कोरव, पांडव इस कुल में हुए)।
श्री कृष्ण के वंशज यदुवंशी भारत और पाकिस्तान के विभिन्न क्षेत्रों मे निवास करते हैं, ये श्री कृष्ण को अपना मूल पुरुष मानते हैं। भगवान् श्री कृष्ण के बाद उनके कुछ वंशधर हिन्दुकुश के उत्तर में व सिंधु नदी के दक्षिण भाग और पंजाब में बस गए थे और वह स्थान "यदु की डाँग" कहलाया। यदु की डाँग से जबुलिस्तान, गजनी, सम्बलपुर होते हुऐ सिंध के रेगिस्तान में आये और वहां से लंघा, जामडा और मोहिल कौमो को निकाल कर तनौट, देरावल, लोद्र्वा और जैसलमेर को अपनी राजधानी बनाई।
यदुवंश में कई पीढ़ी बाद (वि. सं. 600 के आस-पास) राजा देवेंद्र हुए। जब नबी मुहम्मद ने दुनिया मे इस्लाम फैलाया, तब राजा देवेन्द्र शोणितपुर के राजा थे, जिसे वर्तमान में मिश्र (Egypt) कहते हैं। इनके चार पुत्र अस्पत, भूपत, गजपत व नरपत हुए।
युवराज अस्पत राजा देवेन्द्र के बाद मिश्र का राजा हुआ, अन्य तीनों अफगानिस्तान की ओर चले आए व वहां राज कायम किया। अस्पत जो मिश्र की गद्दी पर बैठे, उनको मुहम्मद ने जबरदस्ती इस्लाम कबूल करवाया, जिनके वंशज चागडा मुगल कहलाए।
राजा गजपत - विक्रम संवत 708 के वैशख सुदी 3 शनिवार रोहिणी नक्षत्र मे गजनी शहर बसाया और किला बनवाया। अपने बडे भाई नरपत जी को गद्दी पर बैठाया और खुद हिन्द सौराष्ट्र की तरफ मैत्रा मां के भक्त थे इसलिए यहां आ बसे। जिनके वंशज चुडासमा, सरवैया और रायजादा कहलाए। जूनागढ मे इन्होने 700 साल राज किया !
जाम नरपत - संवत 683 से 701- बादशाह फिरोजखान को हराकर अपने पुरखो की गद्दी जीत अफगान मे खुद की सत्ता जमाई (इनके वंशज जाडेजा हुए) !
राजा भूपत - गजनी और खुरासन के प्रदेश के बीच भूपत ने राज्य चलाया, इनके वंशज ने पंजाब और सिंध मे राज्य किया (इनके वंशज भाटी हुए)।
(कुछ लोग दंतकथा कहते है कि माता हिंगलाज ने 3 को छुपा दिया और एक अस्पत को सौंपा। नरपत को मुह (जाड) मे छुपाया वो जडेजा कहलाए, गजपत को चुड मे छुपाया वो चुडसमा कहलाए, भूपत को भाथी मे छुपाया वो भाटी कहलाए)
गंधार देश जिसको अब कंधार कहते है, प्राचीन समय में चंद्रवंशी क्षत्रियों के अधिकार में था और चीनी यात्री हुएनसांग सातवीं शताव्दी में उस तरफ से होकर ही भारत में आया था। उसने उस समय हिरात से कंधार तक हिन्दू राजा व प्रजा का होना लिखा है। खुराशान के बादशाह ने महाराज गजपत पर चढाई की, इस युद्ध में खुराशानी बादशाह और महाराज गजपत, दोनों ही काम आये और राजधानी गजनी पर मलेच्छों (मुसलमानों) का अधिकार हो गया। जब गजनीपुर मुसलमानों के हाथ चला गया तो भूपत के पुत्र शालिवाहन पंजाब के दक्षिण की ओर अपने साथियों के साथ बढे और वर्तमान लाहोर के पास शालवाहनपुर नगर बसाया। यहां किले का निर्माण किया जिसका नाम शालकोट रखा। यह नगर वही है जिसे अब शियालकोट कहते है। धीरे-धीरे ये पंजाब के स्वामी होगये। शालिवाहन के बाद उसका बड़ा पुत्र राजा बलंद शालवाहनपुर (शियालकोट) की गद्दी पर बैठा। राजा बलंद और उनके पूर्वजों का वर्तमान पंजाब (भारत-पाकिस्तान), सिंध और उसके आसपास के क्षेत्रों पर अधिकार था। इसके समय में तुर्कों का जोर बहुत बढ़ गया था और उन्होंने शालवाहनपुर ले लिया। इससे बलंद के पुत्रों के अधिकार में केवल सिंधु नदी का पश्चिमी भाग ही रहा।
बलन्द के 6 पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र राजा भाटी (भट्टी) थे, ये बड़े प्रतापी योद्धा थे। इन्होंने कई लड़ाईयां लड़ीं थी। महाराज भाटी के समय तक इस वंश का नाम "यादव वंश" ही था। परन्तु इस प्रतापी राजा के पीछे उनके वंशज "भाटी" नाम से प्रसिद्ध हुए। राजा भट्टी ने भटनेर नगर (वर्तमान हनुमानगढ़) बसाया और अपने राज्य को सुरक्षित रखने के लिए भटनेर दुर्ग का निर्माण करवाया। भटनेर दुर्ग को उत्तर भड़ किवाड़ भी कहते हैं, क्योंकि उस समय उत्तर से होने वाले शत्रुओं के आक्रमण को यह दुर्ग रोकता था। अर्थात एक किवाड़ (दरवाजा) की भाति यह अपने शत्रुओं को भारतीय भूमि में प्रवेश होने से रोकता था। इस दुर्ग में भाटी राजवंश का शासन था, तो यहां के भाटी शासक उत्तर से आने वाले आक्रमणकारियों से भीड़ जाते थे। भटनेर दुर्ग को तैमूर लंग ने जीता था और उसने अपनी आत्मकथा तुझके ए तैमूरी में इस दुर्ग के बारे में लिखा की यह दुर्ग बहुत शक्तिशाली दुर्ग है।
राजा भाटी (भट्टी) के बाद उसके वंशज बछराव, विजयराव, मंझणराव, मंगलराव भटनेर के शासक बने। मंगलराव व गजनी के शासक ढुण्ढी के मध्य युद्ध हुआ, जिसमें मंगलराव पराजित हुआ। पराजित होने के बाद मंगलराव भाटी ने भटनेर से मरुस्थल क्षेत्र में जाकर राज्य कायम किया। मंगलराव के पुत्र केहर ने अपने पुत्र तणु के नाम पर तन्नोट नगर बसाकर तनोटिया देवी की स्थापना की। केहर के दूसरे पुत्र विजयराव चुडाला के पुत्र देवराज ने अपने पिता व दादा की मौत का बदला लेकर वापस हारे हुए क्षेत्रों पर अधिकार कर देवराजगढ़ बसाया, जो बाद में देरावर नाम से जाना गया। देरावर का किला अत्यंत ही मजबूत किला है, जोकि अभी पकिस्तान में है। देवराज ने बाद में देरावर की जगह लोद्रवा को अपनी नई राजधानी बनाया। देवराज ने स्वय को महरावल की उपाधि से विभूषित किया। देवराज के वंशज क्रमशः मुंध, चछु, अनघा , बापाराव, पाहू, सिंघराव व दुसांझ हुए। राव दुसांझ के पुत्र जेसल ने लोद्रवा के पास ही दूसरा किला बनवाया व अपने नाम से नाम से जैसलमेर राज्य की स्थापना की, जोकि 800 वर्षों तक कायम रहा व स्वतंत्रता क बाद इसका विलय भारत संघ में हुआ।
भाटी राजपूत प्रायः राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, उत्तरप्रदेश, तथा बिहार के कुछ क्षेत्रों में पाये जाते है...
राजस्थान – मुख्यतः जैसलमेर के अलावा बाड़मेर, जोधपुर, चित्तोड़, बीकानेर, गंगानगर, चूरू, हनुमानगढ़ जिलों में पाये जाते है l
हिमाचल प्रदेश - जुब्बल, बालसन, थियोगर, कलसी में भी भाटी वंशी राजपूत बसे है।
बिहार - मूंगेर, भागलपुर जिलों में भी यदुवंशी भाटी राजपूत पाये जाते है।
उत्तरप्रदेश- गाजियावाद, गौतमबुद्धनगर, बुलहंदशहर, ककराला (बदायूं) 'यहियापुर (प्रतापगढ़), भरगैं (एटा)
पंजाब – भटिंडा, नाभा, जींद, पटियाला, अंबाला, सिरमौर तक की यह पट्टी भाटी वंश से ही है।
गुजरात - कच्छ और जामनगर में भी भाटी राजपूत पाये जाते है जो सन् 1800 के आस पास जोधपुर से ईडर माइग्रेट हुये थे।
जसावत (जायस) जैसवार यदुवंशी राजपूत- (संभवतः भाटियों की जेसा भाटी शाखा से कुछ लोग माइग्रेट होकर UP में पहुंचे हों, जिनका नाम अपभ्रंश होकर जसावत (जायस) जैसवार हो गया) आगरा जिले व मथुरा में गोवर्धन, फरह छाता क्षेत्र में व मथुरा की मांट तहसील में जायस राजपूत पाये जाते है। बुलदशहर के जेवर व दनकौर क्षेत्र में 52 गांव, हरियाणा में बलभगढ़ तहसील में 52 गांव, इसके अलावा मथुरा दिल्ली, मेरठ, अलीगढ़, गाजियाबाद, एटा, मैनपुरी, इटावा, आगरा के कुछ क्षेत्र में भी जेसवार राजपूत पाये जाते हैं। इसके अलावा बरेली फर्रुखावाद, बदायूं, बाराबंकी हमीरपुर में भी पाये जाते है।
भाटी के अलावा जादौन, जाडेजा, चूडास्मा भी यदुवंश की ही शाखाएं हैं, जिनका शासन भारत के विभिन्न भागों में रहा है। इनके आलावा भी कुछ अन्य यदुवंशी राजपूत इक्का दुक्का स्थानों पर भिन्न नामों से मिलते हैं। जैसे...
पोर्च/पौरुष यदुवंशी राजपूत -हाथरस जिले में सिकंदराराऊ, हसायन, गडोरा और मैंडू के पास 30-40 गांव है। फरुखाबाद जिले में भी कम संख्या में ये राजपूत पाये जाते है।
बरगला यदुवंश राजपूत - बुलंदशहर, गुणगां।
बरेसरी यदुवंशी राजपूत - आगरा के समशावाद ओर फतेहाबाद क्षेत्र में 40 के लगभग गांव है।
जाधव यदुवंशी राजपूत- महाराष्ट्र राज्य के देवगिर में।
भाटी वंश के गोत्र-प्रवरादि
भाटी वंश के गोत्र-प्रवरादि
(संकलन- घनश्यामसिंह चंगोई)
वंश – चन्द्रवंश
कुल – यदुवंशी
गोत्र – अत्रि
प्रवर- अरनियो ,अपबनो ,अगोतरो
इष्टदेव – श्री कृष्ण
कुलदेवता – लक्ष्मी नाथ जी
कुलदेवी – स्वागिया माता
भैरव- गोरा
वेद – यजुर्वेद
शाखा- मारधनी
क्षेत्र- मथुरा
नदी – यमुना
घाट- सोरमघाट
व्रत- एकादशी
वॄक्ष – पीपल, कदम्ब
पक्षी- गरुड़
छत्र – मेघाडम्भर
ध्वज – भगवा, पीला रंग
माला- वैजयंती
ढोल – भंवर
नक्कारा – अगनजीत
गुरु – रतन नाथ
पुरोहित – पुष्करणा ब्राह्मण
पोलपात – रतनु चारण
राग – मांड
विरुद – उतर भड किवाड़ भाटी, छत्राला यादवपति
प्रणाम – जय श्री कृष्ण
भाटी वंश की शाखाएं
भाटी वंश की शाखाएं
1 अभोरिया भाटी : राजा भाटी के बाद क्रमशः भूपति, भीम, सातेराव, खेमकरण, नरपत, गज, लोमनराव, रणसी, भोजसी व अभयराव हुए। इसी अभयराव के वंशज अभोरिया भाटी कहलाये।
- गोगली भाटी: भाटी के पुत्र मंगलराव के बाद क्रमश: मंडनराव, सूरसेन, रघुराव, मूलराज, उदयराज व मझण राव हुए। मझणराव के पुत्र गोगली के वंशज गोगली भाटी हुए। बीकानेर राज्य में जेगली गाँव इनकी जागीर में था।
- सिंधराव भाटी : मझणराव के भाई सिंधराव के वंशज सिंधराव भाटी हुए। (नैणसी री ख्यात भाग 2 पृ. 66) पूगल क्षेत्र में जोधासर (डेली) मोतीगढ़, मकेरी, सिधसर, पंचकोसा आदि इनकी जागीर थी। बाद में सियासर, चौगान, डंडी, सपेराज व लद्रासर इनकी जागीर रही।
- लड्डुवा भाटी : मझणराव के पुत्र मूलराज के पुत्र लडवे के वंशज।
- चहल भाटी : मूलराज के पुत्र चूहल के वंशज।
- खंगार भाटी : मझण राव के पुत्र गोगी के पुत्र खंगार के वंशज।
- धूकड़ भाटी : गोगी के पुत्र धूकड़ के वंशज।
- बुद्ध भाटी : मझबराव के पुत्र संगमराव के पुत्र राजपाल और राजपाल का पुत्र बुद्ध हुआ। इस बुद्ध के बुद्ध भाटी हुए। (पूगल का इतिहास पृ. 22)
- धाराधर भाटी : बुद्ध के पुत्र कमा के नौ पुत्रों के वंशज धाराधर स्थान के नाम से धाराधर भाटी हए।
- कुलरिया भाटी : मझबराव के पुत्र गोगी के पुत्र कुलर के वंशज (गोगी के कुछ वंशज अभेचड़ा मुसलमान हैं)
- लोहा भाटी : मझबराव के पुत्र मूलराज के पुत्र लोहा वंशज (नैणसी री ख्यात भाग 2 सं. साकरिया पृ. 53 )
- उतैराव भाटी : मझबराव के बड़े पुत्र केहर के पुत्र उतैराव के वंशज।
- चनहड़ भाटी : केहर के पुत्र चनहड़ के वंशज।
- खपरिया भाटी : रावल केहर के पुत्र खपरिया के वंशज।
- थहीम भाटी : रावल केहर के पुत्र थहीम के वंशज।
- जैतुग भाटी : राव तनुराव के पुत्र जेतुंग के वंशज। जेतुंग का विकमपुर पर अधिकार रहा। जेतुंग के बेटे गिरिराज ने गिरिराजसर गाँव बसाया। जेतुंग के पुत्र रतंनसी और चाह्डदे ने वीकमपुर पर अधिकार जमाया। वीकमपुर उस समय वीरान पड़ा था। फलोदी के सेवाडा गाँव और जोधपुर जिले के बड़ा गाँव मै जेतुंग भाटियो की बस्ती है। उसके अलावा भी कई कई गाँवो में जेतुंग भाटियो के घर मिलेंगे। (रावल केहर के पुत्र तनु के पुत्र जाम के वंशज साहूकार व्यापारी है। तनु के पुत्र माकड़ के माकड़ सुथार, देवास के वंशज रैबारी, राखेचा के राखेचा ओसवाल, डूला, डागा और चूडा के क्रमश: डूला, डागा व चांडक महेश्वरी हुए).
