उत्पत्ति एवं विस्तार
झाला वंश
(By - घनश्यामसिंह राजवी चंगोई)
दीधा फिर देसी घणां, मालिक साथै प्रांण।
चेटक पग दीधी जठै, सिर दीधौ मकवांण।
(यानी जहां चेतक ने सिर दिया, वहां झाला मान ने प्राण दिए)
भारत के इतिहास में राजपूत वंश का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है, और इनमें से मकवाणा (झाला) राजपूत अपनी वीरता और शौर्य के लिए जाने जाते हैं। झाला चंद्रवंशी क्षत्रिय हैं। इस बात की पुष्टि विक्रमी संवत की 15वीं सदी में गंगाधर रचित ‘मंडलीक चरित्र' ग्रंथ से भी होती है जिसमें लिखा है, गोहिल सूर्यवंशी और झलक्य चंद्रवंशी है। अतः सिद्ध है कि मकवाना चंद्रवंशी थे।
झाला मुख्य रूप से गुजरात और राजस्थान में निवास करने वाले क्षत्रिय हैं। इनके इतिहास की जानकारी 12वीं शताब्दी से मिलती है, जब हरपालदेव जी ने जालौर पर अपना शासन स्थापित किया था। पाटड़ी को अपनी राजधानी बनाकर, उन्होंने एक विशाल साम्राज्य की नींव रखी।
झाला राजपूतों का इतिहास युद्धों और वीरता के कारनामों से भरा हुआ है। मुगलों से लेकर अन्य राजपूत राजाओं तक, उन्होंने सदैव अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए लड़ाइयां लड़ीं। रानी कफुलंदा जैसी वीरांगनाएं भी झाला इतिहास में अपना एक अलग स्थान रखती हैं। गुजरात का एक पूरा क्षेत्र, जिस पर कभी उनका शासन था और जिसका नाम उनके नाम पर रखा गया था, झालावाड़ के नाम से जाना जाता था। गुजरात में झाला द्वारा शासित कई रियासतें थी, जैसे कि 1920 के दशक में ध्रांगध्रा जोकि 13 तोपों की सलामी वाला राज्य था, इस पर झाला वंश का शासन था। वांकानेर राज्य, लिंबडी और वधावन राज्यों के साथ-साथ लखतर, सायला और चूड़ा झालाओं के अधिकार में थे।
झाला राजपूतों ने सदियों से राजस्थान और गुजरात के क्षेत्रों पर शासन किया और अपनी रणनीतिक कौशल से न केवल अपना साम्राज्य विस्तार किया बल्कि बाहरी आक्रमणों का भी डटकर मुकाबला किया। महाराणा प्रताप के अनन्य सहयोगी झाला मान की वीरता व देशभक्ति किसी से छुपी नहीं है। राव कर्णसिंह जी और रानी कफुलंदा जैसे शूरवीरों की वीरता गाथाएं आज भी इतिहास के पन्नों में अंकित हैं। उन्होंने कला, संस्कृति और स्थापत्य के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। राजा रामसिंह जी जैसे कुशल प्रशासकों ने कला और मंदिर निर्माण को बढ़ावा दिया। झाला वंश की शाखाएं उनकी विविधता और व्यापक प्रभाव को दर्शाती हैं। भले ही समय के साथ उनका शासन समाप्त हो गया, उनकी वीरता और सांस्कृतिक विरासत आज भी प्रेरणा का स्रोत है।
उत्पत्ति एवं विस्तार
झाला (मखवाना) वंश की उत्पत्ति :
ऐसा माना जाता है की ब्रह्माजी के चार पुत्र थे भृगु, अंगीरा, मरीचि, अत्री। भृगु ऋषि के पुत्र विधाता हुए, विधाता के पुत्र मृकुंड हुए और मृकुंड के पुत्र मार्कंडेय हुए। उस समय बद्रिनारायण के क्षेत्र में अनेक ऋषि के आश्रम हुवा करते थे। ऋषि के यज्ञ को भंग करने वाले राक्षसों का आतंक खूब बढ़ गया था, राक्षसों के संहार करने के लिए मार्कंडेय ऋषि ने अपने यज्ञ बल से एक वीर पुरुष उत्पन्न किया। उस वीर पुरुष का नाम