रानी पद्मिनी

  • रानी पद्मिनी

पतिव्रता थी पद्मिनी, देवी दुर्गा रूप।
वर पाया वीरांगना, रावल रतनसिंह भूप॥

खिलजी ने ख्याति सुनी, रीझा पद्मिनी रुप।
घेरा गढ़ चित्तौड़ को, गर्ज उठे रजपूत॥

“दर्पण में छवि देख लूं” खिलजी का संदेश।
“घेरा तोडूं दुर्ग का, जाऊं अपने देश॥”

दर्पण देखी पद्मिनी, तन छाई मुर्छान।
छल से भूप बुलाविये, कैद किये तुर्कान॥

“जीवित चाहे रतनसिंह, तो बेगम बन जाव“
सन्देशा पद्मिनी सुना, लगा कलेजे घाव॥

गोरा-बादल चढ़ चले, चमकाने समशीर।
संग पालकी सातसौ, जिन में क्षत्रिय वीर॥

खिलजी को मतिभ्रम हुआ, ताड़ सका ना बात।
समझा पद्मिनी आ रही, लेकर सखियां साथ॥

“पद्मिनी रावल से मिले, फिर जाएगी रनिवास”
कूटचाल गोरा चली, खिलजी सका न भांप।

रावल की बेड़ी कटी, बादल लियो चढ़ाय।
अश्व उड़ा फर्राट से, दिया दुर्ग पहुंचाय॥

गोरा के संग जुट पड़े , पालकियों के वीर।
तुर्क फ़ौज से भिड़ गए, चमक रही समशीर॥

गोरा का सिर कट पड़ा, थमी नहीं तलवार।
धड़ फिर भी लड़ता रहा, कर तुर्कों पर वार॥

खिलजी फिरसे चढ़ चला, मन में लिये मरोड़।
दुगुनी सेना संग ले, घेरा गढ़ चित्तौड़॥

रसद ना रही दुर्ग मैं, अन्न रहा ना नीर।
क्षत्रिय केसरिया पहन, निकले ले समशीर॥

साका किया सिसोदिया, जमकर हुई लड़ाई।
सखियों के संग पद्मिनी, जौहर अगन समाई॥

पद्मिनी सती महान तू, भली निभाई रीत।
जग के संग ‘घनश्याम’ भी गाए तेरे गीत॥

✍ राजवी घनश्यामसिंह चंगोई

(25 जनवरी 2018)


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