- घोटक भाटी :तनु के पुत्र घोटक के वंशज।
- चेदू भाटी : तनु के पुत्र विजयराज के पुत्र देवराज हुए। देवराज के पुत्र चेदू के वंशज चेदू भाटी कहलाये।
- गाहड़ भाटी : तनु के पुत्र विजयराज के पुत्र गाहड़ के वंशज।
- पोहड़ भाटी :विजयराज के बाद क्रमशः मूध, राजपाल व पोहड़ हुए।
- मूलपसाव भाटी : रावल वछराव के पुत्र मूलपसाव के वंशज।
- छेना भाटी :पोहड़ भाई के छेना के वंशज।
- अटैरण भाटी :पोहड़ के भाई अटेरण के वंशज।
- लहुवा भाटी :पोहड़ के भाई लहुवा के वंशज।
- लापोड़ भाटी :पोहड़ के भाई लापोड़ के वंशज।
- पाहु भाटी : विजयराज के बाद क्रमश: देवराज, मूंध, बच्छराज, बपेराव व पाहु हुए । इसी पाहु के वंशज पाहु भाटी कहलाये। जैसलमेर राज्य में चझोता, कोरहड़ी, सताराई आदि इनके गांव थे पूगल ठिकाने में रामसर इनकी जागीर था।
- अणधा भाटी- रावल वछराज के बेटे इणधा के वंशज।
- मूलपसाव भाटी- रावल वछराव के पुत्र मूलपसाव के वंशज।
- धोवा भाटी : मूलपसाव के पुत्र धोवा के वंशज।
- पावसणा भाटी :रावल बच्छराज (जैसलमेर) के बाद दुसाजी रावल हुए। दुसा के वंशज पाव के पुत्र पावसना भाटी कहलाये।
- अभोरिया भाटी : रावल दुसाझ के भाई देसल के पुत्र अभयराव के वंशज।
- राहड़ भाटी :रावल दुसाजी के पुत्र रावल विजयराज लांजा के पुत्र राहड़ के वंशज। (विजयराज लांजा के एक वंशज मागलिया के वंशज मांगलिया मुसलमान हुए (जैसलमेर की ख्यात परम्परा पत्रिका पृ. 44)
- हटा भाटी- महारावल विजयराज लान्झा के पुत्र हटा के वंशज हटा भाटी कहलाये। हटा भाटी सिहडानो ,करडो और पोछिनो क्षेत्र में रहे।
- भिंया भाटी -महारावल विजयराज लान्झा के पुत्र भीव के वंशज भिन्या भाटी कहलाये।
- वांदर भाटी- महारावल सालवाहण के पुत्र वादर के वंशज। जेसलमेर के डाबलो गाँव इनके पट्टे में रहा।
- पलासिया भाटी- महारावल सालवाहण (सलिवाहन) के बेटे हंसराज के वंशज पलासिया। महरावल के वंशजो ने बद्रीनाथ की पहाड़ियों में अपना राज्य स्थापित कर उसका नाम पहाड़ी रखा। वहां के राजा निसंतान म्रत्यु हो जाने पर हंसराज को गोद लीया गया। हंसराज जब वहा जा रहे थे तब मार्ग में पलाशव्रक्ष के निचे उसकी राणी ने एक बच्चे को जन्म दिया। उसका नाम पलाश रखा। हंसराज के बाद वह उतराधिकारी बना और उसके वंशज पलासिया कहलाये।
- मोकळ भाटी- महारवल सालिवाहंण के बेटे मोकल के वंशज मोकल भाटी। ये पहले जेसलमेर में रहे फिर मालवा में जाकर बस गए। वहां अपने परिश्रम से उद्योगपति के रूप में विशिष्ट पहचान कायम की।
- मयाजळ भाटी (मेहाजल)- महारावल सलिवाहंन के पुत्र सातल के वंशज मयाजळ कहलाये। म्याजलार इनका गाँव हे जेसलमेर में, इनके आलावा सिंध में है।
- जसोड़ भाटी- महारावल कालण के पुत्र पालण के पुत्र जसहड के वंशज। जसहड के पुत्र दुदा जैसलमेर की गद्दी पर बैठे और शाका कर अपना नाम इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गए। पूर्व में लाठी आदि 35 गाँव जसोड़ भाटियों के थे। देवीकोट में लक्ष्मण, वाणाडो, मदासर छोडिया व् राजगढ़ (देवीकोट) गाँव इनकी जागीरी में रहे। बड़ी सिड (नोख) पर भी पहले जसोड़ भाटियो का अधिकार था। जैसलमेर में २४ गाँवो (जसडावटी) के अतिरिक्त मारवाड़ में भी कई ठिकाने रहे है।
- जयचंद भाटी : जसहड़ के भाई जयचंद के वंशज।
- सीहड़ भाटी : जयचंद के पुत्र कैलाश के पुत्र करमसी के पुत्र सीहड़ हुआ, इसी सीहड़ के पुत्र सिहड़ भाटी हुए।
- भड़कमल भाटी : जयचंद भाटी के भाई आसराव के पुत्र भड़कमल के वंशज।
- जैतसिंहोत भाटी : रावल केलण (जैसलमेर) के बाद क्रमश: चाचक, तेजसिंह व जैतसिंह हुए। इसी जैतसिंह के वंशज जैतसिंहोत भाटी हुए।
- चरड़ा भाटी : रावल जैतसिंह के भाई कर्णसिंह के क्रमश: लाखणसिंह, पुण्यपाल व चरड़ा हुए। इसी चरड़ा के वंशज चरड़ भाटी हुए।
- लूणराव भाटी : जैसलमेर के रावत कर्णसिंह के पुत्र सतरंगदे के पुत्र लूणराव के वंशज।
- कान्हड़ भाटी : रावल जैतसिंह के पुत्र कान्हड़ के वंशज।
- ऊनड़ भाटी : कान्हड़ के भाई ऊनड़ के वंशज।
- सता भाटी : कान्हड़ के भाई ऊनड़ के वंशज।
- कीता भाटी : सता के भाई कीता के वंशज।
- गोगादे भाटी : कीता के भाई गोगादे के वंशज।
- हम्मीर भाटी : गोगादे के भाई हम्मीर के वंशज।
- हम्मीरोत भाटी : जैसलमेर के रावल जैतसिंह के बाद क्रमशः मूलराज, देवराज व हम्मीर हुए। इसी हम्मीर के वंशज हम्मीरोत भाटी कहलाते हैं। जैसलमेर राज्य में पहले पोकरण इनकी थी। मछवालों गांव भी इनकी जागीर में था। जोधपुर राज्य में पहले खींवणसर पट्टे में था। नागौर के गांव अटबड़ा व खेजड़ला इनकी जागीर में था
- अर्जुनोत भाटी : हम्मीर के पुत्र अर्जुन अर्जुनोत भाटी हुए।
- केहरोत भाटी : रावल मूलराज के पुत्र रावल केहर के वंशज।
- सोम भाटी : रावल केहर के पुत्र सोम के वंशज।
- रूपसिंहोत भाटी : सोम के पुत्र रूपसिंह के वंशज।
- मेहजल भाटी : सोम के पुत्र मेहजल के वंशज। मेहाजलहर गांव (जैसलमेर) राज्य) इनका ठिकाना रहा है।
- जैसा भाटी : रावल केहर के पुत्र कलिकर्ण के पुत्र जैसा के वंशज जैसा भाटी हुए। जैसा चित्तौड़ गए, वहां ताणा 140 गांवों सहित मिला था। जैसा के पुत्र 1.आणद 2. जोधा 3. भैरुदास नामक 3 पुत्र हुए थे | जैसा के द्वतीय पुत्र जोधा के वंशजों का खूब विस्तार हुआ और जोधपुर राज्य की सेवा में रहकर अनेक जागीरें प्राप्त करने उन्हें सोभाग्य मिला | जोधा भाटी ने राव सूजा के यहाँ रहकर अपनी सेवाएं अर्पित की | विक्रमी संवत 1522 फाल्गुन बदी 2 को जोधा ने गंगाजी की यात्रा की थी | जोधा के पुत्र 1 राम 2 नारायण 3 दुर्जन 4 आशा 5 भोजा 6 पंचायण 7 माला, नामक सात पुत्र थे | रामा जोधपुर नरेश राव मालदेव की सेवा में रहा | उन्हें 15 गाँव समेत बालरवा की जागीर मिली | आणद के वंशजों की मारवाड़ में इतिहास में निर्णयाक भूमिका रही | इनके वंशज नीबा राव मालदेव जोधपुर के पास रहे थे। जोधपुर राज्य में इनकी बहुत से गांवों की जागीर थी। इनमें लवेरा (25 गांव) बालरवा (15 गांव), बीकमकोर आदि मुख्य ठिकाने थे। बीकानेर राज्य में कुदसू ताजीमी ठिकाना था। (उत्तरप्रदेश में जसावत, जायस व जेसवार नाम से यदुवंशी राजपूत पाए जाते हैं, जोकि संभवतः जैसा भाटी से माइग्रेट होकर वहां गए हैं)
- सॉवतसी भाटी : कलिकर्ण के पुत्र सांवतसिंह के वंशज, कोटडी (जैसलमेर) इनका मुख्य ठिकाना था।
- एपिया भाटी : सांवतसिंह के पुत्र एपिया के वंशज।
- तेजसिंहोत भाटी : रावल केहर के पुत्र तेजसिंह के वंशज।
- साधर भाटी : रावल केहर के बाद क्रमशः तराड़, कीर्तसिंह, व साधर हुए। इसी साधर के वंशज साधर भाटी कहलाये।
- गोपालदे भाटी : रावल केहर के पुत्र तराड़ के पुत्र गोपालदे के वंशज।
- लाखन (लक्ष्मण) भाटी : रावल केहर के पुत्र रावल लाखन (लक्ष्मण) के वंशज।
- राजधर भाटी : रावल लाखन के पुत्र राजधर के वंशज। जैसलमेर राज्य में धमोली, सतोई, पूठवास, धधड़िया, सुजेवा आदि ठिकाने थे।
- परबल भाटी : रावल लाखन के पुत्र शार्दूल के पुत्र पर्वत के वंशज।
- इक्का भाटी : रावल लाखन के बाद क्रमशः रूपसिंह, मण्डलीक व जैमल हुए। जैमल ने भागते हुए हाथी को दोनों हाथों से पकड़ लिया अतः बादशाह ने इक्का (वीर) की पदवी दी। इन्हीं के वंशधर इक्का भाटी कहलाये। ये भाटी पोकरण तथा फलौदी क्षेत्र में हैं।
- कुम्भा भाटी : रावल लाखन के पुत्र कुम्भा के वंशज। दुनियापुर गांव इनकी जागीर में था।
- केलायेचा भाटी : रावल लाखन के बाद क्रमश: बरसी, अगोजी व कलेयेचा हुए। इन्हीं केलायेचा के वंशज केलायेचा भाटी कहलाये।
- भैसड़ेचा भाटी : राजा भाटी के अनुज भेंसडेच के वंशज।
- सातलोत भाटी : रावल बरसी के पुत्र रावल देवीदास के पुत्र मेलोजी के वंशज।
- मदा भाटी : रावल देवीदास के पुत्र मदा के वंशज।
- ठाकुरसिंहोत भाटी : रावल देवीदास के पुत्र ठाकुरसिंहोत के वंशज।
- देवीदासोत भाटी : रावल देवीदास के पुत्र रामसिंह के वंशज देवीदास दादा के नाम से देवीदासोत भाटी कहे जाने लगे। सणधारी (जैसलमेर राज्य) इनका ठिकाना था।
- दूदा भाटी : रावल देवीदास के पुत्र दूदा के वंशज।
- जैतसिंहोत भाटी : रावल देवीदास के पुत्र रावल जैतसिंह के पुत्र मण्डलीक के वंशज जैतसिंह के नाम से जैतसिंहोत भाटी कहलाये।
- बैरीशाल भाटी : रावल जैतसिंह के पुत्र बैरीशाल के वंशज।
- लूणकर्णोत भाटी : रावल जैतसिंह के पुत्र रावल लूणकर्ण के वंशज। इनको मारोठिया रावलोत भाटी भी कहते हैं।
- दीदा भाटी : रावल लूणकर्ण के एक पुत्र दीदा के वंशज।
- मालदेवोत भाटी : रावल लूणकर्ण के पुत्र मालदेव के वंशज मालदेवोत भाटी कहलाये। खीवलो, बोकारोही, गुर्दा, खोखरो, चौराई, भेड़, मौखरी, पूनासर आदि जोधपुर तथा जैसलमेर राज्य में इनके ठिकाने रहे हैं।
- खेतसिंहोत भाटी : मालदेव के एक पुत्र खेतसिंह के वंशज।
- नारायणदासोत भाटी :खेतसिंह के भाई नारायणदास के वंशज।
- सहसमलोत भाटी :खेतसिंह के भाई सहसमल के वंशज। आसियां, नवसर (पांच गांव) रिड़मलसर (12 गांव) खटोड़ी आदि ठिकाने रहे हैं।
- नेतसोत भाटी :खेतसिंह के भाई डूंगरसिंह के वंशज।
- डूंगरोत भाटी :खेतसिंह के भाई डूंगरसिंह के वंशज।
- द्वारकादासोत भाटी : खेतसिंह के पुत्र ईश्वरदास के वंशज द्वारकादास के वंशज द्वारकादासोत भाटी कहलाये। छापण, टेकरी, बास, कोयलड़ी, बड़ागांव, डोगरी आदि गांवों की जागीर थी।
- बिहारीदासोत भाटी : खेतसिंह के पुत्र बिहारीदास के वंशज। बड़ागांव, डोगरी आदि गांवों की जागीर थी।
- संगतसिंह भाटी : खेतसिंह के पुत्र संगतसिंह के वंशज। सतयाव, घटयाणी, बालावा, आदि गांवों की जागीर थी।
- अखैराजोत भाटी :खेतसिंह के बाद क्रमश: पंचायण, सुजाणासिंह, रामसिंह व अखैराज हुए। इन्हीं अखैराज के वंशज अखैराजोत भाटी हुए। हरसारी, रावर आदि गांव इनकी जागीर थे।
- कानोत भाटी :खेतसिंह के पुत्र पंचायण के पुत्र कान के वंशज।
- पृथ्वीराजोत भाटी :खेतसिंह के पुत्र पंचायण के पुत्र पृथ्वीराज के वंशज।
- उदयसिंहोत भाटी :पंचायण के पुत्र रामसिंह के फतहसिंह और फतहसिंह के उदयसिंह हुए। इन्हीं उदयसिंह के वंशज उदयसिंह भाटी कहलाये। झाणा, अलीकुडी, झिझयाणी, निबली, गेहूं झाडली, हमीरो देवड़ा आदि इनके ठिकाने थे।
- तेजमालोत भाटी :रामसिंह के पुत्र तेजमाल के वंशज। रणधा, मोढ़ा आदि इनके ठिकाने थे।
- गिरधारीदासोत भाटी :पंचायण के भाई बाघसिंह के पुत्र गोरधन के पुत्र गिरधारीसिंह के वंशज। छोड़ इनकी जागीर थी।
- वीरमदेवोत भाटी :पंचायण के भाई धनराज के पुत्र वीरमदे के वंशज। अडू, आदि गांवों की जागीर थी।
- रावलोत भाटी : खेतसिंह के बड़े पुत्र सबलसिंह, जैसलमेर के रावल हुए। इन्हीं रावल सबलसिंह के वंशज रावलोत भाटी हुए। जैसलमेर राज्य में दूदू, नाचणा, लाखमणा आदि बड़े ठिकाने थे। इनके अलावा पोथला, अलाय, सिचा व गाजू (मारवाड़) कीरतसर (बीकानेर राज्य) मोलोली व मोई (मेवाड़) उल्ल्ले शाहपुरा (मेवाड़) तथा जैसलमेर राज्य में लाठी, लुहारीकी, खरियो, सतो आदि इनके ठिकाने थे।
- रावलोत देरावरिया भाटी : रावल मालदेव जैसलमेर के पुत्र झानोराम के पुत्र रामचन्द्र थे। जैसलमेर के रावल मनोहरदास (वि. 1684-1707) के निःसंतान रहने पर रामचन्द्र जैसलमेर के रावल बने पर थोड़े ही समय के बाद मालदेव के पौत्र सबलसिंह जैसलमेर के रावल बन गए। रामचन्द्र को देरावर का राज्य दिया गया। रामचन्द्र के वंशज इसी कारण रावलोत देरावरिया कहलाते हैं। रामचन्द्र के वंशजों से देरावर मुसलमानों ने छीन ली तब रामचन्द्र के वंशज रघुनाथसिंह के पुत्र जालिमसिंह को बीकानेर राज्य की ओर से गाड़ियाला का ठिकाना मिला। इनके अतिरिक्त टोकला, हाडला, छनेरी (बीकानेर राज्य) इनके ठिकाने थे।
- केलण भाटी : जैसलमेर के रावल केहर के बड़े पुत्र केलण थे। पिता की इच्छा के बिना महेचा राठोड़ों के यहां शादी करने के कारण केहर ने उनको निर्वासित कर अपने दूसरे पुत्र लक्ष्मण को अपना उत्तराधिकारी बनाया। इसी केलण के वंशज केलण भाटी कहलाये। केलण ने अपने राज्य विस्तार की तरफ ध्यान दिया, अजा दहिया को परास्त कर देरावर पर अधिकार किया तत्पश्चात मारोठ, खाराबार, हापासर मोटासरा आदि सहित 140 गांवों पर अधिकार किया।
- विक्रमाजीत केलण भाटी : केलण के पुत्र विक्रमाजीत के वंशज।
- शेखसरिया भाटी : केलण के पुत्र अखा के वंशज स्थान के कारण शेखसरिया भाटी कहलाये।
- हरभम भाटी : राव केलण के पुत्र हरभम के वंशज। नाचणा, स्वरूपसार आदि (जैसलमेर राज्य) इनकी जागीर में था।
- नेतावत भाटी : राव केलण के बाद क्रमश: चाचक, रणधीर व नेता हुए। इसी नेता के वंशज नेतावत भाटी हुए। पहले देरावर और बाद में नोख, सेतड़ा आदि गांव इनकी जागीर में थे।
- भीमदेवोत भाटी : चाचक के एक पुत्र भीम के भीमदेवोत भाटी भी कहलाये।
- किशनावत भाटी : रावल चाचकदे (पूगल) के पुत्र बरसल के पुत्र शेखा थे। शेखा भाटी के पुत्र बाध के पुत्र किशनसिंह के वंशज किशनावत भाटी कहलाये किशनावत भाटियों के हापासर, पहुचेरा, रायमलवाली, खारबारा, राणेर, चुडेहर (वर्तमानअनूपगढ़), भाणसर, शेरपुरा, मगरा, स्योपुरा, सरेह हमीरान, देकसर, जगमालवाली, राडेवाली, लाखमसर, भोजवास, डोगड़ आदि गांवों पर इनका अधिकार रहा था। इनमें खराबार व राणेर बीकानेर राज्य में ताजमी ठिकाने थे। जोधपुर राज्य में मिठड़ियों, चोमू सावरीज व कालाण आदि ठिकाने थे।
- खींया भाटी : पूगल के राव शेखा के पुत्र खीमल (खींया) के वंशज खींया भाटी कहलाये। खींया भाटियों की निम्न खापें हैं …
- i ) जैतावत : शेखा के पुत्र खीमल (खीया) के पुत्र जैतसिंह के वंशज जैतावत हैं। जैसलमेर रियासत में बरसलपुर (41 गांव) इनका मुख्य ठिकाना था। (अभी बीकानेर जिले में है). पूर्व मंत्री देवीसिंहजी भाटी (बरसलपुर के राव मोतीसिंह जी के पौत्र) व वर्तमान में कोलायत से विधायक अंशुमानसिंह भाटी बरसलपुर के ही हैं।
- ii) करणोत : (खीयां) के पुत्र करण के वंशज है। बीकानेर में जयमलसर (27 गांव) इनका मुख्य ठिकाना था। इनके अलावा नोखा और मालकसर की जागीर करणसिंह के पास रही थी। इनके अतिरिक्त नांदड़ा, खजोड़ा, बोरल का खेत, नोखा का बास चोरड़ियान, बास खामरान, डालूसर, जालपसर, (डूंगरगढ़ के पास) तोलियासर (सरदारशहर के पास) सरेह भाटियान, खीलनिया, सियाना आदि गांव थे।
- iii ) घनराजोत : खेमल (खींया) के पुत्र घनराज के वंशज। इनके मुख्य ठिकाना बीठनोक था। मारवाड़ में मिठड़िया, चामू व ककोला जो किशनावतों के थे, घनराजोतों को दिये गये। बीकानेर राज्य में खीनासर व जांगलू इनके ठिकाने थे।
- बरसिंघ भाटी :राव शेखा के पुत्र बरसिंह हुए । इन्हीं बरसिंह के वंशज बरसिंह भाटी कहलाते हैं। बीकानेर राज्य में मोटासर, कालास, लाखासर, राजासर, लूणखो, भानीपुरा, मंडला, केला, गोरीसर, रघुनाथपुरा, करणीसर, अभारण, चीला, महादेववाली, किशनपुर, अजीत मामा, राहिड़ावाली, बेरा, बेरिया, सादोलाई, सतासर, ककराला, वराला ! जैसलमेर राज्य में बीकमपुर, गिरिराजसर, सीड गांवों में हैं। बरसिंघ भाटी की खांप .....
i ) काला बरसिंघ : बरसिंह के पुत्र काला के वंशज
ii ) सातल बरसिंघ : बरसिंह के पुत्र सातल के वंशज। जोधपुर के राव मालदेव ने मेवाड़ के पास रायन गांव इनको जागीर में दिया था।
iii ) दुर्जनशालोत बरसिंघ : बरसिंह के वंशज दुर्जनशाल के वंशज। सिरड़, कोलासर, पाबूसर, टावरीवाला, खार, गोगलीवाला, चारणतला, पन्ना, भरमलसर, बीकानी, खैरूवाला, गुढ़ा, बावड़ी, भोजा की बाय, गिराधी, गिराजसर, बीकासर, बोगड़सर आदि इनके ठिकाने थे।
- पूगलिया भाटी : पूगल के राव अभयसिंह के पुत्र अनूपसिंह को बीकानेर राज्य के सतासर, खीमेरा और ककराला गवां मिले। अनूपसिंह के वंशज पूगल के निकास कारण पूगलिया भाटी कहलाये। इनके अतिरिक्त बीकानेर राज्य में मोतीगढ़, सरदारपुरा, फूलसर, डूंगरसिंहपुरा, हांसियाबास, मीरगढ़, आडेरा आदि गांव थे।
- बीदा भाटी : पूगल के राव शेखा के पुत्र हरा के पुत्र बीदा के वंशज। पहले देरावर जागीर में था।
- हमीर भाटी : राव हरा के पुत्र हमीर के वंशज भी हमीर भाटी कहे जाते रहे है। पहले बीजनोरा की जागीर थी।
- समेचा भाटी : भटनेर के सस्थापक महान राजा भाटी के छोटे भाई समा के वंशज समेचा भाटी कहलाए। विक्रम संवत 1280 के तकरीब फुलड़ा नामक जागीर के वीर मूंगा भाटी अपने कुछ भाईबंदों के साथ मध्य भारत में सिद्धिगंज पहुँचे। सिद्धिगंज के मुस्लिम राजा को समेचा भाटियो ने हराया और सिद्धिगंज को भाटियों की नई राजधानी बनाया। उस समय सिद्धिगंज के अधीन करीब सौ गांव आते थे। काफी समय यहाँ भाटियों का राज रहा। भोपाल स्टेट का उदय हुआ होने के बाद सिद्धिगंज की जागीर भोपाल स्टेट के अधीन हो गई। भोपाल राज्य में भी समेचा भाटी काफी सम्मानित पदों पर रहे। बाद में मुंगा भाटी के वंशजों ने सिद्धीगंज जागीर को पांच भागों में बांट लिया 1)सिद्धिगंज, 2(कुंडिया धागा, 3)बिलपान जागीर, 4)रामपुरा कलां, 5)धुरड़ा कलां। मध्यप्रदेश के सीहोर और देवास जिले में समेचा भाटियों के बहुत सारे गांव एवं ठिकाणे अभी भी है।
जैसलमेर राज्य
जैसलमेर राज्य
राजा भाटी (भट्टी) की मृत्यु के बाद उसके वंशज बछराव, विजयराव, मंझणराव, मंगलराव भटनेर के शासक बने। मंगलराव के समय गजनी के शासक धुंडी ने आक्रमण किया। इस आक्रमण में राजा मंगल की पराजय हुई और इस पराजय के बाद मंगल के पुत्र मंजसराव ने रेगिस्तान की ओर प्रस्थान किया। भाटी राजवंश का इतिहास डावांडोल रहा है। इन्होंने भिन्न -भिन्न समयों में भिन्न-भिन्न स्थानों पर अपना प्रभुत्व जमाया था। उस समय इस भू-भाग पर स्थानीय जातियों का प्रभाव था। इस भू-भाग में स्थित स्थानीय जातियों जिनमें परमार, बराह, लंगा, भुट्टा तथा सोलंकी आदि प्रमुख थे। इनसे सतत संघर्ष के उपरांत भाटी लोग इस भू-भाग को अपने आधीन कर सके थे। अत: ये भटनेर से पुन: अग्रसर होकर सिंध मुल्तान की ओर बढ़े। अन्तोगत्वा मुमणवाह, मारोठ, तनोट, देरावर आदि स्थानों पर अपने मुकाम करते हुए थार के रेगिस्तान स्थित परमारों के क्षेत्र में लोद्रवा नामक शहर के शासक को पराजित यहाँ अपनी राजधानी स्थापित की थी। मंजसराव के पुत्र केहर ने अपने पुत्र तणु के नाम पर तन्नोट नगर बसाकर तनोटिया देवी की स्थापना की। केहर के दूसरे पुत्र विजयराव चुडाला के पुत्र देवराज ने अपने पिता व दादा की मौत का बदला लेकर वापस हारे हुए क्षेत्रों पर अधिकार कर देरावर बसाया। लेकिन बाद में देरावर की जगह लोद्रवा को अपनी नई राजधानी बनाया। देवराज ने स्वय को महरावल की उपाधि से विभूषित किया। देवराज के वंशज क्रमशः मुंध, चछु, अनघा, बापाराव, पाहू, सिंघराव व दुसांझ हुए।
1155 ईस्वी में रावल दुसाझ के ज्येष्ठ पुत्र जैसल भाटी ने राजधानी लोद्रवा से 10 मील दूर जैसलमेर दुर्ग की नींव रखी। इनकी 9 राजधानीयो में से जैसलमेर को अंतिम राजधानी बतलाते है। इस विषय का एक पद्य भी है ….