कुंडमाल दिया। जो फिर मखवान शाखा के प्रवर्तक हुए। "मख" यानी यज्ञ का कुंड "मखवान" यानी यज्ञ से उत्पन हुवा। उस समय चंड और चंडाक्ष नाम के दो राक्षस को देवी वरदान प्राप्त थे की 'सिर्फ वो दोनों ही एक दूसरे को मार सकते थे'। कुंडमालजी ने भी भगवान शिवजी की तपस्या कर अनेक देवी शस्त्र प्राप्त किये और अनेक राक्षसों का वध किया। कुंडमाल जी ने उस देवी शास्त्र का प्रयोग चंड और चंडाक्ष के विरुद्ध किया जिस से एक मोहिनी उत्पन हुई और उस मोहिनी को पाने की लालच में दोनों राक्षसो के बीच लड़ाई हो गई और दोनों ने एक दुसरे को मार डाला। कुंडमालजी ने उस क्षेत्र में चमत्कारपुर नामक राज्य की स्थापना की और उनकी तीन पीढियो ने वहा शासन किया। फिर राजा कुंत ने हिमालय की तलहटी में कुंतलपुर नामक राज्य की स्थापना की।
मखवाना नामकरण
इस संबंध में कई मत प्रचलित हैं -
- मार्कंडेय ऋषि ने अपने यज्ञ बल से एक वीर पुरुष उत्पन्न किया। उस वीर पुरुष का नाम कुंडमाल दिया। जो फिर मखवान शाखा के प्रवर्तक हुए। "मख" यानी यज्ञ का कुंड "मखवान" यानी यज्ञ से उत्पन हुवा।
- कई विद्वानों का मत है कि सिंध क्षेत्र के मकरान स्थान के कारण मकवाना कहलाए।
- इतिहासकार बांकीदास लिखते हैं “मारकंडे मोखरी वंश सूं हुआ, जिण सूं मखवान कहलाया”। अतः मार्कण्ड की संतान मखवाना हो सकती है। श्यामल दास भी वीर विनोद में लिखते हैं कि झाला अपनी पैदाइश मार्कण्डेय ऋषि से बताते हैं।
- नैणसी की ख्यात में मकवाना के पूर्वजों में राणा मख नामक व्यक्ति का अस्तित्व ज्ञात होता है, जिससे मखवाना नामकरण हुआ।
मखवाना वंश का विस्तार
कालांतर में कुंतलपुर के राजा कुंत के एक वंशज राजा अमृतसेन जी हुए जिनके पांच पुत्र थे। चाचकदेवजी, वाचकदेवजी, शिवराजजी, वत्सराज जो यादवो के भांजे थे और पांचवे पुत्र मालदेवजी हस्तिनापुर के भांजे थे। एक बार वो पांचो भाई शिकार के लिए गए वहा उन पांचो के बीच विवाद हो गया और मालदेवजी वहा से रूठ कर हस्तिनापुर चले गए। फिर वहा से सेना लाकर चाचकदेव जी पर आक्रमण कर दिया। चाचकदेव जी युद्ध में हार गए और वहा से निकल कर फतेहपुर सीकरी चले गए, वहा अपनी राजसत्ता की स्थापना की।
इन के बाद पृथ्वीमल, सोसड़ा, रितु, केसर, धनंजय आदि नाम मिलते हैं। धनंजय ने परमारो से सिंध देश जीत लिया और कीर्तिगढ़ में अपनी राजधानी स्थापित की। मखवाना राजपूत सिंध पार कीर्तिगढ़ में (जो थारपारकर के पास है) मूल रूप से रहते थे। कीर्तिगढ़ के राणा विकासदेव मकवाना के पुत्र केशरदेव थे जो हमीर सुमरा से लड़ते हुए मारे गए। उसका पुत्र हरपाल गुजरात के बघेल नरेश करण देव के यहां जा रहा था। वहां कुछ गांव जागीर में मिल गए और वह पाटड़ी में रहने लगा।
हरपालदेव जी :