मथुरा काशी प्राग बड़, गजनी अरु भटनेर।
दिगम् दिरावर लोद्रवो, नमो जैसलमेर।।
जैसल भाटी ने जैसलमेर दुर्ग की नींव रखी और उसके पुत्र शालीवाहन ने इस दुर्ग को पूर्ण करवाया। यह दुर्ग विशाल बनाया गया ताकि यहां के शासक शत्रुओं के आक्रमण के समय रियासत की जनता को दुर्ग के अंदर सुरक्षित रख सके।
- रावल जैसल (1153 से 1168 ईस्वी) - रावल देवराज भाटी के वंश में छठा व देरावल के रावल दुसाज के सबसे बड़े पुत्र थे, जिसकी राजधानी लौद्रवा में थी। जब उनके पिता ने जैसल के छोटे भाई विजयराज लांझा को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया, तो जैसलदेव ने लोद्रवा से 10 मील दूर त्रिकूट पहाड़ी पर जैसलमेर कस्बा बसाकर जैसलमेर को अपनी राजधानी बनाया। जैसलदेव भाटी ने 12 जुलाई , 1155 ई. में जैसलमेर दुर्ग की नींव लगाई।
- रावल शालिवाहन (1168 से 1200) : रावल जेसल ने गढ का कार्य शुरू किया था लेकिन उसकी की मृत्यु के बाद उसके पुत्र रावल शालिवाहन ने दुर्ग का अधिकांश कार्य (बुर्ज, महल, कुंए आदि) पूर्ण किया।
- रावल केलण (कलिकर्ण) (1200-1219) : रावल जेसल का छोटा पुत्र केलण गद्दी बैठा। इसका वंश बहुत बढ़ा। भाटियों में अधिकांश इसके चार पुत्रों चाचग, आसराव, पाल्हण व लखमसी का ही वंश है।
- रावल चाचक देव (1219-1241) : चाचग ने उमरकोट के सोढा राणा को जीतकर उसकी कन्या के साथ विवाह किया। खेड़ में राठोड़ों का राज हो गया था, चाचकदेव ने उन पर चढ़ाई की। परंतु राव छाड़ा के बेटे राव टीडा ने उसको बहन व्याह कर संधि कर ली। चाचग का पुत्र तेजसिंह पहले ही मर गया था। तेजसिंह के दो बेटों में से बड़े जैतसिंह को गद्दी न मिली, छोटा कर्ण गद्दी बैठा ।
- रावल कर्ण सिंह प्रथम (1241-1271) : कर्नल टोड कहता है कि उस वक्त नागोर में जफर खां हिंदुओं पर बड़ा जुल्म करता था | बराहा जाती के भूमिया हासा की बेटी भगवती उसने मांगी। भूमिये ने इनकार किया और घर वार छोड़कर जेसलमेर की तरफ चला, जफर खां मार्ग में से उसको सकुटम्ब पकड़कर नागोर ले गया। यह सुनकर रावल कर्ण नागोर पर चढ़ा और लड़ाई में जफर को मारकर भगवती को सपरिवार छुड़ाया और उसे अपना ठिकाना पीछा दिलाया ।
- रावल लाखन सेन (1271 - 1275) : रावल लाखन सेन बहुत ही भोला भाला था। उसकी रानी उमरकोट की सोढ़ी बहुत दबंग थी। जो वह कहती लखनसेन वैसे ही करता। जालोर के राव कान्हड़देव सोनगरा ने अपनी पुत्री उसको ब्याही, लेकिन रावल लाखन अपनी सोढ़ी राणी के कहने से नव ब्याहता को बिच रास्ते छोड़कर अकेला ही जैसलमेर चला गया। सोनगरी रानी ने इसे अपना अपमान समझा। तिरसिंगड़ी गांव के पास जिस तालाब पर डेरा था, वहां राठौड़ नीम्बा सीमालोत नहाने आया (निम्बा बहुत ही सुंदर, बलिष्ठ व वीर युवक था) ! सोनगरी की सहमति से नीम्बा ने उसके साथ के जालोर व जैसलमेर के सेवकों को मार भगाया व उसे अपने साथ ले गया। चार साल राज करने के बाद सरदारों ने लाखन को गद्दी से उतर कर उसके बेटे पुनपाल को राजा बना दिया।
- रावल पुनपाल (1275-1276) : लखनसेन के पुत्र पुनपाल से चाचग देव के दूसरे पुत्र तेजराव के बड़े पुत्र जैतसी (जिसके हक को ऊलांच कर चाचग देव ने उसके छोटे भाई को वारिश बनाया था) ने छ महीने बाद ही राज छीन लिया।
- रावल जैतसी प्रथम (1276-1294) : जैसलमेर की गद्दी पर जैत्र सिंह बैठे उस समय दिल्ली पर बलबन का शासन था। जैत्र सिंह के 2 पुत्र थे, उनके बड़े पुत्र का नाम मूलराज और दूसरे पुत्र का नाम रतनसिंह था। जैत्र सिंह के दोनों पुत्र बड़े वीर और बलशाली थे। महारावल जैत्र सिंह के वीर पुत्रों ने मिलकर मुल्तान थट्टा से आने वाला खजाना लूट लिया। यह खजाना दिल्ली ले जाया जा रहा था। जब इसकी सूचना अलाउद्दीन खिलजी को लगी तो उसने तुरंत निश्चय किया। दिल्ली से अलाउद्दीन खिलजी का सेनापति अपनी सेना को लेकर जैसलमेर सियासत की ओर बढ़ता चला आया। अलाउद्दीन की सेना ने जैसलमेर के स्वर्ण गिरी दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया यह घेरा कई महीनों तक रहा। सेना के घेरे के दौरान ही जेत्रसिंह की दुर्ग में ही मृत्यु हो गई ।
- रावल मूलराज प्रथम (1294 - 1295) : जैसलमेर का प्रथम साका : जेत्रसिंह की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र मूलराज रावल बना। किले में रसद समाप्त हो जाने पर सूर्य की पहली किरण के साथ महारावल मूलराज की सेना हर हर महादेव और जय भवानी के नारों के साथ शत्रु सेना पर टूट पड़ी। महारावल मूलराज उसका छोटा भाई रतन सिंह और वीर भाटी योद्धा लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए और किले के अंदर महारानी के नेतृत्व में रानियों ने जोहर किया।
- रावल दूदा (1295-1306) : रावल जैसल के पुत्र रावल केलण का एक पुत्र पोल्हण था। पोल्हण के पुत्र जसहड़ के 5 पुत्र थे- दूदा, तिलोकसी, बांगण, सांगण, आसकरण। साके व जोहर के बाद जेसलमेर का गढ़ सूना था। रावल मल्लिनाथ राठौड़ का ताकत उस वक्त बढ़ा हुआ था, मल्लिनाथ के बेटे जगमाल ने गढ़ खाली देखकर उस पर अधिकार कर लेने का विचार किया। वहाँ जा रहने की तैयारी करके 300 गाड़े रसद सामान के भरवाकर वहाँ पहुँचा दिए। बारहठ चंद्र रतनू माला का बेटा आपत्ति का मारा मेहवे जा रहा था, सो उसने जाना कि गढ़ मेरे स्वामियों के हाथ से जाता है। उसने दूदा तिलोकसी को जो पारकर में रहते थे इस बात की खबर पहुँचाई। दूदा तिलोकसी पहले ही गढ़ में आ जमे और पीछे से जगमाल आया। उसने वहाँ घोड़ों के धँस (खुरचिह्न) देखे | पूछा कि यह क्या बात है, बारहठचंद्र ने जो जगमाल के साथ था, कहा कि दूसरा कोई भाटी ऐसा दिखता नहीं जो गढ़ में आ बैठे और शायद दूदा तिलोकसी जसहड़ के पुत्र होवें। जगमाल वहीं ठहर गया और खबर के वास्ते अपने दो राजपूत को भेजा। उन्होंने जाकर देखा तो दूदा तिलोकसी ही है। उन्होंने उन राजपूतों के साथ जगमाल को जुहार कहलाया और कहा कि हमारा गढ़ था सो हमने लिया। आदमियों ने यह समाचार जगमाल को जा सुनाए तो उसने पोछा कहलाया कि हमारे 300 छकड़े सामान के तो भेज दो। उत्तर दूदा की तरफ से यही आया कि वे तो हमने ले लिये, अब तुम जहाँ देखो हमारे गाड़े ले लेना। यह सुनकर जगमाल पीछा लौट गया और दूदा गद्दी पर बैठा। रावल दूदा का पराक्रम और जैसलमेर का दूसरा साका : जब रावल मूलराज व रतनसी ने शाका करने का निश्चय किया था इस वक्त दूदा ने भी उनके साथ वही प्रण लिया था। रावल दूदा जब जैसलमेर के शासक थे तब उस समय दिल्ली पर फिरोजशाह तुगलक का अधिकार था। दूदा के शासक बनते ही दिल्ली के शासक फिरोजशाह तुगलक ने अपनी सेना को जैसलमेर पर आक्रमण करने के लिए भेजा। इस आक्रमण का जवाब रावल दूदा ने बड़ी वीरता से देते हुए अपने भाइयों व् पुत्रों सहित वीरगति को प्राप्त की और वीरांगनाओं ने जोहर किया, यह जैसलमेर का दूसरा साका था।
- रावल घड़सी (1306 - 1335) : जैसलमेर के पहले साके के वक्त जब रावल मूलराज व रतनसी ने शाका करने का निश्चय किया था इस वक्त वंश बचने के लिए रतनसी के पुत्रों घड़सी, उनड़, कान्हड़ व् एक भांजे देवड़ा को कमालदीन (जोकि उसका पगड़ी बदल भाई था) के सुपुर्द किया था। रावल दूदा के साके के बाद रावल मूलराज का पौत्र देवराज जैसलमेर का राजा बनना चाहता था, लेकिन रतन सिंह के पुत्र घड़सी ने फिरोजशाह से विश्वास हासिल कर लिया और वह जैसलमेर का रावल बन गया। रावल घड़सी ने घड़सीसर सरोवर का निर्माण करवाया।
- रावल केहर (1335-1402) : रावल घड़सी को दूदा के भाई तेजसी ने धोखे से मार डाला। रावल घड़सी के कोई पुत्र न था। उसकी रानी विमला दे (जोकि रावल मल्लिनाथ राठौड़ की पुत्री थी) ने बारू छाहण से रावल मूलराज के पौत्र, देवराज के पुत्र केहर को बुलाकर गोद लिया।
- रावल लक्ष्मण (1402-1436) : केहर का बड़ा पुत्र था। लेकिन उसने पिता को पूछे बिना अपना विवाह महेचा में कर लिया था। सो केहर ने उसको निर्वासित कर दूसरे पुत्र लक्ष्मण को पाटवी बनाया (मुहणोत नेणसी) । इसके तीन पुत्र हुए- वैरसी, रूपसी और राजधर।
- रावल वैरसी (1436-1448) : चार पुत्र- चाचग, ऊगा, मेला और बणवीर।
- रावल चाचक देव II (1448-1457) : रावल चाचकदेव, वैरसी का पुत्र गद्दो पर बैठा। किसी काम के वास्ते सूराकर से ठट्टे गया था। लौटते वक्त ऊमरकोट के स्वामी सोढा मांडण ने अपनी भतीजी का विवाह उसके साथ किया। ऊमरकोट व जेसलमेर के स्वामियों में सदा से शत्रुता चली आती थी। रावल चाचग ने मांडण के भतीजे भोजदेव को कुछ कुवचन कहे, जिस पर भोजदेव ने चूक करके रावल को मार डाला।
- रावल देवीदास (1457-1497) : सोढों ने अपनी बेटी का विवाह चाचग के साथ कर फिर दगा से उसको मार डाला तो उसके साथ के भाटियों ने दो-चार कोस 'दूर जाकर डेरा डाला और जेसलमेर से चाचग के पुत्र देवीदास को बुलाया। जब वह आया तो भाटियों ने उसके तिलक (गद्दी का) करना चाहा। परन्तु देवीदास बोला कि में अभी टीका लेना नहीं चाहता, या तो में अपने पिता के मारनेवाले को मारूंगा या में ही मरूँगा | उसके सब साथी भी पूर्ण उत्तेजित होकर उससे सहमत हुए और ऊमरकोट पर धावा कर दिया। गढ़ में जा घुसे और बहुत से सोढों को मार गिराया। मांडण अपने भतीजों भीमदेव, भोजदेव सहित निकल भागा, परंतु पीछा कर आठ कोस पर उसे जा लिया और लड़ाई हुई जहाँ मांडण, भीमदेव व भोजदेव १४० सोढों सहित मारे गए। ऊमरकोट के गढ़ को गिराकर देवीदास उसकी ईंटे जेसलमेर ले गया, जिनसे कर्ण मद्हल चुनवाया। रावल देवीदास के समान कोई प्रतापी रावल जेसलमेर की गदो पर न हुआ। उसने आस-पास के सब राज्यों से छेड़-छाड़ लगाई। उसके तीन पुत्र — जैतसी, कुंभा और राम हुए।
- रावल जैतसी II (1497-1530) : इनके समय इनके पुत्र लूणकरण ने 'जेतबंध यज्ञ' का आयोजन कर उन भाटियों को बुलाया, जिन्होंने सिंध में जाकर इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया और उन्हें पुन: हिंदु धर्म में शामिल करवाया। शुद्धिकरण की दिशा में यह पहली घटना थी। इसके नो पुत्र थे, जिनमे आपस में अनबन रहती थी। जिससे उसके पुत्र जयसिंह, नारायणदास व पुनसी ने मिलकर अपने भाइयों लूणकरण व करमसी को देश से निकाल दिया जोकि सिंध में जा रहे, रावल जेतसी को कैद में रखा। फिर जेतसी ने दूसरे बुजुर्ग सरदारों से गुप्त मंत्रणा कर लूणकरण व करमसी को बुला भेजा। लूणकरण व करमसी ने आकर गढ़ पर कब्ज़ा किया व जेतसी को सिंहासन पर बिठाकर उसकी दुहाई फेर दी। इसके पुत्र- लूणकरण, करमसी, महिरावण, राजा, मंडलीक, नरसिंह, जयसिंहदे, राम, तिलोकसी हुए।
- रावल लूणकरण (1530-1551) : आमिर खा का विश्वासघात और अर्द्ध साका : जेतसिंह की मृत्यु के बाद उसका छोटा पुत्र लूणकरण 1528 ई. में जैसलमेर का शासक बना। सन 1550 में जैसलमेर रियासत के महारावल लूणकरण की वीरता को देखते हुए कंधार के शासक ने जैसलमेर पर अधिकार करने की एक कायर पूर्ण रणनीति बनाई। कंधार के शासक ने अपने सेनापति अमीर खां को महारावल लूणकरण के यहां भेजा और रणनीति के हिसाब से अमीर खान ने महारावल से प्रार्थना की की आप मुझे अपनी शरण में जगह प्रदान करें नहीं तो कंधार का शासक मुझे मार डालेगा। शरणागत की रक्षा करना राजपूत अपना कर्तव्य मानते थे। आमिर खां अपने साथ कई सैनिकों को महिला की वेशभूषा में किले के अंदर ले आया और रात्रि को अचानक से आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण का पता जब महारावल लूणकरण भाटी लगा तो उन्होंने इस आक्रमण के लिए बिना तैयारी के ही युद्ध करने का निश्चय किया। वीर भाटी सिरदारो ने सबसे पहले अपनी रानियों के सर अपनी तलवार से अलग किए और फिर शत्रु सेना पर टूट पड़े। अचानक हुए आक्रमण में भाटी योद्धा लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। इतिहास में इस युद्ध को आधा साका कह कर संबोधित किया जाता है क्योंकि इसमें भाटियों ने केसरिया तो किया लेकिन रानियों को जोहर करने का अवसर नहीं मिला। इतिहास में जैसलमेर का यह दुर्ग ढाई साको के लिए प्रसिद्ध है।
लूणकरण के छः पुत्र मालदेव, सूरजमल, महेशदास, हरदास, दुर्जनसाल, विजयराव व तीन पुत्रियाँ थी। बडी पुत्री रामकुँवरी तथा छोटी पुत्री उमादे का विवाह जोधपुर के महाराजा मालदेव के साथ व बीच की पुत्री का विवाह उदयपुर के महाराणा उदयसिंह के साथ किया। लूणकरण की पुत्री उमादे इतिहास में रूठी रानी के नाम से प्रसिद्ध हुई।
- रावल मालदेव (1551-1562) : 9 पुत्र हुए- रावल हरराज, भवानीदास, नारायणदास, सूरजभान, उदयसिंह, डूंगरसी, खेतसी, जैतसी, सहसमल।
- रावल हरराज (1562-1577) : क्योंकि राड़धरा के राव ने अपनी बेटी को, जिसका विवाह रावल मालदेव के साथ हुआ था, रावल के मरने पर जालोर के खान गजनी खां पठान को दे दी थी, इसलिए रावल हरराज ने भाटी खेतसी को भेजकर राड़धरा विजय किया और वहाँ के गढ़ को गिरवाकर ईंटे जेसलमेर मँगवाई। गाँव कोढणा जोधपुर इलाके में था, उसे जेसलमेर में मिलाया। कोढणे के वासते रावल मेघराज से बड़ी चदाबदी हुई। 6 मास तक उभय पक्ष वाले परस्पर लड़े, पीछे अपनी पुत्री का व्याह कर कोढणा दिया और सात गाँव उससे लिए - श्रोला, बड़ा, डोगरी, बोझोराई, कोटड़ियासर, भीमासर और खोडावड़ | महारावल हरराज के समय में दिल्ली पर अकबर राज्य करता था। जिनकी सेवा में अन्यों की उपस्थति देखकर महारावल ने अपने छोटे पुत्र सुल्तानसिंह को अकबर की सभा में भेजा। जोधपुर के राव मालदेव के पुत्र चंद्रसेन ने जैसलमेर में पोकरण व फलोदी परगनों पर अपना अधिकार कर लिया था, कुमार सुल्तानसिंह के वीरता से प्रसन्न होकर दिल्ली सम्राट ने वे दोनों प्रदेश भाटी राज्य में सामील कर दिए। महारावल हरराज ने किले में एक महल बनवाया जो हरराज जी के मालिये के नाम से प्रसिद्ध है। इनके चार पुत्र १.भीमसिंह २.कल्याणमल ३. भाखरसिंह ४. सुल्तानसिंह हुए। रावल हरराज तक तो जेसलमेर के स्वामी स्वतंत्र रहे, हरराज ने मुगल शाहशाह अकबर की सेवा स्वीकारी। (अबुलफज़ल अपनी किताब अकबरनामे में लिखता है कि ‘’सं० 978 हिजरी (1570 ई० स० 1627 वि० स.) में अजमेर होता हुआ बादशाह नागोर पहुँचा, वहाँ आम्बेर के राजा भगवानदास के द्वारा जेसलमेर के राय हरराज ने बादशाही सेवा स्वीकार कर अपनी बेटी बादशाह को ब्याह दी, जिसका देहांत सं० 1634 वि० में हुआ) !
- रावल भीम सिंह (1578-1624) : रावल भीम बड़ा प्रतापी, बड़ा दातार, जुझार व जबर्दस्त राजा हुआ। बादशाह अकबर के पास बहुत चाकरी की। रावल भीम ने पृथ्वीराज के पुत्र जगमाल को पोकरण का स्वामी बनाया था, परन्तु रतनसी के पुत्र भैरवदास ने जगमाल को मारकर कोटड़ पर अधिकार कर लिया। जगमाल के पुत्र उदय सिंह व चांदा रावल भीम के पास पुकार ले गये। तब रावल चढ़ आया, भैरव भी सम्मुख हुआ। रावल ने उससे गाँव माँगा, उसने देना स्वीकारा नहीं किया। सींव से कोस 4, वड़ने से कोस एक गाँव लुणोदरी की तलाई पर लड़ाई हुई और भैरवदास 7 राजपूतों सहित मारा गया । रावल ने भैरव के पुत्र राणा किसना को कोटड़े का टीका दिया। जब रावल भीम जेसलमेर की गद्दी पर था तब ऊहड़ गोपाल दास के बेटे अर्जुन, भूपत व मांडण पोकरण के बहुत से गाँव लूट कर वहाँ का माल (गाय भैंसादि पशु ) ले निकले। पोकरण के थानेदार भाटी कल्ला जयमलोत, भाटी पत्ता सुरतानोत और भाटी नंदा रायचंद पीछे पड़कर वलसीसर पाये। गोपालदास के बेटे ने कोटड़े से अपने आदमियों को बुलाया और प्रभात होते ही ढोरों को आगे करके रवाना हुए। पोकरणवालों ने उनका मार्ग रोका। लड़ाई हुई, सभी पक्ष के कई मनुष्य मारे गये। रावल भीम को भाटी गोयंददास (गोविददास) ने कहा कि गोपालदास मेरी आज्ञा के बाहर है आप उससे समझ लीजिए। रावल ने जेसलमेर की सब सेना देकर अपने छोटे भाई कल्याणदास को कोटड़े पर भेजा और उसे विजय किया ।” (मुंहणोत नेणसी री ख्यात- पृष्ठ 342 )
रावल भीम ने जेसलमेर के गढ़ की मरम्मत कराई। वि० सं० 1647 में मिर्जा खानखाना के साथ रहकर उड़ीसा और बंगाल की लड़ाइयो में अच्छी कारगुजारी दर्शाई। भीमसिंह ने अपनी पुत्री का विवाह सलीम (जहाँगीर) से किया। जहाँगीर बादशाह बना तो उसने इस बेगम का नाम ‘मलिका-ए-जहाँ' रखा। रावळ भीम के नाथू नामक एक पुत्र दो मास का होकर मर गया था इसलिए बादशाह जहांगीर ने उसके छोटे भाई कल्याण को जेसलमेर दिया।
- रावल कल्याणदास (1624-1634) : भीम के निरसन्तान मरने पर रावल कल्याणदास हरराजोत (रावल भीम का छोटा भाई) गद्दी पर बैठा जो ढीला सा ठाकुर था। राजपूतों और प्रजा का अच्छा पालन किया। शरीर बहुत भारी था। पाट बैठने पीछे एक बार बादशाह के हजूर में गया बाकी सदा गढ़ में बैठा रहा। उसके जीते जी सारी दौड़धूप कुँवर मनोहरदास करता था, वह तो केवल एक बार ही रावल भीम के राज समय में कोढणां पर गया और ऊहड़ गोपादास को मारा था।
- रावल मनोहर दास (1634-1648) : मनोहरदास वीर था। कुंवरपदे में ही एक लड़ाई में उसने अलीखां बिलोच को मारा। जगमाल मालावत के वंश के पोखरणे राठौड़ बारोठिये हो महेवे में जा रहे और पोखरण लूटा तो रावल मनोहरदास ने उनका पीछा किया। 40 कोस पर जेसलमर मेहवे की सरहद के पास उन्हें जा लिये, फलसूड से कोस 6 पर लड़ाई हुई। राठौड़ के कई सर्दार मारे गए। पीछे पोखरणे आकर रावल के पाँवों पड़े तब उनको पीछे बुला लिये। सं० 1684 पौष यदि 8 को इस्माइल खाँ बिलोच के बेटे मुगलखां को विकमपुर के गाँव भारमलसर में मारा। मनोहरदास के कोई संतान नहीं थी।
- रावल रामचंद्र (1648-1651) : रावल मनोहरदास के निस्संतान मरने पर रानियों से मिलकर रावल रामचंद्र (रावल मालदेव के पुत्र भवानीदास के पुत्र सिंघ का पुत्र) टीके बैठा और भाटियों को भी अपने पक्ष में कर लिया। उस वक्त सीहड़ रघुनाथ भणोत उपस्थित न था। जेसलमेर में सीहड कर्ता-धर्ता था, इसलिए रघुनाथ के मन में इसकी आँट पड गई। उस समय रावल मालदेव के दूसरे पुत्र खेतसी के पुत्र दयालदास का पुत्र सबल सिंह, आमेर के राव रूपसिंह कछवाहा (राजा भारमल का पौत्र) के यहाँ नौ दस हजार साल के पट्टे पर चाकरी करता था और पादशाह शाहजहाँ की रूपसिह पर बड़ी कृपा थी। उसने सबलसिंह के वास्ते बादशाह से अर्ज की और उसे पाँव लगाया। बादशाह ने भी उसको जेसलमेर की गद्दी देना स्वीकार किया, और भाटी रामसिंह पचायणोत और कितने ही दूसरे और भाटी खेतसी की सतान सबलसिंह से आ मिले। इसी अवसर पर महाराजा जसवतसिंह ने बादशाह से अर्ज की कि पोकरण हमारा है किसी कारण से थोडे अर्से से भाटियों की वहाँ अधिकार मिल गया सो अब इजाजत फर्मायें तो मैं पीछा ले लूँ। बादशाह ने फर्मान कर दिया। महाराजा स० 1706 के वैशाख शुदि 3 को जहानाबाद से मारवाड में आया और ज्येष्ठ मास में जोधपुर आते ही राव सादूल गोपालदासोत और पचोली हरीदास को फर्मान देकर जेसलमेर भेजा। राब रामचंद्र ने पाँच भाटी सर्दारों की सलाह से यह उत्तर दिया कि "पोकरण पाँच भाटियों के सिर कटने पर मिलेगा।" जोधपुर में कटक जुडने लगा और उधर बादशाह को भी खबर हुई कि रामचंद्र ने हुक्म नहीं माना। अवसर पाकर सबलसिंह ने पेशकश देना और चाकरी बजाना स्वीकार कर जेसलमेर का फर्मान करा लिया। भाटी रघुनाथ व दूसरे भाटी भी रामचंद्र से बदल बैठे और गुप्त रीति से उन्होंने सबल सिंह को पत्र भेजा कि शीघ्र आओ हम तुम्हारे चाकर हैं। बादशाह ने जेसलमेर का तिलक देकर सबलसिंह को विदा किया और रूपसिंह कछवाहा ने खर्च देकर सहायता की। सात आठ सौ मनुष्यों की भीडभाड से सबलसिंह ने फलोधी की कुण्डले में भोलासर पर आकर डेरा दिया। जेसलमेर वाले भी 1500 सैनिकों से शेखासर के परे जवावधारा की तलाई पर आ उतरे। सेना नायक भाटी सीहा गोयंददासोत था। पोकरणवाले और केलण (भाटी) भी साथ में थे। सबलसिंह ने आगे बढ़कर उन पर धावा किया, दिन-दिहाड़े युद्ध हुआ। सबलसिह जीता और जेसलमेर की सेना भागी।
तत्पश्चात् जोधपुर महाराजा जसवतसिंह की सेना जल्द ही पोकरण आई। सबलसिंह भी 700 आदमियों सहित महाराजा से आ मिला। सं० 1707 के कार्तिक मास मे गढ़ से आध कोस के अंतर पर डुंगरसर तालाब पर डेरा हुआ। तीन दिन तक गढ़ पर धावे किये जिससे भीतरवाले भयभीत हो गये। सबलसिंह ने रामसिंह पंचायणोत को, राव गोपालदास विट्ठलदास व नाहरखाँ से मिलकर, गढ़वालों के पास भेजा। फिर सबलसिंह उपर्युक्त सर्दारों से मिलकर जेसलमेर को रवाना हुमा। आध कोस गया होगा कि खबर आई कि रावल रामचंद्र ने भाटी सर्दारों से कहा कि मुझे कुटुंब व मालमते सहित निकल जाने दो तो में देरावर चला जाऊँगा। सीहड़ रघुनाथ, दुर्गदास, सीहा, देवीदास व जसवत पाँच भाटियों ने रामचंद्र की बात मानी और कहा कि चले जाओ। वह माल असवाब व अच्छे अच्छे घोड़े ऊँट लेकर दरावर में जा रहा है, और राजधरो की शाखा का भाटी जसवत बैरसलोत उसके साथ गया। यह समाचार सुनने ही सबलसिंह आतुरता के साथ जेसलमेर आकर गद्दी बैठा। रावल रामचंद्र ने दस महीने बीस दिन राज किया। खडाल व देरावर पीछे को बहावल खा पठान (भावलपुर वाला) ने छीन लिया और रावल रामचंद्र के संतान भागकर बीकानेर गये जहाँ उनको गडियाला जागीर में मिला।
- रावल सबल सिंह (1651-1661) : रावल सबलसिंह ने अपने मामा किसन गढ़ के महाराज के शाही सम्राट शाहजहाँ की सेवा में उच्च पद पर नियक्त कर शाही खजाने को लुटने वाले अफगानों को पराजीत कर शाही खजाने का समस्त धन सम्राट को वापिस ला दिया। इससे संतुष्ट हो कर सबलसिह को सन 1655 में बादशाह के तरफ से एक हजारी मनसब मिला था। सबल सिंह ने नौ दस वर्ष राज किया। इनके सात पुत्र - अमरसिंह, महासिंह, रतनसिंह राजसिंह, माधोसिंह, भावसिंह, बांकीदास हुए।
- महारावल अमर सिंह (1661-1702) : रावल अमरसिंह के समय में इनके सामंत सुन्दरदास और दलपतसिंह ने बीकानेर के झज्जू गाँव को लुट कर जला दीया। इस पर बीकानेर के राजा अनूपसिह ने कांधलोत राठौड़ों को जेसलमेर पर भेजा परंतु अमरसिंह ने उन्हें पराजित किया। पुगल के राव ने जैसलमेर का सामंत होते हुए भी इस युद्ध में महारावल का साथ नहीं दिया। अतः उनको भी उचित शिक्षा दी इन्होने कोटड़ा और बाड़मेर के राठोड़ सामंतों को भी अपने अधीन कर लिया। रावल ने जैसलमेर से सम सडक पर चार किलोमीटर पर अपने नाम से ऐक अमर सागर तालाब का निर्माण करवाया। अमरेश्वर महादेव की स्थापना की। अपने नाम से अमर बाव तथा महारानी के नाम से अनूपबाव का निर्माण करवाया। ये 1756 वि. में बनवाये थे। अमरसागर में ऐक बाग भी लगवाया। महारावल अमरसिंह ने राव वेणीदास को लाख पसाव का दान दिया। इनके 13 रानियों से 18 पुत्र हुए - १.जसवंतसिंह २.दीपसिंह ३.विजेसिंह ४.कीरतसिंह ५.सामसिंह ६.जैतसिंह ७.केसरसिंह ८.जुझारसिंह 9.गजसिंह १०.फतेसिंह 11.मोकमसिंह १२.जयसिंह 13.हरिसिंह 14.इन्द्रसिंह 15 माहकरण सिंह 16.भीमसिंह 17.जोधसिंह 18.सुजानसिंह।
- महारावल जसवंत सिंह (1702-1708) : महारावल जसवंतसिंह वृद्धावस्था में सिंहासन बैठे थे, केवल 6 वर्ष राज्य किया। इनके पांच पुत्र- जगतसिंह, इश्वरसिंह, तेजसिंह, सरदारसिंह, सुल्तानसिंह जी थे। इनके ज्येष्ठ पुत्र जगतसिंह ने किसी कारणवश अपने पिता के विद्यमान में ही आत्महत्या कर ली थी। जगतसिंह के तीन पुत्र बुधसिंह, अखेसिंह, जोरावरसिंह थे।
- महारावल बुद्ध सिंह (1708-1722) : रावल जसवतसिंह के स्वर्गवास के बाद जैसलमेर के सिंहासन पर उनके स्वर्गवासी बड़े पुत्र जगतसिंह के पुत्र बुधसिंह बैठे। ये नाबालिग थे अतः राज्य भार उनके चाचा तेजसिंह ने अपने हाथों में लेना चाहा। परन्तु कृतकार्य न होने पर उसने बालक महारावल को अपनी ऐक दासी द्वारा विष दिलवा कर मरवा डाला और खुद राजसिंहासन पर बैठ गए।
- महारावल तेजसिंह (1722-1722) : तेजसिंह ने बुद्धसिंह को अपनी दासी द्वारा विष दिलवा कर मार डाला और स्वयं गादी पर बैठ गए। इसका महारावल जसवंतसिंह के लघु भ्राता (तेजसिंह के चाचा) हरिसिंह जो बादशाही नौकरी में थे, उन्हें पता चला तो इससे वह नाराज हुए, और तेजसिंह को मारने का उपाय सोचते रहे। जैसलमेर के प्रोळ के बहार गड़सीसर तालाब पर प्रचलित रीति के अनुसार ऐक दिन तेजसिंह उस तालाब की मिटटी निकालने को गया देख वृद्ध हरिसिंह ने उस पर हमला किया और तेजसिंह को सख्त घायल कर दिया। भागता हुए हरिसिंह भी मारा गया और उधर तेजसिंह भी परलोक सिधार गए।
- महारावल सवाई सिंह (1722-1722) : तेजसिंह के मरने पर उसका पुत्र सवाई सिंह जैसलमेर के राजसिंहासन पर बैठा। इससे अखेसिंह (महारावल बुद्ध सिंह का छोटा भाई) निराश हो कर छोड़ ग्राम में जाकर रहने लगे। वहां अखेसिंह ने बहुत सेना इकठ्ठी कर ली, और अपने राज्य के सामंतों व् प्रजा वर्ग को कहलाया की न्याय पूर्वक राज्य अधिकारी में हूँ। अतः मेरी तलवार के बल से राज्य प्राप्त करूँगा। जैसलमेर की सब जनता यह चाहती थी, सबने उनका साथ दिया। यह देख सवाईसिंह को सहायक अपने साथ लेकर भाग गए।
- महारावल अखेसिंह (1722 - 1762) : महारावल अखेसिंह जब सिंहासन पर बैठे, उस समय गृह कलह का फायदा उठाअफगान दाउद खां ने भाटी राज्य का समस्त पश्चमी भाग छीन लिया था। भाटियों की पुरानी राजधानी देरावर और खडाल प्रदेश को अपनेअधिकार में कर लिया और भावी भावलपुर राज्य की उसने नीव डाली। इस समय जोधपुर में महाराज बखतसिंह अपने भतीजे रामसिंह को गादी से उतारकर आप जोधपुर के सिंहासन पर बेठ गए थे। तब क्रोधित होकर रामसिंह ने मराठों की सेना लेकर जोधपुर पर आक्रमण किया उस समय अखेसिंह स्वयं सेना लेकर जोधपुर के राजा बखतसिंह की ससहायता के लिए जोधपुर गए। उस जंग में मोहता फतेहसिंह दीवान शहीद हुए। वहां पर मोहता फतेसिंह की छतरी अभी भी मौजूद है। महारावल अखेराज ने जैसलमेर में चौरी डकेती बंद की। अखेविलास महल और अखे पोल बनवाई। सं.1794 वि. में गढ़ विकमपुर खालसे किया। महारावल ने प्रचलित मोहमद साही सिक्के को बदल कर अपने नाम से अखेसाही सिक्के का प्रचलन किया, जो चांदी का सिक्का होता था। रुपया ,अठ्ठनि ,चौआनी व दुआनी का सिक्का होता था। इनके चार पुत्र- १.मूलराज २.खुसालसिंह ३.रतनसिंह ४.पदमसिंह थे।
- महारावल मूलराज द्वितीय (1762-1820) : महारावल मूलराज के शासन काल में उनके सामंत गणों ने कलह करना समीपवर्ती अन्य राज्यों में लूट खसोट करना शुरू कर दिया था। उस समय चारों और अशांति फेली हुयी थी,| भाटी राज्य के हित चिंतकों को यह आसंका होने लगी की कहीं पास के राजा लोग इस प्राचीन राज्य को हानि न पहुंचाए। महारावल की आज्ञा से प्रधानमंत्री स्वरूपसिंह ने उनको दमन करने का प्रयतन किया। जिससे समस्त भाटी गण उनसे रुष्ट हो गए। महारावल मूलराज के बड़े पुत्र रायसिंह से भी स्वरूपसिंह का वैमनष्य हो गया। वे भी स्वेछाचार मंत्री को पदच्युत करने हेतु सामंत गणों से मिल गए। सामंत गणों ने कहा की इस मंत्री ने महारावल को अपने वश में कर रखा है। अतः इसे बगेर मारे यह ये अधिकार से नहीं हटेगा। इस प्रस्ताव से युवराज भी सहमत हो गए, और सं.1839 वि की मकर सक्रांति के दिन महारावल के दरबार में सब उपस्थ्ति हुए। सभा विसर्जन के समय सामंतो के इशारे से महारावल के सिंहासन के पास बैठे हुए प्रधान मंत्री स्वरूपसिंह को राजकुमार रायसिंह ने अपनी तलवार से मार डाला। युवराज और सामंत गणों को ऐक मत देख कर महारावल अंतपुर में चले गए। युवराज ने राज्य कार्य आपने हाथों में ले लिया, और महारावल को सभा निवास नामक राजप्रसाद में नजर बंद कर दिया। इस गृह कलह के फलस्वरूप और ज्यादा अराजकता फ़ैल गयी। भाटियों के चिर शत्रु बहादुर खां ने भी भाटी राज्य में दीनपुर नामक नवीन दुर्ग बनवा लिया और देरावर प्रदेश भी भाटियों से छीन लिया। ये प्रदेश भावलपुर रियासत में मिला दिया गया। इधर महाराजा जोधपुर ने बाड़मेर, कोटड़ा शिव आदी समस्त प्रदेशो को अपने अधिकार में कर लिया। इस प्रकार प्राचीन भाटी राज्य की दुरावस्था देखकर जैसलमेर के झिनझिनयाली के अनोपसिंह जोकि महारावल के बंधन का कारन थे ,उनकी पत्नी के हृदय में महारावल मूलराज को बंधन मुक्त करने की तीव अभिलाषा उतपन्न हुयी। इसके वीर पुत्र जोरावर सिंह ने अपनी राज्य भक्त माता की सहमति से रामसिहोत भाटियों की सहायता से महारावल को मुक्त कर दिया। इन वीर रामसिहोत सामंतो की सहायता से महारावल ने उसी समय राज्य अधिकार को अपने हाथ में ले लिया। सबसे पहले उन्होंने अपने पुत्र रायसिंह को देश निकाले का दंड दिया और अपने प्रिय स्वरूपसिंह के पुत्र सालमसिंह को अपना मंत्री बनाया। जोरावरसिंह ने भी अपनी राज्य भक्ति द्वारा महारावल के दरबार में पूरा अधिकार कर लिया। सालमसिंह ने ने प्रधानमंत्री का पद प्राप्त अपने पितृ हन्ता से बदला लेना चाहा। परन्तु जोरावरसिंह की उपस्थति में अपने को असफल मनोरथ देख पहले तो उसने जोरावरसिंह को ही उसके छोटे भाई की पत्नी द्वारा विष दिलवाकर मरवाया।