श्री केशरदेवजी विक्रम सम्वत 1105 में कीर्तिगढ़ की सत्ता पर आए। केसरदेव जी मकवाना और सिंध के सम्राट हमीर सुमरा के बीच युद्ध हुआ था। इस युद्ध में केवल राजकुमार केसरदेवजी और हरपालदेवजी ही बचे थे। अंततः मकवाना युद्ध हार गए। राजकुमार हरपालदेव ने जंगल में छिपने का निर्णय लिया। जंगल में रहने के दौरान उन्होंने वहां रहने वाले ऋषि मुनियों से विभिन्न कलाएं और काला जादू सीखा। उन्होंने अपना राज्य वापस पाने का निर्णय लिया। वे 'अनहिलपुर पाटन' (गुजरात) चले गए। उस समय गुजरात में करणदेव सोलंकी का शासन था। उन्होंने अपने रिश्तेदार कर्णदेव सोलंकी के यहां रहने का निर्णय लिया। तीरंदाजी और तलवारबाजी में निपुणता के कारण उन्हें अनहिलपुर पाटन के राज दरबार में स्थान मिला। करणदेव के कुटुंब के प्रतापसिंह सोलंकी की पुत्री शक्तिदेवी से हरपालदेव जी का विवाह हुआ। वहा पाटन के आसपास में 'बाबराभूत' नामके मायावी डाकू का आतंक था। हरपालदेव जी ने लोगो को बाबराभूत के आतंक से छुड़ाया। हरपालदेवजी ने अपने बाहुबल से बाबराभूत को अपने वश में किया, हरपालदेवजी के इस कार्य से राजा करणदेवजी प्रसन्न हो गए और हरपालदेवजी को वचन दिया की एक रात में वो जितने गाव को तोरण बांधेगे उतने गाव उनको दे दिए जाएंगे। हरपालदेव, शक्तिमाता और बाबराभूत ने मिलकर 2300 गांव को तोरण बांधे। पहला तोरण पाटडी गाव को बांधा, टूवा में विश्राम किया और आखरी तोरण दिघडीया गाव को बाँधा और सुबह हो गई। इस तरह हरपालदेवजी, शक्ति माता और बाबरभूत ने मिलके 2300 गॉव को तोरण बांधे। जिन में से 500 गॉव रानी कफुलंदा को दे दिए। इस तरह विक्रम सवंत 1156 में 1800 गॉव वाले विशाल साम्राज्य की स्थापना की व अपनी राजधानी पाटडी रखी। हरपालदेवजी और शक्ती मां के तीन पुत्र हुए सोढाजी, मंगुजी, शेखाजी और एक पुत्री हुई उमादेवी।
'मकवाणा' से "झाला" नामकरण :
मकवाना क्षत्रियों में 14वीं शताब्दी में झाला खाप की उत्पत्ति हुई। कई इतिहासकारों का मानना है कि झाला चूंकि सिंध से आए। झाला शब्द सिंधी के शब्द जला सरोवर से बना है। एक यह किंवदंती भी है कि जब शक्ति माता के तीनो कुंवर और एक चारण का बालक जब खेल रहे थे, तब गजशाला से एक भड़का हुवा हाथी उनकी और दोडा आ रहा था। तभी ये सब शक्ति माता ने देखा और महल के झरोखे से उन तीनो राजकुमारों को हाथ से झाल कर (पकड़ कर) अपने पास ले लिया और उस चारण के बालक को टापरी (धक्का) मार कर एक ओर कर दिया। इस घटना के बाद हरपालदेव जी के वशज झाला कहलाने लगे और उस चारण के वंशज टपरिया चारण कहलाने लगे। इस घटना से शक्तिदेवी का दैवी स्वरुप सब के सामने उजागर हुवा। उनके वचन के अनुसार अगर कोई उनकी वास्तविकता जान लेगा तो वो समाधी ले लेंगी, इस लिए उन्हों ने पाटडी से थोड़ी दूर 'धामा' में समाधी ले ली। धामा में आज भी चेत्र बदी तेरस के दिन उनकी पूजा होती है।
घनश्यामसिंह राजवी चंगोई
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झाला वंश गोत्र प्रवर व कुलदेवी
झाला वंश के गोत्र प्रवर :
(संकलन : घनश्यामसिंह चंगोई)
वंश: सूर्यवंशी
गोत्र: मार्कण्डेय
प्रवर तीन : अश्व, धमल, नील
वेद: यजुर्वेद
शाखा: मध्यदिनी
इष्टदेव: चतुर्भुज विष्णु
आराध्य देव: सूर्यनारायण देव
कुलदेवी: श्री मर्मारा देवी, शक्तिमाता
आराध्या देवी: श्री हिंगलाज माता
सहायक देवी: भैरवी देवी
महादेव: त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग (द्वारका)
भेरव : केवडीया
कुलगुरु : मशीलीया राव
मूलपुरुष : कुंडमाल जी
कुल : मखवान (मकवाणा)