उधर युवराज निर्वासित होकर कुछ समय तक तो जोधपुर में महाराज विजयसिंह के पास रहे, परन्तु वापस आ गए। महारावल ने युवराज रायसिंह को वापस आया देख मंत्री सालमसिंह की सलाह से उसको सशत्र हीन कर देवा के किले में सुकुटुम्ब रहने भेज दिया। जहाँ युवराज और उसकी पत्नी अग्निकांड में मंत्री के षड्यंत्र द्वारा जल गए। उनके दोनों पुत्र अभयसिंह व जालमसिंह सोभाग्य से बच गए और जैसलमेर आ गए। प्रधानमंत्री ने यो तो उनके साथ हार्दिक सहानुभूती प्रकट की परन्तु उसके मन में यह आशंका उतपन्न हुयी की इस घटना से दयाद्र हो कर यदि महारावल ने इनको पास रख दिया, कुछ राज्य अधिकार दे दिए तो मेरे शासन में बाधा उतपन्न हो जाएगी। असल में क्रूर सलिम्सिंह जालिम का भी काम तमाम करना चाहता था, अतः इनको अराजक भाटियों में मिले पहुए प्रमाणत कर महारावल द्वारा उन्हें राजधानी से दूर रामगढ़ नामक दुर्ग भिजवा दिया गया। उसका विचार महारावल के छोटे पुत्र जेतसिंह के पोत्र बालक गजसिंह को राज्य दिलाकर अपने मंत्री पद को अपनी संतान के हाथों तक स्थिर रखना था। क्रूर मंत्री सालमसिंह ने अपने पिता की हत्या में सहायक बारू टेकरा आदी के वीर सामंतो को भी अपनी कूटनीति द्वारा मरवा डाला। इस भय से राजपरिवार के समस्त राजकुमार भयभीत होकर जोधपुर बीकानेर आदी पास के राज्यों में अपनी रक्षार्थ चले गये। इस प्रकार कूटनीतिज्ञ सालमसिंह षड्यंत्रों द्वारा कई राजकुमारों व सामंत गणों को मरवा निर्भय हो गया। इस और से निश्चिन्त होकर उसने प्रजा पर अत्याचार करना शुरू किया। जिससे तंग आकर महेश्वरी, पालीवाल आदी जातियों के समृद्धि शाली मनुष्य राज्य छोड़कर विदेशों में जाने लगे। विदेशो में भी जाने वालों की बड़ी दुर्दशा होती थी। वे लोग अपना मॉल भता लेकर वहा से रवाना होते ,रस्ते में बागी सामंत गण उन्हें रस्ते में लूट लेते। इस प्रकार राज्य में उस समय महान अशांति फेल गयी। उधर चारों तरफ से पड़ोसी राजाओं ने जैसलमेर के अधीन कई प्रान्तों को अपने अधिकार में कर लिए। इससे राज्य की सीमा जो अत्यंत विस्तृत थी, काफी संकुचित हो गयी। उस समय मुगलों का सूर्य अस्त हो रहा था, इसलिए तमाम भारत में अशांति फ़ैल रही थी। शक्तिशाली राजा निर्बलों पर अपना अधिकार जमा रहे थे, और मनमानी लूट खसोट हो रही थी। महारावल को आखिर अपनी इस अवनति का भान हुआ, अतः उन्होंने अपने राज्य को फिर उन्नत करने का विचार किया। अपनी सेना नह्वर गढ़ भेजी यह सेना 5 माह तक दुर्ग को घेरकर लड़ती रही, परन्तु उधर उस समय दिल्ली आगरा आदी मुग़ल राजधानियों पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का अधिकार हो चूका था। और राजपुतानों के कई नरेशों ने उनके साथ संधिया कर ली। ब्रिटिश सरकार राजाओं द्वारा आपस में छीने हुए प्रदेशो को अपने असली हकदारों को वापिस दिलवा दिए। यह सुचना मिलने पर महारावल ने तुरंत ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ संधि करने का विचार कर लिया। तदनुसार जैसलमेर राज्य की और से दौलतसिंह भाटी तेजमालोत तथा थानवी मोतीराम पूरण अधिकार से दिल्ली भेजे गए। उन्होंने दिल्ली जाकर तत्कालीन भारत के गवर्नर जनरल द्वारा नियुक्त मिस्टर चार्ल्स थियोफ्लिस्मेंट काफ से बातचीत कर संधि कर ली। महारावल का इस संधि होने के दो वर्ष पश्चात् 1820 ई. में स्वर्गवास हो गया। उनके परलोक वास के अनन्तर मंत्री सलिम्सिंह ने अपने मनोनीत युवराज गजसिंह को उतराधिकारी बनाया।
महारावल मूलराज ने मंदिर वल्लभकुंड बनवाया, मूलसागर तालाब का निर्माण करवाया, मोहनगढ़ का किला बनवाकर गाँव बसाया। महल बनवाये, बाग लगवाये, तलहटी के महल चार बनवाये, दो महल गढ़ के ऊपर बनवाये। महारावल जी ने फौज ले जाकर सांवरीज लूटी, खेड़ के महेचा से दंड वसूला। सं . 1829 वि. में परगना शिव, कोटड़ा ग्राम जोधपुर वालों ने छीन लिया था, सो सं. 1850 वि. में पुनः उनसे ले लिये। महारावल मूलराज ने सं.1831 विक्रमी में शहर के चोगिरद शहर पनाह की दीवार व बुर्ज बनवाये।
- महारावल गज सिंह (1820 - 1846) ; महारावल गजसिंह जी गद्दीबैठे तब उनकी उम्र ५ वर्ष की थी | कुटिल मंत्री सालमसिंह ने बालक गजसिंह को महारावल बनाकर अपने को पूर्ण स्वतन्त्र माना | इसने अपने पक्ष के हि मनुष्यों को इनके पास रखा और महारावल के युवा होने पर इनका विवाह उदयपुर के महाराणा भीमसिंह की कन्या रूपकंवर के साथ किया। गजसिंह ने 1832 में डाकुओं के विरुद्ध सैनिक अभियान किया था। महारावल गजसिंह ने आंग्ल-अफगान युद्ध में अंग्रेजो का साथ दिया। 1843-44 में अंग्रेजों ने इस सहायता के बदले में घड़सिया, शाहगढ़ तथा घोटारू क्षेत्र महारावल गजसिंह को उपहार स्वरूप दिए थे।
इसी बीच सूचना मिली की दीनगढ़ का अमीर फजल आली खान रेत के टीलों ओर मुश्किल जीवन से परेशान होकर दुर्ग छोड़ना चाहता है। सालमसिंह ने संदेश भिजवाया की अगर वह बेचना चाहता हे तो जैसलमेर उसे खरीद लेगा। फजल आली ने दीवान को दीनगढ़ बुलाया। बातचीत हुयी ओर सौदा चौहतर हजार रुपयों मे पट गया। जिसमे पचास हजार किले के ओर चौबीस हजार अन्य सामान के दिये गए | फजल अली खान किले का कब्जा सालमसिंह को सोंपकर सिंध चला गया। दीनगढ़ तनोट के पास था, उसका नाम बदलकर किशनगढ़ रखा गया। वहाँ एक हाकिम नियुक्त कर दिया। किशनगढ़ को रीयासत मे शामिल करने की रसमे अदा करने स्वयं सालमसिंह वहाँ गया। इस महोत्सव के उपलक्ष्य मे मंत्री सालमसिंह ने अपार धन खर्च किया। इस प्रकार सालमसिंह अपनी मनमानी करने लगा। उसने दो करोड़ की संपति एकत्रित कर ली ओर अपने रहने के लिए विशाल भवन भी बना लिया। शनै-शनै महरावल मंत्री की उद्दन्ड्ता से पूर्ण परिचित हो गए ओर उसके अत्याचारों से प्रज्ञा को दुखी देखकर उन्होने उसका वध करने के लिए भाटी आना को आज्ञा दी। भाटी आना ने मौका पाकर सालमसिंह पर अपनी तलवारों प्रहार किया जिससे उसके गहरा घाव हो गया। इतने मे ही सालमसिंह के अंगरक्षक उसको बचाकर घर ले गए। सलमसिंह 6 माह तक वेदना से पीड़ित रहे ओर अपने जीने की आशा छोड़ अपने संचित धन को सुरक्षित रखने के लिए अपने साले रूपसी तथा दूसरे भिखोड़ाई के चारण ब्राह्मणो आदि के साथ जैसलमेर राज्य से बाहर भेज दिया। परंतु वह धन राशि ले जाने वाले बीच मे ही हजम कर गए। स. 1881 विक्रमी चेत सुदी 14 को वह इस संसार से विदा हो गया | उसकी म्र्त्यु के अनंतर महरावल ने उसके पुत्र को किसी अपराध के कारण कारागार मे डाल दिया | इस समय मंत्री सलामसिंह के अनुयायियों ने राज्य मे काफी उपद्रव मचा रखा था किन्तु बुद्धिमान महरावल ने उन्हे पूरनतया परास्त कर अपने वश मे कर लिया।
सं.1885 में जैसलमेर व बीकानेर में अंतिम युद्ध हुआ। इस के पश्चात सं. 1891 वि.में ब्रिटिश गवर्मेंट की तरह से कर्नल ट्री.वी पिग ने यहाँ आकर दोनों राज्यों में संधि स्थापित करवा दी | 1894 वि. में लेड्लो साहब जोधपुर जैसलमेर के राज्य सम्बन्धी सीमाओं का बंटवारा करवाया। महारावल गजसिंह ने किले पर गजविलास ( सर्वोतम विलास ) बनवाया | अमरसागर में बाग़ लगवाया ,महल बनवाये। इन्होने बीकमपुर संवत १८८७ में खालसे किया। महारावल के नवीन मंत्री ईश्वरीलाल की सहमती से अच्छी उन्नति की | इनके ७ रानिया थी- १.ठा. सरुपसिंह सोढा की पुत्री मोतिकुंवर २.सोभागसिंह कोटडिया की पुत्री ३.जयसिंह सोढा की पुत्री हरिया कंवर ४.भीमसिंह बाड़मेरा की पुत्री सुरजकंवर बाड़मेर ५ उदयपुर के राना भीमसिंह सिसोदिया की पुत्री रूपकंवर ६ कानोना के ठा.भोमकरण करनोत की पुत्री सहिबकंवर ७.ठा.सादुलसिंह सोढा की पुत्री से विवाह हुए | लेकिन संतान नहीं थी।
- महारावल रणजीत सिंह (1846-1864) : महारावल रणजीतसिंह महारावल गजसिंह के लघु भ्राता केसरसिंह के बड़े पुत्र थे। जैसलमेर के राज सिंहासन पर बैठे। उस समय उनकी आयु महज 3 वर्ष थी, अतः राज्य भार उनके पिता केशरसिंह ने आपने हाथ में लिया। ये पढ़े लिखे व् बुद्धिमान थे, उन्होंने अल्प समय में हि आपने कार्य की कुशलता से राज्य की अच्छी उनत्ती की। बीकानेर और भावलपुर सरहदी झगड़े भी इसी समय अमल लाये गए। सं, 1907 सरहद नबाब भावल पुर मीर मुराद अली खेरपुर से और सरकार अंग्रेजी गवर्मेंट सिंध से मेजर वीचर नकाल हदूद की सन्धी करायी। संवत १९०९ मारवाड़ पोकरण की सरहद कप्तान सिविल ने निकाली। राज बीकानेर से सरहद कप्तान हमलतीन साहेब ने निकाली। जिसमे धनेरी बहाल रही और राव बरसलपुर की कुछ जमीन गयी। गरांन्धी बांगड़ सर के खेत गए। गाँव रणजीत पूरा गाम गोडू और साचु ,फ़तेहवालों, मेघवालों और ढोलों ,रातेवालों बसाया। डेरो केसरसिंह का बनाया। महारावल रणजीतसिंह ने नाचना व् देवा कोट का निर्माण करवाया। महारावल ने ईसाल बंगले का निर्माण करवाया। इनका विवाह 1.महाजन के ठाकुर अमरसिंह की पुत्री से 2.खुडी के महादान सोढा की पुत्री से हुए। लेकिन इनके भी संतान नहीं थी।
- महारावल बैरीसाल (1864-1891) : महारावल रणजीतसिंह की म्रत्यु के बाद उनके लघु भ्राता बेरीसाल राजसिंहासन पर बिराजे। पहले तो इन्होने झगड़े और कुप्रबंध के कारन सिंहासन पर बेठने से मना कर दिया था। परन्तु तत्कालीन ए.जी.जी.कर्नल इडन द्वारा समझाए जाने पर हि उन्होंने राज भार संभाला। इनेक राज्य संभालने के कुछ समय बाद हि भारी दुष्काल पड़ा। महारावल ने राजकोष से द्रव्य व्यय कर अपनी प्रजा की रक्षा की। इनेक समय में भी केसरसिंह हि राज्य सञ्चालन करते थे। परन्तु उनकी म्रत्यु के पश्चात् उनके छोटे भाई छत्रसिंह ने राज्य प्रबन्ध अपने हाथ में लिया। परन्तु प्रधान कार्य दीवान नथमल हि करते थे. संवत १९२७ में महारावल ने अपने राज्य का दोरा किया | इन्ही के राज्य काल में संवत 1936 में ब्रिटिस सरकार के साथ नमक के ठेके के बाबत अहद नामा हुआ, जिसमे यह तय हुआ की राज्य में काम लायक 15000 मन से ज्यादा नमक तेयार नहीं किया जायेगा। ये भी राज्य कार्य में रूचि नहीं रखते थे, अतः देश की दशा सोचनीय थी. संवत १९३१ वि.में जोधपुर महाराजा तखतसिंह के पोत्र कुमार फतेहसिंह जैसलमेर आये और ५ मास पर्यंत यहाँ रहे। महारावल ने जाते समय अपने पितृत्व छत्रसिंह की दूसरी कन्या के साथ उनका विवाह करवा दिया। संवत 1933 वि.में प्रथम दिल्ली दरबार हुआ। जिसमे भारत के सभी राज्य शामिल हुए, परन्तु आप अस्वस्थ होने के कारन उस दरबार में न जा सके। महारावल बेरीसाल उदार व् धर्मात्मा राजा थे। आपने 27 वर्ष राज्य किया। इनका विवाह सोढा अमरसिंह की पुत्री तथा दूसरा विवाह बिशनसिंह की पुत्री से हुआ, डूंगरपुर रावल उदयसिंह की कन्या से विवाह हुआ। ये भी निसंतान थे |
- महारावल शालिवाहन सिंह III (1891-1914) : महारावल बैरिशाल जी के बाद उनके लघु भ्राता लाठी ठाकुर कुशालसिंह के पुत्र महारावल सालिभान जैसलमेर के राज्य सिंहासन पर विराजे। उस समय आपकी आयु 5 साल थी। राज कोष खाली था, राज्य पर कर्जा भी काफी था। राज्य कार्य वेस्टर्न राजपुताना स्टेट रेजिडेंट की देखरेख में राय बहादुर मेहता जगजीवन की अध्यक्षता में रीजेंसी कोंसील द्वारा होता था। परन्तु मेहता जगजीवन राम देश की रीति -रिवाज से वाकिफ नहीं था। अतः रीजेंसी में कार्य सुचारू रूप से नहीं होने के कारन प्रजा में असंतोष था। ऐक दिन तोलाराम पडिहार ने मेहता जगजीवन पर तलवार से प्रहार किया। जिससे उसका सर फट गया और छः सात महिना खटिया पर पड़ा रहा| अंत में अपने देश कच्छ चला गया। इसके बाद भाटिया जाती के राव लखमीदास बेरिस्टर एट ला को दीवान के पद पर नियुक्त किया।
इनके राज्य काल में उल्लेखनीय कोई घटना नहीं हुयी। महारावल युवा अवस्था में हि 11 अप्रेल 1914 ई को केवल तेरह वर्ष राज्य कर स्वर्गवासी हो गए। महारावल का प्रथम विवाह सिरोही नरेश महारावल केसरसिंह की कन्या से हुआ तथा दूसरा विवाह धांगदड़ा (काठयीवाड़) नरेश मानसिंह झाला की पुत्री के साथ हुआ। परन्तु इनके भी कोई संतान नहीं हुयी।
- महारावल जवाहिर सिंह (1914-1949) : महारावल सालीभान के बाद उनके लघु भ्राता दानसिंह को जैसलमेर के राजसिंहासन पर बिठाया। किन्तु गोद नशिनी के लिए काफी विवाद चला। अंत में ब्रिटिस सरकार के निर्णय के अनुसार पूर्व महारावल गजसिंह के बड़े भाई देवीसिंह के पौत्र सरदारसिंह के छोटे पुत्र जवाहर सिंह को राज्य उतराधिकारी बनाया। सिंहासन पर विराजे उस समय आप की आयु 32 साल थी। आपने अजमेर में कालेज शिक्षा ग्रहण की। और कैडेट कोर देहरादून में फौजी शिक्षा भी प्राप्त की। आप सम्राट द्वारा सन 1918 की जनवरी को के .सी.एस.आई की उपाधि से विभुसीत किये गए।
इनके राज्य काल में प्रधान पद पर राय बहादुर मुरार जी, राव सम्पटराय साहिब, मुरारी लाल खोसला, राय साहब पंडित जमनालाल और सहालपुर के मुन्सी नन्द किसोर मेहता ने कार्य किया। डा. लखपत राय (एम ए पी एच डी वार एट ला) प्रधान मंत्री का कार्यं करते थे। आपने सिंहासन आरुढ़ होने के पश्चात् इस राज्य को जो कई पीढियां के कुप्रबंध के कारन अत्यंत स्थित हो रहा था। उससे मुक्ति दिलाकर आपने सुप्रबंध से शनैः -शनैः राज्य कोष में वृद्घि की तथा कई जनहित में कार्य किये। जिससे आज जैसलमेर सब तरह से प्रगति शील कहा जा सकता हे | मूलसागर में ऐक सुन्दर महल बनवाया। पुस्तकालय के लिए ऐक विशाल भवन बनवाया। जिसको बिनढम लाइब्रेरी कहते हे। वर्तमान में उसमे जिलाधीस कार्यालय हे, उसमे यह विराजमान होते थे। किले के तमाम महलों में आधुनिक चांदी का फर्नीचर बनवाया। सन १९३९से लगातार तीन साल अकाल पड़ने पर आपने मवेशी व प्रजा के निर्वाहर्थ भरसक पर्यतन किये शहर व किले पर बिजली की रोशनी का प्रबंध किया तथा किले के जैसल कुए पर इंजन लगा कर उससे शहर में नलों द्वारा पानी की टूटीयो लगवाई बागों व् तालाबों पर जाने के लिए कई सड़के तेयार करने का इंजन मंगवाया था। परन्तु जल के अभाव के कारन काम स्थगित रहा। जैसलमेर से बाड़मेर की तरह अपनी सरहद में सडक बनाने की योजना बनवाई। रेलवे लाईन जैसलमेर होते हुए कराची तक ले जाने की योजना महाराजा बीकानेर के साथ तय हो चुकी थी। राजा व् प्रजा में पिता पुत्र का सम्बन्ध था। प्रजा के छोटे बड़े झगड़े आप तहकीकात करके मिटा देते थे। इनकी आज्ञा थी की कोई भी दुःख रत को शयन के समय भी आकर आपको सजग करके अपना दुःख निवेदन कर सकता था। जैसलमेर में आपने ऐक आधुनिक ढंग का अस्पताल व हाई स्कूल का निर्माण करवाया। महारावल जवाहरसिंह के शासन काल को जैसलमेर का स्वर्ण युग (स्वर्णिम काल) कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं हे। उनका स्वर्गवास 17 फरवरी 1949 को हुआ।
जैसलमेर राज्य सिंहासन पर सुशोभित होने से पूर्व इनका प्रथम विवाह लूणार के सोढा सोहन सिंह की पुत्री लाछकंवर से हुआ। जिनसे बड़े राजकुमार श्री गिरधर सिंह का जन्म 13 नवम्बर 1907 ई. को हुआ। दूसरा विवाह अमरकोट के सोढा नाहरसिंह की कन्या जड़ाव कंवर से हुआ। तीसरा बूंदी महाराव के भाई श्री गिरिराज सिंह की पुत्री श्रीमती कल्याण कंवर से हुआ। इनके द्वितीय महाराजा कुमार श्री हुकुमसिंह का जन्म 14 फरवरी 1927 ई. को हुआ।
- महारावल गिरधर सिंह (1949) : महारावल गिरधरसिंह 17 फरवरी सन 1949 ई. को राजसिंहासन पर बिराजे। महारावल सरल प्रक्रति के बुद्धिमान व होनहार थे। इन्होने मेयो कालेज अजमेर से डिप्लोमा तक सिक्षा प्राप्त की। आप राज कार्य में प्रतिदिन दीवान साहब के साथ महकमे खास में बैठकर पूरा भाग लेते थे। राज्य कार्य में आपका खासा अनुभव हो गया था। 27 अगस्त 1950 को इनका स्वर्गवास हो गया। इनका प्रथम विवाह नरसिंहगढ़ के उमट पंवार अर्जनसिंह की पुत्री दमयंती तथा दूसरा विवाह अमरकोट के सोढा ठा. भेरूसिंह के पुत्री हवाकंवर से हुआ था। इनके दो पुत्र रुघनाथसिंह व चन्द्रवीरसिंह थे।
भारत की स्वतंत्रता पश्चात् 30 मार्च 1949 को जैसलमेर राज्य का भारत संघ में विलय कर दिया गया !!