शाखाए : झाला, राणा
झाला वंश की कुलदेवी :
झाला राजपूत की कुलदेवी श्री मरमरा माता है। झाला वंश के लिए आस्था का केंद्र श्री मरमरा माता; जिन्हें कुलदेवी के रूप में पूजा जाता है। कुलदेवी, किसी वंश या परिवार की रक्षक देवी मानी जाती हैं। मरमरा देवी के मंदिर गुजरात और राजस्थान में पाए जाते हैं, जो उनके व्यापक प्रभाव का प्रमाण है। हालांकि, मरमरा देवी की उत्पत्ति से जुड़ी कथाओं में थोड़ा भेद है। कुछ मान्यताओं के अनुसार, वे माता दुर्गा का ही एक रूप हैं। शक्ति और रक्षा की प्रतीक मरमरा देवी, युद्ध में विजय और कठिनाइयों से पार पाने के लिए जानी जाती हैं।
दूसरी कथा के अनुसार, मरमरा देवी का संबंध किसी पहाड़ी क्षेत्र से बताया जाता है। माना जाता है कि जंगल में शिकार करते समय एक राजा को चमत्कारी चमक दिखाई दी, जिसके बाद उन्हें स्वप्न में देवी दर्शन हुए। स्वप्न में देवी ने राजा को उस स्थान पर मंदिर स्थापित करने का आदेश दिया। वहां से निकली संगमरमर की शिला से देवी की मूर्ति बनाई गई और उसी स्थान पर उनका मंदिर स्थापित किया गया। इस चमकदार संगमरमर के कारण ही उन्हें मरमरा माता के नाम से जाना जाता है।
मरमरा देवी मंदिरों में वर्ष के दौरान कई उत्सव मनाए जाते हैं, जिनमें नवरात्रि का विशेष महत्व है। इन उत्सवों में बड़ी संख्या में श्रद्धालु शामिल होते हैं, जो मरमरा माता का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए दूर-दूर से आते हैं।
घनश्यामसिंह राजवी चंगोई
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झाला वंश की शाखाएं व प्रमुख शासक
झाला वंश की शाखाएं :
(By - घनश्यामसिंह राजवी चंगोई)
1.देवत झाला- देवत झाला एक प्रसिद्ध राजपूत योद्धा थे, जो अपनी वीरता और साहस के लिए प्रसिद्ध थे। यह शाखा वीर देवत के नाम पर प्रसिद्ध है। झालावाड़ गुजरात से कई झाला राजपूत जैसलमेर चले गए, वह वहां देवत झाला कहलाए।
2. टावरी झाला- जैसलमेर रियासत के झालों में रायमल झाला के बड़े पुत्र हमीर के वंशज महेश्वरी हुए व छोटे पुत्र अनाड़ के वंशज टावरी गांव में रहने के कारण टावरी झाला कहलाये।
3. खोदास झाला- झाला खोदास के वंशज पाटन के पास गुजरात में है।
4.जोगु झाला- झाला जोगु के वंशज। जोगु झाला की वीरता और धैर्य की कहानियाँ अब भी लोगों के बीच प्रसिद्ध हैं।
5.भाले सुल्तान झाला- राणोजी व बाजोजी दो भाइयों के वंशज, गुजरात में मांडवी के पास।
6. बलवंत झाला- झाला बलवंतसिंह के वंशज, कच्छ में।
7. लूणी झाला- झाला लूणाजी के वंशज, बनारस के
पास।
झाला वंश के प्रमुख शासक :
झाला राजपूत वंश का इतिहास सदियों पुराना है, और इसमें कई शासकों ने अपना योगदान दिया है। यहाँ झाला वंश के कुछ प्रमुख राजाओं की सूची प्रस्तुत है :
हरपाल देव जी (12वीं शताब्दी): माना जाता है कि इन्होंने जालौर को अपनी राजधानी बनाकर झाला वंश की नींव रखी।
राणी कफुलंदा (12वीं शताब्दी): अपनी रणनीति और युद्ध कौशल के लिए प्रसिद्ध वीरांगना।
राणा वीरसिंह जी (12वीं – 13वीं शताब्दी): हरपाल देव जी के पुत्र, जिन्होंने राज्य का विस्तार किया।