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जादौन राजवंश
यदुवंशी जादौन राजवंश
ऐतिहासिक तथ्य
यदुवंशियों (जिन्हे सूरसेन वंशी भी कहा जाता था) का राज्य ब्रज प्रदेश में सिकंदर के आक्रमण के समय भी होना पाया जाता है। समय-समय पर शक, हूर्ण, मौर्य, गुप्त और शिथियन आदि ने इन शूरसेन वंशी यदुवंशियों के मथुरा राज्य को दबाया, छीना गया। लेकिन मौका पाते ही यदुवंशी फिर स्वतंत्र हो जाते थे। जब चीनी यात्री हुएनसांग सन 635 ई0 में भारत में आया था उस समय मथुरा का शासक कोई सूद्र था। लेकिन मथुरा के आस पास के क्षेत्र जैसे मेवात, भदानका, शिपथा (आधुनिक बयाना), कमन (8 वीं तथा 9 वीं सदी) के शासक शूरसैनी शाखा के ही थे जिनके नाम भी प्राप्त है। इस काल में मथुरा पर शासन कनौज क्षत्रिय के गुर्जर प्रतिहार शासकों था। इस काल में यदुवंशी उनके अधीनस्थ रहे। लेकिन इस समय में मथुरा के शासक यदुवंशी (जादों) राजा धर्मपाल, भगवान श्रीकृष्ण के 77वीं पीढ़ी में मथुरा के आस पास के क्षेत्र के शासक रहे है। जिनके कई प्रमुख वंशज ब्रह्मपाल, जयेंद्र पाल मथुरा के शासक 9 वीं सदी तक मिलते है। इसके बाद महमूद गजनवी के काल में भी मथुरा/महावन पर (1018 ई.) यदुवंशी राजा कुलचंद का शासन था। जब मोहम्मद गजनवी ने स. 1074 (1018 ई.) ने महावन पर आक्रमण किया था तब वहाँ के राजा कूलचंद (कुल्चंद) से उसका भीषण युद्ध हुआ था। इस युद्ध में कूलचंद की म्रत्यु हुई थी और उसका विशाल सैन्यवल एवं राज्य महमूद गजनवी ने नष्ट कर दिया था। जो जादों उस भीषण विनाष के बाद भी बच गयें थे, उन्होंने महावन के राजा कुलचंद जादों के भाईबंध विजयपाल के नेतृत्व में मथुरा से हटकर श्रीप्रस्थ (वर्तमान बयाना) में एक नयें जादौन राज्य की स्थापना की थी।
जादौन राजवंश की उत्पत्ति
भगवान श्रीकृष्ण के बाद अर्जुन ने श्री कृष्ण के प्रपौत्र बज्रनाभ जी को द्वारिका से लाकर पुनः मथुरा का शासक बनाया था। इस यादवों की शाखा (बज्रनाभ जी की शाखा) ने पुनः ब्रज देश में (मथुरा में) अपना राज्य स्थापित कर लिया था। इनके वंशज ही कालान्तर में बयाना, तिमनगढ़ एवं करौली के शासक हुए। इन यादवों का राज्य ब्रज प्रदेश में, सिकन्दर के आक्रमण के समय में भी होना पाया जाता है। समय-समय पर विदेशी आक्रमण कारियों जैसे शक, मौर्य तथा सीथियनों आदि ने यादवों का यह राज्य दबाया, लेकिन मौका पाते ही यादव फिर स्वतंत्र बन जाते थे। मध्यकाल में भी इस प्रदेश के यदुवंशी राजपूतों ने गजनी (काबुल) के तुर्कों एवं मुस्लिम शासकों से भी लम्बा संघर्ष किया। इसी यादव शाखा के वंशजों ने कालान्तर में बयाना, तिमनगढ़ एवं करौली राज्य की स्थापना की थी। यही करौली की राजगद्दी यदुवंशियों यानी भगवान श्री कृष्ण के वंशज माने जाने वाले राजपूतों में आदि (पाटवी) या मुख्य समझी जाती है। करौली की ख्यातों में लिखा है कि विक्रम सं0 936 (ई0 सन 879) में यादव महाराजा इच्छापाल मथुरा का राजा था। उसके ब्रह्मपाल एवं विनयपाल नामक दो पुत्र थे। इच्छापाल के बाद ब्रहमपाल मथुरा का शासक हुआ, ब्रह्मपाल के वंशज जादौन और विनयपाल के वंशज बनाफर यादव कहलाये। ब्रहमपाल की मृत्यु के बाद उसका पुत्र जयेंद्रपाल (इन्द्रपाल) जो भगवान् कृष्ण के 87 वीं पीढ़ी में थे, ये मथुरा की गद्दी पर चतुर्थमास की कार्तिक सुदी एकादसी सम्वत 1023 सन् 966 बैठे। इन्होंने गुर्जर प्रतिहारों के पतन के बाद पहली वार बयाना पर अधिकार किया। इसका देहान्त संवत 1049 कार्तिक सुदी 11 को हुआ। इनके 11 पुत्र हुये जिनमें विजयपाल ज्येष्ठ पुत्र थे।
विजयपाल महाराजा जयेंद्रपाल की मृत्यु के बाद सम्वत 1056 सन् 999 में मथुरा की गद्दी के वारिस हुए। सन् 1018 के लगभग कन्नौज को जीतने के बाद महमूद गजनवी पशिचमोत्तर में बढ़ा जहाँ वह मथुरा लूटने के लिए आरहा था तो राजा विजयपाल यवनों की बजह से अपनी राजधानी सुरक्षित स्थान मानी पहाड़ी पर लेआये। इसी पहाड़ी पर इन्होंने 1043 ई० में विजयमन्दिरगढ़ नाम के एक विशाल दुर्ग का जीर्णोद्धार करवाया था कहा जाता है की ये दुर्ग बाणासुर ने बनवाया था जिसकी पुत्री उषा थी जिसका विवाह अनिरुद्ध जी के साथ हुआ था। उस समय बयाना श्रीपथ, पदमपुरी के नाम से जाना जाता था। राजा विजयपाल के 18 पुत्र थे। इन्होंने 53 वर्ष तक राज्य किया।
उक्त विजयपाल के वंशजों ने ही कालान्तर में कामबन तथा बयाना में यादव राज्यों की स्थापना की थी और वहां अनेक दुर्ग एवं देवालय बनवाएं। शूरसेन शाखा के भदानका / शिपथा (आधुनिक बयाना), त्रिभुवनगिरी (तिमनगढ़) पर कई शासकों जैसे राजा विजयपाल (1043), राजा तिमनपल (1073), राजा कुंवरपाल प्रथम (1120), राजा अजयपाल जिनको महाराधिराज की उपाधि थी (1150) महावन के शासक थे। इनके बाद इनके वंशज हरिपाल (1180), कुंवरपाल द्वितीय (1196) महावन के शासक थे।
तिमनपाल ने "परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर” की उपाधि से नवाजा भी गया था ऐसे प्रमाण मिलते है। तिमनपाल के बाद दो शासक धर्मपाल एवं उसका पासवानिया भाई हरिया (हरिपाल) आपस में लड़ते ही रहे और अधिक समय तक अपनी सत्ता को नियंत्रित नहीं कर सके। अंत में धर्मपाल के पुत्र कुँवरपाल द्वितीय ने हरिपाल को मारकर बयाना एवं तिमनगढ़ पर अपना अधिकार कर लिया। उसके शासनकाल में शहाबुद्दीन गौरी एवं उसके सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1196 ई0 में बयाना पर आक्रमण किया तथा बयाना को हस्तगत करने के बाद तिमनगढ़ पर भी आधिपत्य कर लिया। गौरी ने बहाउद्दीन तुगरिल को तिमनगढ़ का गवर्नर बनाया। उस काल में यह नगर शैव धर्म का प्रमुख स्थान था। दुर्ग एवं राजधानी यवनों के आधिपत्य में आजाने पर राजा कुँवरपाल चम्बलों के बीहड़ जंगलों में चला गया। जादों परिवार इधर-उधर विस्थापित हो गए। कुँवरपाल का कोई भी उत्तराधिकारी उस समय यह दुर्ग एवं अपना खोया हुआ पैतृक राज्य पुनः प्राप्त नहीं कर सके। इस कारण सन 1196 ई0 से 1327ई0 तक इस पुरे क्षेत्र पर यवनों का शासन रहा जिसमें मिया मक्खन का नाम भी आता है। इस अवधि में यवनों ने हिंदुओं पर इस क्षेत्र में काफी धर्म परिवर्तन के लिए दवाव डाले जिसकी बजह से भी काफी यदुवंशी राजपूत इस क्षेत्र से वुभिन्न जगहों पर पलायन कर गये। राजा अर्जुनपाल जी जो राजा कुंवरपाल जी के वंशज थे, उन्होंने 1327ई0 में मंडरायल के शासक मिया मक्खन को मार कर अपने पूर्वजों के सम्पूर्ण क्षेत्र पर पुनः अधिकार किया और सन् 1348 में कल्याणपुरी बसाई, जिसे करौली कहते है। इसके बाद यहाँ यदुवंशियों में स्थिरता आयी।
करौली राज्य की स्थापना
कुँवरपाल के भाई-बन्ध यदुवंशी गोकुलदेव के पुत्र अर्जुनपाल ने ई0 1327 में मण्डरायल के दुराचारी शासक मियां माखन को युद्ध में परास्त करके अपने पूर्वजों के राज्य को पुनः प्राप्त करना शुरू कर दिया। अर्जुनपाल ने मंडरायल के आस-पास के क्षेत्र में पाए जाने वाले मीणों एवं पंवार राजपूतों को युद्ध में हराकर अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया और सरमथुरा में 24 गांव वसाए। अर्जुनपाल ने ई0 1348 में कल्याणपुरी नामक नगर वसाया तथा कल्याण जी का मंदिर बनवाया। यही कल्याणपुरी कालान्तर में करौली के नाम से विख्यात हुआ। यह नगर भद्रावती नदी के किनारे स्थित होने के कारण भद्रावती नाम से भी जाना जाने लगा। अर्जुनपाल जी ने कल्याणपुरी के पक्के फर्श का बाजार, मन्दिर, कुएं, तालाब आदि का निर्माण कराया तथा नगर के चारों ओर परकोटा बनवाया। यह नगर उस समय कुल क्षेत्र 9 वर्ग किलोमीटर में स्थापित किया था ।
राजा अर्जुनपाल के उत्तराधिकारी शासक
अर्जुनपाल के बाद विक्रमादित्य, अभयचन्द, पृथ्वीपाल, उदयचंद, रुद्रप्रताप, चन्द्रसेन, गोपालदास, द्वारिकदास, मुकुन्ददास, तथा जगमाल नाम के शासक हुए।अर्जुनपाल के उत्तराधिकारी लगभग साधारण शासक थे। वे पारिवारिक झगड़ों में उलझ गए और इस लिए वे अपने शत्रुओं का सामना करने में दुर्वल हो गए। पृथ्वीपाल के शासनकाल में अफगानों ने तवनगढ़ पर 15 वीं सदी के प्रथम 25 वर्षों में अधिकार कर लिया। यद्धपि उसने ग्वालियर के शासक का आक्रमण विफल कर दिया किन्तु वह मीणाओं का दमन न कर सका जो दुर्जेय बन गए थे ।
महाराज चन्द्रसेन एवं उनका पौत्र राजा गोपालदास -
यादव (आधुनिक जादों) शाखा का 15वां वंशज महाराज चन्द्रपाल एक धर्मपरायण शासक थे। वह मालवा के महमूद खल्जी के आक्रमण का सामना न कर सके जो उनके राज्य में घुस आया और 1454 ई0 में उसकी राजधानी लूटी। विजयी सुल्तान अपने पुत्र फिदवी खां को करौली सौंप कर अपनी राजधानी लौट गया। तिमनगढ़ से निकाले जाने पर चन्द्रपाल उंटगढ़ में सन्यासी जीवन व्यतीत करने लगा। ऐसा प्रतीत होता है कि वह तथा उसके उत्तराधिकारी अपने सुरक्षित स्थान के निकट थोड़े प्रदेश पर तब तक अधिकार बनाये रहे जब तक अकबर के समय उसके एक उत्तराधिकारी गोपालदास ने उसके क्षेत्र का कुछ भाग प्राप्त कर लिया। गोपालदास अकबर के समय में मुगल सल्तनत के मनसबदार थे। उन्होंने उस क्षेत्र के मीना आदि जनजातियों को दमन किया और उसने मासलपुर, झीरी और बहादुरपुर (भद्रपुर) पर अधिकार किया तथा वजन दुर्ग बनवाये। ई0 1599 में गोपालदास ने अकबर के लिए दौलताबाद का दुर्ग जीत कर सम्राट अकबर को खुश किया जिससे अकबर ने उसे 2 हजारी मनसब और नगाड़ा निशान का सम्मान दिया। मासलपुर के 84 गांव भी गोपालदास ने अपने अधीन कर लिए थे। जब राजा गोपालदास अकबर के दरबार में जाते थे तो उनके आगे-आगे नगाड़ा बजता हुआ चलता था। ई0 1566 में अकबर ने गोपालदास के हाथों आगरा के दुर्ग की नींव रखवाई थी। उन्होंने ही करौली के निकट बहादुरपुर का किला तथा करौली राजमहल में गोपाल मंदिर बनवाया। इस मंदिर में ही दौलताबाद से लाई गई गोपाल जी की मूर्ति स्थापित की गई। यह मूर्ति आज भी मदनमोहन जी के मंदिर में दाई ओर के कक्ष में विराजमान है। गोपाल दास ने मासलपुर तथा चम्बल के किनारे झीरी में महल एवं बाग लगवाए। धर्मपाल दूसरे ने करौली को संवत 1707 में अपनी राजधानी बनाया तथा यहां पर राजमहलों सहित अनेक निर्माण कार्य करवाये। उसकी मृत्यु करौली के राजमहलों में हुई।
गोपालदास जी की रानी (आमेर) जयपुर की राजकुमारी के तीन पुत्र द्वारका दास, मुकुटराव, और तरसुम बहादुर थे। मुकुटराव से मुक्तावत शाखा निकली (जिनके 2 पुत्र हुये इंद्रपाल और जयपाल इनके वंशज सबलगढ़, सरमथुरा और झिरी के जादौन राजपूत है।) तरसम बहादुर से बहादुर यादव नाम की शाखा निकली जिनके वंशज बहादुरपुर व विजयपुर वाले है।
धर्मपाल दूसरे की पूजा देवता के रूप में की जातीहै। उसके बाद रतनपाल, कुँवरपाल दूसरे, गोपाल सिंह हुये। करौली के इतिहास में महाराजा गोपालदास जी के बाद सर्वाधिक प्रभावशाली महाराजा गोपालसिंह जी द्वितीय सं0 1781 में करौली की गद्दी पर बैठे। राजगद्दी पर बैठने के समय ये नाबालिग थे। इससे राज्य प्रबन्ध दो योग्य ब्राह्मणों खंडेराव ओर नवलसिंह के हाथ में था। इन दोनों मंत्रियों ने मरहटों से मित्रता गाँठ करके करौली पर उनका धावा नहीं होने दिया। बड़े होने पर गोपालसिंह जी ने राज-काज अच्छी तरह चलाया। ये बहुत ही बहादुर और हिम्मत वाले थे। जिस किसी ने वगावत की तुरंत उसे दंड दिया ओर राज्य के किलों को मजबूत बनाया। इनके समय करौली राज्य सबलगढ़ से लेकर सिकरवारड तक फैल गया था जो ग्वालियर से 4 किमी दूर सिकरवार की पहाड़ी तक था। इन्होंने अपने समय में झिरी तथा सरमथुरा के मुक्तावतो को अपने पक्ष में कर लिया था। इस प्रकार सं0 1805 तक राज्य में शांति स्थापित करने के बाद करौली के महलों को बढ़ाया तथा राजधानी के चारों ओर लाल पत्थर का पक्का शहरपनाह (परकोटा) निर्माण, गोपालमन्दिर, दीवानेआम, त्रिपोलिया, नक्कारखाना आदि बनवाया। विक्रम संवत 1785 में करौली नरेश गोपाल सिंह दुतीय मदनमोहन जी की मूर्ति को जयपुर नरेश महाराजा सवाई जयसिंह से गोसाई सुबलदास के माध्यम से यहां लाये थे। गोपालसिंह ने संवत 1805 में वर्तमान देवालय का निर्माण कराया, जहां आज भी आठों झांकियों में पूजा एवं दर्शन होते है। यह मूर्ति ब्रजभूमि वृन्दावन जहां अभी भी दनका मन्दिर है से मस्लिम आक्रांताओं (औरंगजेव) से बचा कर जयपुर लाई गई थी। गोविन्द देव, और गोपीनाथजी के साथ इनकी पूजा होती थी। एक किवदंती के अनुसार मदनमोहन जी ने गोपाल सिंह को स्वप्न में करौली लाने के आदेश दिए। जब करौली नरेश ने सपने की बात जयपुर नरेश को सुनाई तो स्वप्न की सच्चाई प्रमाणित करने के लिए उन्होंने आखों पर पट्टी बांध तीनों मूर्तियों में से छांटने की शर्त रखी। बन्द आखों से महाराजा गोपालसिंग ने मदनमोहन जी की मूर्ति को पकड़ लिया और उसे करौली ले आये। मदनमोहन जी का मंदिर भी इन्होंने ही बनवाये थे। बादशाह मुहम्मदशाह ने इनको "माही मरातिव" का रुतबा दिया। इनके समय करौली नगर की काफी उन्नति हुई। नगर में इनकी दर्शनीय छतरी बनी हुई है। ये राजपूताने की बड़ी-बड़ी कार्यवाहियों में उदयपुर, जयपुर तथा जोधपुर के साथ शरीक रहे। इनके राज्य में 697 गांव थे। 13 मार्च सं0 1814 को इनका देहावसान हो गया।
महाराजा गोपाल सिंह जी के बाद क्रमशः महाराजा तुरसनपाल जी मानकपाल जी, हरीबक्स पाल जी, प्रतापपाल जी, नरसिंह पाल जी , भरतपालजी, मदनपाल जी, लक्ष्मनपाल जी, जय सिंहपाल जी, अर्जुनपाल जी दुतीय, महाराजा भंवरपाल जी, भौमपाल जी, गणेशपाल जी करौली की गद्दी पर बैठे। वर्तमान में पूर्व करौली के नरेश गणेशपाल जी के पोते महाराजा श्री कृष्णचंद्र पाल करौली के राज प्रसाद में रहते है। इनके पुत्र युवराजकुमार विवस्वतपाल जी है। विजयपाल के वंशजों ने सन 1348 ई0 में करौली राज्य की स्थापना की। अंग्रेजी शासनकाल तक ब्रज में करौली ही जादोंन का एकमात्र प्रसिद्ध राज्य था, जिसकी परम्परा भगवान श्रीकृष्ण तक जाती थी। देश के स्वाधीन होने पर अन्य राज्यों के साथ करौली भी राजस्थान में विलीन हो गया।
जादौन वंश का वर्तमान में विस्तार
करौली - करौली रियासत जादौन राजवंश की रियासत थी। करौली के पास का पूरा डांग क्षेत्र जिसमें 37 जागीरी ठिकाने थे, जिसके अंतर्गत लगभग 100 गांव आते है ।
धौलपुर जिला – सरमथुरा के पास लगभग 24 गांव कुछ गांव जैसे कंचनपुर आदि भी जादौन के गांव है।
भरतपुर - जिले की बयाना तहसील में लगभग 10 गांव, भरतपुर शहर कें पास 10 गांव, डींग के पास 12 गांव जादौन राजपूतों के है। इसके आलावा कुछ जादौन राजपूतों के ठिकाने चित्तोड़, उदयपुर, भीलवाड़ा, पाली, कोटा, बूंदी, बारां, झालावाड़ जिलों में भी हैं।
मध्यप्रदेश ...