राणा कान्हसिंह जी (13वीं शताब्दी): वीर योद्धा के रूप में विख्यात, जिन्होंने बाहरी आक्रमणों का डटकर मुकाबला किया।
राणा अखैराज जी (14वीं शताब्दी): कला और स्थापत्य के संरक्षक माने जाते हैं।
राणा लूणकरण जी (14वीं शताब्दी): दिल्ली सल्तनत के साथ हुए युद्धों में वीरता प्रदर्शित की।
राव कर्ण सिंह जी (16वीं शताब्दी): मुगल सम्राट अकबर की विशाल सेना को रोकने के लिए विख्यात।
राव राम सिंह जी (17वीं शताब्दी): कुशल प्रशासक, जिन्होंने कला और संस्कृति को बढ़ावा दिया।
राजा जगत सिंह जी (17वीं शताब्दी): मुगलों के साथ हुए संघर्षों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
राजा भीम सिंह जी (18वीं शताब्दी): मराठा साम्राज्य के साथ हुए युद्धों में भाग लिया।
राजा जालम सिंह जी (18वीं शताब्दी): अपने शासनकाल में आर्थिक सुधारों को लागू किया।
राजा गजसिंह जी (18वीं– 19वीं शताब्दी): ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित किए।
राजा अजित सिंह जी (19वीं शताब्दी): सामाजिक सुधारों के लिए जाने जाते हैं।
राजा प्रकाश सिंह जी (19वीं – 20वीं शताब्दी): ब्रिटिश शासन के अधीन रहे, लेकिन अपनी संस्कृति को बनाए रखा।
राजा मान सिंह जी (20वीं शताब्दी): स्वतंत्र भारत में झाला रियासत के अंतिम शासक।
यह सूची झाला वंश के सभी शासकों को सम्मिलित नहीं करती है, बल्कि प्रमुख राजाओं की एक झलक प्रस्तुत करती है।
घनश्यामसिंह राजवी चंगोई
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राजपूताना के झालावाड़ राज्य की स्थापना :
राजपूताना के झालावाड़ राज्य की स्थापना :
(By - घनश्यामसिंह राजवी चंगोई)
कोटा के झाला जालिम सिंह ने हमारे देश के इतिहास में अपना अलग स्थान बनाया। वे अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के संगम के दौरान भारत की तीन शासक शक्तियों - मुगलों, मराठों और अंग्रेजों के परिवर्तन के साक्षी थे। परिवर्तन काल के दौरान उनके आचरण ने उन्हें अधिकांशतः प्रशंसा दिलाई, लेकिन अंत में थोड़ी घृणा भी मिली।
1739 में जन्मे जालिमसिंह झाला को उनके चाचा हिम्मत सिंह झाला ने जब गोद लिया था, (जो कोटा सेना के कमांडर थे) तब उनकी उम्र 18 साल से कुछ ज़्यादा थी। जालिम सिंह को 1758 में अपने चाचा की नांता की जागीर और कोटा के फौजदार का पद विरासत में मिला।
तीन साल बाद वह अवसर आया जिसने कोटा सेना के इस युवा कमांडर को प्रसिद्धि दिलाई। महान सवाई जय सिंह के बेटे माधोसिंह ने कोटा के खिलाफ अपनी सेना भेजी। भटवाड़ा में तीन दिनों तक लड़ाई लड़ी गई। तीसरे दिन, जालिम सिंह और उनके आदमियों ने प्रतिद्वंद्वी सेना पर हमला करते हुए ऐसी वीरता दिखाई कि जयपुर की सेना मैदान छोड़कर भाग गई। उन्हें खदेड़ दिया गया और उनके जानवर और संपत्ति - सत्रह हाथी, 1800 घोड़े, 73 तोपें और जयपुर का राज्य ध्वज छीन लिया गया ।