मुरैना जिला- मुरैना जिले में सबलगढ़ का क्षेत्र जिसमे लगभग 40 गांव जादौन के है। जौरा तहसील का जौरा क्षेत्र, सुमावली क्षेत्र, कुछ ठिकाने धौलपुर के बॉडर के पास, भिंड जिले का भदावर क्षेत्र गोहद तहसील, स्योपुर, कुछ ठिकाने इंदौर और उज्जैन में भी है।
उत्तरप्रदेश...
मथुरा - मथुरा जिला में छाता तहसील बरसाना, गोवेर्धन अडींग क्षेत्र में लगभग 52 गांव है जिनमें राया के पास बसे बंदी तथा रसमयी भी सामिल है।
बुलहंशहर - इस जिले में खुर्जा तहसील पहासु ब्लॉक, बुलहंदशहर का क्षेत्र अर्नियां ब्लाक, कुल मिलाकर लगभग 100 गांव जादौन के है । स्याना तहसील में मांकडी गांव है । 2 गौतमबुद्ध नगर - - इस जिले में लगभग 10 गांव जादौन राजपूतों के है।
हापुड़ एवं संम्भल- कुछ गांव हापुड़ (हाड़ौरा ओर खेड़ा) व संभल जिले में मझोला समदपुर, नरौली कुछ गांव है।
इटावा- इस जिले में लगभग 5-10 गांव है ।
हाथरस - इसजिले में लगभग 50-60 गांव जादौन राजपूतों के है जो सासनी , सिकन्दराराऊ हाथरस, विजयगढ़, हसायन क्षेत्र में आते है ।
अलीगढ जिला- इस जिले में धनीपुर ब्लाक, लोधा ब्लाक, खैर ब्लॉक, कुछ गांव इगलास ब्लॉक, गभाना तहसील, बरौली क्षेत्र कुछ गांव अतरौली तहसील | सम्पूर्ण अलीगढ़ जिले में लगभग 300_400 के मध्य जादौन राजपूतों के गांव है।
एटा जिला - इस जिले में जलेसर ब्लाक, अवागढ़ ब्लाक में लगभग 80-100 गांव जादौन राजपूतों के है ।
फीरोजाबाद जिला - इस जिले में केवल नारखी बलॉक व् टूंडला ब्लॉक में लगभग 40 -50 गांव जादौन के है तथा मैनपुरी जिले में भी एक गांव कोठिया है।
आगरा जिला- इस जिले में शमसाबाद और फतेहाबाद क्षेत्र में लगभग 40 गांव एवं किरावली तथा अछनेरा के पास लगभग 30-40 गांव जादौन राजपूतों के है इसके अलावा आगरा के पास जरार क्षेत्र में भी जादौन पाये जाते है ।
इस के अतिरिक्त कुछ गांव जालौन जिले में कालपी के आस-पास, कानपूर, बाँदा, हमीरपुर, महोबा, इटावा हरदोई, इलाहाबाद , सीतापुर, कौशाम्बी जिलों में भी जादौन के बहुत गांव है ।
बिहार – मुंगेर, भागलपुर बांका तथा जमुही जिलों में।
जादौन राजपूतों के गोत्र
1 - भिरुगुदे ( Bhragudeyo)
2- पचोईयां (Pachoiyan)
3 - ओहरे (Ohre)
4- कोनियां (Konaiyan)
5- विश्गोलिया (vishgoliya)
6-विशंभरिया (Vishambhariya)
7- वैराठिया (Vairathiya)
8- चोपरे (Choprey)
9- मुडवारिया (Mudvariya)
10- कुदेरिया (Kudheriya)
11- रावत (Rawat)
12- ठकुरेले (Thakureley)
13- संखिया (Sankhiya)
14- खूंटियां (Khuntiya)
15- दमक (Damak)
16- निकुरिया (Nikuriya)
17- गरियार (Gariyar)
18- मुखरोलिया (Mukhroliya)
19- मंगोलिया (Mangoliya)
20- बकरहोर (Bakarhor)
21- निगोरिया (Nigoriya)
22- धनोतिया (Dhanotiya)
23- सौरिया (Sauriya)
24- मैडगार (Maidgar)
25- ब्रजवासी (Brajwasi)
26- वैसानदुरे (Vaisandurey)
27- बरसानियां (Barsaniyan)
28- टमकोले (Tamkoley)
29- कनपन (Kanpan)
30- दन कस (Dankas)
31- ओबिया (Obiya)
32- सुतेलिया (Suteliya)
33- सबोरिया (Saboriya)
34- चड़ोसिया (Chadosiya)
35- गहलवार (Gahalwar)
36- कंठवाल (Kanthawal)
37- मुक्तावत (Muktawat)
38- सिगरहार (Sigarhar)
39- सोनरवंशी (Sonarvanshi)
40- जटवारिया (Jatwariya)
41- कमालिया (कमालिया)
42- मतरोईया (Matroiya)
43- झिकन (Jhikan)
44- नोछवार (Nochhwar)
45- सिकतरिया (Siktariya)
46- वढानियां (Vadhaniyan)
47- निधोलिया (Nidholiya (
48-मटियार (Matiyar)
49- बडगइयां (Badgaiyan)
50- परसोलिया (Parsoliya)
51- हरदोलिया (Hardoliya)
52- निकावत (Nikawat)
53- वैरहार (Vairhar)
54- डोरेला (Dorela)
55- छितपुरिया (Chhitapuriya)
56- टमकोलिया (Tamkoliya)
57- समैवार (Samaiwar)
58- सिंगरुआ (Singarua)
59- जखोटिया (Jakhotiya)
60- बैजहार (Baijhar)
61- धनगस (Dhangas)
62- परसानिया (Parsaniyan)
63- उडानिया (Udaniyan)
बनाफर यदुवंशी
विक्रम सं0 936 (ई0 सन 879) में यादव महाराजा इच्छापाल मथुरा का राजा था। उसके ब्रह्मपाल एवं बिनयपाल नामक दो पुत्र थे। इच्छापाल के बाद ब्रहमपाल मथुरा का शासक हुआ, ब्रह्मपाल के वंशज जादौन और बिनयपाल के वंशज बनाफर यादव कहलाये। उत्तरप्रदेश के महोबा, हमीरपुर बांदा जालौन, बनारस, ग़ाज़ीपुर जिलों में, मध्यप्रदेश में छत्तरपुर जिले में लगभग 30-40 गांव, पन्ना जिले में 15-20 गांव, अजयगढ़ जिले में लगभग 15-20 गांव यदुवंशी बनाफर राजपूतों के है।
छोंकर यदुवंशी
बयाना की शूरसैनी शाखा के राजा उदयपाल के वंशज छोंकर कहलाये।हरियाणा के पलवल और मेवात जिलों में लगभग 12 गांव व 2-3 गांव फरीदाबाद जिले में छोंकर राजपूत है। इसके अलावा उत्तरप्रदेश के बुलंदशहर की जेवर ब्लाक में लगभग 50 - 60 गांव छोंकर राजपूतों के है। अलीगढ़ में लगभग 10 व मथुरा जिले में 5 गांव छोंकर राजपूतों के है।
शूरसेनी यदुवंशी- इनके आलावा हरियाणा, पंजाब, हिमाचल तथा जम्मू के कुछ जिलों में भी शूरसैनी यदुवंशी राजपूत पाये जाते है।
जाडेजा वंश
जाडेजा वंश
जडेजा राजवंश गुजरात के कच्छ व सौराष्ट्र के इलाके में राज करने वाला एक झुझारू राजवंश है। जडेजा राजवंश चंद्रवंशी क्षत्रिय हैं व इनकी उत्पत्ति यदुकुल से मानी जाती है। जडेजा, चुडासमा, भाटी, जादौन सभी यदुवंश की अलग अलग शाखाये है जो भिन्न भिन्न समय पर यदुवंश से निकली है। जडेजा वंश गुजरात का सबसे बड़ा राजपूत वंश माना जाता है। जडेजा राजपूतों के सौराष्ट्र में लगभग 700 गाँव बसे हुए है और लगभग 2300 गाँवो पर आजादी के समय इनका शासन रहा है। जडेजा मूलरूप से यदुवंश की शाखा है जोकि चंद्रवंशी क्षत्रिय हैं।
यदुवंश में कई पीढ़ी बाद (वि. सं. 600 के आस-पास) राजा देवेंद्र हुए। जब नबी मुहम्मद ने दुनिया मे इस्लाम फैलाया, तब राजा देवेन्द्र शोणितपुर के राजा थे, जिसे वर्तमान में मिश्र (Egypt) कहते हैं। इनके चार पुत्र अस्पत, भूपत, गजपत व नरपत हुए। अस्पत के वंशज मुसलमान हो गए, भूपत के वंशज भाटी हुए, गजपत के वंशज चुड़ासमा हुए, व नरपत के वंशज जाड़ेजा हुए।
राजा देवेंद्र के पुत्र नरपत ने संवत 683 से 701- बादशाह फिरोजखान को हराकर अपने पुरखो की गद्दी जीत अफगान मे खुद की सत्ता जमाई व जाम की उपाधि धारण की ! नरपत के वंशज का वंशक्रम निम्नानुसार चला....
जाम सामत(समा) (संवत 701-758)- फिरोज खान के शहजादे ने तुर्किस्तान से मुस्लिम राजाओ का सहारा लेकर गजनी वापस जीत ली। सामत अय्याश थे, तो युद्ध की तैयारी ना पाए और थोडे लस्कर के साथ लाहौर मे गद्दी डाली और सिंध मे राज बढाया। जिनके वंशज सिंध मे सामा कहलाए।
जाम जेहो (संवत 757 से 831)- खलीफा उमर से लडाई हुई और जीते !
जाम नेतो (831 से 855)- खलीफा वालिफ ने सिंध पर हमला कर अपनी सत्ता जमाई, सब राजाओ ने लगान दी, जाम नेता ने नही दी।
जाम नोतीयार (866-870)- इरानी बादशाह ममुरासिद चित्तौड से हारकर वापस आ रहा था, उनको लूटा और बंदी बनाया।
जाम गहगिर (ओधर) (870-881)- रोमन के साथ व्यापार संबंध बढाये !
जाम ओथो (881-898) - कश्मीर के राजा जयपीड की बेटी की शादी इनके अपने बेटे के साथ हुई थी।
जाम राहु (898-918)- कन्नौज के राजा माहिरभोज और अनंग पिड कश्मीर के साथ रिश्ते बढाए।
जाम ओढार (संवत 931-942) - काबुल, कंदहार, पेशावार मे फैले हिन्दू राजाओ को संघठित कर मुस्लिम को रोका था।
जाम लखियार भड (संवत 942-956)- नग्गर सैमे बसाया और वहां राजगद्दी बनायी, जो हाल नगरठाठे के नाम से पहचाना जाता है ।
जाम लाखो धूरारो (संवत 957-986)- अपने दोनो पैर से घोडे को झूलाते थे काफी बलवान राजा थे, पतगढ के राजा वीरम चावडा की बेटी से 4 पुत्र हुए- मोड, वैराया, संध और ओथो और खैरागढ के राजा सूर्य सिंह उफर श्रवण की बेटी चन्द्रकुवंर से 4 पुत्र- उन्नड, जीहो, फूल और मानाई !
जाम उन्नड (986) - सिंध की गदी पर आये और मोड़ ने अपने मामा की गदी पटगढ़ छीन ली और उनका वंश कच्छ में चला , इन्होने केरा कोट का अजोड़ किल्ला बन्धवाया। फूल के वंश में जाम लाखो फूलाणि हुवे जो आज भी पुरे गुजरात में सुप्रसिद्ध हे। जो अटकोट में भीमदेव सोलंकी के सामने युद्ध में काम आये। इनको पुत्र न होने से उनका भतीजा जाम पुनवरो गद्दी पर आया जिसने पदरगढ़ का कछ कला का विशाल किला बनवाया) !
संवत 986 से 1182 तक - जाम उन्नड, जाम समेत उर्फ़ समो, जाम काकू, जाम रायघन, जाम प्रताप उर्फ पली, जाम संधभड़ हुए।
जाम जाड़ो- (1182-1203) इनके बाद ही वंशज 'जाड़ेजा' कहलाये। इनको पुत्र न होंने से अपने भतीजे लाखो को गदी पर बिठाया बाद मे उनको पुत्र हुवा जिसका नाम धयोजि था।
जाम लाखो जडेजा- (1203-1231) धयोजी का पक्ष ज्यादा मजबूत होने से और झगडा होने से जाम लाखों अपने भाई के साथ कछ की और आ बसे और अलग अलग राजाओ को हराकर कछ में सत्ता जमायी। उधर सिंध में धयोजी निर्वंश गुजर गए।
जाम रायघनजी- (1331) इनके ४ पुत्र हुवे जाम गजनजी (बारा की जागीर दी), देदोजी (कंथकोट अंजार वागड़ वगेरा दिया), होथीजी (गजोड़ की जागीर दी) और आठो जी (जिनसे कछ भुज की साख चली और राज इनको दिया)।
जाम श्री रावल जाम- (1561) यादवकुल नरेश अजेय राजा, नवानगर (जामनगर) बसाया। काफी युद्ध लड़े और काठियावाड़ में अपनी सता जमायी। मिठोय का महान युद्ध जीत काठियावाड़ के सभी राजाओ को हराया। छोटे भाई हरध्रोल जी से ध्रोल राज्य की शाखा चली) !