भटवाड़ा में वीरता और पराक्रम ने जालिम सिंह के लिए भविष्य में उन्नति के द्वार खोल दिए। एक योद्धा के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली। उन्हें कोटा के महाराव शत्रुशाल ने अतिरिक्त प्रशासनिक जिम्मेदारियाँ सौंपी। 1764 में महाराव शत्रुशाल के निधन के बाद, उनके भाई गुमान सिंह महाराव बने और जालिमसिंह को मुसाहिब- ए-आला या प्रधानमंत्री बनाया गया। धीरे-धीरे उन्होंने अधिक शक्ति प्राप्त की और खुद को कोटा के वास्तविक शासक के रूप में स्थापित किया। बाद में दोनों के बीच मतभेद पैदा हो गए और जालिम सिंह को राज्य से निष्कासित कर दिया गया।
जालिम सिंह मेवाड़ चले गए, जहाँ महाराणा अरिसिंह ने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया। उनकी योग्यताएँ पहले से ही ज्ञात थीं। उस समय मेवाड़ आंतरिक और बाहरी समस्याओं से जूझ रहा था। 1751 में मराठा गठबंधन को स्वीकार करने वाले महाराणा जगत सिंह की मृत्यु के बाद, बीस साल की अवधि में सिंहासन पर तीन युवा शासक आए। शासकों की अनुभवहीनता ने प्रभाव हासिल करने के लिए कुलीनों के बीच गुटबाजी को बढ़ावा दिया। अरिसिंह ने उन्हें एक जागीर दी और अपनी चचेरी बहन की शादी कर दी।
इस बीच कोटा में इसके योग्य प्रशासक जालिम सिंह के चले जाने के बाद हालात बेकाबू हो गए और इसके शासक गुमान सिंह को जालिमसिंह झाला को वापस बुलाकर उसकी स्थिति बहाल करनी पड़ी। इसके कुछ समय बाद 1771 में, गुमान सिंह की मृत्यु हो गई, उन्होंने अपने दस वर्षीय बेटे उम्मेदसिंह की कस्टडी जालिम सिंह को दे दी थी।
जालिमसिंह झाला अब कोटा का वास्तविक शासक था। लेकिन यह कोई आसान काम नहीं था। वास्तव में कोटा उसके समय में प्रशासन के लिए सबसे खराब जगह थी। मराठा शक्ति के उदय ने इस राज्य को अधीनता में ले लिया था, जो निरंतर दुख की स्थिति थी। पेशवा ने इसे सिंधिया और होल्कर को सौंप दिया था, जिनमें से प्रत्येक अधिकतम शोषण करने के लिए एक दूसरे से होड़ कर रहा था। लेकिन जालिमसिंह की चतुराई, धैर्य, राजनीतिज्ञता, चपलता और दूरदर्शिता के बिना, राज्य के निवासियों ने बहुत पहले ही राज्य को छोड़ दिया होता। जालिम सिंह ने मराठों और उनके सहयोगियों पिंडारियों द्वारा लूट, तबाही और अत्याचार की स्थिति का सामना किया और राज्य को ईआईसी के सुरक्षा जाल में पहुँचाया
उस समय से जालिम सिंह प्रभावी रूप से कोटा के वास्तविक शासक बन गए। उन्होंने अपने युवा राजा महाराव उम्मेद सिंह प्रथम के वयस्क होने पर भी सत्ता नहीं छोड़ी, और राज्य पर शासन करते रहे। वे कोटा के राव पर आसानी से हावी हो गए और उन्हें एक वस्तुतः नगण्य की स्थिति में ला दिया। यह परिस्थिति जितनी दुर्भाग्यपूर्ण थी, उतना ही यह भी सच है कि जालिम सिंह एक उत्कृष्ट प्रशासक और चतुर वार्ताकार थे। उनके प्रशासन के तहत, जो पैंतालीस वर्षों से अधिक समय तक चला, राज्य ने समृद्धि की पराकाष्ठा प्राप्त की और अपने सभी पड़ोसियों द्वारा इसका अच्छा सम्मान किया गया। इन्हीं वर्षों के दौरान कोटा ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ संधि संबंध भी बनाए। जालिम सिंह ने अंग्रेजों के साथ बेहतरीन व्यक्तिगत संबंध स्थापित किए। 1750 के दशक में होलकर राज्य में जिन क्षेत्रों से 74 लाख रुपये का राजस्व प्राप्त होता था, होलकर दरबार के कुलीनों के अधीन केवल 6 लाख रुपये प्राप्त हुए, जबकि जालिम सिंह के इजरदारी के अधीन तीन जिलों से 13 लाख रुपये का राजस्व प्राप्त हुआ। जिससे होलकर राजपरिवार का भरण-पोषण होता रहा और वह गरीबी से बचा रहा। पिछले शासकों के अधीन कोटा राज्य से 15 लाख रुपये से भी कम राजस्व प्राप्त हुआ, जबकि जालिम सिंह कोटा के अधीन 55 लाख रुपये प्राप्त हुए (टॉड : एनल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजपूताना)।
इन उपलब्धियों का दूसरा पहलू यह था कि जालिम सिंह ने खुद कोटा के युवा राजा, अपने नाममात्र के अधिपति से कहीं अधिक सम्मान का दर्जा प्राप्त किया और अंग्रेजों के साथ उस तरह का प्रभाव प्राप्त किया जो कोटा के राजा के पास नहीं था। अंग्रेजों के साथ इस प्रभाव के कारण ही वर्ष 1838 में कोटा के प्रमुख की अनिच्छा से सहमति से राज्य को विभाजित करने और एक नई रियासत बनाने का संकल्प लिया गया, जिस पर जालिम सिंह के वंशजों का शासन होगा। जबकि कई दशकों तक जालिम सिंह के परिवार ने कोटा राज्य की जागीर में बड़ी जागीरें रखी थीं और दरबार में महत्वपूर्ण पदों पर रहे थे, अब उन्हें राजसी पद दिए जाने थे और वे अपने राज्य के शासक बन गए थे। झालावाड़ राज्य इसी तरह बनाया गया था और इसका नाम इस तथ्य के सम्मान में पड़ा कि जालिम सिंह राजपूतों के झाला वंश से थे जो चंद्रवंशी थे। इस तरह कोटा से अलग किए गए जिले कोटा की आय का एक तिहाई (£120,000) प्रतिनिधित्व करते थे। संधि के द्वारा, नए शाही परिवार ने ब्रिटिशों की अधीनता स्वीकार कर ली और £8000 का वार्षिक कर देने पर सहमत हो गया। जालिम सिंह के पोते मदनसिंह को प्रमुख बनाया गया क्योंकि उनके पिता माधो सिंह की मृत्यु उनके दादा के जीवनकाल में ही हो गई थी और उन्हें महाराज राणा की उपाधि मिली थी। उन्हें राजपूताना के अन्य प्रमुखों के समान दर्जा दिया गया था ।
स्वतंत्र झालावाड़ के पहले शासक महाराज राणा मदनसिंह की मृत्यु वर्ष 1845 में हुई थी। उनके पैतृक वंश यानी वधावन के वंशज को महाराज राणा पृथ्वीराज सिंह ने गोद लिया था, जिन्होंने 1875 में झालावाड़ के प्रमुख बनने पर जालिमसिंह द्वितीय नाम रखा। वह नाबालिग थे और उन्हें 1884 तक शासन करने की शक्तियाँ नहीं दी गई थीं। उनके कुशासन के कारण, ब्रिटिश सरकार के साथ उनके संबंध तनावपूर्ण हो गए और अंततः वर्ष 1896 में उन्हें "लगातार कुशासन के कारण और शासक प्रमुख की शक्तियों के लिए अयोग्य साबित होने के कारण" पदच्युत कर दिया गया। वह 2,000 पाउंड की पेंशन पर वाराणसी में रहने चले गए और प्रशासन को ब्रिटिश रेजिडेंट के हाथों में सौंप दिया गया।
बहुत विचार-विमर्श के बाद, अंग्रेजों ने 1897 में राज्य को तोड़ने का फैसला किया, कोटा को बड़ा हिस्सा वापस कर दिया, लेकिन शाहाबाद और चौमहला के दो जिलों को मिलाकर 810 वर्ग मील (2,100 किमी) का एक नया राज्य बनाया, जो 1899 में अस्तित्व में आया और जिसका प्रमुख मूल जालिम सिंह प्रथम के वंशज कुंवर भवानीसिंह को नियुक्त किया गया। 1901 में राज्य की जनसंख्या 90,175 थी, जिसका अनुमानित राजस्व £26,000 और कर £2,000 था।
घनश्यामसिंह राजवी चंगोई
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