जाम श्री विभाजी (1618-1625) तमाचन का युद्ध ,बादसाह खुर्रम के साथ का युद्ध ,जूनागढ़ नवाब को हराना, महान राजवी जाम सत्रसल को गद्दी और दूसरे बेटे भानजी को कलावड दिया और उनसे खरेदी और वीरपुर का राजवंश चला।
जाम श्री सत्रसाल उर्फ सत्ताजी (1625-1661)- इनके समय भूचर मोरी व नवानगर के प्रसिद्द युद्ध हुए।
*भूचर मोरी का प्रसिद्द युद्ध*
महाभारत काल के बाद इतिहास के दो सबसे बड़े युद्ध भी जडेजा वंश के नेतृत्व में लड़े गए। गुजरात के आखरी सुल्तान मुजफ्फर शाह (तृतीय) जो मुगल बादशाह अकबर की क़ैद से फ़रार होकर नवानगर के जाम सताजी जडेजा की शरण में थे। जब अहमदाबाद के मुग़ल सेनापति ने मुज़फ़्फ़र शाह को लौटाने को कहा तब सताजी ने क्षत्रिय धर्म का हवाला देते हुए शरणागत को लौटाने से इनकार कर दिया। जुलाई 1591 (विक्रम संवत 1648) में मुग़ल और काठियावाड़ी रियासतों (जिनमें, नवानगर, ध्रोल, मोरवी, जूनागढ़, कुण्डला, आदि शामिल थे) की संयुक्त सेनाएँ, ध्रोल राज्य में भूचर मोरी नामक स्थान पर मिली। काठियावाड़ की सेना में जूनागढ़ और कुण्डला राज्य की सेनाएँ भी शामिल थीं, जिन्होंने आखिरी समय में नवानगर का साथ छोड़ दिया था। इस युद्ध के परिणामस्वरूप, दोनों पक्षों ने बड़ी संख्या में घटनाओं का सामना किया और अंत में मुगल सेना की जीत हुई। भूचर मोरी और नवानगर के युद्ध में जडेजा वीरों ने डट कर विदेशीयों का मुकाबला किया। ये युद्ध क्षत्रियो की वीरता व रण कौशल का उत्तम उद्धारण है जो कभी भुलाये नहीं जाने चाहिए। भूचर मोरी का युद्ध सौराष्ट्र के इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध सरनागत रक्षा के लिए राजपूत धर्म का उदाहरण है।
*जडेजा शाषित पूर्व राज्य व ठिकाने*
1. भुज (923 गांव) 19 तोपों की सलामी
2. नवानगर (741 गांव) 15 तोपों की सलामी
3. मोरवी (141 गांव) 11 तोपों की सलामी
4. गोंडला (127 गांव ) 11 तोपों की सलामी
5. ध्रोल (71 गांव) 11 तोपों की सलामी
6. राजकोट (64 गांव) 9 तोपों की सलामी
जडेजा राजपूत इसके अतरिक्त वीरपुर, कोटड़ा (सांगणी), कोटड़ा (देवानी), मालिया मेगनीं, गवरोदड़पाल, धरडा, जालिया भाडुवा, राजपुरा, कोठरिया, शायर, लोधी, बडाली, खीरसरा, सीसांग चण्डली, बीरबाव, काकसी, आली, बडाली, मोवा, प्राफ़ा, सातोदड ,बावड़ी, मूली, लादेरी, सांतलपुर में हैं।
चुड़ासमा-सरवैया-रायजादा
चुड़ासमा-सरवैया-रायजादा
चूड़ासमा
गिरीनगर (गिरनार) के नाम से प्रख्यात जूनागढ प्राचीनकाल से ही आनर्त प्रदेश का केन्द्र रहा है। उसी जूनागढ पर चंद्रवंश की एक शाखा ने राज किया था, जिसे सोरठ का सुवर्णकाल कहा गया है। वो राजवंश है चुडासमा राजवंश, जिसकी अन्य शाखाए सरवैया और रायजादा है।
मौर्य सत्ता की निर्बलता के पश्चात मैत्रको ने वलभी को राजधानी बनाकर सोरठ और गुजरात पर राज किया। मैत्रको की सत्ता के अंत के बाद और 14वीं शताब्दी मे गोहिल, जाडेजा, जेठवा, झाला जैसे राजवंशो के सोरठ मे आने तक पुरे सोरठ पर चुडासमाओ का राज था। मध्यकालीन समय की दृष्टी से ईतिहास को देखे तो यह समय ‘राजपुत शासनकाल’ का सुवर्णयुग रहा। समग्र हिन्दुस्तान मे राजकर्ता ख्यातनाम राजपुत राजा ही थे। इन राजपुत राजाओ मे सौराष्ट्र के प्रसिद्ध और समृद्ध राजकुल चुडासमा राजकुल ने वंथली, जूनागढ पर करीब 600 साल राज किया। इसलिये मध्यकालीन गुजरात के इतिहास मे चुडासमा राजपुतो का अमूल्य योगदान रहा है।
पूर्व इतिहास
यदुवंश में मिस्र (Egypt) के राजा देवेन्द्र हुए। उनके 4 पुत्र हुए 1) असपत, 2)नरपत, 3)गजपत और 4)भूपत। असपत शोणितपुर (मिस्र) की गद्दी पर रहे। गजपत, नरपत और भूपत ने नये प्रदेश को जीतकर विक्रम संवत 708, बैशाख सुदी 3, शनिवार को रोहिणी नक्षत्र मे गजपत के नाम से गजनीपुर शहर बसाया। नरपत ‘जाम’ की पदवी धारण कर वहा के राजा बने, जिनके वंशज आज के जाडेजा है। भूपत ने दक्षिण मे जाके सिंलिद्रपुर को जीतकर वहां उनके वंशजों ने भाटियानगर (भटनेर) बसाया, बाद मे उनके वंशज जैसलमेर के संस्थापक बने जो भाटी है।
गजपत के 15 पुत्र थे। उसके पुत्र शालवाहन, शालवाहन के यदुभाण, यदुभाण के जसकर्ण और जसकर्ण के पुत्र का नाम समा था यही समा के पुत्र चुडाचंद्र थे, जिनके साथ पिता समा का नाम जुड़कर इनके वंशज चूड़ासमा कहलाए। वंथली (वामनस्थली) के राजा वालाराम चुडाचंद्र के नाना थे। वो अपुत्र थे इसलिये वंथली की गद्दी पर चुडाचंद्र को बिठाया। यही से सोरठ पर चुडासमाओ का आगमन हुआ। वंथली के आसपास का प्रदेश जीतकर चुडाचंद्र ने उसे सोरठ नाम दिया। जंगल कटवाकर खेतीलायक जमीन बनवाई। ई.स. 875 मे वो वंथली की गद्दी पर आये। 32 वर्ष राज कर ई.स. 907 मे उनका देहांत हो गया।
वंथली के पास धंधुसर की हानीवाव के शिलालेख मे लिखा है :
|| श्री चन्द्रचुड चुडाचंद्र चुडासमान मधुतदयत |
जयति नृप दंस वंशातस संसत्प्रशासन वंश ||
– अर्थात् जिस प्रकार चंद्रचुड(शंकर) के मस्तक पर चंद्र बिराजमान है, उसी प्रकार सभी उच्च कुल से राजा ओ के उपर चंद्रवंशी चुडाचंद्र सुशोभित है।
# चुडासमा/रायझादा/सरवैया वंश की वंशावली #
- चुडचंद्र के पश्चात उनका पोत्र मूलराज वंथली की गद्दी पर आया। मूलराज ने सिंध पर चढाई कर किसी समा कुल के राजा को हराया था।
- विश्ववराह (ई.स. 915-940) विश्ववराह ने नलिसपुर राज्य जीतकर सौराष्ट्र का लगभग समस्त भू भाग जीत लिया था।
- राय ग्रहरिपु (ई.स. 940-982) विश्ववराह का पुत्र, नाम – ग्रहरिपु / ग्रहारसिंह “राय/ राह” पदवी धारन करने वाला प्रथम राजा व कच्छ के राजा जाम लाखा फूलानी का मित्र था। मुलराज सोलंकी राय ग्रहरिपु और जाम लाखा फूलानी समकालिन थे। आटकोट के युद्ध (ई.स. 979) मे मुलराज सोलंकी vs राय और जाम थे। जाम लाखा की मृत्यु उसी युद्ध मे हुई थी, राय ग्रहरिपु की हार हुई और जुनागढ को पाटन का सार्वभौमत्व स्विकार करना पडा।
- राय कवांट (ई.स. 982-1003) ग्रहरिपु का बडा पुत्र। तलाजा के उगा वाला उसके मामा थे, जो जुनागढ के सेनापति बने। मुलराज सोलंकी को आटकोट युद्ध मे मदद करने वाले आबू के राजा को उगा वाला पकडकर जुनागढ ले आये, राय कवांट ने उसे माफी देकर छोड दिया। राय और मामा उगा के बीच कुछ मनभेद हुए, इससे दोनो मे युद्ध हुआ और उगा वाला वीरगति को प्राप्त हुए।
- राय दियास (ई.स. 1003-1010) अब तक पाटन और जुनागढ की दुश्मनी काफी गाढ हो चुकी थी। पाटन के दुर्लभसेन सोलंकी ने जूनागढ पर आक्रमन कीया। जूनागढ का उपरकोट तो आज भी अजेय है, इसलिये दुर्लभसेन ने राय दियास का मस्तक लानेवाले को ईनाम देने लालच दी। राय के दशोंदी चारन बीजल ने ये बीडा उठाया, राय ने अपना मस्तक काटकर दे दिया।
(ई.स. 1010-1025) – सोलंकी शासन
- राय नवघण (ई.स. 1025-1044) राय दियास के पुत्र नवघण को एक दासी ने बोडीदर गांव के देवायत अहिर के घर पहुंचा दिया। सोलंकीओ ने जब देवायत को राय के पुत्र को सोंपने को कहा तो देवायत ने अपने पुत्र को दे दिया, बाद मे अपने साथीदारो को लेकर जुनागढ पर राय नवघण को बिठाया। गजनी ने ई.स 1026 मे सोमनाथ लूटा तब नवघण 16 साल का था, उसकी सेना के सेनापति नागर ब्राह्मन, श्रीधर और महींधर थे। सोमनाथ को बचाते हुए महीधर की मृत्यु हो गई थी। देवायत अहिर की पुत्री और राय नवघण की मुंहबोली बहन जाहल जब अपने पति के साथ सिंध मे गई तब वहां के सुमरा हमीर की कुदृष्टी उस पर पडी। नवघण को यह समाचार मिलते ही उसने पुरे सोरठ से वीरो को ईकठ्ठा कर सिंध पर हमला कर सुमरा को हराया, उसे जीवतदान दिया। (सन 1020)
- राय खेंगार (ई.स. 1044-1067) राय नवघण का पुत्र, वंथली मे खेंगारवाव का निर्माण किया।
- राय नवघण द्वितीय (ई.स. 1067-1098) पाटन पर आक्रमण कर जीता, समाधान कर वापिस लौटा। अंतिम समय मे अपनी चार प्रतिज्ञाओ को पुरा करने वाले पुत्र को ही राजा बनाने को कहा। सबसे छोटे पुत्र खेंगार ने सब प्रतिज्ञा पुरी करने का वचन दिया, इसलिये उसे गद्दी मिली। नवघण द्वितीय के पुत्र :
• सत्रसालजी – (चुडासमा शाखा)
• भीमजी – (सरवैया शाखा)
• देवघणजी – (बारैया चुडासमा शाखा)
• सवघणजी – (लाठीया चुडासमा शाखा)
• खेंगार – (जुनागढ की गद्दी) - राय खेंगार द्वितीय (ई.स. 1098-1114) सिद्धराज जयसिंह सोलंकी का समकालिन और प्रबल शत्रु। उपरकोट मे नवघण कुवो और अडीकडी वाव का निर्माण कराया। सती राणकदेवी खेंगार की पत्नी थी। सिद्धराज जयसिंह ने जुनागढ पर आक्रमन किया, 12 वर्ष तक घेरा लगाया, लेकिन उपरकोट को जीत ना पाया। सिद्धराज के भतीजे जो खेंगार के भांजे थ़े देशल और विशल वे खेंगार के पास ही रहते थे, सिद्धराज जयसिंह ने उनसे दगा करवाकर उपरकोट के दरवाजे खुलवाये। खेंगार की मृत्यु हो गई, सभी रानीयों ने जौहर किये, रानी रानकदेवी को सिद्धराज अपने साथ ले जाना चाहता था, लेकिन वढवाण के पास रानकदेवी सती हुई, आज भी वहां उनका मंदीर है।
(ई.स. 1114-1125) – सोलंकी शासन
- राय नवघण 3 (ई.स. 1125-1140) अपने मामा जेठवा नागजी और मंत्री सोमराज की मदद से जूनागढ जीतकर पाटन को खंडणी भर राज किया।
- राय कवांट 2 (ई.स. 1140-1152) पाटन के कुमारपाल से युद्ध मे मृत्यु।
- राय जयसिंह (ई.स. 1152-1180) संयोगिता के स्वयंवर मे गये थे, जयचंद को पृथ्वीराज के साथ युद्ध मे सहायता की थी।
- राय रायसिंहजी (ई.स. 1180-1184)
- राय महीपाल (ई.स. 1184-1201)
- राय जयमल्ल (ई.स. 1201-1230)
- राय महीपाल 2 (ई.स. 1230-1253) ई.स.1250 मे सेजकजी गोहिल मारवाड से सौराष्ट्र आये, राय महिपाल के दरबार मे गये। राय महीपाल का पुत्र खेंगार शिकार पर गया, उसका शिकार गोहिलो की छावनी मे गया, इस बात पर गोहिलो ने खेंगार को केद कर उनके आदमियो को मार दिया। राय ने क्षमा करके सेजकजी को जागीरे दी, सेजकजी की पुत्री का विवाह राय महीपाल के पुत्र खेंगार से किया।
- राय खेंगार 3 (ई.स. 1253-1260) अपने पिता की हत्या करने वाले एभल पटगीर को पकड कर क्षमादान दीया जमीन दी।
- राय मांडलिक (ई.स. 1260-1306) रेवताकुंड के शिलालेख मे ईसे मुस्लिमो पर विजय करनेवाला राजा लिखा है।
- राय नवघण 4 (ई.स. 1306-1308) राणजी गोहिल (सेजकजी गोहिल के पुत्र) राय नवघण के मामा थे। झफरखान के राणपुर पर आक्रमण करने के समय राय नवघण मामा की सहायता करने गये थे। राणजी गोहिल और राय नवघण उस युद्ध वीरोचित्त मृत्यु को प्राप्त हुए। (ये राणपुर का वही युद्ध है जिसमे राणजी गोहिल ने मुस्लिमो की सेना को हराकर भगा दिया था, लेकिन वापिस लौटते समय राणजी के ध्वज को सैनिक ने नीचे रख दिया और वहा महल के उपर से रानीयो ने ध्वज को नीचे गीरता देख राणजी की मृत्यु समजकर कुवे मे गीरकर जौहर किया ये देख राणजी वापिस अकेले मुस्लिम सेना पर टूट पडे और वीरगति को प्राप्त हुए)।
- राय महीपाल 3 (ई.स. 1308-1325) सोमनाथ मंदिर की पुनःस्थापना की।
- राय खेंगार 4 (ई.स. 1325-1351) सौराष्ट्र मे से मुस्लिम थाणो को खतम किया, दुसरे रजवाडो पर अपना आधिपत्य स्थापित किया।
- राय जयसिंह 2 (ई.स. 1351-1373) पाटन से झफरखान ने जुनागढ मे छावनी डाली, राय को मित्रता के लिये छावनी मे बुलाकर दगे से मारा। राय जयसिंह ने तंबु मे बैठे झफरखां के 12 सेनापतिओ को मार दिया, उन सेनापतिओ की कब्र आज जुनागढ मे बाराशहीद की कब्र के नाम से जानी जाती है।
- राय महीपाल 4 (ई.स. 1373) झफरखाँ के सूबे को हराकर वापिस जूनागढ जीता, सुलतान से संधि करी।
- राय मुक्तसिंहजी (भाई) (ई.स. 1373-1397) राय महिपाल का छोटा भाई , दुसरा नाम – राय मोकलसिंह।
- राय मांडलिक 2 (ई.स. 1397-1400)
- राय मेंलंगदेव (ई.स. 1400-1415) मांडलिक का छोटा भाई। वि.सं. 1469 ज्येष्ठ सुदी सातम को वंथली के पास जुनागढ और गुजरात की सेना का सामना हुआ, राजपुतो ने मुस्लिमो को काट दिया, सुलतान की हार हुई। इसके बाद अहमदशाह ने खुद आक्रमण किया। राजपुतो ने केसरिया (शाका) किया, राजपुतानीओ ने जौहर किये, राय के पुत्र जयसिंह ने नजराना देकर सुलतान से संधि की।
- राय जयसिंहजी 3 (ई.स.1415-1440) गोपनाथ मंदिर को तोडने अहमदशाह की सेना जब झांझमेर आयी, तब झांझमेर वाझा (राठौर) ठाकुरो ने उसका सामना किया, राय जयसिंह ने भी अपनी सेना सहायतार्थ भेजी थी। ईस लडाई मे भी राजपुत मुस्लिमो पर भारी पडे, सुलतान खुद सेना सहित भाग खडा हुआ।
- राय महीपाल 5 (ई.स.1440-1451) पुत्र मांडलिक को राज सौंपकर संन्यास लेकर गिरनार मे साधना करने चले गये।
- राय मांडलिक 3 (ई.स. 1451-1472) जुनागढ का अंतिम हिन्दु शासक। सोमनाथ का जिर्णोद्धार कराया। ई.स.1472 मे गुजरात के सुल्तान महमुद शाह (बेगडा) ने जूनागढ पर तीसरी बार आक्रमण किया। जूनागढ की सेना हारी, राजपुतो ने शाका और राजपुतानीयो ने जौहर किये। दरबारीओ के कहने पर राय मांडलिक युद्ध से निकलकर कुछ साथियो के साथ ईडर जाने को निकले, ताकि कुछ सहाय प्राप्त कर सुल्तान से वापिस लड सकें। सुल्तान को यह बात पता चली, उसने कुछ सेना मांडलिक के पीछे भेजी और सांतली नदी के मेदान मे मांडलिक की मुस्लिमो से लडते हुए मृत्यु हुई।
राय मांडलिक की मृत्यु के पश्चात जूनागढ हंमेशा के लिये मुस्लिमो के हाथ मे गया। मांडलिक के पुत्र भूपतसिंह के व्यक्तित्व, बहादुरी व रीतभात से प्रभावित हो महमुद ने उनको बगसरा (घेड) की चौरासी गांवो की जागीर दी, जो आज पर्यंत उनके वंशजो के पास है।
चुडासमा के गांव
चुडासमा के गांव (भाल विस्तार, धंधुका )
- तगडी 2. परबडी 3. जसका
4. अणियारी 5. वागड 6. पीपळी
7. आंबली 8. भडियाद 9. धोलेरा
10. चेर 11. हेबतपुर 12. वाढेळा
13. बावलियारी 14. खरड 15. कोठडीया
16. गांफ 17. रोजका 18. उचडी
19. सांगासर 20. आकरू 21. कमियाळा
22. सांढिडा 23. बाहडी (बाड़ी) 24. गोरासु
25. पांची 26. देवगणा 27. सालासर
28. कादिपुर 29. जींजर 30. आंतरिया*
31. पोलारपुर 32. शाहपुर 33. खमीदाणा, (जुनावडा मे अब कोइ परिवार नही रहेता)
जो चुडासमा को उपलेटा-पाटणवाव विस्तार की ओसम की चोराशी राज मे मीली वो लाठीया और बारिया चुडासमा के नाम से जाने गए..
बारिया चुडासमा के गांव
- बारिया 2. नवापरा 3. खाखीजालिया
4. गढाळा 5. केराळा 6. सवेंतरा
7. नानी वावडी 8. मोटी वावडी 9. झांझभेर
10. भायावदर 11. कोलकी
लाठिया चुडासमा के गांव
- लाठ 2. भीमोरा 3. लिलाखा
4. मजीठी 5. तलगणा 6. कुंढेच
7. निलाखा
चुडासमा के अन्य गांव
- लाठीया खखावी 2. कलाणा 3. चित्रावड
4. चरेल (मेवासिया चुडासमा) 5. बरडिया
रायजादा यदुवंशी
जूनागढ़ के अंतिम राजा राय मांडलिक के पुत्र भूपतसिंह और उनके वंशज ‘रायजादा’ कहलाये (रायजादा मतलब राय का पुत्र)।
- रायजादा भूपतसिंह (ई.स. 1471-1505) के वंशज आज सौराष्ट्र प्रदेश मे रायजादा राजपूत कहलाते है। चुडासमा, सरवैया और रायजादा तीनो एक ही वंश की तीन अलग अलग शाख है। तीनो शाख के राजपूत खुद को भाई मानते है। अलग अलग समय मे जुदा पडने पर भी आज एक साथ रहते है।
रायजादा के गांव
- सोंदरडा 2. चांदीगढ 3. मोटी धंसारी
4. पीपली 5. पसवारिया 6. कुकसवाडा
7. रुपावटी 8. मजेवडी 9. चूडी- तणसा के पास
10. भुखी – धोराजी के पास 11. कोयलाणा (लाठीया)
सरवैया यदुवंशी
चूड़चंद्र के वंशज रागारिया ने गिरनार (जूनागढ़) में अपना शासन स्थापित किया। कहा जाता है कि रागारिया और उनके वंशज सर (तीर) चलाने में बड़े तेज थे। इस कारण इनके वंशज सरवैया यदुवंशी कहलाते है। अभी गुजरात राज्य के कुछ जिलों में हैं। गिरनार के वीर सरवैया केवाठ व अनंतराय सांखला की कथा काफी प्रसिद्ध है। मुख्य रूप से गुजरात में पाए जाते है। यह चूड़ासमा वंश की शाखा हैं। सरवैया राजपूत भारत की आजादी तक (जब जागीरदारी थी) कई जागीरों के जागीरदार थे। जैसे वासवद, भड़ली, चीतल, भखलका।
वेजलकोट का किला जो रावल नदी के पूर्वी तट पर गिरनार में स्थित है और अब एक पुरातात्विक स्थल है। इसका नाम इसके संस्थापक सरवैया वेजोजी के नाम पर ही है। जिन्होंने वहां से सुल्तान महमूद बेगडा की सेना के साथ लड़ाई लड़ी थी। इस तथ्य का उल्लेख करने वाले कुछ पुरातात्विक साक्ष्य और शिलालेख पाए गए हैं। जैसे हथसानी और वेजलकोट के खंडहरों में पाए गए अन्य शिलालेख।
स्वतंत्रता के समय, जेसर, हथसानी, दाथा और आस-पास की रियासतों पर सरवैया राजपूतों का शासन था। जेसर राज्य और दाथा रियासत को अन्य रियासतों के साथ भारत संघ में मिलाकर संयुक्त काठियावाड़ राज्य बनाया गया।
सरवैया के गांव
सरवैया (केशवाला गांव भायात)
- केशवाला 2. छत्रासा 3. देवचडी
4. साजडीयाली 5. साणथली 6. वेंकरी
7. सांढवाया 8. चितल 9. वावडी
सरवैया (वाळाक के गांव)
- हाथसणी 2. देदरडा 3. देपला
4. कंजरडा 5. राणपरडा 6. राणीगाम
7. कात्रोडी 8. झडकला 9. पा
10. जेसर 11. चिरोडा 12. सनाला
13. राजपरा 14. अयावेज 15. चोक
16. रोहीशाळा 17. सातपडा 18. कामरोल
19. सांगाणा 20. छापरी 21. रोजिया
22. दाठा 23. वालर 24. धाणा
25. वाटलिया 26. सांखडासर 27. पसवी
28. मलकिया 29. शेढावदर
सरवैया के और गांव जो अलग अलग जगह पर हे
- नाना मांडवा 2. लोण कोटडा 3. रामोद
4. भोपलका 6. खांभा (शिहोर के पास) 7. विंगाबेर. 8. खेडोई
खंगार यदुवंशी
खंगार यदुवंशी जूनागढ़ के प्रसिद्ध खंगार द्वितीय के वंशज है। उनके पूर्वज 1200 ई० के लगभग गुजरात से चलकर बुन्देलखण्ड क्षेत्र में बस गए। कहा जाता है कि खंगार क्षत्रिय राव खेतसिंह खंगार पृथ्वीराज चौहान के सामन्त थे। बाँदा झांसी, हमीरपुर, जालौन में है।